रविवार, 30 नवंबर 2014

हिन्दी व्याकरण




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हिंदी व्याकरण हिंदी भाषा को शुद्ध रूप से लिखने और बोलने संबंधी नियमों का बोध कराने वाला शास्त्र है। यह हिंदी भाषा के अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें हिंदी के सभी स्वरूपों को चार खंडों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है। इसमें वर्ण विचार के अंतर्गत वर्ण और ध्वनि पर विचार किया गया है तो शब्द विचार के अंतर्गत शब्द के विविध पक्षों से संबंधित नियमों पर विचार किया गया है। वाक्य विचार के अंतर्गत वाक्य संबंधी विभिन्न स्थितियों एवं छंद विचार में साहित्यिक रचनाओं के शिल्पगत पक्षों पर विचार किया गया है।

वर्ण विचार

वर्ण विचार हिंदी व्याकरण का पहला खंड है जिसमें भाषा की मूल इकाई वर्ण और ध्वनि पर विचार किया जाता है। इसके अंतर्गत हिंदी के मूल अक्षरों की परिभाषा, भेद-उपभेद, उच्चारण संयोग, वर्णमाला, आदि नियमों का वर्णन होता है।

वर्ण

हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है। देवनागरी वर्णमाला में कुल ५२ वर्ण हैं, जिनमें से १६ स्वर हैं और ३६ व्यंजन

स्वर

हिन्दी भाषा में मूल रूप से ग्यारह स्वर होते हैं। ये ग्यारह स्वर निम्नलिखित हैं।
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ आदि।
हिन्दी भाषा में को आधा स्वर (अर्धस्वर) माना जाता है, अतः इसे स्वर में शामिल किया गया है।
हिन्दी भाषा में प्रायः और का प्रयोग नहीं होता। अं और अः को भी स्वर में नहीं गिना जाता।
इसलिये हम कह सकते हैं कि हिन्दी में 11 स्वर होते हैं। यदि ऍ, ऑ नाम की विदेशी ध्वनियों को शामिल करें तो हिन्दी में 11+2=13 स्वर होते हैं, फिर भी 11 स्वर हिन्दी में मूलभूत हैं.
  • अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ऍ ऑ (हिन्दी में का प्रयोग प्रायः नहीं होता तथा ऍ ऑ का प्रयोग विदेशी ध्वनियों को दर्शाने के लिए होता है।)

शब्द विचार

शब्द विचार हिंदी व्याकरण का दूसरा खंड है जिसके अंतर्गत शब्द की परिभाषा, भेद-उपभेद, संधि, विच्छेद, रूपांतरण, निर्माण आदि से संबंधित नियमों पर विचार किया जाता है।

शब्द

शब्द वर्णों या अक्षरों के सार्थक समूह को कहते हैं।
उदाहरण के लिए क, म तथा ल के मेल से 'कमल' बनता है जो एक खास किस्म के फूल का बोध कराता है। अतः 'कमल' एक शब्द है
कमल की ही तरह 'लकम' भी इन्हीं तीन अक्षरों का समूह है किंतु यह किसी अर्थ का बोध नहीं कराता है। इसलिए यह शब्द नहीं है।
व्याकरण के अनुसार शब्द दो प्रकार के होते हैं- विकारी और अविकारी या अव्यय। विकारी शब्दों को चार भागों में बाँटा गया है- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया। अविकारी शब्द या अव्यय भी चार प्रकार के होते हैं- क्रिया विशेषण, संबन्ध बोधक, संयोजक और विस्मयादि बोधक इस प्रकार सब मिलाकर निम्नलिखित 8 प्रकार के शब्द-भेद होते हैं:

संज्ञा

किसी भी स्थान, व्यक्ति, वस्तु आदि का नाम बताने वाले शब्द को संज्ञा कहते हैं। उदाहरण -
राम, भारत, हिमालय, गंगा, मेज़, कुर्सी, बिस्तर, चादर, शेर, भालू, साँप, बिच्छू आदि।
संज्ञा के भेद-
सज्ञा के कुल ६ भेद बताये गए हैं-
  • १- व्यक्तिवाचक: राम, भारत, सूर्य आदि।
  • २-जातिवाचक: बकरी, पहाड़, कंप्यूटर आदि।
  • ३-समूह वाचक: कक्षा, बारात, भीड़, झुंड आदि।
  • ४-द्रव्यवाचक: पानी, लोहा, मिट्टी, खाद या उर्वरक आदि।
  • ५-संख्यावाचक: दर्जन, जोड़ा, पांच, हज़ार आदि।
  • ६-भाववाचक : ममता, बुढापा आदि।

सर्वनाम

संज्ञा के बदले में आने वाले शब्द को सर्वनाम कहते हैं। उदाहरण -
मैं, तुम, आप, वह, वे आदि।
संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते है। संज्ञा की पुनरुक्ति न करने के लिए सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है। जैसे - मैं, तू, तुम, आप, वह, वे आदि।
  • सर्वनाम सार्थक शब्दों के आठ भेदों में एक भेद है।
  • व्याकरण में सर्वनाम एक विकारी शब्द है।
सर्वनाम के भेद
सर्वनाम के छह प्रकार के भेद हैं-
  1. पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक) सर्वनाम।
  2. निश्चयवाचक सर्वनाम।
  3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम।
  4. संबन्धवाचक सर्वनाम।
  5. प्रश्नवाचक सर्वनाम।
  6. निजवाचक सर्वनाम।
पुरुषवाचक सर्वनाम
जिस सर्वनाम का प्रयोग वक्ता या लेखक द्वारा स्वयं अपने लिए अथवा किसी अन्य के लिए किया जाता है, वह 'पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक्) सर्वनाम' कहलाता है। पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक) सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं-
  • उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला स्वयं के लिए करता है, उसे उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम कहा जाता है। जैसे - मैं, हम, मुझे, हमारा आदि।
  • मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला श्रोता के लिए करे, उसे मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे - तुम, तुझे, तुम्हारा आदि।
  • अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला श्रोता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के लिए करे, उसे अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- वह, वे, उसने, यह, ये, इसने, आदि।
निश्चयवाचक सर्वनाम
जो (शब्द) सर्वनाम किसी व्यक्ति, वस्तु आदि की ओर निश्चयपूर्वक संकेत करें वे निश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- ‘यह’, ‘वह’, ‘वे’ सर्वनाम शब्द किसी विशेष व्यक्ति का निश्चयपूर्वक बोध करा रहे हैं, अतः ये निश्चयवाचक सर्वनाम हैं।
उदाहरण-
  • यह पुस्तक सोनी की है
  • ये पुस्तकें रानी की हैं।
  • वह सड़क पर कौन आ रहा है।
  • वे सड़क पर कौन आ रहे हैं।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम
जिन सर्वनाम शब्दों के द्वारा किसी निश्चित व्यक्ति अथवा वस्तु का बोध न हो वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- ‘कोई’ और ‘कुछ’ आदि सर्वनाम शब्द। इनसे किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु का निश्चय नहीं हो रहा है। अतः ऐसे शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
उदाहरण-
  • द्वार पर कोई खड़ा है।
  • कुछ पत्र देख लिए गए हैं और कुछ देखने हैं।
संबन्धवाचक सर्वनाम
परस्पर सबन्ध बतलाने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है उन्हें संबन्धवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- ‘जो’, ‘वह’, ‘जिसकी’, ‘उसकी’, ‘जैसा’, ‘वैसा’ आदि।
उदाहरण-
  • जो सोएगा, सो खोएगा; जो जागेगा, सो पावेगा।
  • जैसी करनी, तैसी पार उतरनी।
प्रश्नवाचक सर्वनाम
जो सर्वनाम संज्ञा शब्दों के स्थान पर भी आते है और वाक्य को प्रश्नवाचक भी बनाते हैं, वे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- क्या, कौन आदि।
उदाहरण-
  • तुम्हारे घर कौन आया है?
  • दिल्ली से क्या मँगाना है?
निजवाचक सर्वनाम
जहाँ स्वयं के लिए ‘आप’, ‘अपना’ अथवा ‘अपने’, ‘आप’ शब्द का प्रयोग हो वहाँ निजवाचक सर्वनाम होता है। इनमें ‘अपना’ और ‘आप’ शब्द उत्तम, पुरुष मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष के (स्वयं का) अपने आप का ज्ञान करा रहे शब्द हें जिन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं।
विशेष-
जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग श्रोता के लिए हो वहाँ यह आदर-सूचक मध्यम पुरुष होता है और जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग अपने लिए हो वहाँ निजवाचक होता है।
उदाहरण-
  • राम अपने दादा को समझाता है।
  • श्यामा आप ही दिल्ली चली गई।
  • राधा अपनी सहेली के घर गई है।
  • सीता ने अपना मकान बेच दिया है।
सर्वनाम शब्दों के विशेष प्रयोग
  • आप, वे, ये, हम, तुम शब्द बहुवचन के रूप में हैं, किन्तु आदर प्रकट करने के लिए इनका प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी किया जाता है।
  • ‘आप’ शब्द स्वयं के अर्थ में भी प्रयुक्त हो जाता है। जैसे- मैं यह कार्य आप ही कर लूँगा।

विशेषण

संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताने वाले शब्द को विशेषण कहते हैं। उदाहरण -
'हिमालय एक विशाल पर्वत है।' यहाँ "विशाल" शब्द "हिमालय" की विशेषता बताता है इसलिए वह विशेषण है।
विशेषण के भेद
  1. संख्यावाचक विशेषण
दस लड्डू चाहिए।
  1. परिमाणवाचक विशेषण
एक किलो चीनी दीजिए।
  1. गुणवाचक विशेषण
हिमालय विशाल पर्वत है
  1. सार्वनामिक विशेषण
कमला मेरी बहन है।

क्रिया

कार्य का बोध कराने वाले शब्द को क्रिया कहते हैं। उदाहरण -
आना, जाना, होना, पढ़ना, लिखना, रोना, हंसना, गाना आदि।
क्रियाएं दो प्रकार की होतीं हैं-
  • १-सकर्मक क्रिया,
  • २-अकर्मक क्रिया।
सकर्मक क्रिया: जिस क्रिया में कोई कर्म (ऑब्जेक्ट) होता है उसे सकर्मक क्रिया कहते हैं। उदाहरण - खाना, पीना, लिखना आदि।
बन्दर केला खाता है। इस वाक्य में 'क्या' का उत्तर 'केला' है।
अकर्मक क्रिया: इसमें कोई कर्म नहीं होता। उदाहरण - हंसना, रोना आदि। बच्चा रोता है। इस वाक्य में 'क्या' का उत्तर उपलब्ध नहीं है।
क्रिया का लिंग एवं काल:
क्रिया का लिंग कर्ता के लिंग के अनुसार होता है। उदाहरण - रोना : लड़का रोता है। लड़की रोती है। लड़का रोता था। लड़की रोती थी। लड़का रोएगा। लडकी रोएगी।
मुख्य क्रिया के साथ आकर काम के होने या किए जाने का बोध कराने वाली क्रियाएं सहायक क्रियाएं कहलाती हैं। जैसे - है, था, गा, होंगे आदि शब्द सहायक क्रियाएँ हैं।
सहायक क्रिया के प्रयोग से वाक्य का अर्थ और अधिक स्पष्ट हो जाता है। इससे वाक्य के काल का तथा कार्य के जारी होने, पूर्ण हो चुकने अथवा आरंभ न होने कि स्थिति का भी पता चलता है। उदाहरण - कुत्ता भौंक रहा है। (वर्तमान काल जारी)। कुत्ता भौंक चुका होगा। (भविष्य काल पूर्ण)।

क्रिया विशेषण

किसी भी क्रिया की विशेषता बताने वाले शब्द को क्रिया विशेषण कहते हैं। उदाहरण -
'मोहन मुरली की अपेक्षा कम पढ़ता है।' यहाँ "कम" शब्द "पढ़ने" (क्रिया) की विशेषता बताता है इसलिए वह क्रिया विशेषण है।
'मोहन बहुत तेज़ चलता है।' यहाँ "बहुत" शब्द "चलना" (क्रिया) की विशेषता बताता है इसलिए यह क्रिया विशेषण है।
'मोहन मुरली की अपेक्षा बहुत कम पढ़ता है।' यहाँ "बहुत" शब्द "कम" (क्रिया विशेषण) की विशेषता बताता है इसलिए वह क्रिया विशेषण है।
क्रिया विशेषण के भेद:
  • 1. रीतिवाचक क्रिया विशेषण : मोहन ने अचानक कहा।
  • 2. कालवाचक क्रिया विशेषण :' मोहन ने कल कहा था।
  • 3. स्थानवाचक क्रिया विशेषण : मोहन यहाँ आया था।
  • 4. परिमाणवाचक क्रिया विशेषण : मोहन कम बोलता है।

समुच्चय बोधक

दो शब्दों या वाक्यों को जोड़ने वाले संयोजक शब्द को समुच्चय बोधक कहते हैं। उदाहरण -
'मोहन और सोहन एक ही शाला में पढ़ते हैं।' यहाँ "और" शब्द "मोहन" तथा "सोहन" को आपस में जोड़ता है इसलिए यह संयोजक है।
'मोहन या सोहन में से कोई एक ही कक्षा कप्तान बनेगा।' यहाँ "या" शब्द "मोहन" तथा "सोहन" को आपस में जोड़ता है इसलिए यह संयोजक है।

विस्मयादि बोधक

विस्मय प्रकट करने वाले शब्द को विस्मायादिबोधक कहते हैं। उदाहरण -
अरे! मैं तो भूल ही गया था कि आज मेरा जन्म दिन है। यहाँ "अरे" शब्द से विस्मय का बोध होता है अतः यह विस्मयादिबोधक है।

पुरुष


एकवचन बहुवचन
उत्तम पुरुष मैं हम
मध्यम पुरुष तुम तुम लोग / तुम सब
अन्य पुरुष यह ये
वह वे / वे लोग
आप आप लोग / आप सब
हिन्दी में तीन पुरुष होते हैं-
  • उत्तम पुरुष- मैं, हम
  • मध्यम पुरुष - तुम, आप
  • अन्य पुरुष- वह, राम आदि
उत्तम पुरुष में मैं और हम शब्द का प्रयोग होता है, जिसमें हम का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनों के रूप में होता है। इस प्रकार हम उत्तम पुरुष एकवचन भी है और बहुवचन भी है।
मिसाल के तौर पर यदि ऐसा कहा जाए कि "हम सब भारतवासी हैं", तो यहाँ हम बहुवचन है और अगर ऐसा लिखा जाए कि "हम विद्युत के कार्य में निपुण हैं", तो यहाँ हम एकवचन के रुप में भी है और बहुवचन के रूप में भी है। हमको सिर्फ़ तुमसे प्यार है - इस वाक्य में देखें तो, "हम" एकवचन के रुप में प्रयुक्त हुआ है।
वक्ता अपने आपको मान देने के लिए भी एकवचन के रूप में हम का प्रयोग करते हैं। लेखक भी कई बार अपने बारे में कहने के लिए हम शब्द का प्रयोग एकवचन के रुप में अपने लेख में करते हैं। इस प्रकार हम एक एकवचन के रुप में मानवाचक सर्वनाम भी है।

वचन

हिन्दी में दो वचन होते हैं:
  • एकवचन- जैसे राम, मैं, काला, आदि एकवचन में हैं।
  • बहुवचन- हम लोग, वे लोग, सारे प्राणी, पेड़ों आदि बहुवचन में हैं।

लिंग

हिन्दी में सिर्फ़ दो ही लिंग होते हैं: स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। कोई वस्तु या जानवर या वनस्पति या भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग, इसका ज्ञान अभ्यास से होता है। कभी-कभी संज्ञा के अन्त-स्वर से भी इसका पता चल जाता है।
  • पुल्लिंग- पुरुष जाति के लिए प्रयुक्त शब्द पुल्लिंग में कहे जाते हैं। जैसे - अजय, बैल, जाता है आदि
  • स्त्रीलिंग- स्त्री जाति के बोधक शब्द जैसे- निर्मला, चींटी, पहाड़ी, खेलती है, काली बकरी दूध देती है आदि।

कारक

८ कारक होते हैं।
कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, संबन्ध, अधिकरण, संबोधन।
किसी भी वाक्य के सभी शब्दों को इन्हीं ८ कारकों में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरण- राम ने अमरूद खाया। यहाँ 'राम' कर्ता है, 'अमरूद' कर्म है।
दो वस्तुओं के मध्य संबन्ध बताने वाले शब्द को संबन्धकारक कहते हैं। उदाहरण -
'यह मोहन की पुस्तक है।' यहाँ "की" शब्द "मोहन" और "पुस्तक" में संबन्ध बताता है इसलिए यह संबन्धकारक है।

उपसर्ग

वे शब्द जो किसी दूसरे शब्द के आरम्भ में लगाये जाते हैं। इनके लगाने से शब्दों के अर्थ परिवर्तन या विशिष्टता आ सकती है। प्र+ मोद = प्रमोद, सु + शील = सुशील
उपसर्ग प्रकृति से परतंत्र होते हैँ। उपसर्ग चार प्रकार के होते हैँ -
  • 1) संस्कृत से आए हुए उपसर्ग,
  • 2) कुछ अव्यय जो उपसर्गों की तरह प्रयुक्त होते है,
  • 3) हिन्दी के अपने उपसर्ग (तद्भव),
  • 4) विदेशी भाषा से आए हुए उपसर्ग।

प्रत्यय

वे शब्द जो किसी शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं, उन्हें प्रत्यय (प्रति + अय = बाद में आने वाला) कहते हैं। जैसे- गाड़ी + वान = गाड़ीवान, अपना + पन = अपनापन

संधि

दो शब्दों के पास-पास होने पर उनको जोड़ देने को सन्धि कहते हैं। जैसे- सूर्य + उदय = सूर्योदय, अति + आवश्यक = अत्यावश्यक, संन्यासी = सम् + न्यासी

समास

दो शब्द आपस में मिलकर एक समस्त पद की रचना करते हैं। जैसे-राज+पुत्र = राजपुत्र, छोटे+बड़े = छोटे-बड़े आदि
समास छ: होते हैं:
द्वन्द, द्विगु, तत्पुरुष, कर्मधारय, अव्ययीभाव और बहुब्रीहि ।

वाक्य विचार

वाक्य विचार हिंदी व्याकरण का तीसरा खंड है जिसमें वाक्य की परिभाषा, भेद-उपभेद, संरचना आदि से संबंधित नियमों पर विचार किया जाता है।

वाक्य

शब्दों के समूह को जिसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है, वाक्य कहते हैं। वाक्य के दो अनिवार्य तत्त्व होते हैं-
  1. उद्देश्य और
  2. विधेय
जिसके बारे में बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं और जो बात की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए मोहन प्रयाग में रहता है। इसमें उद्देश्य- मोहन है और विधेय है- प्रयाग में रहता है। वाक्य भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-
१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-
१-विधान वाचक वाक्य, २- निषेधवाचक वाक्य, ३- प्रश्नवाचक वाक्य, ४- विस्म्यादिवाचक वाक्य, ५- आज्ञावाचक वाक्य, ६- इच्छावाचक वाक्य, ७- संदेहवाचक वाक्य।

काल

वाक्य तीन काल में से किसी एक में हो सकते हैं:
वर्तमान काल जैसे मैं खेलने जा रहा हूँ।
भूतकाल जैसे 'जय हिन्द' का नारा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दिया था और
भविष्य काल जैसे अगले मंगलवार को मैं नानी के घर जाउँगा।
वर्तमान काल के तीन भेद होते हैं- सामान्य वर्तमान काल, संदिग्ध वर्तमानकाल तथा अपूर्ण वर्तमान काल।
भूतकाल के भी छे भेद होते हैं समान्य भूत, आसन्न भूत, पूर्ण भूत, अपूर्ण भूत, संदिग्ध भूत और हेतुमद भूत।
भविष्य काल के दो भेद होते हैं- सामान्य भविष्यकाल और संभाव्य भविष्यकाल।

पदबंध

छन्द विचार

छन्द विचार हिंदी व्याकरण का चौथा खंड है जिसके अंतर्गत वाक्य के साहित्यिक रूप में प्रयुक्त होने से संबंधित विषयों वर विचार किया जाता है। इसमें छंद की परिभाषा, प्रकार आदि पर विचार किया जाता है।

यह भी देखे

बाहरी कड़ियाँ

वाक्यविन्यास





प्रस्तुति-- ममता शरण



किसी भाषा में जिन सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं के द्वारा वाक्य बनते हैं, उनके अध्ययन को भाषा विज्ञान में वाक्यविन्यास, 'वाक्यविज्ञान' या सिन्टैक्स (syntax) कहते हैं। वाक्य के क्रमबद्ध अध्ययन का नाम 'वाक्यविज्ञान' कहते हैं। वाक्य विज्ञान, पदों के पारस्परिक संबंध का अध्ययन है। वाक्य भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति वाक्यों के माधयम से ही करता है। अतः वाक्य भाषा की लघुतम पूर्ण इकाई है।

वाक्यविज्ञान का स्वरूप

वाक्य विज्ञान के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का विचार किया जाता है- वाक्य की परिभाषा, वाक्यों और भाषा के अन्य अग् का सम्बन्धा, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पदों का क्रम, वाक्यों में परिवर्तन के कारण आदि।
वाक्य विज्ञान के स्वरूप के विषय में डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी ने विस्तार से विवेचन किया है। उनका मत इस प्रकार हैः-
वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त विभिन्न पदों के परस्पर संबन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इन सभी विषयों का समावेश हो जाता है- वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटस्थ अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएँ, परिवर्तन के कारण, पदिम (Taxeme) आदि। इस प्रकार वाक्य-विज्ञान में वाक्य से संबद्ध सभी तत्वों का विवेचन किया जाता है।
पदविज्ञान और वाक्य-विज्ञान में अन्तर यह है कि पद-विज्ञान में पदों की रचना का विवेचन होता है। अतः उसमें पद विभाजन (संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि), कारक, विभक्ति, वचन, लिंग, काल, पुरुष आदि के बोधाक शब्द किस प्रकार बनते हैं, इस पर विचार किया जाता है। वाक्य-विज्ञान उससे अगली कोटि है। इसमें पूर्वाेक्त विधि से बने हुए पदों का कहाँ, किस प्रकार से रखने से अर्थ में क्या अन्तर होता है, आदि विषयों का विवेचन है। धवनि निर्मापक तत्त्व हैं। जैसे मिट्टी, कपास आदि; पद बने हुए वे तत्त्व हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है, जैसे- ईंट, वस्त्रा आदि; वाक्य वह रूप है, जो वास्तविक रूप में प्रयोग में आता है, जैसे- मकान, सिले वस्त्रा आदि। पद ईंट है तो वाक्य मकान या भवन।
तात्त्विक दृष्टि से ध्वनि, पद और वाक्य में मौलिक अन्तर है। धवनि मूलतः उच्चारण से संबद्ध है। या शारीरिक व्यापार से उत्पन्न होती है, अतः ध्वनि में मुख्यतया शारीरिक व्यापार प्रधान है। पद में ध्वनि और सार्थकता दोनों का समन्वय है। ध्वनि शारीरिक पक्ष है और सार्थकता मानसिक पक्ष है। पद में शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्वों के समन्वय से वह वाक्य में प्रयोग के योग्य बन जाता है। सार्थकता का संबन्ध विचार से है। विचार मन का कार्य है, अतः पद में मानसिक व्यापार भी है। वाक्य में विचार, विचारों का समन्वय, सार्थक एवं समन्वित रूप में अभिव्यक्ति, ये सभी कार्य विचार और चिन्तन से संबद्ध है, अतः मानसिक कार्य है। वाक्य में मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक पक्ष मुख्य होता है। विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से होती है, अतः वाक्य ही भाषा का सूक्ष्मतम सार्थक इकाई माना जाता है। इनका भेद इस प्रकार भी प्रकट किया जा सकता है-
  • 1. धवनि : उच्चारण से संबद्ध है, शारीरिक तत्त्व मुख्य है, प्राकृतिक तत्त्व की प्रधानता के कारण प्रकृति के तुल्य ‘सत्’ है।
  • 2. पद : इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्व हैं, सत् के साथ चित् भी है, अतः ‘सच्चित्’ रूप है।
  • 3. वाक्य : मानसिक पक्ष की पूर्ण प्रधानता के कारण भाषा का अभिव्यक्त रूप है, अतः ‘आनन्द’ रूप या ‘सच्चिदानन्द’ रूप है। वाक्य ही सार्थकता के कारण रसरूप या आनन्दरूप होता है। भावानुभूति, रसानुभूति या आनन्दानुभूति का साधान वाक्य ही है। वाक्य सत्, चित्, आनन्द का समन्वित रूप है, अतः दार्शनिक भाषा में इसे ‘सच्चिदानन्द’ कह सकते हैं

बाहरी कड़ियाँ

शनिवार, 29 नवंबर 2014

प्रेमचंद / और इस तरह बन गए मुंशी प्रेमचंद






डॉ. जगदीश व्योम

प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है।

सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ उपनाम या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके। उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है।
उपनाम या तख़ल्लुस से तो बहुत से कवि और लेखक जाने जाते हैं, किन्तु 'मुंशी' प्रेमचंद का उपनाम या तखल्लुस नहीं था। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि 'प्रेमचंद' के नाम के साथ 'मुंशी' का क्या संबंध था। यह शब्द आखिर जुड़ा कैसे? क्या प्रेमचंद ने कभी मुंशी का काम किया या यह उपाधि उनके परिवार में पिता या पितामह से उनके पास विरासत में हस्तांतरित हुई। साथ ही प्रेमचंद का मूल नाम क्या था और वह बदल कर प्रेमचंद कैसे हो गया? प्रेमचंद के नाम के साथ 'उपन्यास सम्राट' का एक और विशेषण भी जुड़ा हुआ है। यह सब नाम और उपाधियाँ प्रेमचंद के साथ कैसे जुड़ गए- इसके पीछे कुछ रोचक घटनाएं हैं।
'प्रेमचंद' का वास्तविक नाम 'धनपत राय' था। 'नबावराय' नाम से वे उर्दू में लिखते थे। उनकी 'सोज़े वतन' (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर ली थीं। सरकारी कोप से बचने के लिए उर्दू अखबार "ज़माना" के संपादक मुंशी दया नारायण निगम ने नबाव राय के स्थान पर 'प्रेमचंद' उपनाम सुझाया। यह नाम उन्हें इतना पसंद आया कि 'नबाव राय' के स्थान पर वे 'प्रेमचंद' हो गए।
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी का एक प्रेस कलकत्ता में था, जिसका नाम 'वणिक प्रेस' था। इसके मुद्रक थे 'महाबीर प्रसाद पोद्दार'। वे प्रेमचंद की रचनाएँ बंगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन शरत बाबू से मिलने के लिए पोद्दार जी उनके घर पर गए। उन्होंने देखा कि शरत बाबू, प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे। जो बीच में खुला हुआ था। कौतूहलवश पोद्दार जी ने उसे उठा कर देखा कि उपन्यास के एक पृष्ठ पर शरत बाबू ने 'उपन्यास सम्राट" लिख रखा है। बस, यहीं से पोद्दार जी ने प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार धनपत राय से 'प्रेमचंद' तथा 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' हुए।
प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु मैंने प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृत राय जी को एक पत्र लिखकर इस विषय में उनकी राय जाननी चाही। अमृतराय जी ने कृपा कर मेरे पत्र का उत्तर दिया। जो इस प्रकार है-
अमृत राय जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी 'मुंशी जी' कहा जाता था। इसका साक्षी है प्रेमचंद से संबंधित साहित्य।
इस सम्बन्ध में प्रेमचंद की धर्म पत्नी 'शिवरानी देवी' की पुस्तक 'प्रेमचंद घर में' में प्रेमचंद से संबंधित सभी घरेलू बातों की चर्चा शिवरानी देवी ने की है। पूरी पुस्तक में कहीं भी प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' का प्रयोग नहीं होता था, और न ही सम्मान स्वरूप लोग उन्हें 'मुंशी' ही कहते थे, अन्यथा शिवरानी देवी प्रेमचंद के लिए कहीं न कहीं 'मुंशी' विशेषण का प्रयोग अवश्य करतीं। क्योंकि इसी पुस्तक में उन्होंने दया नारायण जी के लिए मुंशी जी शब्द का प्रयोग कई बार किया है, परन्तु प्रेमचंद के लिए कहीं भी नहीं।
एक उदाहरण देखें-
"आप बीमार पड़े। मुझसे बोले-
हंस की जमानत तुम जमा करवा दो। मैं अच्छा हो जाने पर उसे संभाल लूंगा।
उनकी बीमारी से मैं खुद परेशान थी, उस पर 'हंस' की उनको इतनी फिक्र। मैं बोली, अच्छे हो जाइए, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
आप बोले, "नहीं दाखिल करा दो। रहूँ या न रहूँ "हंस" चलेगा ही। यह मेरा स्मारक होगा।"
मेरा गला भर आया। हृदय थर्रा गया। मैंने जमानत के रुपये जमा करवा दिए। आपने समझा शायद धुन्नू, (अमृत राय घरेलू नाम) जमानत न करा पाए। दयानारायण जी निगम को तार दिया। वे आये। पहले बड़ी देर तक उन्हें पकड़ कर वे (प्रेमचंद) रोते रहे। वे भी रोते थे, मैं भी रोती थी, और मुंशी जी भी रोते थे। मुंशी जी ने कई बार रोकने की चेष्टा की, पर आप बोले, 'भाई शायद अब भेंट न हो। अब तुमसे सब बातें कह देना चाहता हूं। तुमको बुलवाया है, हंस की जमानत करवा दो।"(प्रेमचंद घर में - शिवरानी देवी, पृष्ठ-70)
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग सम्मान सूचक के अर्थ में कदापि नहीं हुआ है और न ही उनके जीवन काल में उनके नाम के साथ लगाया जाता था। तो फिर यह 'मुंशी' शब्द कब से प्रेमचंद का सानिध्य पा गया और किस लिए?
प्रेमचंद के नाम, जो प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर छापे हैं उनमें क्रमश: 'श्री प्रेमचंद जी' (मानसरोवर प्रथम भाग), 'श्रीयुत प्रेमचंद (सप्त सरोज), 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद धनपतराय (शिलालेख), प्रेमचंद (रंगभूमि), श्रीमान प्रेमचंद जी आदि कृतियों पर कहीं भी 'मुंशी' का प्रयोग नहीं हुआ है।
जब कि श्री, श्रीयुत, उपन्यास सम्राट आदि विशेषणों का प्रयोग हुआ है। यदि प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी" विशेषण का प्रचलन उस समय हो रहा होता तो कहीं न कहीं अवश्य प्रयुक्त होता। मगर मुंशी शब्द का प्रयोग प्रेमचंद जी के साथ कहीं नहीं हुआ है।
प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एकमात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर 'कन्हैयालाल मुंशी' का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था, साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था। हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है।

मुंशी, प्रेमचंद
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। उसे 'प्रेमचंद' और 'मुंशी' के पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। फिर कुछ संयोग ऐसा बना कि भ्रम का पक्ष सबल हो गया, वह ऐसे कि एक तो प्रेमचंद कायस्थ थे, दूसरे अध्यापक भी रहे। कायस्थों और अध्यापकों के लिए 'मुंशी' लगाने की परम्परा भी रही है। यह सब मिला कर जन सामान्य में वे 'मुंशी प्रेमचंद' के नाम से जाने जाने लगे। धीरे-धीरे मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ अच्छी तरह जुड़ गया। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।
(यह लेख भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में छपा है )

सुशीला दीदी



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सुशीला दीदी (५ मार्च १९०५ - १३ जनवरी १९६३) भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक क्रांतिकारी महिला थीं।

जीवन वृत्त

सुशीला दीदी का जन्म पञ्जाबराज्य के गुजरातमण्डल के दन्तो चुहाड़ में ५ मार्च १९०५ को हुआ था। १९२६ में जब वह कॉलेज की पढ़ाई कर रहीं थी, उनमें देश्प्रेम की भावना प्रबल हुई। इसके बाद वे भारत की स्वाधीनता के लिए काम करने वाले क्रांतिकारीी दल में शामिल हो गईं।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

१९२६ ई. में बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी दिये जाने की घटना ने सुशीला को क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर मोड़ दिया। वे भगवती चरण बोहरा के साथ हिन्दुस्तान शोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गईं। सान्डर्स की हत्या के बाद उन्होने भगत सिंह के छिपकर रहने के लिये कोलकाता में एक घर की व्यवस्था की। असेम्बली पर बम फेकने के बाद जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पकड़े गये तो सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी ने मिलकर अन्य क्रांतिकारियों को भाग जाने में सहायता की। १ अक्टूबर १९३१ को उन्होने अन्य के साथ मिलकर यूरोपीय सर्जेण्ट टेलर तथा उसकी पत्नी को गोली मारी और बच निकलीं।
काकोरी काण्ड के कैदियों के मुक़दमे की पैरवी के लिए अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा शादी की ख़ातिर रखा 10 तोला सोना उठाकर दान में दिया।
  • यही नहीं उन्होंने क्रांतिकारियों का केस लड़ने के लिए 'मेवाड़पति' नामक नाटक खेलकर चन्दा भी इकट्ठा किया।
  • सन् 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में 'इन्दुमति' के छद्म नाम से सुशीला दीदी ने भाग लिया और गिरफ्तार हुयीं।
  • इसी प्रकार हसरत मोहानी को जब जेल की सज़ा मिली तो उनके कुछ दोस्तों ने जेल की चक्की पीसने के बजाय उनसे माफी मांगकर छूटने की सलाह दी।
  • इसकी जानकारी जब बेगम हसरत मोहानी को हुई तो उन्होंने पति की जमकर हौसला अफ्ज़ाई की और दोस्तों को नसीहत भी दी।
  • मर्दाना वेष धारण कर उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर भाग लिया और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल में शामिल होने पर गिरफ्तार कर जेल भेज दी गयी, जहाँ उन्होंने चक्की भी पीसी।
  • यही नहीं महिला मताधिकार को लेकर 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में वायसराय से मिलने गये प्रतिनिधिमण्डल में वह भी शामिल थीं।

बाहरी कड़ियाँ

त्र्यंबक रघुनाथ देवगिरिकर





प्रस्तुति--- नीलेश कुमार रानू, रुपेश कुमार 


भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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त्र्यंबक रघुनाथ देवगिरिकर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। इनका जन्म 25 नवंबर, 1896 ई. को हुआ था। इन्होंने देश-प्रेम की भावना से प्रेरित होकर देश की बहुमूल्य सेवा की। त्र्यंबक रघुनाथ ने एक पत्रकार के रूप में अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत की थी। इनकी गिनती महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ताओं में की जाती है। त्र्यंबक रघुनाथ एक अच्छे लेखक के रूप में भी प्रसिद्ध थे, जिनकी रचनाएँ मुख्य रूप से मराठी में हैं।

गाँधी जी का प्रभाव

त्र्यंबक रघुनाथ देवगिरिकर ने 1920 ई. में पुणे से स्नातक करने के बाद अपना पूरा जीवन राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया। आरंभ में उन पर लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले के विचारों का प्रभाव था। 1920 ई. में ही असहयोग आंदोलन आरंभ होने के बाद से त्र्यंबक रघुनाथ पूरी तरह से गांधी जी के प्रभाव में आ गए। पत्रकार के रूप में जीवन आरंभ करने के शीघ्र बाद ही वे आंदोलन में सक्रिय हुए और पुणे में शराब की दुकानों पर धरना देते हुए गिरफ़्तार कर लिए गए। 1930 ई. के नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण भी उन्हें जेल की सज़ा हुई।

कांग्रेस सदस्य

महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ताओं में त्र्यंबक रघुनाथ की पहचान होने लगी थी। वे चार वर्ष तक 'कांग्रेस प्रदेश' के अध्यक्ष, 15 वर्षों तक 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य और तीन वर्ष तक 'कांग्रेस कार्यसमिति' के सदस्य रहे। 1950 ई. से 1962 ई. तक वे राज्यसभा के सदस्य थे। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति गाँधी जी के रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाने में लगा दी। वे गाँधी स्मारक निधि से संबद्ध थे। ‘दलित मुक्ति’ के कार्य को उन्होंने विशेष रूप में अपने हाथ में लिया। देवगिरिकर की गिनती एक अच्छे लेखक के रूप में भी की जाते है। उन्होंने राजनीतिक और सवैधानिक विषयों पर मराठी भाषा में कई पुस्तकों की रचना की। देशसेवा के निमित्त वे आजीवन अविवाहित रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 367-368 |


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