शनिवार, 31 दिसंबर 2022

रामधारीसिंह 'दिनकर' की कविता

 

 

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    ये नव-वर्ष हमें स्वीकार नहीं 

        

          है अपनी ये तो रीत नहीं,

            है अपना ये व्यवहार नहीं.

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      धरा ठिठुरती है सर्दी से,

        आकाश में कोहरा गहरा है.

           बाग़ बाज़ारों की सरहद पर,

             सर्द हवा का पहरा है.

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      सूना है प्रकृति का आँगन

        कुछ रंग नहीं, उमंग नहीं ..

          हर एक है घर में दुबका हुआ

           नव-वर्ष का ये कोई ढंग नहीं.

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       चंद मास अभी इंतज़ार करो,

         निज मन में तनिक विचार करो.

           नया साल नया कुछ हो तो सही,

             क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही.

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          उल्लास मंद है जन-मन का,

            आयी है अभी बहार नहीं.

              ये नव-वर्ष हमें स्वीकार नहीं,

                 है अपना ये त्यौहार नहीं.

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        ये धुंध कुहासा छंटने दो,

          रातों का राज्य सिमटने दो.

            प्रकृति का रूप निखरने दो,

              फागुन का रंग बिखरने दो.

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       प्रकृति दुल्हन का रूप धार,

         जब स्नेह-सुधा बरसायेगी.

            शस्य-श्यामला धरती माता,

               घर-घर खुशहाली लायेगी.

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       तब चैत्र-शुक्ल की प्रथम तिथि,

         नव-वर्ष मनाया जायेगा.

           'आर्यावर्त' की पुण्य भूमि पर

               जय गान सुनाया जायेगा.

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        युक्ति-प्रमाण से स्वयंसिद्ध,

          नव-वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध.

            आर्यों की कीर्ति सदा-सदा,

              नव-वर्ष चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा.

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    अनमोल विरासत के धनिकों को

          चाहिये कोई उधार नहीं,

   ◆  ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं, ◆

          है अपना ये त्यौहार नहीं.

            है अपनी ये तो रीत नहीं,

        ★  है अपना ये त्यौहार नहीं. ★

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

रवि अरोरा की नजर से.....

 


सन्नाटे का सन्नाटा /  रIवि अरोड़ा  



लगभग दस साल पहले एक मित्र ने अलीगढ़ के अपने पैतृक गांव बरौली भीकमपुर ने मन्दिर बनवाया। बड़ा आयोजन था अतः मैं भी पहुंचा। आलू की सब्जी और कचौड़ी का भंडारा वहां चल रहा था । साथ में बेहद खट्टा बूंदी का रायता भी था । रायता क्या मिर्च का मजेदार सफेद घोल सा था । पूछने पर पता चला कि यह सन्नाटा है। हालांकि सन्नाटे के बाबत सुना तो बहुत था मगर हलक के नीचे उतारने का मौका पहली बार मिला था। दरअसल पूरे बृज क्षेत्र में सन्नाटा खानपान से जुड़ी कोई शय नहीं वरन एक पूरी परम्परा है। मगर अब इसका स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। एक दौर में देहात के किसी के घर दावत होती थी तो गांव के लोग बाग अपने घर से बासी और खट्टा मट्ठा व दही उसे भिजवा देते थे । पूरे गांव से जमा किए गए मट्ठा और दही में चार गुना पानी और भरपूर नमक और लाल मिर्च डाल कर बनाया जाता था यह सन्नाटा। बेहद खट्टा और तीखा यह रायतानुमा पेय पदार्थ तले भोजन को तो हजम करता ही है साथ ही साथ पौष्टिक भी होता है । इसे पीने के बाद आदमी भीतर तक हिल जाता है और उसके मुंह से बोल ही नहीं फूटता । शायद इसी लिए ही इसका नाम सन्नाटा रखा गया होगा । 


वक्त बदला और लोगों के आचार विचार भी । बृज क्षेत्र में सन्नाटा आज भी मौजूद है मगर अब कोई किसी अन्य से दही अथवा मट्ठा नहीं लेता । कोई जबरन दे जाए तो उसे इसमें अपना अपमान लगता है। लोगबाग खुद ही कई दिन तक मट्ठा और दही जमा कर उसे खट्टा करते हैं और फिर दावत में सन्नाटा बना कर सबको परोसते हैं। बुलंदशहर, अलीगढ़ और मथुरा आदि के सैंकड़ों रेस्टोरेंट में आज भी आलू पूड़ी के साथ सन्नाटा मिलता है मगर उसका पुराना स्वरूप तो नदारद ही है। कथित आधुनिकता और मध्यवर्गीय अहंकार ने हमसे जो कुछ छीना है उसमें हमारा आपसी सौहार्द और सामूहिकता का भाव सबसे ऊपर है। अब बारातें घरों में नहीं ठहरतीं सो अड़ोस पड़ोस के घरों से न रजाई कंबल आता है और न उनके यहां अपने मेहमान ठहराए जाते हैं। पड़ोसी तो क्या अब तो सगे बहन भाइयों के यहां भी कटोरी भर सब्जी आदि नहीं भेजी जाती। एक दौर था जब बर्तनों पर गृहस्वामी का नाम लिखवाता जाता था। इसकी जरूरत भी इसलिए होती थी कि खाने पीने के सामान की अदल बदल में घर के आधे बर्तन तो पड़ोसियों के यहां पड़े होते थे । अब किसी बच्चे का स्वेटर उसके पड़ोस की चाची, ताई अथवा मौसी नहीं बुनती। बाहर जाने पर घर की चाबियां पायदान के नीचे बेशक रख दें मगर पड़ोसी को देने से अब हर कोई झिझकता है। न अब महिलाएं धूप सेंकने के बहाने एक दूसरे के आंगन में बैठती हैं और न ही कोई पुरुष किसी पड़ोसी के घर बिना फोन किए जाता है। आधुनिक फ्लैटों में अब तो यह भी किसी को पता नहीं होता कि पड़ोस में भला रहता कौन है ?  कोई अपने ही घर में अकेला मर जाए तब भी लाश के सड़ने से पहले किसी को ख़बर नहीं होती। हो सकता है कि आधुनिक और संपन्न दिखने को यह सभी तमाशे जरूरी होते हों मगर फिर भी अजनबियत के इस सन्नाटे में कभी कभी अलीगढ़ के सन्नाटे जैसी चीजें याद तो आती ही हैं।


गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

नए साल का जश्न / किशोर कुमार कौशल

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        *  *  *  *  *  *  *

 कमाई के पैसे न बेजा गँवाएँ। 

नए साल का जश्न घर में मनाएँ।। 


नए साल में क्या सही हाल होगा? 

 गए साल जैसा नया साल होगा।

वही आदमी का भटकना रहेगा,

वही रोज़ उलझन का जंजाल होगा।


न सड़कों पे भटकें,न होटल में जाएँ, 

नए साल का जश्न घर में मनाएँ।


नया साल यूँ भी हमारा नहीं है। 

नकल ये फिरंगी,गवारा नहीं है। 

युवा आज लाखों-करोड़ों लुटाएँ, 

ये हिन्दोस्ताँ क्या तुम्हारा नहीं  है?


बच्चों की खातिर ही उपहार लाएँ। 

नए साल का जश्न घर में मनाएँ। 


गरीबों की बस्ती में जाकर तो देखें। 

उन्हें आज अपना बनाकर तो देखें।

उमर भर का एहसान होगा तुम्हारा।

मदद के लिए पग बढ़ाकर तो देखें। 


नहीं बार में कोई महफिल सजाएँ। 

नए साल का जश्न घर में मनाएँ।।N

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--- किशोर कुमार कौशल 

  मोबाइल:9899831002

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

रवि अरोड़ा की नजर से .....


 राम सेतु या हमारी अपरिपक्वता  /  रवि अरोड़ा



 यह एक बार फिर साबित हो गया है कि हम एक अपरिपक्व मुल्क हैं। पूरे मुल्क को अपरिपक्व कहने पर यदि आपको एतराज हो तो अपने दावे में संशोधन करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि हमारे तमाम राजनीति दल और उसके नेता अपरिपक्व हैं। अब यदि आपको इस पर भी एतराज़ है तो मुझे अपनी बात पर अड़ना पड़ेगा । अपने इस दावे को सही साबित करने के लिए मुझे उस राम सेतु पर बात करनी पड़ेगी जिसके बाबत अब स्वयं मोदी सरकार ने संसद में लिखित बयान दे दिया है कि राम सेतु के मानव निर्मित होने के कोई सबूत नहीं हैं। 

कमाल की बात देखिए इसी एडम ब्रिज अथवा राम सेतु को भगवान राम द्वारा लंका पर चढ़ाई के लिए बनाया पुल बता कर मनमोहन सिंह नीत यूपीए सरकार का भाजपाइयों ने अरसे तक जीना हराम किए रखा और इतनी अड़चने डालीं कि उसकी सेतु समुद्रम योजना सिरे ही नहीं चढ़ सकी। रोचक तथ्य यह भी है कि इस योजना से देश को अरबों रुपयों का लाभ होगा, यह सोच कर स्वयं भाजपा शिरोमणि अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने यह योजना 2004 में बनाई थी मगर इसका उद्घाटन मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में हुआ तो भाजपा को हिंदुओं की धार्मिक आस्थाएं याद आ गईं।  पिछले नौ सालों से फिर भाजपा की सरकार है और वह भी चाहती है सेतु समुद्रम योजना सिरे चढ़े मगर उसकी पुरानी राजनीतिक खुराफातें ही अब यह उसके गले में हड्डी बन गई हैं।


भारत में धनुषकोटि और श्रीलंका के उत्तर पश्चिम के बीच उभरी 48 किलोमीटर लंबी चूना पत्थर की रेंज के बीच से रास्ता बनाने का विचार सबसे पहले अंग्रेजों के दिमाग में साल 1860 में आया था। करोड़ों साल पुरानी इस रेंज के कारण भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट के बीच का सफ़र पानी के जहाजों को श्रीलंका से घूम कर तय करना पड़ता है। पश्चिमी देशों ही नहीं बांग्लादेश और चीन के साथ व्यापार भी इस रेंज के कारण अधिक खर्चीला हो जाता है। 


यही सोच कर अटल बिहारी वाजपेई ने सेतु समुद्रम योजना बनाई। उस समय तो भाजपा ने इसे लेकर अपनी पीठ थपथपाई मगर जब सारा श्रेय मनमोहन सरकार के पाले में जाने लगा तो उसने तूफान खड़ा कर दिया । भाजपा, विश्व हिंदू परिषद ही नहीं उनकी मातृ संस्था आरएसएस भी मैदान में कूद पड़ी और इस योजना को हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात बताने लगी। यह योजना सिरे चढ़ जाए तो दुनिया में स्वेज नहर और पनामा नहर जितनी महत्वपूर्ण हो जायेगी और भारत की झोली डॉलरों से भर जायेगी मगर ऐसा तब ही तो होगा जब हमारे नेता इसे करने दें। 


 यह पुल मानव निर्मित है तो बेशक इसका संरक्षण होना चाहिए। यदि इसके बीच से मार्ग निकालने से कोई प्राकृतिक नुकसान होता है, तब भी इससे छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए मगर यदि ऐसा कुछ भी नहीं है तो क्यों देश का नुकसान किया जा रहा है ? क्यों नहीं रेडियोमैट्रिक डेटिंग करा कर दूध का दूध और पानी का पानी कर लिया जाता ? क्या देश की तरक्की से जुड़े इस मामले को भी अयोध्या के राम जन्म भूमि विवाद जैसा बनाना जरूरी है ? वैसे क्या अब भी आपको लगता है कि हमारे नेता परिपक्व हैं ?

रवि अरोड़ा की नजर से......

 


यह कहां का इंसाफ है जी / रवि अरोड़ा  



राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा से अपना कोई लेना देना नहीं है। इस यात्रा से राहुल गांधी भाजपा की सरकार को उखाड़ फेंकेंगे, ऐसी भी कोई गलत फहमी मुझे नहीं है। हां इतना अवश्य लग रहा है कि इस यात्रा ने राहुल गांधी को अपनी छवि सुधारने तथा भारत को समझने का एक अवसर दिया है और तभी उन्हें पप्पू कहने वाले इस यात्रा से इतने बेचैन हैं। बेचैनी का आलम यह है कि पहले यात्रा को बदनाम करने की कोशिश की गई। फिर इसे गैर जरूरी बताया गया तथा उसकी राह में तरह तरह के कांटे बिछाए गए और जब किसी भी सूरत बात नहीं बनी तो अब कोरोना के बहाने इस यात्रा को बंद कराने का प्रयास किया जा रहा है। वह कोरोना जिस पर जीत का डंका मोदी सरकार साल भर पहले पीट चुकी थी, उसे झाड़ पूंछ कर चारपाई के नीचे से अचानक फिर बाहर निकाल लिया गया है। प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री और सारा सारी अमला कोरोना को लेकर बैठक कर रहा है और सोशल मीडिया पर भी हो हल्ला मचाया जा रहा है। अब हर सूरत प्रयास यह होगा कि या तो यह यात्रा तत्काल बंद हो और यदि ऐसा न हो तो इसके बहाने कांग्रेस और राहुल गांधी को वैसे ही खलनायक बनाया जाए जैसे कोरोना की पहली लहर में तबलीगी जमात और मरकज को बनाया गया था ।


प्रधान मंत्री मोदी और उनकी टीम संसद में अब मास्क पहने हुई दिखाई दे रही है। ये वही मोदी जी हैं जो चार दिन पहले ही त्रिपुरा में बड़ी रैली करके लौटे हैं। गुजरात की रैलियों में भी उन्होंने मास्क नहीं पहना। उधर, पश्चिमी बंगाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और असम में जब विधान सभा चुनाव हुए तब कोरोना अपने चरम पर था । मोदी जी की रैलियां तब भी जोर शोर से वहां हुईं थी । पश्चिमी बंगाल की चुनावी रैलियों में भारी भीड़ देख कर मोदी जी और अमित शाह मंच से बेहद गदगद होने की बात कर रहे थे जबकि उन दिनों प्रतिदिन हजारों लोग कोरोना से मर रहे थे । कोरोना संकट में ही मोदी जी ने नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम करवाया था। मगर अब यही मोदी जी कोरोना से भयभीत होने का दिखावा कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन समेत पूरी दुनिया में कोरोना फिर लौट आया है और हमें भी उससे सचेत रहने की आवश्यकता है मगर क्या केवल मास्क पहन कर संसद का सत्र चलाने से ही काम चल जाएगा ? इस माहमारी को लेकर सरकार की क्या तैयारियों हैं, क्या इस पर देश की सबसे बड़ी पंचायत में चर्चा नहीं होनी चाहिए ?  बेशक कोरोना के पिछले तीन हमलों के दौरान हमारे सारे दावे हवा हवाई साबित हुए मगर इस बार ऐसा नहीं होगा, मोदी जी इस पर संसद में लगे हाथ बयान क्यों नहीं देते ? 


राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से भारत कितना जुड़ेगा, यह तो मुझे नहीं पता । 2024 के चुनाव में इससे कांग्रेस को बहुत लाभ होगा , यह भी यकीन से नहीं कहा जा सकता । मगर राहुल गांधी को लेकर भाजपा जिस तरह से डरी हुई है, यह देखना बेहद रोचक है। पिछले आठ नौ सालों से जिसे पप्पू पप्पू कह कर हंसी का पात्र बनाने की कोशिश की गई, उसने ही अब रातों की नींद हराम की हुई है। यही वजह है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री कोरोना के बहाने कांग्रेस से अपनी यात्रा बंद करने को अब कह रहे हैं। बेशक यदि कोरोना का संकट वास्तविक है तो केवल यह यात्रा ही नहीं ऐसी तमाम राजनीतिक गतिविधियां बंद होनी चाहिए। ठसाठस भरे हवाई अड्डे, बस अड्डे और ट्रेनें भी इसकी जद में आनी चाहिएं। कमाल है, खुद बड़ी बड़ी रैलियां करो और बेचारे राहुल गांधी को सड़कों की धूल भी न खाने दो, यह कहां का इंसाफ है जी ?



सोमवार, 26 दिसंबर 2022

महज एक संयोग / ऋतुराज वर्षा✍️

 


संयोग से बनते जो रिश्ते।

नित्य वह पल्लवित और पुष्पित होते।

मन की बगिया में खुशबू विखेरते। 

सदैव परिपूर्णता मिलती और परिमार्जित रहते।

ईश की अनुकम्पा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गाते।

ऐसे अनुबंध में भला कौन खलल डालते।

अपनी डफ़ली अपना राग सभी जानते।

क़ातिल निगाहों पर करारा वार करते।

हम मधुर संबंधों को नया आयाम देते।

संयोग से बनते जो रिश्ते।

नित्य वह पल्लवित और पुष्पित होते।

मुकद्दर ने हमें मिलाया ऐसे, पिछले जन्म का कोई बंधन हो जैसे।

हम अनाथ,अबोध कैसे कैसे वज्रपात सहे।

तनिक भी न भान किसी को होने देते।

कितना सही कहा- आपने, सब भूल जाओ और साहित्य सृजन करो।

 ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति करो।


मुख में राधे श्याम कहते। 

संयोग से बनते जो रिश्ते।

नित्य वह पल्लवित और पुष्पित होते।


✍️ऋतुराज वर्षा✍️

तुलसी, #राम और #रामायण का नाता / डॉ_चंदन_कुमारी


साहित्य, समाज और संस्कृति में रामकथा अनेकानेक रूप में विद्यमान है। जैसे हंस में नीर-क्षीर विवेक होता है वैसे ही हर प्राणी के मन में नीर-क्षीर की परिकल्पना तो होती है, पर उनमें यह परिकल्पना मत वैभिन्न्य के साथ होती है। जिसे जो भाता है उसे ही वह चुनता है। चयन की स्वतन्त्रता तुलसी के मानस में भी द्रष्टव्य है। चयन और अभिव्यक्ति की इसी छूट का भरपूर उपयोग आप डॉ. ऋषभदेव शर्मा की कृति ‘रामायण संदर्शन’ (2022) में देख सकते हैं। लेखक ने  रामायण की अर्द्धालियों को यत्र-तत्र से पुष्प की भाँति चुनकर उसकी अनुपमता को अनुपम रूप से प्रस्तुत करने की कोशिश में यहाँ जो बाँचा, वह रामायण का सार भाग है| किसी कवि, लेखक, वैज्ञानिक की कही-लिखी कोई बात हो या दृश्य-श्रव्य माध्यम से देखा-सुना कुछ हो, वह मस्तिष्क में स्थिर रह जाता है और स्वतः वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त भी होता है। ऐसी ही रामायण की कुछ पंक्तियाँ जो लेखक को बहुत प्रिय रही हों, संभवतः वे पंक्तियाँ ही इस पुस्तक के हर आलेख का शीर्षक बनी हैं। रत्नावली की फटकार ने तुलसी को रामोन्मुख किया। यहाँ लेखक राम की गाथा के चुनिंदा पलों को बाँचते हुए वर्तमान भूमि की ओर भी उन्मुख हो जाते हैं|। समसामयिक सरोकारों के सापेक्ष रामकथा के प्रसंगों की व्याख्या के साथ ही रामकथा के पात्रों का मनोवैज्ञानिक विवेचन भी पुस्तक में उपलब्ध है।


'रामचरितमानस' के आधार पर बेटी के लिए लेखक का जो संबोधन यहाँ प्राप्त हुआ है, उसे भ्रूणहत्या जैसी कुव्यवस्था का मनोवैज्ञानिक निवारण माना जा सकता है। देखें- “कब समझेंगे हम, बेटी चाहे हिमवान के घर जन्म ले या अन्य किसी के, पुत्री का पिता बनकर पुरुष धन्य होता है! इस धन्यता का अनुभव हिमालय ने कुछ इस प्रकार किया कि पुत्री के जन्मते ही सारी नदियों का जल पवित्र हो उठा। सब खग-मृग-मधुप सुख से भर उठे। सब जीवों ने परस्पर बैर त्याग दिया। सबका हिमालय के प्रति नैसर्गिक अनुराग बढ़ गया। उनके घर नित्य नूतन मंगल होने लगे और उनका यश दिगंतव्यापी हो गया। हर बेटी गिरिजा ही होती है। बेटी के आने से पिता पहली बार सच्ची पवित्रता को अपनी रगों में बहती हुई महसूस करता है। बेटियाँ अपने सहज स्नेह से सबको निर्वैरता सिखाती हैं। बेटियाँ अपनी सुंदरता और कमनीयता से सभ्यता और संस्कृति का हेतु बनती हैं। वे मंगल, यश और जय प्रदान करनेवाली हैं। तभी तो पुत्री-जन्म को तुलसी रामभक्ति के फल के सदृश मानते हैं- सोह सैल गिरिजा गृह आए।/ जिमि जनु रामभगति के पाए।।” (शर्मा:2022, 14)।


पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का गैर-बराबरी वाला दर्जा निश्चित ही चिंता का सबब है। यह चिंता केवल स्त्री के हित से ही नहीं जुड़ी  है। रामायण से विविध संदर्भों को लेते हुए यहाँ स्पष्ट किया गया है कि समाज के किसी एक अंग का अहित पूरे समाज के लिए अहितकारक है।  राम के बहाने आज को आँकने का सफल प्रक्रम यहाँ दृष्टिगोचर है। राम के धर्मप्रिय, लोकरक्षक और शरणागतवत्सल स्वरूप की चर्चा के साथ समसामयिक गठबंधन की राजनीति और कोरोना जैसी महामारी को पछाड़ने के लिए भी रामचरित का अवगाहन करने का संकेत मिलता है।


लिखित और मौखिक साहित्य में राम और बहुत तरह की रामलीलाओं के बारे में बहुतायत में सामग्री उपलब्ध है। चित्रकला में राम और रामकथा की उपस्थिति को भी लेखक ने सटीक और ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ शोधपूर्ण रूप में यहाँ प्रस्तुत किया है| ‘सीता सिंग्स द ब्लूज’ (2008) अमरीकी फिल्म को रामकथा का एक नया पाठ मानते हुए लेखक की उद्भावना है- 


“आधुनिक मीडिया और प्रौद्योगिकी की सहायता से रचित रामकथा के इस नए पाठ में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है वह है सीता का सर्वथा नए संदर्भ में प्रतिष्ठापन। पारंपरिक सभी पाठों में सीता की महानता शूर्पणखा, अहल्या, ताड़का, कैकेयी और अन्य स्त्री पात्रों के बरक्स रची जाती रही है। लेकिन इस नए पाठ में सीता को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अन्याय का शिकार होते हुए दिखाया गया है। इस कारुणिक दशा के बावजूद वह विलाप नहीं करती बल्कि अपने सम्मान का प्रश्न उपस्थित होने पर स्वाभिमानपूर्वक स्वयं राम का परित्याग कर देती है। यहाँ सीता महावृत्तांत का प्रस्तुतीकरण करनेवाली छायापुतलियों के साथ एकाकार हो जाती है और दर्शकों को सावधान करती है कि किस तरह महान कथावृत्त रचे जाते रहे हैं और किस तरह उनकी पात्र परिकल्पना हमारे साधारणीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती रही है।” (शर्मा:2022, 114-115)।


सीता का चरित्र केवल एक पौराणिक स्त्री चरित्र नहीं है। सीता प्रतीक है पूरे स्त्री समाज का। और वह प्रतिबिंबित कर रही है समाज में हो रहे स्त्री के प्रति अन्याय एवं दुराचरण की छाया को। कुलीनता के घेरे में भी स्त्री-छवि के इर्द-गिर्द अँधेरे कितने गहन हैं! रामकथा के नए पाठ में सीता रूपी स्त्री-छवि इन अँधेरों को उड़ाकर अपने इर्द-गिर्द स्वयं ही प्रकाश बुन रही है।


राम-साहित्य का संसार में अविरल प्रवाह है। इस प्रवाह में विविध धर्मानुयायी बाधक नही बनते हैं। वे इस प्रवाह को गति देने में अपना एक हाथ आगे बढ़ाते हैं। लेखक ने खासी जनजाति पर शोध करनेवाले मेघालय निवासी मिस्टर लमारे के बारे में बताया है, जो ईसाई होते हुए भी राम साहित्य के प्रति समर्पित हैं। “उनके लिए रामायण कोई धर्मग्रंथ नहीं है, बल्कि समग्र भारत को एक करनेवाला ऐसा तत्व है जिसकी उपेक्षा उन्हें कष्ट देती है।” (शर्मा:2022, 79)।


मनुष्यता के लिए ‘अप्प दीपो भव’ की सार्थकता सिद्ध करनेवाली रामकथा पर आधारित यह पुस्तक रामकथा के आस्वादन हेतु जितनी उपयोगी हो सकती है; उतनी ही यह शोध और चिंतन के निमित्त भी उपयोगी है। अपनी इस रचना को लेखक ने स्वयं ही तुलसी, राम और रामायण का संबंध कहा है, जो उपयुक्त ही सिद्ध होता है| 


संदर्भ ग्रंथ:

शर्मा ऋषभदेव, 2022, रामायण संदर्शन, कानपुर O: साहित्य रत्नाकर। ◆

- डॉ. Chandan Kumari, संकाय सदस्य, डॉ. बी. आर. अंबेडकर सामजिक      विज्ञान विश्वविद्यालय, अंबेडकर नगर (महू) मध्यप्रदेश । 


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#अभिमत : प्रो.Gopal Sharma 

गोस्वामी तुलसीदास विरचित 'रामचरितमानस' के सात कांडों में मानव की उन्नति के सात सोपान हैं।  उसके दोहों चौपाइयों में अनगिनत सूक्तियाँ हैं।  अर्धालियों में अर्थ के विविध धरातल हैं। रामायण की कुछ प्रसिद्ध चुनिंदा अर्धालियों के निहितार्थ को स्पष्ट करती इस पुस्तक में  रामकथा मर्मज्ञ प्रोफेसर #ऋषभदेव_शर्मा ने गागर में सागर भरते हुए यह संदर्शन जिज्ञासु  पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है।  इसमें एक एक अर्धाली लेकर उनके अर्थ को हस्तामलकवत खोल दिया गया है।  


रामकथा के मर्म को उद्घाटित करने वाली इस पुस्तक के हर पृष्ठ पर मंगल भवन अमंगल हारी भगवान राम का आशीर्वाद है और उनका गुणानुवाद है।  और साथ में है उनके वचनों और कथनों में छिपे रहस्य का उद्घाटन।  कई बार जिन आम पाठकों को 'ढोल गँवार' जैसी उक्तियों  के अर्थ को लेकर  मत-वैभिन्न्य  हो जाता है और आपस में वाद विवाद तक हो जाता है , उनके लिए यहाँ तुलसीदास के मंतव्य तक पहुँचने का मार्ग मिलता है… 'पुनर्पाठ की इस प्रविधि में यह स्थापना हमारी सहायता कर सकती है कि इकाइयाँ महत्वपूर्ण नहीं होतीं, उनके अंत:संबंध महत्वपूर्ण होते हैं।' डॉ. ऋषभदेव शर्मा का यह कथन इस पुस्तक के लिए कुंजी है, रामशलाका है।  


रामकथा के इस उन्मुक्त पाठ के पुनर्पाठ से पाठकों को तुलसी के वचनों की गहराई तक जाने का अवसर मिलेगा; और साथ ही वह प्रशिक्षण भी अनायास ही प्राप्त होगा जिससे वे भी कालांतर में जब रामायण की  किसी अन्य अर्धाली या चौपाई को पढ़ेंगे तो उसके अभिधार्थ से सहज ही आगे बहुत आगे जा सकेंगे। रामायण के खंड पाठ से  अखंड आनंद की ओर ले जाने वाली इस अद्भुत कृति में अवगाहन करने से मानस का सारा कलुष ही नहीं कटेगा बल्कि ज्ञान के चक्षु खुल जाएँगे, ऐसा विश्वास है।


जिस तरह गुड़ की भेली को कहीं से भी लेकर खाने से स्वाद इकसार आता है, वैसे ही 'रामायण संदर्शन' का स्वाद इसके आस्वादन से हर बार और लगातार   होता है। समकालीन हिंदी साहित्य में 'राम साहित्य' के नित्य प्रति बढ़ते आगार में एक महत्वपूर्ण अभिवृद्धि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती एक अनूठी पुस्तक!    

 #डॉ_गोपाल_शर्मा                                                        

 पूर्व प्रोफेसर, अरबामींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया (पूर्व अफ्रीका)●


( Rishabh Bajpai, Abhinav Bajpai)

#रामायण_संदर्शन #ऋषभदेवशर्मा

(साहित्य रत्नाकर @Aman Prakashan, 104-A / 80 C, near Tuti Maszid Chouraha, Ram Bagh, Kanpur, Uttar Pradesh 208012.)

रविवार, 25 दिसंबर 2022

प्रेम_कविताएँ .../ अनामिका_चक्रवर्तीअनु

 

प्रेम करके कविताएँ लिखना आसान है

कविताएँ लिखकर प्रेम करना नहीं


कविता लिखना आसान है

प्रेम करना नहीं 


तो प्रेम कविताएं, 

प्रेम करके लिखी गई 

या कविता लिखते लिखते प्रेम हो गया


या अपने अनुत्तरित प्रश्न के साथ

प्रेम और कविताएं

साथ साथ जीते मरते रहे


फिर भी सत्य यही है

कितनी सहजता से हो जाता है प्रेम

और समय के साथ

कठिन हो जाती है कविताएं


शायद इसी तरह प्रेम , कविताएं

और कविताएं, प्रेम हो जाती हैं।


तुम्हारे प्रेम में मुझे लिखनी हैं कविताएं

ताकि कविताओं में तुमसे प्रेम कर सकूं।


#अनामिका_चक्रवर्तीअनु


शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

खोरठा भाषा के भीष्म पितामह श्रीनिवास पानुरी की अमर कहानी / विजय केसरी


 (25 दिसंबर, 'खोरठा दिवस' सह खोरठा भाषा के महान रचनाकार श्रीनिवास पानुरी की 102वीं जयंती पर विशेष)



खोरठा भाषा के अग्रदूत, भीष्म पितामह के अलंकार से विभूषित श्रीनिवास पानुरी की संघर्षमय लेखकीय कहानी सदा लोगों को रचनाशीलता के लिए प्रेरित करती रहेगी।  उनका संपूर्ण जीवन खोरठा भाषा के संवर्धन और सृजन में बीता था।  उनका जन्म भारत की आजादी से 27 वर्ष पूर्व 1920 में हुआ था।  इस कालखंड में कई साहित्यकार व रचनाकार अपने -अपने रचना कर्म से देश को सुशोभित और प्रतिष्ठित कर रहे थे।  खोरठा भाषा को निम्न भाषा के रूप में देखा जाता था।  लेकिन श्रीनिवास पानुरी  अपनी लेखनी के बल पर खोरठा को निम्न भाषा समझने वाले लोगों के समक्ष एक लंबी लकीर खींच दी थी ।  उन्होंने खोरठा भाषा में कविता, कहानी, निबंध, नाटक सहित कई महत्वपूर्ण साहित्यिक विधाओं पर  कार्य किया था। आज इनकी कृतियां  एक अमर कृति के रूप में विद्यमान है ।

खोरठा, झारखंड प्रांत की एक प्रमुख आंचलिक भाषा है।  खोरठा भाषा में  झारखंड की पहचान, रीति रिवाज और संस्कृतिकी सोंधी महक निहित है।  इस सोंधी महक को एक नए रूप में श्रीनिवास पानुरी ने अपनी खोरठा रचनाओं में प्रस्तुत किया था ।‌ उन्होंने जो कुछ भी रचा सबअमर कृति बन गई । श्रीनिवास पानुरी का जन्म झारखंड के धनबाद जिला के बरवाअड्डा, कल्याणपुर के एक निर्धन परिवार में हुआ था । गरीबी के कारण उनकी पढ़ाई मैट्रिक तक ही हो पाई थी।  श्रीनिवास पानुरी आगे की पढ़ाई करना चाहते थे।  लेकिन गरीबी के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया था। ऊपर से घर की जवाबदेही भी उनके कंधों पर ही थी। उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए पान की एक दुकान से व्यवसाय का शुभारंभ किया था। उन्हें घर चलाने जितनी आमदनी हो जाती थी । एक कलम के सिपाही  को और क्या चाहिए था ।  उनका संपूर्ण जीवन खोरठा के अध्ययन, संवर्धन और सृजन में बीता था । खोरठा भाषा के प्रति उनका बचपन से ही लगाव था।  यह लगाव जीवन पर्यंत बना रहा था । वे इस धरा पर 66 वर्षों तक रहे थे। अर्थात 7 अक्टूबर 1986 में उनका निधन हो गया था। उन्होंने  छात्र जीवन से ही खोरठा में लिखना प्रारंभ किया था । वे लगभग 46 वर्षों तक लगातार लिखते रहे थे । उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उनके कालखंड में थीं । उन्होंने बहुत ही श्रद्धा पूर्वक खोरठा में अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया ।  वे निरंतर लिखते रहे थे । उनकी कलम कभी रुकी नहीं थी। उनका रचना संसार बहुत ही विस्तृत है।  घर परिवार की जवाबदेही के साथ लेखन कला के प्रति उनका लगाव देखते बनता था । उन्होंने  पान की दुकान में ही बैठकर कई महत्वपूर्ण रचनाओं को अंतिम रूप प्रदान किया था।  खोरठा भाषा के प्रति लगाव के कारण ही उनकी  प्रसिद्धि धीरे धीरे कर  बढ़ती चली गई थी ।

श्रीनिवास  पानुरी की पहली रचना 1954 में "बाल किरण' नामक कविता संग्रह में प्रकाशित हुई थी। उनकी कविताओं की खासियत यह थी कि वे  जिस माटी से हुए जुड़े हुए थे, उसकी सोंधी खुशबू उनकी कविताओं में मिलती है । वे  एक यथार्थवादी रचनाकार थे। झारखंड की रीति रिवाज, संस्कृति, भाषा, संघर्ष की झलक उनकी रचनाओं में मिलती है।  उनकी रचनाओं में  किस तरह झारखंड के मजदूर अपना पसीना बहा कर जीवन का निर्वाह करते हैं, यहां के किसान पत्थर तोड़ कर धान और सब्जी उगाते हैं, की झलक मिलती है। ऐसी तमाम बातों की झलक उनकी रचनाओं में मिलती है।   श्रीनिवास पानुरी बहुत ही सहजता,सरलता  के साथ अपनी बातों को रखते थे ।  श्रीनिवास पानुरी का जैसा सहज व्यवहार था, उसी रूप में उनकी रचनाएं भी बड़े ही सहजता के साथ बड़ी से बड़ी बातें कह का गुजरती हैं।  खोरठा भाषा से लगाव के कारण उन्होंने 1957 में 'माततृभाषा' नामक पत्रिका का प्रकाशन किया था। इस पत्रिका का टैग लाइन होता था,..  'आपन भाषा सहज सुंदर, बुझे गीदर बुझे  बांदर'।  इस छोटे से वाक्य के माध्यम से श्रीनिवास पानुरी ने बहुत बड़ी बात कहने की कोशिश की है । उन्होंने कालिदास रचित 'मेघदूत' का खोरठा में अनुवाद किया था। 'मेघदूत' कालिदास की महानतम रचनाओं में एक है । 'मेघदूत' के अनुवाद के बाद श्रीनिवास पानुरी देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों की नजरों में आ गए थे। "मेघदूत' प्रकाशन के बाद झारखंड के प्रेमचंद के नाम से विख्यात साहित्यकार, कहानीकार राधाकृष्ण ने भी 'आदिवासी' नामक अपनी पत्रिका में श्रीनिवास पानुरी  की लेखकीय प्रतिभा पर एक आलेख प्रकाशित किया था।  धीरे धीरे कर श्रीनिवास पानुरी  अपनी रचनाओं के बल पर राष्ट्रीय क्षितिज पर छाते चलें गए थे । 

उस कालखंड के महानतम हिंदी के साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन, वीर भारत तलवार, श्याम नारायण पांडेय, शिवपूजन सहाय,  भवानी प्रसाद मिश्र, जानकी बल्लभ शास्त्री आदि ने भी श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं पर मुहर लगाई थी। यह किसी भी आंचलिक रचनाकार के लिए बड़ी बात थी।  खोरठा भाषा को राष्ट्रीय क्षितिज पर सर्वप्रथम श्रीनिवास पानुरी ने ही लाया था।  खोरठा झारखंड की एक आंचलिक भाषा है।  श्रीनिवास पानुरी के पूर्व खोरठा भाषा में रचित रचनाकारों की कोई बेहतर संकलन नहीं आ पाया था । दूसरे शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि श्रीनिवास पानुरी के पूर्व किसी खोरठा रचनाकार को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिली थी।  श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं के प्रकाशन के बाद ही खोरठा भाषा की रचनाओं के प्रति शोधकर्ताओं एवं हिंदी के साहित्यकारों का ध्यान इस ओर  आकृष्ट हुआ था। खोरठा भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने में श्रीनिवास पानुरी के योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।  'मेघदूत' के अनुवाद पर देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने मंतव्य दिया था कि 'मेघदूत पढ़कर जरा सा भी ऐसा नहीं लगा कि यह किसी अन्य भाषा की कहानी है । यह  श्रीनिवास पानुरी जी के गांव की कहानी लगती है'।  यह सम्मान भरे  बिरले रचनाकारों को मिल पाता हैं । श्रीनिवास पानुरी जी पढ़े-लिखे कम जरूर थे,लेकिन उन्हें खोरठा  सहित विभिन्न भाषाओं का भी ज्ञान था। किस भाषा साहित्य में क्या रचा रहा है, इसकी भी जानकारी रखते थे।  खोरठा सहित हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू भाषा की भी उन्हें जानकारी थी । 

उन्होंने कार्ल मार्क्स द्वारा रचित कम्युनिस्टों मेनिफेस्टो' का खोरठा में काव्यानुवाद अनुवाद 'युगेक गीता' नामक शीर्षक से किया था। श्रीनिवास पानुरी की 'युगेक गीता' अनुपम काव्य कृति है । इस कृति का मूल्यांकन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुआ था । उनका यह अनुवाद कालजई बन चुका है। उन्होंने इस कविता के माध्यम से शोषण के विरुद्ध एक बड़ी बात कहने की कोशिश की थी ।  कार्ल मार्क्स की विचारधारा  विचारधारा सच्चे अर्थों में आज के युग की गीता है। उन्होंने कार्ल मार्क्स के मेनिफेस्टो  काव्यानुवाद कर विश्व धरातल पर स्थापित करने का एक सफल प्रयास किया था । उनकी रचनाओं के अध्ययन से प्रतीत होता है कि वे समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास को पहुंचाना चाहते थे।  उनकी रचनाओं में गरीबी,भुखमरी से जूझते इंसानों की कहानी है।  लाचार, बेबस लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए उनकी रचनाएं लगातार दौड़ती नजर आती है। वहीं दूसरी ओर श्रृंगार रस की बातें भी दर्ज की। श्रीनिवास पानुरी की प्रकाशित रचनाओं में 'उद्भासल करन,,( नाटक ) 'आखिंक गीत', (कविता संग्रह) 'रामकथामृत' (काव्य खंड) 'मधुक देशे' ( प्रणय गीत) 'मालाक फूल'( कविता संग्रह) 'दिव्य ज्योति', 'चाबी काठी' (नाटक) 'झींगा फूल'  'किसान' ( कविता ) 'कुसुम'( कहानी) प्रमुख है। श्रीनिवास पानुरी जी की रचनाओं में विविधता के रंग स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। वे एक और व्यंग्य के माध्यम से अपनी बातों को रखते हैं, वहीं दूसरी ओर बड़े ही गंभीरता के साथ किसानों की समस्याओं और परेशानियों से भी परिचित करवाते हैं । एक ओर गरीबी और बेहाली के बीच रहकर भी कृषक गांव में किस तरह  प्रणय के बंधन में बंधते हैं। वे सब अपनी झुग्गी झोपड़ियों में किस तरह आनंद के पल बिताते हैं । 'झींगा फूल' अपने खिलने के साथ अपनी पीड़ा को किस तरह छुपाए रहती है।  ऐसी तमाम बातों की झलक श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं मैं मिलती है। की 

आज खोरठा दिवस है।  हम सबों को खोरठा भाषा के उन्नयन और विकास पर मिलजुल कर  विचार करना चाहिए। खोरठा भाषा को जो सम्मान मिलना चाहिए, अब तक प्राप्त नहीं हो पाया है । श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं को अपने जन्म काल से लेकर आज तक जो जनसमर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल पाया है ।‌ यह  बेहद चिंता की बात है। आज भी खोरठा भाषा अपनी उचित पहचान और  सम्मान के लिए लगातार संघर्ष करती चली आ रही है। श्रीनिवास पानुरी की रचनाएं कालजई बन चुकी हैं।  प्रांत की सरकार का नैतिक दायित्व बनता है कि सरकारी खर्च पर श्रीनिवास पानुरी की समग्र रचनाओं को संकलित कर एक रचनावाली के रूप में प्रकाशित करें।  हम सबों का भी नैतिक दायित्व बनता है कि उनकी रचनाओं को जन जन तक पहुंचाने में महती भूमिका अदा करें। 

 जैसा कि पूर्व की पंक्तियों में वर्णन किया गया है कि श्रीनिवास पानुरी जी गरीबी के बीच रहकर इन तमाम रचनाओं को जन्म दिया था।  जिनमें कई रचनाओं ने पुस्तक स्वरूप प्रदान कर लिया । लेकिन उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं अप्रकाशित हैं। जिनमें 'छोटू जी'( व्यंग्य)  'अजनास' (नाटक) 'अग्नि परीक्षा'( उपन्यास ) 'मोतीचूर' 'हमर गांव'  'समाधान'  'मोहभंग' 'भ्रमरगीत'  'परिजात' (काव्य संग्रह) 'अपराजिता' (काव्य संग्रह) आदि । झारखंड के कई विश्वविद्यालयों में खोरठा  की पढ़ाई जरूर हो रही है। खोरठा भाषा में बहुत काम भी हो रहे हैं । झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं खोरठा भाषा को भी शामिल किया गया है। खोरठा भाषा में प्रतियोगिता परीक्षा देकर कई युवक विभिन्न सरकारी पदों पर कार्यरत है।  इन तमाम उपलब्धियों के बाद भी खोरठा भाषा झारखंड की जन भाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। यही कारण है कि श्रीनिवास पानुरी की रचनाएं आज भी प्रकाशन की आश में खड़ी नजर आ रही है।  मैं खोरठा दिवस पर झारखंड सरकार से मांग करता हूं कि खोरठा के जनक श्रीनिवास पानुरी की प्रकाशित अप्रकाशित रचनाओं को संकलित कर एक रचनावाली  प्रकाशित करें। यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। श्रीनिवास पानुरी रचनावली खोरठा भाषा के उत्थान में मील का पत्थर साबित होगी।


विजय केसरी, 

(कथाकार / स्तंभकार)

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301,

 मोबाइल नंबर :- 92347 99550.

दया और व्यापार

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


हमेशा की तरह दोपहर को सब्जी बाली दरवाजे पर आई और चिल्लाई, चाची, "आपको सब्जियां लेनी हैं" ?


माँ हमेशा की तरह अंदर से चिल्लाई, "सब्जियों में क्या-क्या है" ?


सब्जी बाली :- ग्वार, पालक, भिन्डी, आलू , टमाटर....


दरवाजे पर आकर माँ ने सब्जी बाली के सिर पर भार देखा और पूछा, "पालक कैसे दिया" ?


सब्जी बाली :-*

दस रुपए की एक गड्डी ।

माँ :- पच्चीस रुपए में चार दो ।


सब्जीवाली :- चाची नहीं जमेगा ।


माँ : तो रहने दो ।


सब्जी बाली आगे बढ़ गयी, पर वापस आ गई ।

सब्जी बाली:- तीस रुपये में चार दूँगी ।


माँ :- नहीं, पच्चीस रुपए में चार लूँगी ।


सब्जी बाली :- चाची बिलकुल नहीं जमेगा ।


और वो फिर चली गयी


थोड़ा आगे जाकर वापस फिर लौट आई । दरवाजे पर माँ अब भी खड़ी थी, पता था सब्जी बाली वापस अवश्य आएगी ।


माँ ने सब्जी की टोकरी उतरने में सहायता की, ध्यान से पालक कि चार गड्डियां परख कर ली और पच्चीस रुपये का भुगतान किया । जैसे ही सब्जी बाली ने सब्जी का भार उठाना शुरू किया, उसे चक्कर आने लगा । माँ ने उत्सुकता से पूछा !


क्या तुमने भोजन कर लिया ?


सब्जी बाली:- नहीं चाची, सब्जियां बिक जाएँ, तो किराना खरीदूँगी, फिर खाना बनाकर खाऊँगी ।


माँ :- एक मिनट रुको बस यहाँ ।


और फिर माँ ने उसे एक थाली में रोटी, सब्जी, चटनी, चावल और दाल परोस दिया, सब्जी बाली के खाने के बाद पानी दिया और एक केला भी थमाया ।


सब्जी बाली धन्यवाद बोलकर चली गयी ।


मुझसे नहीं रहा गया । मैंने अपनी माँ से पूछा :--


"आपने इतनी बेरहमी से कीमत कम करवाई, लेकिन फिर जितना तुमने बचाया उससे ज्यादा का सब्जी बाली को खिलाया" 


माँ हँसी और उन्होंने जो कहा वह मेरे मस्तिष्क में आज तक अंकित है एक सीख कि तरह .....


 "व्यापार करते समय दया मत करो"

 "किन्तु दया करते समय व्यापार मत करो" !


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मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

टीएमयू में शास्त्रीय नृत्य की अद्भुत, प्रस्तुति

 



परम्परा-02 में कथक नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा एंड ग्रुप की गणेश वंदना, शिव तांडव और तराना के संग-संग गज़ल पर एकल और सामूहिक भावनृत्य प्रस्तुतियों से जीवंत हो उठा तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी का ऑडिटोरियम,

  टीएमयू यूनिवर्सिटी में मेरी पहली प्रस्तुति,जहाँ के स्टुडेंट्स ने बदला मेरा नजरिया




घुंघरूओं की खनक, आकर्षक लिबास, रंग-बिरंगी रोशनी में नहाया मंच, जुदा-जुदा भाव-भंगिमाओं के जरिए कथक नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा एंड उनके ग्रुप ने ठुमरी, दादरी, कथक, तराना और भावरूपी गज़ल की बेहतरीन प्रस्तुतियां तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में सैकड़ों मौजूद संगीत प्रेमियों के लिए सौगात की मानिंद रहीं। नतीजन इन अविस्मरणीय परफॉर्मेेंस पर कुलाधिपति श्री सुरेश जैन, एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन, एमएलसी डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त, रजिस्ट्रार डॉ. आदित्य शर्मा, समाज सेवी श्री गुरविन्दर सिंह, परम्परा के सहयोगी ब्रीथिंग आर्ट्स के फाउंडर श्री अनुराग चौहान, लॉ कॉलेज के डीन प्रो. हरबंश दीक्षित समेत सभी मेहमानों और मुकम्मल ऑडी ने स्टेंडिंग ऑवेशन दिया। इससे पूर्व ऑडी में मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित करके परम्परा-02 के द्वितीय चरण के कार्यक्रम का आगाज़ हुआ। अंत में कथक नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा को मुख्य अतिथि डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त ने शाल ओढ़ाकर जबकि कुलाधिपति श्री सुरेश जैन ने बुके देकर सम्मानित किया। साथी कलाकारों को भी बुके और शाल भेंट की गईं।



ऑडी के मंच पर बिखरी रंग-बिरंगी रोशनी और दर्शकों से खचा-खच भरे ऑडिटोरियम के बीच कथक नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा एंड ग्रुप ने गणेश वंदना- गजमुख गजानन गणेश.. पर मनमोहनी नृत्य प्रस्तुति से इस संगीतमय सांझ का आगाज़ किया। आस्थामय इस प्रस्तुति ने खूब तालियां बटोरीं। शिव तांडव और ओम नमः शिवाय, महादेव देव शिव शंकराय... पर सामूहिक कथक नृत्य के जरिए शिव की विभिन्न मुद्राएं पेश कीं। मंच पर आरोही-अवरोही क्रम में थिरकते पैर, घुंघरूओं की खनक, चेहरे के भाव-भंगिमाएं, आंखों और हाथों की विभिन्न मुद्राओं से गज़ल, ठुमरी, दादरी पर नृत्य की ऐसी प्रस्तुति दी कि दर्शक निर्निमेष नेत्रों से देखते ही रहे।  नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा ने गज़ल- आज जाने की जिद न करो... पर भाव नृत्य की अकल्पनीय प्रस्तुति दी, जिसने ऑडिटोरियम में मौजूद सभी दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। अंतिम प्रस्तुति- तराना पर संजुक्ता सिन्हा एंड ग्रुप के सदस्यों की एक्सीलेंट प्रस्तुति ने सबको दीवाना कर दिया। श्वेत परिधानों में सह कलाकारों के संग-संग बिस्मिल्लाह ख़ां युवा पुरस्कार विजेता एवम् नृत्यांगना संजुक्ता सिन्हा ने कथक को जीवंत कर दिया।


 

बतौर मुख्य अतिथि एमएलसी डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त ने कहा, जहां कला है, वहां जिन्दगी है। जिन्दगी है तो नई रोशनी है। वहीं आनन्दानुभूति है, सुखानुभव है। यह नाग ब्रहम का स्वरूप है। संजुक्ता सिन्हा ने की आज जाने की जिद ना करो... गजल पर मनमोहनी प्रस्तुति के लिए मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए बोले, निबध्य गजल को भावगीत के रूप में आप ही कर प्रस्तुत सकती हैं। गजल और भावगीत का उतना तारतम्य नहीं है, जितना ठुमरी और दादरी का तारतम्य है। तारतम्य न होने के बावजूद आप और आपकी टीम की प्रस्तुति एक्सीलेंट थी। तराना को आपकी टीम ने विभिन्न मुद्राओं में उसके अनेक रूप प्रस्तुत किए हैं, वह निश्चित रूप से अकल्पनीय है। हम आपका शब्दों के जरिए धन्यवाद व्यक्त नहीं कर सकते हैं। डॉ. व्यस्त बोले, टीएमयू परिवार की ओर से ऐसे आयोजन कराने की एक निरन्तर परम्परा है। इस परम्परा के तहत आयोजित यह प्रोग्राम अद्भुत, अनुपम, अद्वितीय, अनुकरणीय और प्रशंसनीय है। उन्होंने कहा, टीएमयू के मंच पर ऐसी अमृत वर्षा होती रहे और इसमें हम जी भर कर डुबकी लगाते रहें। इससे पूर्व कथक नृत्यांगना संजुुक्ता सिन्हा बोलीं, कला को किसी भाषा की आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए शो के दौरान मैंने माइक का प्रयोग नहीं किया। टीएमयू की ऑडियन्स बेमिसाल हैं। मैंने और मेरी टीम ने शिद्दत से महसूस किया, टीएमयू के स्टुडेंट्स को क्लासिक म्यूजिक की समझ है। मैं टीएमयू में पहली बार आई हूं। टीएमयू के स्टुडेंट्स ने मेरी मानसिकता को बदल दिया है।


 इस मौके पर मुरादाबाद जैन सभा के अध्यक्ष श्री अनिल जैन, व्यापारी श्री राजेन्द्र सिंह, सीनियर एडवोकेट श्री संजीव राघव, डीन स्टुडेंट्स वेलफेयर प्रो. एमपी सिंह, ज्वाइंट रजिस्ट्रार एआरसी प्रो. निखिल रस्तोगी, फॉर्मेसी के प्राचार्य प्रो. अनुराग वर्मा, लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल प्रो. एसके सिंह, टिमिट के निदेशक प्रो. विपिन जैन आदि मौजूद रहे। कुलाधिपति की सुपौत्री सुश्री नंदिनी जैन की भी इस संगीत समारोह में उल्लेखनीय उपस्थिति रही। संचालन फैकल्टी श्री विपिन चौहान और श्रीमती सुगंधा जैन ने किया।

रवि अरोड़ा.की नजर से.....

 खेल के हिस्सेदार  /  रवि अरोड़ा की  की  नजर से..... 



इस हफ्ते जयपुर जाना हुआ । तीन दिन की यात्रा में तीन बार ही ट्रैफिक पुलिस की आसामी बना । दो जगह दो-दो सौ रूपए की भेंट चढ़ा कर पीछा छुड़ाया तो एक जगह बाकायदा पांच सौ का चालान ही कटवाना पड़ा। मेरा कसूर यह था कि मेरी कार का नंबर उत्तर प्रदेश का था और बाहरी राज्य की गाड़ी देख कर लगभग सभी शहरों में ट्रैफिक पुलिस वाले यूं झपटते हैं जैसे मांस को देख कर चील । जयपुर में पहली बार मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ है, जब भी वहां जाना हुआ हर बार ट्रैफिक पुलिस की अवैध वसूली का शिकार हुआ । मोटर व्हीकल एक्ट में इतने प्रावधान हैं कि यदि पुलिस कर्मी तय कर ले तो आप चाह कर भी अवैध वसूली से बच नहीं सकते । जयपुर ही क्यों चंडीगढ़ भी जब कभी गया, ट्रैफिक पुलिस की मुट्ठी गर्म करनी ही पड़ी। चूंकि मेरी कार पर प्रेस, एडवोकेट अथवा अन्य कोई प्रभावी स्टीकर नहीं होता अतः छोटी से छोटी सी बात पर भी बाहरी राज्य में स्थानीय ट्रैफिक पुलिस रोक लेती है। अब कोई एक दिन में कितने चालान कटवा सकता है और किस किस बात पर कटवा सकता है ? हां अपना ड्राइविंग लाइसेंस ही रद्द करवाने की मंशा हो तो बात कुछ और है।


मैं जिस मुद्दे पर बात कर रहा हूं, उसे वही बेहतर ढंग से समझ सकता है जो अपने वाहन से सुदूर राज्यों में आता जाता रहता है। कमाल की बात देखिए कि दिल्ली एनसीआर में चालीस सालों से मैं कार स्कूटर चला रहा हूं और कभी चालान तो दूर किसी ट्रैफिक पुलिस ने रोका भी नहीं । कारण यह नहीं है कि वे मुझे पहचानते हैं, बल्कि यह है कि मैं ट्रैफिक नियमों का सदैव पालन करता हूं और उससे बढ़कर बात यह है मेरे वाहन का रजिस्ट्रेशन नंबर लोकल है। मगर अपने शहर में रोजाना मैं किसी न किसी बहाने से बाहरी वाहनों को रोका जाना भी देखता हूं। हमारे यहां ही नहीं लगभग हर बड़े शहर में बाहरी वाहन चालकों को ठगने के लिए ट्रैफिक पुलिस ने बाकायदा जाल बिछा रखे हैं। जयपुर में अनेक सड़कों पर छोटा सा बोर्ड स्पीड लिमिट चालीस अथवा साठ लिख कर अथवा कहीं किसी कोने में ' वाहन ठहराना मना है ' का बोर्ड लगा कर इससे अनभिज्ञ बाहरी वाहनों को जाल में फंसा ही लिया जाता है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बंगलुरू जैसे तमाम बड़े शहरों की भी मिलती जुलती कहानी है। समझ नहीं आता कि एक तरफ तो हम दावा करते हैं कि देश की पूरी सीमा के भीतर एक संविधान और एक कानून है मगर जब उसके पालन की बात आती है तो कहानी स्थानीय बनाम बाहरी का मोड़ ले लेती है।


जब से नया मोटर व्हीकल एक्ट आया है, ट्रैफिक पुलिस की पांचों उंगलियां घी में हैं। नए प्रावधान के अनुरूप पुलिस को पच्चीस हजार तक का जुर्माना करने का अधिकार मिल गया है। पेचीदगी का आलम यह है कि चप्पल अथवा हाफ पेंट पहन कर वाहन चलाने पर भी मोटा जुर्माना है। बच्चा साथ हो तो स्पीड लिमिट चालीस निर्धारित कर दी गई है। जाहिर है कि ऐसे कानूनों के पालन में वाहन चालक से कहीं न कहीं चूक हो ही जाती है, नतीजा देश में कई लाख चालान प्रति दिन हो रहे हैं। जयपुर, चंडीगढ़, दिल्ली, गुरुग्राम में प्रति दिन तीन हजार से अधिक चालान कर राज्य सरकारें अपनी तिजोरी भर रही हैं। एक अनुमान के अनुसार दस हजार करोड़ रुपया सालाना चालानों के द्वारा वसूला जाता है। जबकि ट्रैफिक पुलिस का स्टाफ इससे कई गुना अधिक अपनी जेब के हवाले करता है। नियमानुसार राज्य सरकारों को वसूली का एक हिस्सा ट्रैफिक के नियमों के प्रचार प्रसार में भी खर्च करना होता है मगर ऐसा होता नहीं। न जाने यह खेल क्या है और इसमें कौन कौन हिस्सेदार है ?



लेखन की प्रेरणा और किस्सागोई की जमीन / मिथिलेश्वर

 

-       मिथिलेश्वर 


मेरे साहित्य पर शोध करनेवाले छात्र तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए मेरा साक्षात्कार लेने वाले रचनाकार-पत्रकार मित्र अक्सर यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं कि लेखन की प्रेरणा मुझे कैसे और कहां से प्राप्त हुई तथा किन स्थितियों में मैंने  किस्सागोई ग्रहण की? ऐसे सवालों का जवाब देते हुए अपनी मां कमलावती देवी की याद मुझे बरबस आ जाती है।


            वह साठ का दशक था।तब अपनी मां के साथ हम छोटे भाई-बहन अपने गाँव बैसाडीह में रहते थे।उस समय हम भाई बहन एकदम छोटे थे।हममे कोई सयाना नहीं था।पिताजी आरा में प्रोफेसर थे।वह रविवार या अवकाश के दिनों में ही गाँव आते थे।उस समय कालेज शिक्षकों की आय एकदम सीमित थी,इस स्थिति में जीविका के लिए अपनी पुश्तैनी खेती पर ही हम निर्भर थे।चूंकि पिताजी अकेले थे, ऐसे में गांव पर हम छोटे भाई बहनों की परवरिश के साथ मां  खेती की देखभाल भी करती थी।

           उस समय मां मेरे गांव की पहली पढी-लिखी महिला थीं।रामचरितमानस तो वे इतनी बार पढ़ चुकी थीं कि अधिकांश चौपाईयां उन्हें कंठस्थ थीं।उन दिनों हम मां के साथ  अपने घर के प्रवेशद्वार वाले कमरे में ही अधिक रहते थे।उस कमरे से गांव की गली में आने-जाने वालों कीआहट हमें मिलती रहती थी तथा अपने घर के आंगन को भी हम देखते रहते थे।मां मेरे गांव की बहू थीं, इसलिए गांव के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष उन्हें परदे में रहना होता था।प्रवेशद्वार के उस कमरे में पल्ले की ओट में बैठी मां जब रामचरितमानस का सस्वर पाठ करती थीं, तब मेरे पड़ोस के अनेक बड़े-बुजुर्ग मेरे दरवाज़े पर बनी सीमेंटेड कुर्सियों पर बैठ कर उसे सुनते थे।ऐसे में मेरी माँ की तारीफ करते वे नहीं थकते - "बहू हो त़ो ऐसी।"

        उस समय बचपन में अपनी मां की सबसे बड़ी विशेषता मुझे लोककथाओं की उनकी जानकारी को लेकर जान पड़ती।इस बात से मैं अपार खुशी का अनुभव करता कि मेरी माँ लोककथाओं की भंडार हैं।लोककथाओं का अकूत खजाना उनके पास है।ऐसी-ऐसी हैरतअंगेज, मर्मस्पर्शी और रोचक लोककथाएं कि उस दुनिया में हम डूब-डूब जाते ।जब वे सुनाने लगतीं तो अपना सुधबुध खो तन्मय हो हम उसमें लीन हो जाते थे।संभवतः मां अपने मायके से ही लोककथाओं की वह दुनिया लेकर आई थीं।


        उस बचपन में हम सभी भाई-बहन मां के साथ एक ही कमरे में सोते थे।फिर विस्तरे पर गिरते ही मां से लोककथाओं की हमारी फरमाईश शुरू हो जाती।बस,मां अपनी सरस और रोचक शैली में सुनाना शुरू कर देतीं।उनके सुनाने का लहजा ऐसा होता कि हमारी आंखों के समझ उन कथाओं के दृश्य, घटनाएं और पात्र एकदम सजीव नजर आते रहते।फिर उन कथाओं की दुनिया में रमते-विचरते हुए हमारी आंख कब लग जातीं, हमें पता तक नहीं चलता।शायद पिताजी की अनुपस्थिति में गांव पर असुरक्षा और अकेलेपन का एहसास हमारे बाल मन पर न पड़े, इस उद्देश्य से भी अपनी लोककथाओं में मां हमें बांधे रहतीं।उस समय मेरे ऊपर तो मां की लोककथाओं का ऐसा आकर्षण कायम रहता कि दिन में भी वे जैसे ही मुझे फुर्सत में जान पड़तीं,मैं उनके पास जा बैठता और लोककथाएं सुनने लगता।

         स्कूल में पढ़ते हुए जब मैं बड़ा होने लगा और अपने ग्रामीण जीवन की ज्यादतियों,विसंगतियों और अजीबोगरीब स्थितियों पर अभिव्यक्ति का दबाव महसूस करने लगा तब सहसा मेरे अन्दर से कहानियां फूटने लगीं।कहने की आवश्यकता नहीं कि मां की लोककथाओं ने ही मेरे अन्दर कथाकार के बीज बो दिए थे तथा मेरे संवेदनशील मन में किस्सागोई की जमीन कायम कर दी थी।


          लेखन की दुनिया में आगे बढ़ते हुए जब नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के अनुरोध पर भोजपुरी की लोककथाओं को संग्रहित करने का कार्य शुरू किया तो बचपन में सुनाई मां की वे लोककथाएं सहसा याद आ गईं।


         भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अपनी आत्मकथा "पानी बीच मीन पियासी" में अपने उस समय पर विस्तार से लिख चुका हूँ।यहाँ प्रसंगवश मां का उल्लेख करना पड़ा।इस दौरान मां की स्मृतियाँ मेरे मन में ताजा हो उठी हैं।उनकी स्मृतियों को सादर नमन।



रविवार, 18 दिसंबर 2022

गाँव की औरत

 गाँव 

गाँव की औरत


लहरों सी उठती हैं,

हवा सी चलती हैं,

कर्मपथ पर वो सदा,

नदियों सी बहती हैं,

डूबकर वो पसीने में,

गुलाब सी महकती हैं,


चूल्हा चोका, गोबर पाणी,

डांडा ढोर, कबीला ढाणी,

खेत खलिहान, चारा पूस,

ये ही उसका गहना हैं,,

इसी गहने से वो रोज,

दुल्हन सी सँवरती हैं,


कई घाव दिल मे समेटे,

अंजाने दुखों से लड़ती हैं,

कुचले हुए अरमानों के संग,

छुई मुई सी खुद में सिमटती हैं,

सहन शक्ति अपरम्पार इसकी,

कहा सुनी सबकी सहती हैं,

अपनेपन की भूखी बेचारी,

प्रीत की प्यास में तरसती हैं,

पर हारती नहीं झुकती नहीं,

अनवरत कर्मपथ पर चलती हैं,

अनगिनत दुखो के पहाड़ पार कर,

जीवनपथ पर बढ़ती रहती हैं ।।

ना साज सिणगार का शौक,

ना ख्वाहिशें बड़ी रखती हैं,

काजल टिकी ओर बिंदिया में,

कभी कभी चांदनी सी निखरती हैं ।।


गाँव की औरत का जीवन जितना सीधा सादा होता हैं उतना ही कठिन भी होता हैं । 


जोहार गांव की औरत

Copied bhai Mastram Meena

विष्णु प्रभाकर से से. रा. यात्री की बातचीत

आभार  / साभारसंपादक: दैनिक हिन्दुस्तान 



मेरी पत्नी ने मुझे मेरे लेखन से  जोड़ा  :  विष्णु प्रभाकर 


  एक धार्मिक विचारों वाले परिवार में जन्म, तो दूसरी तरफ रुढ़ियों के खिलाफ विद्रोह करने के मां से मिले संस्कार आर्यसमाज से प्रभावित विष्णु जी ने 'कोई तो' जैसे चर्चित उपन्यास सहित नाटक, लघु कथाएं तथा यात्रा संस्मरण भी लिखे। विष्णु दयाल से विष्णु प्रभाकर तक का सफर तय करने वाले कालजयी कृति 'अवारा मसीहा' के रचनाकार से से. रा. यात्री की बातचीत :

( सुविधा हेतु मूल स्क्रिप्ट संलग्न है )


🎤 प्रारंभ में आप लेखन की ओर किस रूप में प्रवृत्त हुए?

📎 मेरे परिवार में मेरी मां ही एकमात्र पढ़ी-लिखी महिला थीं। बचपन में वे मुझे भागवत, रामायण, पुराण आदि सुनाया करती थीं। गांव में उस वक्त केवल तीसरी कक्षा तक का स्कूल था। मां की इच्छा थी कि मैं ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं। अतः उन्होंने मुझे मामा के पास हिसार (तब का पंजाब और आज का हरियाणा) भेज दिया। मामाजी के स्नेह और सद्भावना के बावजूद मां और परिवार से दूर होना मुझे रास नहीं आया। किसी तरह मैट्रिक की परीक्षा पास की। आशा थी कि कॉलेज पढ़़ने जाऊंगा पर तभी परिवार की स्थिति बिगड़ गई। हमारे परिवार में व्यापार होता था, पर उसमें घाटा आ जाने की वजह से आगे पढ़़ना संभव नहीं हो पाया। मामा जी ने अपने ही दफ्तर में 19 रुपए मासिक के दफ्तरी की नौकरी दिलवा दी। लेखकों को रचनाएं पढ़़ने को मिल गईं। रवींद्र, शरत, प्रेमचंद तथा उपनिषद् आदि मैंने वहीं पढ़े। रूसी तथा अन्य भाषाओं के अनूदित साहित्य के संपर्क में भी आया और इस प्रकार मेरे भीतर का लेखक जाग उठा।

🎤 उस समय के साहित्यिक आंदोलन तत्कालीन सामाजिक गतिविधियों को किस रूप में प्रभावित करते थे? 

📎 जहां तक साहित्यिक आंदोलनों की बात है गांधी और आजादी के लिए संघर्षकी  भावना का साहित्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव था। प्रेमचंद और उनके अनुयायी अन्याय के खिलाफ तथा हरिजनों के विकास के लिए लिखते थे। स्वाधीनता संग्राम को साहित्य में मूर्त करते थे। जैनेंद्र, अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी आदि का मार्ग अलग था। उनके लेखन में सूक्ष्मा मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति थी। उस समय के प्रगतिशील लेखन में सुधारवाद के साथ स्वतंत्रता का स्वर मुखर था।


🎤 उस समय के किन वरिष्ठ लेखकों ने आपको प्रभावित किया?


📎 पहले मैं प्रेमचंद की ओर झुका था, पर कई कारणों से शरत ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया। प्रतिबद्धता की बात कहूं तो यह कहा जा सकता है कि इस शब्द का इस्तेमाल किए बिना ही उस समय के लेखन में इसका भरपूर निर्वाह हो रहा था। शरतचंद्र ने नारी को मनुष्य की मर्यादा दी। पतिता के अंदर से उदात्त मानवता को खोज निकाला। प्रायः सभी लेखकों के पात्र गांधी की प्रेरणा से आप्लावित थे। वे देश के आजादी के लिए क्या कुछ नहीं कर जाना चाहते थे। मुझे शरत के लेखन ने शुरू से ही प्रभावित किया और उनकी विलक्षण भावुकता मेरे लेखन में आ गई। प्रेमचंद की सामाजिकता और जैनेंद्र की सूक्ष्म सोच की भाषा से भी मैं प्रभावित हुआ।

🎤 'आवारा मसीहा' पढ़ते हुए लगता है कि आपका समस्त चिंतन और रचनात्मक सक्रियता वहीं केंद्रित है? 

📎 वास्तव में यह एक ऐसी कृति है, जिसमें आपको सभी विधाओं के दर्शन हो सकते हैं। संस्मरण, रेखाचित्र, कहानी, नाटक, यात्रा विवरण क्या नहीं है उसमें? दरअसल शरत का चरित्र ही इतना वैविध्य और वैचित्र्यपूर्ण है कि इसे किसी एक विधा में बांधा ही नहीं जा सकता। यों शरत पर बहुत कुछ और मेरे से पहले लिखा जा चुका है। स्व. हुमायूं कबीर ने भी शरत पर एक पुस्तक लिखी है। मैं शरत का कोई भी पक्ष नहीं छोड़़ना चाहता था। उनके प्रति आरंभ से ही समर्पित रहा था। ऐसे विराट व्यक्तित्व के बारे में बिल्कुल वैसा ही लिखना चाहता था, जिस तरह कि यह जिया था। शरत पर लिखने की प्रक्रिया में मुझे जितनी तकलीफें उठानी पड़ी, उस पर अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है। आर्थिक कठिनाइयां तो थीं ही, इसके अलावा मुझे ऐसी धमकियां मिलती रहीं कि अगर मैंने शरत के प्रति न्याय नहीं किया तो मुझे बंगाल क्षमा नहीं करेगा। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी। कभी-कभी तो मुझे स्वयं पर भी शंका होने लगती थी कि शरत पर ऐसा वैसा काम न हो जाए। मुझे शरत के जीवन पर सामग्री एकत्र करते देखकर प्रसिद्ध इतिहासकार मजूमदार शाह ने कहा था कि एक अबंगाली शरद के लिए परेशान क्यों हो रहा है? मैंने उन्हें जवाब दिया 'साहित्यकार के लिए कोई "आउट साइडर" (बाहर का आदमी) नहीं होता'। मेरी बात पर वह प्रसन्न और संतुष्ट हो गए और उन्होंने मेरे काम की सफलता की कामना की।

🎤 पिछले कई वर्षों से आप देश के भिन्न-भिन्न भागों में यात्रा कर रहे हैं। यह मन की मौज है? अकेलेपन को काटने का साधन है? अथवा किसी बड़ी कृति की तैयारी है?


📎 आप ठीक कहते हैं। इस यात्रा के पीछे तीनों ही बातें हैं। अब मैं अकेलापन महसूस करता हूं। मेरी पत्नी मेरा दाहिना हाथ थीं। वह पत्नी से अधिक मेरी मित्र थीं। लेखन की प्रेरणा में उसका बड़ा हाथ है। वह निर्द्वंद्व भाव से समाज के ऐसे पात्रों से मिल लेती थीं, जिन्हें लोग अधिक महत्त्व नहीं देते। मेरे प्रेरणास्त्रोत मेरे बड़े भाई भी अब नहीं रहे। इन दोनों के चले जाने से जैसे मैं बिलकुल अकेला रह गया हूं। देश भर की यात्रा से मेरा एक और प्रयोजन भी है। मैं देश की संस्कृति के मूल में एकता और बाह्य में अनेकरूपता देखता हूं। इसके अलावा मेरी एक योजना भी है। मैं देश के राजनीतिक परिदृश्य पर एक वृहद उपन्यास लिखना चाहता हूं। इसका आधार मैं संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम्' को बनाना चाहता हूं। राजा को हटा कर साधारण जन का गद्दी पर बैठना और उस युग की वैश्या की प्रतिष्ठा का प्रसंग मुझे कुछ सोचने को विवश करता है। आज हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितनी ही उन्नति कर गए हों 


पर मूल्यों की दृष्टि से नीचे ही गिरे हैं... अगर मैं इस प्रसंग को लेकर उपन्यास लिख पाया तो राजनीति के बहुत से अनछुए प्रसंग उद्घाटित हो सकेंगे।


(साभार : किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'मेरे साक्षात्कार सिरीज', के संपादित अंश)

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

रवि अरोड़ा की नजर से.....

 


डंडी मारने का राष्ट्रीय धर्म  /  रवि अरोड़ा



मेरी एक मित्र मंडली अक्सर वृन्दावन जाती है । कभी कभार मैं भी साथ हो लेता हूं।  ग्रेटर नोएडा पार करके एक्सप्रेस वे पर चढ़ने से पूर्व मित्र अक्सर आइस क्रीम खाते हैं। इस जगह लाइन लगा कर दर्जन भर आइस क्रीम की आधुनिक ठेलियां खड़ी होती हैं। हम लोग आइस क्रीम लेते समय ठेली चालक से यूं ही ठिठौली कर रहे थे जब उसने बताया कि अक्सर ऐसे ग्राहक भी आते हैं जो आइसक्रीम लेकर बिना पैसे दिए रफूचक्कर हो जाते हैं। यह काम केवल कार सवार ही करते हैं। हमसे कुछ समय पहले ही एक कार सवार उससे तीन सौ रुपयों की आइसक्रीम लेकर बिना पैसे दिए अपनी कार भगा ले गया था । सुन कर बड़ी हैरानी हुई कि खाते पीते घर के लोग भी ऐसी हरकतें करते हैं ? हमने जब अपनी आइसक्रीम के दाम पूछे तो उसने उसकी कीमत अनुमान से अधिक बताई। एक मित्र ने जब आइसक्रीम के रैपर पर उसके खुदरा मूल्य की जांच की तो पता चला कि दुकानदार हमें पचास रुपए अधिक बता रहा है। इस और जब उसका ध्यान दिलाया तो उसने अपना टोटल दोबारा जांचा और फिर खुद को दुरुस्त करते हुए खुदरा मूल्य के अनुरूप ही हमसे सही सही पैसे लिए । हो सकता है कि उसने ऐसा जान बूझ कर न किया हो मगर मन में आशंका हुई कि अपने तीन सौ रुपए के नुकसान की भरपाई क्या अब वह हम जैसों से करेगा ? 


वृंदावन पहुंच कर मंदिर के लिए ई रिक्शा ली और उसकी महिला चालक से साठ रुपए तय किए मगर गंतव्य पर पहुंच कर चालक ने हमसे सौ रुपए वसूले । पूछने पर उसने कहा कि मैंने तो सौ रुपए ही बताए थे , शायद आपने सुना नहीं। समझ नहीं आया कि यह माजरा क्या है? जिसका जहां दांव लग रहा है वही सामने वाले को ठग रहा है ? क्या अब बेइमानी को पूरी तरह चालाकी ही समझा जाने लगा है ? सामने वाले पर विश्वास कर लेना अब मूर्खता की श्रेणी में रखा जाने लगा है क्या ? बेशक युगों से ऐसा होता आ रहा है मगर क्या अब ऐसी चतुराई बढ़ती नहीं जा रही ? कोई भी अपनी नजरों में बेवकूफ साबित नहीं होना चाहता और एक जगह नुकसान खाकर उसका बदला किसी दूसरे से लेने लगता है और फिर खुद को स्ट्रीट स्मार्ट समझता है । अमीर आदमी का तो जमाने से यही विनिंग फार्मूला है मगर देखा देखी अब गरीब और मेहनत कश वर्ग भी न जाने क्यों इसी दिशा में चल पड़ा है। 


हो सकता है कि मेरे द्वारा गिनाई गई घटनाएं आपको मामूली लगें और आप कहें कि बड़े बड़े घोटाले करने वालों को छोड़ कर गरीब आदमी की छोटी मोटी हेराफेरी के पीछे मैं क्यों पड़ गया ? मगर क्या ऐसा नहीं है कि जिसको जितना मौका मिलता है, वह उससे चूकता नहीं है ? बड़ा आदमी बड़ी ठगी कर रहा है और छोटा आदमी छोटी। ऊपर से नीचे तक डंडी मारना ही हो गया है हमारा राष्ट्रीय चरित्र , हमारा राष्ट्रीय धर्म । मेरी बात पर विश्वास न हो तो किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लीजिए। हम सबके साथ लगभग रोज ही ऐसा नहीं होता क्या ? सामने वाले की जेब से पैसे निकाल लेने को ही अब असली सफलता माना जाने लगा है। सही गलत के बाबत न कोई पूछता है और न ही अब इसका संज्ञान लिया जाता है। ईमानदारी अभिशाप होती जा रही है और बेईमानी कला । इसमें कोई संदेह नहीं कि देश की बड़ी आबादी अभी भी इस कीचड़ से दूर है मगर मुझे चिंता तो इस बात की है कि धीरे धीरे तराजू का पलड़ा अब बेईमानी की और झुकता दिखाई पड़ रहा है ।


रवि अरोड़ा की नजर से......

 


बचो इन तीन पत्ती वालों से / रवि अरोड़ा




इन तीन पत्ती वालों ने आजकल जीना हराम किया हुआ है। जब भी इंटरनेट खोलो, कहीं न कहीं से तीन पत्ती का विज्ञापन अवतरित हो ही जाता है। यू ट्यूब पर तो हर दो तीन मिनट के बाद कोई न कोई मशहूर फिल्मी सितारा स्क्रीन पर आकर तीन पत्ती खेलने के इतने फायदे गिनाता है कि जुए से दूर रहने वाला आदमी शर्मिंदा ही हो उठे। केवल तीन पत्ती ही क्यों रम्मी जैसे खेलों के नाम पर भी ऑन लाईन जुआ खिलाने वाली पचासों वेब साइट्स पैदा हो गई हैं। अब देश में कितने फीसदी लोग प्रतिदिन इनका शिकार हो रहे हैं, यह तो नहीं पता मगर ऑन लाईन गेमिंग कंपनियां जिस प्रकार हजारों करोड़ों रुपयों का अपना सालाना टर्न ओवर इनकम टैक्स विभाग को दिखा रही हैं, उससे साफ पता चल रहा है कि कैसे वर्तमान कानूनों में सुराख करके पूरी युवा पीढ़ी को खराब किया जा रहा है। क्या विडंबना है कि पार्क के किसी कोने में सौ पचास रुपए के साथ ताश खेलने पर तो पुलिस आईपीसी की धारा 178 के तहत उठा कर बंद कर देती है मगर यदि थाने में बैठ कर भी कोई ऑन लाईन जुआ खेले तो पुलिस उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। 


देश का कानून हर सिरे से छिदा हुआ है इसमें तो कोई दो राय नहीं मगर पब्लिक गैंबलिंग एक्ट 1867 में तो सुराख ही सुराख हैं। अव्वल तो यह केंद्र नही राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है अतः कहीं एक नियम है तो कहीं दूसरा । आजादी के 75 साल भी हम यह तय नहीं कर सके कि लॉटरी खेलना सामाजिक अपराध है भी अथवा नहीं। यही कारण है कि एक दर्जन राज्यों में आज भी लॉटरी खिलाई जाती है। किसी राज्य में कैसिनो खुल सकते हैं और किसी में नहीं। कहीं जमीन पर खोलने का अधिकार है तो कहीं केवल पानी पर । सट्टा तो हमारे यहां आदि काल से ही खेला जा रहा है और आज भी शहर शहर सट्टे के बुकी पुलिस के संरक्षण में मालामाल हो रहे हैं। कायदे से उनपर गैंगस्टर एक्ट लगना चाहिए और सख़्त धारा 3 / 4 के तहत चालान होना चाहिए मगर पुलिस आईपीसी की जमानती धारा 13 के तहत चालान कर उन्हे सत्ता खिलाने का जैसे लाइसेंस ही दे देती है।  बेशक पहले क्रिकेट को केंद्र में रख कर नकद सट्टा खिलाया जाता था मगर अब तो सट्टा चलाने वाले बाकायदा ऑन लाईन आईडी बना कर देते हैं और ऑन लाईन ही भुगतान स्वीकार करते हैं। 


इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहेंगे कि हमारे कानून बनाने वाले आज तक यह ही तय नहीं कर पाए कि कौन सा खेल गेम ऑफ चांस है और कौन सा खेल गेम ऑफ स्किल ? कोई राज्य कौशल आधारित खेल को जुआ मानता है तो कोई संभावना आधारित खेल को । इसी का फायदा उठा कर अब ऑल इंडिया गेमिंग फेडरेशन, द रम्मी फेडरेशन और फेडरेशन ऑफ इंडिया फेंटेसी स्पोर्ट्स जैसी संस्थाएं नियमों कानूनों को अपने हिसाब से परिभाषित करवा रही हैं। नतीजा करोड़ों लोग ऑन लाईन जुआ खेल कर बर्बाद हो रहे हैं और आत्महत्याओं के मामलों में इज़ाफा कर रहे हैं । यह भी समझ से परे है कि हमारे लोग भी इतने भोले क्यों हैं। जब कैसिनो में आपके सामने पत्ते फेंटे जाने के बावजूद भी खिलाड़ी को अंतत हारना जी होता है तब भला ऑन लाइन गेम में कोई कैसे जीत सकता है ? यहां तो सॉफ्ट वेयर ही कंपनी ने अपने मुनाफे के लिए बनाया हुआ है ।



शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

लघु पत्रिकाओं का जटिल संसार / ज्ञान प्रकाश विवेक

 


नमस्कार दोस्तो    


कुछ शुक्राना लघु पत्रिकाओं का 


आज दिल में आया कि लघु पत्रिकाओं का एहतराम करूं जिन्होंने हिन्दी अदब को ज़िंदा रखने की सफल कोशिश की। लघु पत्रिकाएं निकालना, आग की लपटों से खेलने जैसा , हौसले वालों का खेल रहा है। तमाम लेखक अपने संघर्ष की तो बात करते हैं, लघु पत्रिकाओं के जज़्बे, मेहनत आर्थिक संकट, रचना की पहुंच से लेकर प्रूफ रीडिंग तक और छपने से लेकर डिस्पैच तक की थकाऊ प्रक्रिया।

कोई भी पत्रिका आर्थिक स्थिति से इतनी खुशहाल कभी नहीं रही।हंस, पहले ,कथादेश, समायांतर, शेष, दोआबा, पाखी


सब पत्रिकाओं का सूरते हाल कमोबेश एक जैसा रहा है।


आखिर वो क्या दिक्कतें थीं कि धर्मयुग सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान दिनमान पत्रिकाएं बंद हो गई।

इस ख़ला को यादव जी ने महसूस किया और हंस पत्रिका निकालकर, सन्नाटे में गूंज पैदा की।

पहल तब निकल ही रही थी।


इन पत्रिकाओं के साथ मेरा बहुत पुराना और ख़ुशरंग रिश्ता रहा है।


ये अदबी सफ़र भी बड़ा विस्मित कर देनेवाला रहा है। ज़िद, जुनून, जिज्ञासा, व्याकुलता और कुछ अभिव्यक्त करने की ताबिंदा ख़लिश की गठरी बगल में दबाए हुए, दीवानावार किसी ऐसे टेढ़े मेढे रास्ते से गुज़रते हुए जहां अपने जैसे, फ़क्कड, दानिशमंद हमराह मिलते रहें।और लफ़्ज़ों के आतिशदान में , प्रतिवाद की चिंगारियों को न बुझने देने की संचेतना के साथ।


एक मिसरा

तमाम लेखक दोस्तों और लघु पत्रिकाओं के संपादकों के लिए


मेरा अज्म़ इतना बलंद है कि पराये शोलों का डर नहीं


राजेन्द्र यादव नौइयत पसंद थे।हर बार कुछ नया प्रस्तुत करते। हिंदी में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श उनकी बदौलत आज।

एक बार अपने बुक शेल्फ की सफाई करते हुए किताबों में ऐसे डूबे कि पूरा संपादकीय ही लिख डाला।


हलचल पैदा करने और साहित्य में चौंका देनेवाला माहौल पैदा करना उनकी फ़ितरत में था।

गंगा पत्रिका के संपादकीय में एक बार मेरी ग़ज़लें ही संपादकीय में छाप दीं 

और लिखा। इस माह का संपादकीय ये ग़ज़लें हैं।


उतने ही दीदार, दिलकश और जांनिसार रवींद्र कालिया जी थे।पहले वागर्थ और बाद में नया ज्ञानोदय, इन पत्रिकाओं के ज़रिए वो नये लेखकों का एक कारवां लेकर आए।वो तमाम युवा लेखक ,आज स्थापित लेखक हैं।


वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक जिस धूम से निकाला उतनी ही सरगर्मी के साथ  नया ज्ञानोदय का ग़ज़ल महाविशेषांक प्रस्तुत किया।

वो अंक लगभग मैंने तैयार करके दिया। उनदिनों कालिया जी की सेहत भी कुछ ठीक नहीं थी।

वो बहुत पारखी भी थे।जिस कुणाल सिंह को वागर्थ में सह संपादक बनाया । उसे साथ लाए और नया ज्ञानोदय की बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी।वही कुणाल सिंह ही तो हैं जो इन दिनों वनमाली कथा को जिस सलाहियत से निकाल रहे हैं,वो आपके सामने है।

मैंने लघु पत्रिकाओं के कम संसाधनों की बात की थी। आप सोच नहीं सकते कि वो कथादेश का हर अंक कितनी मुश्किल से निकाल पाते हैं। 


उनके लिए यह शेर बहुत मौज़ूं है


जिस हाल में जीना मुश्किल है

उस हाल में जीना लाज़िम है।

उनका घर ही उनकी पत्रिका का दफ्तर है। बहुत कम इच्छाओं  के साथ जीवन जीने वाले हरिनारायण जी की एक ही प्रबल इच्छा है कि

कथादेश निकलती रहे।


ग़ौरतलब है कि नया ज्ञानोदय जब दोबारा निकलना शुरू हुआ तो उसके संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय जी थे। वो बौद्धिक और नफासतपंसद अदीब थे।


पहल के ज्ञान रंजन जी ने जो तरक्की पसंद माहौल बनाया और पहल को एक ज़रूरी पत्रिका के रुप में उपस्थित किया।

मैं पहल के आठवें अंक से जुड़ पाया। वो अंक उर्दू साहित्य पर बहुत विमर्श तलब अंक था। देरिदा और वाल्टर बेंजामिन ,पर अंक निकाले।पहले ज्ञान  जी ग़ज़लें नहीं छापते थे, बाद में वो ग़ज़लें भी छापने लगे।पहल के  सौवें अंक  पर हिंदी साहित्य में जश्न का माहौल था। अब पहल बंद हो चुकी है।इस उम्र में पत्रिका निकालना ज्ञान जी के बहुत मुश्किल है। वो सेहतमंद रहें।

परिकथा के सौवें अंक ने भी आश्वस्त किया है कि साहित्य की दुनिया में कुछ कर गुजरने वालों की कमी नहीं है।


आपमें से किसी को याद हो कि सारंगा जैसी खूबसूरत , कलरफुल पत्रिका भी निकलती थी। एक दो अंक छाया मयूरी के भी निकले जिसके संपादक अवधारणा मुद्गल थे।

अक्षरवार्त बहुत समय तक निकलती रही।


ग़ज़ल कार के कुछ बेहतरीन अंक दीपक रूहानी ने निकाले। वो शायरी केंदित पत्रिका थी।

लखनऊ से कथाक्रम पत्रिका निरंतर निकल रही है। उद्भावना के संपादक अजेय कुमार नियमित पत्रिका निकाली रहे हैं।

पल्लव बनास जन पत्रिका को नयी संचेतना देने की सफल कोशिशें करते रहते हैं। फिलहाल, उन्होंने कथेतर किताबों का समीक्षा अंक निकाला है।

आकार जबसे प्रियवंद  के संपादन में निकलने लगी है ज़्यादा ज़रूरी और विचारोत्तेजक हुई है।

शेष के संपादक हसन जमाल साहब थे। उन्होंने बड़े करीने से बड़े ताप से शेष को निकाला। हर अंक में एक पंक्ति  दो ज़बानों की एक किताब।

आपने शेष को  पढ़ा होगा और महसूस किया होगा कि वो एक भरपूर किताब थी और दो ज़बानों की। उर्दू अदब के बड़े अदीबों को हमने शेष पत्रिका के ज़रिए पढ़ा।हसन जमाल बड़ी मुश्किलों  से अंक निकालते थे। वही आर्थिक संकट। पत्नी की मृत्यु के बाद हसन जमाल साहब कुछ  टूट से गये। कुछ अंक बाद में भी निकाले। अब शेष पत्रिका बन्द है। हसन जमाल सेहतमंद रहें।


दोआबा उसी संवेदना का विस्तार है। पत्रिका के संपादक जाबिर हुसैन साहब ने हिंदी उर्दू साहित्य को संजीदगी से  केंद्र में रखा।

पंकज बिष्ट ने समयांतर पत्रिका को विचार पत्रिका के रुप में बहुत मन और श्रम के साथ निकाला। साल में दो अंक किताबों के लिए मुकर्रर किए।

देश हरियाणा को डा सुभाष चन्द्र ने बड़ी लगन और निष्ठा से निकाला।उनकी यह हार्दिक कोशिश रही कि अपनी मिट्टी की बू बास और रचनात्मक  शऊर मौजूद रहे।

हरियाणा से कुछ अंक अथ पत्रिका के भी निकले जिसके संपादक ललित कार्तिकेय थे।


पाखी प्रेम भारद्वाज  के संपादन में दम।से समय तक निकलती रही। उनकी मृत्यु के बाद, यह दायित्व जोशी जी ने अपने सर लिया। पंकज शर्मा जी की एकाग्रता भी पाखी में शामिल है।

हरियाणा से तारिका पत्रिका को महाराज कृष्ण निकालते थे। अम्बाला छावनी से।वो विकलांग थे और पत्रिका निकालने जैसा जटिल काम अपने ज़िम्मे ले रखा था।

अम्बाला  शहर से विकेश निझावन भी पत्रिका निकालते रहे हैं। खराब सेहत के बावजूद उन्होंने अभी एक नया अंक निकाला है। वो सेहतमंद रहें। दुआएं।


सरकारी पत्रिकाओं पर आरोप लगते रहे हैं कि वो अच्छी नहीं निकलती। राकेश रेणु ने आजकल में क़दम क्या रखा कि पत्रिका बहुत सशक्त हो गई। भारत भारद्वाज ने पुस्तक वार्ता के बहुत मेयारी अंक निकाले।


तद्भव एक ज़रूरी पत्रिका है।


फिलहाल, वनमाली कथा, हंस, कथादेश, पाखी ,परिकथा, नया ज्ञानोदय, बनास जन , कथा क्रम , समकालीन भारतीय साहित्य जैसी ज़िम्मेदारी से भरपूर साहित्य के प्रति निष्ठावान पत्रिकाएं निकल रही हैं।

और भी होंगी ज़रूरी पत्रिकाएं।


शुभकामनाएं।


ज्ञान प्रकाश विवेक 

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

माखन मलाई मिसरी की मधुराई, /किशोर कुमार कौशल 9899831002



 ' माखन मलाई मिसरी की मधुराई,बंसी हिय में समाई कोऊ और ना बखान्यौ ए। 


गैया हू चराई ग्वाल-बालन मिताई,ऐसौ बाँकौ जदुराई कोऊ और नाय मान्यौ ए। 


देखि चतुराई सुघराई ब्रजगोपिन की,मुदित कन्हाई नै सनेह उन सान्यौ ए। 


खोजें मीराबाई सूर लीला दरसाई,देव घनानंद गाई तौ पै महिमा ना जान्यौ ए।।

*   *   *   *   *   *   *   *   *

--- किशोर कुमार कौशल 

      9899831002

रामधारी सिंह दिनकर की बाल कविताएं

 

. सूरज का ब्याह

उड़ी एक अफवाह, सूर्य की शादी होने वाली है,
वर के विमल मौर में मोती उषा पिराने वाली है।

मोर करेंगे नाच, गीत कोयल सुहाग के गाएगी,
लता विटप मंडप-वितान से वंदन वार सजाएगी!

जीव-जन्तु भर गए खुशी से, वन की पाँत-पाँत डोली,
इतने में जल के भीतर से एक वृद्ध मछली बोली-

‘‘सावधान जलचरो, खुशी में सबके साथ नहीं फूलो,
ब्याह सूर्य का ठीक, मगर, तुम इतनी बात नहीं भूलो।

एक सूर्य के ही मारे हम विपद कौन कम सहते हैं,
गर्मी भर सारे जलवासी छटपट करते रहते हैं।

अगर सूर्य ने ब्याह किय, दस-पाँच पुत्र जन्माएगा,
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पाएगा?

अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंश विहीन, अकेला है,
इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।’’

2. मिर्च का मज़ा

एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!

‘‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’

‘‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!

मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!

मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।

पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?

आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!

इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’

कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’

3. चांद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

4. चूहे की दिल्ली-यात्रा

चूहे ने यह कहा कि चूहिया! छाता और घड़ी दो,
लाया था जो बड़े सेठ के घर से, वह पगड़ी दो।
मटर-मूँग जो कुछ घर में है, वही सभी मिल खाना,
खबरदार, तुम लोग कभी बिल से बाहर मत आना!
बिल्ली एक बड़ी पाजी है रहती घात लगाए,
जाने वह कब किसे दबोचे, किसको चट कर जाए।
सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,
आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।
चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ,

दिल्ली में देखूँगा आज़ादी का नया जमाना,
लाल किले पर खूब तिरंगे झंडे का लहराना।
अब न रहे, अंग्रेज, देश पर अपना ही काबू है,
पहले जहाँ लाट साहब थे वहाँ आज बाबू है!
घूमूँगा दिन-रात, करूँगा बातें नहीं किसी से,
हाँ फुर्सत जो मिली, मिलूँगा जरा जवाहर जी से।
गाँधी युग में कैन उड़ाए, अब चूहों की खिल्ली?
आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।
चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ,

पहन-ओढ़कर चूहा निकला चुहिया को समझाकर,
इधर-उधर आँखें दौड़ाईं बिल से बाहर आकर।
कोई कहीं नहीं था, चारों ओर दिशा थी सूनी,
शुभ साइत को देख हुई चूहे की हिम्तत दूनी।
चला अकड़कर, छड़ी लिये, छाते को सिर पर ताने,
मस्ती मन की बढ़ी, लगा चूँ-चूँ करके कुछ गाने!
इतने में लो पड़ी दिखाई कहीं दूर पर बिल्ली,
चूहेराम भगे पीछे को, दूर रह गई दिल्ली।
चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ,

5. पढ़क्‍कू की सूझ

एक पढ़क्‍कू बड़े तेज थे, तर्कशास्‍त्र पढ़ते थे,
जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे।

एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए,
"बैल घुमता है कोल्‍हू में कैसे बिना चलाए?"

कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है?
सिखा बैल को रक्‍खा इसने, निश्‍चय कोई ढब है।

आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे,
"अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे?

कोल्‍हू का यह बैल तुम्‍हारा चलता या अड़ता है?
रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है?"

मालिक ने यह कहा, "अजी, इसमें क्‍या बात बड़ी है?
नहीं देखते क्‍या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है?

जब तक यह बजती रहती है, मैं न फिक्र करता हूँ,
हाँ, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूँछ धरता हूँ"

कहाँ पढ़क्‍कू ने सुनकर, "तुम रहे सदा के कोरे!
बेवकूफ! मंतिख की बातें समझ सकोगे थोड़े!

अगर किसी दिन बैल तुम्‍हारा सोच-समझ अड़ जाए,
चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए।

घंटी टून-टून खूब बजेगी, तुम न पास आओगे,
मगर बूँद भर तेल साँझ तक भी क्‍या तुम पाओगे?

मालिक थोड़ा हँसा और बोला पढ़क्‍कू जाओ,
सीखा है यह ज्ञान जहाँ पर, वहीं इसे फैलाओ।

यहाँ सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है,
बैल हमारा नहीं अभी तक मंतिख पढ़ पाया है।

6. बर्र और बालक

सो रहा था बर्र एक कहीं एक फूल पर,
चुपचाप आके एक बालक ने छू दिया

बर्र का स्वभाव,हाथ लगते है उसने तो,
ऊँगली में डंक मार कर बहा लहू दिया

छोटे जीव में भी यहाँ विष की नही कमी है,
टीस से विकल शिशु चीख मार,रो उठा

रोटी को तवे में छोड़ बाहर की और दौड़ी,
रोना सुन माता का ह्रदय अधीर हो उठा

ऊँगली को आँचल से पोछ-तांछ माता बोली,
मेरे प्यारे लाल!यह औचक ही क्या हुआ?

शिशु बोला,काट लिया मुझे एक बर्र ने है,
माता !बस,प्यार से ही मैंने था उसे छूआ

माता बोली,लाल मेरे,खलों का स्वभाव यही,
काटते हैं कोमल को,डरते कठोर से

काटा बर्र ने कि तूने प्यार से छुआ था उसे,
काटता नही जो दबा देता जरा जोर से

7. किसको नमन करूँ मैं भारत?

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

तू वह, नर ने जिसे बहुत ऊँचा चढ़कर पाया था;
तू वह, जो संदेश भूमि को अम्बर से आया था।
तू वह, जिसका ध्यान आज भी मन सुरभित करता है;
थकी हुई आत्मा में उड़ने की उमंग भरता है ।
गन्ध -निकेतन इस अदृश्य उपवन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?

वहाँ नहीं तू जहाँ जनों से ही मनुजों को भय है;
सब को सब से त्रास सदा सब पर सब का संशय है ।
जहाँ स्नेह के सहज स्रोत से हटे हुए जनगण हैं,
झंडों या नारों के नीचे बँटे हुए जनगण हैं ।
कैसे इस कुत्सित, विभक्त जीवन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?

तू तो है वह लोक जहाँ उन्मुक्त मनुज का मन है;
समरसता को लिये प्रवाहित शीत-स्निग्ध जीवन है।
जहाँ पहुँच मानते नहीं नर-नारी दिग्बन्धन को;
आत्म-रूप देखते प्रेम में भरकर निखिल भुवन को।
कहीं खोज इस रुचिर स्वप्न पावन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का बाल-काव्य
(डा. महेंद्र भटनागर)

‘दिनकर’ जी हिन्दी के उच्च-कोटि के यशस्वी कवि हैं। विषय-वैविध्य उनके काव्य की एक विशेषता है। इसके अतिरिक्त उनके काव्य का स्वरूप भी विविधता लिए हुए है। एक ओर तो उनकी रचनाएँ भाव-धारा की दृष्टि से इतनी गहन हैं तथा साहित्यिक सौन्दर्य से वे इतनी समृद्ध हैं कि उनका आस्वाद्य केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के पाठक ही कर सकते; तो दूसरी ओर उनका काव्य इतना सरल-सरस है कि समान्य जनता के हृदय में सुगमता से उतरता चला जाता है। उनके ऐसे ही साहित्य ने देश के नौजवानों में क्रांति की भावना का प्रसार किया था। ऐसी रचनाओं में वे एक जनकवि के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। पर, ‘दिनकर’ जी का काव्य-व्यक्तित्व यहीं तक सीमित नहीं है। उन्होंने किशोर-काव्य और बाल-काव्य भी लिखा है। यह अवश्य है कि परिमाण में ऐसा काव्य अधिक नहीं है तथा इस क्षेत्र में उन्हें अपेक्षाकृत सफलता भी कम मिली है।
बाल-काव्य लिखना कोई बाल-प्रयास नहीं तथा वह इतना आसान भी नहीं। बाल-काव्य के निर्माता का कवि-कर्म पर्याप्त सतर्कता और कौशल की अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रगतिशील और स्वस्थ राष्ट्र अपने बच्चों की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिस भाषा के साहित्य में बाल-साहित्य का अभाव हो अथवा वह हीन कोटि का हो; तो उस राष्ट्र एवं उस भाषा के साहित्यकारों को जागरूक नहीं माना जा सकता। बच्चे ही बड़े होकर देश की बागडोर सँभालते हैं। वे ही देश के भावी विकास के प्रतीक हैं। उनके हृदय और मस्तिष्क का संस्कार यथासमय होना ही चाहिए।
यह कार्य साहित्य के माध्यम से सर्वाधिक प्रभावी ढंग से होता है। इसके अतिरिक्त साहित्य से बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन भी होता है। वह उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है। इससे उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है; जो अन्ततोगत्वा राष्ट्र अथवा मनुष्यता को सबल बनाने में सहायक सिद्ध होता है।
जो कवि सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं तथा जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं, प्रतिबद्ध हैं, वे बाल-साहित्य लिखने के लिए भी अवकाश निकाल लेते हैं। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे अतल-स्पर्शी रहस्यवादी महाकवि ने कितना बाल-साहित्य लिखा है; यह सर्वविदित है। अतः ‘दिनकर’ जी की लेखनी ने यदि बाल-साहित्य लिखा है तो वह उनके महत्त्व को बढ़ाता ही है।
बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’ में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं। ’मिर्च का मजा’ में एक मूर्ख काबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है —
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसिम का कोई मीठा फल होगा।
-और जब कुँजड़िन उससे कहती है कि ‘यह तो सब खाते हैं, तो वह चार आने की सेर भर लाल मिर्च ख़रीद लेता है और नदी के किनारे बैठ कर खाने लगता है। खाते ही —
मगर, मिर्च ने तुरंत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में जल भर आया।
-यहाँ तक तो ठीक था। पर, चूँकि उस मूर्ख काबुलीवाले ने इन मिर्चों पर चार आने ख़र्च किये हैं; इसलिए वह उन्हें फेंकना ठीक नहीं समझता। उन्हें खाकर ख़त्म कर देना चाहता है। उसका स्पष्ट कथन है कि मैं मिर्च नहीं —’खाता हूँ पैसा’ !
इस प्रकार यह कविता हास्य का सृजन करती है। हास्य का आलम्बन एक मूर्ख व्यक्ति (काबुलीवाला) है। निस्संदेह लोगों की मूर्खता पर हम बराबर हँसते हैं। यह कविता संकलन की प्रथम व प्रमुख कविता है। इसी कविता के शीर्षक पर पुस्तक का नामकरण हुआ है।

मिर्च को देखकर काबुलीवाला कहता है-‘क्या अच्छे दाने हैं।’ यहाँ मिर्च का आकार भी दृष्टव्य है ! ‘खाने से बल होगा’ का अर्थ कि इन ‘दानों’ के खाने से शक्ति बढे़गी ! ‘मौसिम’ शब्द कवि के अरबी के ज्ञान का परिचायक है; जबकि ‘मज़ा’ और ‘ज़रूर’ कवि को रुचिकर नहीं! चवन्नी की एक सेर लाल मिर्च से ज़ाहिर होता है कि यह कविता उस समय की लिखी हुई है जब चीजें बहुत सस्ती रही होंगी। (कविताओं के अन्त में रचना-काल अंकित नहीं है; यद्यपि कुछ कविताओं की विषय-सामग्री से स्पष्ट होता है कि वे स्वातन्त्र्योत्तर काल की हैं।) ‘खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाये छोड़ें ?' — में ‘सधाये’ स्थानिक प्रयोग है।

‘पढ़क्कू की सूझ’ की विषय-सामग्री चिर-परिचत है; मात्र उसे पद्यबद्ध किया गया है। इस कविता में ‘मंतिख’ शब्द का प्रयोग है; यद्यपि अन्त में टिप्पणी दे दी गयी है कि ‘मंतिख' तर्कशास्त्र को कहते हैं। ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ और ‘अंगद कुदान’ बाल-मनोविनोद के सर्वाधिक उपयुक्त हैं। ‘अंगद कुदान’ के भी कुछ शब्द-प्रयोग कम प्रचलित हैं; यथा-पंघत (पंगत), आधी नीबू (आधा नीबू), मुस्की (स्थानिक प्रयोग), पिहकारी (पक्षियों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द; वानरों के लिए प्रयुक्त ) आदि।

‘मामा के लिए आम’ शीर्षक कविता ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ के समान बाल-विनोद की रचना है। इसमें गीदड़ (गीदड़ पांडे !) की चतुराई बतायी गयी है। गीदड़ झूठ बोलने में सफल हो जाता है। झूठ बोलने के कारण उसकी दुर्गति नहीं होती। अतः शैक्षिक प्रभाव बच्चों के अनुकूल नहीं। वे भी गीदड़ के समान चतुर बनना चाहेंगे; झूठ बोलेंगे। गीदड़ को तो झूठ बोलने में लाभ रहा; पर हो सकता है, बच्चों को इसका कुफल भोगना पड़े। ‘झब्बू का परलोक सुधार’ एक मूर्ख चेले का आख्यान है। बिना सोचे-समझे आँखें बंद करके अनुकरण करने वालों पर व्यंग्य। इस प्रकार ‘मिर्च का मजा’ की अधिकांश कविताओं के पात्र मूर्ख हैं तथा इन कविताओं से हास्य की सृष्टि होती है। बालकों का मनोरंजन इस पुस्तिका से सम्भव है। ’सूरज का ब्याह’ की अधिकांश कविताएँ ‘मिर्च का मजा’ की कविताओं के समान हैं। सूरज और उषा के विवाह का प्रंसग ‘सूरज का ब्याह’ में है। इसमें एक वृद्ध मछली का कथन पर्याप्त तर्क-संगत है —
अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस-पाँच पुत्र जन्मायेगा
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पायेगा ?
अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंशहीन, अकेला है,
इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।

‘मेमना और भेड़िया’ में सुरक्षित स्थान पर खड़े मेमने की चुहलबाज़ी बच्चों के लिए रोचक है। ‘चाँद का कुर्ता’ शीर्षक कविता चन्द्रमा की कलाओं को लक्ष्य करके लिखा गया है। प्रस्तुत कविता किंचित उपदेशप्रद है; जो एक तथ्य की बात बच्चों के सम्मुख रखती है। कुत्ता खरगोश को पकड़ नहीं पाता। इस पर कुत्ते का कथन ध्यान देने योग्य है — मैं तो दौड़ रहा था केवल दिन का भोजन पाने
लेकिन, खरहा भाग रहा था अपनी जान बचाने,
कहते हैं सब शास्त्र, कमाओ रोटी जान बचाकर।
पर, संकट में प्राण बचाओ सारी शक्ति लगाकर।

‘ज्योतिषी तारे गिनता था’ का पात्र एक मूर्ख व्यक्ति है। तारे गिनने वाला एक मूर्ख ज्योतिषी कुएँ में गिर पड़ता है। इसलिए ‘चलो मत आँखें मीचे ही, देख लो जब तब नीचे भी’। 'चील का बच्चा’ में चील के बच्चे के ऊधम का उल्लेख है। पर, यह कविता हास्य-विनोद की न होकर कुछ करुण हो गयी है। चील का बच्चा बीमार है। अनेक दवाइयाँ दी गयीं, पर वह ठीक नहीं हुआ। किसी देवता के आशीष की उसे कामना है ; पर कोई देवता उसे आशीष देनेवाला नहीं। क्यों कि —
माँ बोली, ‘ऊधमी! कहाँ पर जाऊँ मैं!
कौन देवता है जिसको गुहराऊँ मैं!
किस चबूतरे पर न चोंच तूने मारी!
चंगुल से तूने न ध्वजा किसकी फाड़ी!
किसकी थाली के प्रसाद का मान रखा?
तूने किसके पिंडे का सम्मान रखा?
किसी देव के पास नहीं मैं जाऊँगी,
जाऊँ तो केवल उलाहना पाऊँगी।
रूठे हैं देवता, न कोई चारा है
ले ईश्वर का नाम कि वही सहारा है।
इस कविता में भी ‘घोंसले’ के लिए ‘खोंते’ शब्द का प्रयोग किया है। इसी प्रकार ‘चतुर सूअर‘ एक आँचलिक शब्द पजाने का प्रयोग है। वह एकांत में जब-तब अपने दाँत पजा लेता है; क्यों कि —
.हँसकर कहा चतुर सूअर ने, ''दुश्मन जब आ जायेगा
दाँत पजाने की फुरसत तो मुझे नहीं दे पायेगा।
इसलिए, जब तक खाली हूँ दाँत पजा धर लेता हूँ,
पेट फाड़ने की दुश्मन का तैयारी कर लेता हूँ !''

‘बर्र और बालक’ का सार निम्नलिखित उपदेश है —
माता बोली, लाल मेरे, खलों का स्वभाव यही,
काटते हैं कोमल को, डरते कठोर से।
काटा बर्र ने कि तूने प्यार से छुआ था उसे,
काटता नहीं जो दबा देता जरा जोर से।

कविता की भूमिका में घटना का उल्लेख कर दिया है ; जो इस प्रकार है —
''अल्लाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौर पर कब्जा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के किले में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था; जिसका बदला हम्मीर ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि ‘तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।’ इस रचना में ‘दिनकर’ जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है; क्यों कि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। ’बालक हम्मीर’ कविता राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती हैं —
धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।



बुधवार, 14 दिसंबर 2022

कमाल का लिखा..

 पता नहीं किसने लिखा पर जिसने भी लिखा कमाल का

 लिखा..हैं. 



मुझे दहेज़ चाहिए

तुम लाना तीन चार ब्रीफ़केस

जिसमें भरे हो

तुम्हारे बचपन के खिलौने

बचपन के कपड़े

बचपने की यादें

मुझे तुम्हें जानना है

बहुत प्रारंभ से..


तुम लाना श्रृंगार के डिब्बे में बंद कर

अपनी स्वर्ण जैसी आभा

अपनी चांदी जैसी मुस्कुराहट

अपनी हीरे जैसी दृढ़ता..


तुम लाना अपने साथ

छोटे बड़े कई डिब्बे

जिसमें बंद हो

तुम्हारी नादानियाँ

तुम्हारी खामियां

तुम्हारा चुलबुलापन

तुम्हारा बेबाकपन

तुम्हारा अल्हड़पन..


तुम लाना एक बहुत बड़ा बक्सा

जिसमें भरी हो तुम्हारी खुशियां

साथ ही उसके समकक्ष वो पुराना बक्सा

जिसमें तुमने छुपा रखा है

अपना दुःख

अपने ख़्वाब

अपना डर

अपने सारे राज़

अब से सब के सब मेरे होगे..


मत भूलना लाना

वो सारे बंद लिफ़ाफे

जिसमें बंद है स्मृतियां

जिसे दिया है

तुम्हारे मां और बाबू जी ने

भाई-बहनों ने

सखा-सहेलियों ने

कुछ रिश्तेदारों ने..


न लाना टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन

लेकिन लाना तुम

किस्से

कहानियां

और कहावतें अपने शहर के..


कार,मोटरकार हम ख़ुद खरीदेंगे

तुम लाना अपने तितली वाले पंख

जिसे लगा

उड़ जाएंगे अपने सपनों के आसमान में..

😊😊



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अँजुरी_भर_अंगारा / प्रवीण परिमल

 गीत :  

 #अँजुरी_भर_अंगारा / प्रवीण परिमल 


यदि तुमने कुछ दिया मुझे, तो 

अँजुरी भर अंगारा! 


पीर हुई पर्वत- सी दिल की 

उर में उठे फफोले, 

मिले नेह के बदले तुमसे 

सिर्फ दहकते शोले। 

अमृत- सा जीवन- जल मेरा 

किया तुम्हीं ने खारा! 


सहज भाव से कभी न तुमने 

निर्मित किया घरौंदा, 

मेरे स्वप्निल ताजमहल को 

फिर भी तुमने रौंदा 

अपना तन- मन- धन तिस पर भी 

मैंने तुम पर वारा। 


लाँघ गई लक्ष्मण- रेखा, पर 

हुई नहीं तुम सीता, 

अपने मन से रही कुतरती 

रामायण औ' गीता। 

रही तुम्हारे लिए शिला बस, 

गिरजा या गुरुद्वारा!


कौन तुम्हें समझाए, क्योंकर 

गीत हुए दर्दीले, 

तृप्ति- द्वार पर पड़े- पड़े क्यों 

सूखे अक्षत पीले! 

घनी दुपहरी में ही तुमने 

फैलाया अँधियारा! 


बूँद- बूँद कर रहा पिघलता 

घटता गया हिमालय, 

द्रवित नहीं पर हुआ तुम्हारे 

अंतः का देवालय। 

भाग्य- पटल पर लिखा नियति का 

लेख न तनिक सँवारा।

▪▪

सोमवार, 12 दिसंबर 2022

रवि अरोड़ा की नजर से....

 लफ्फाजी की कोई हद तो तय हो जी / रवि अरोड़ा



मेरा एक मित्र आजकल कुछ ज्यादा ही घर घुस्सू हो गया है। जरूरी कार्यक्रमों में भी नहीं पहुंचता। पूछने पर पहले सौ बहाने लगाता है और फिर हंस कर स्वीकार कर लेता है टेलीविजन पर फीफा वर्ल्ड कप मैच देख रहा था । खोज ख़बर ली तो पता चला कि मेरे कई अन्य परिचित भी फुटबॉल का महा संग्राम देखने में आजकल मशगूल हैं। जानकर बड़ी हैरानी हुई कि पागलपन की हद तक क्रिकेट के दीवाने इस मुल्क में क्या अभी भी फुटबॉल के चाहने वाले लोग बाकी हैं ? यदि हैं तो फिर फुटबॉल खेलते हुए कोई क्यों नहीं दिखता ? क्या मैच देखने भर का ही है यह जुनून ?


मानें तो यह बेहद शर्म की बात है और न मानें तो कुछ भी नहीं कि अगले कुछ महीनों में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने जा रहा हमारा देश फीफा वर्ल्ड कप खेलना तो दूर क्वालीफाई भी नहीं कर पाता । कहने को तो हम कहते हैं कि भारत में पहला फुटबॉल मैच सन 1802 में खेला गया और 1893 से हमारा अपना फुटबॉल महासंघ है मगर इसका परिणाम क्या है ? बेशक 1948 से हम एशियाई फुटबॉल महासंघ के भी सदस्य हैं मगर क्या कारण है कि फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय संघ ( फीफा ) में हमारी रैंकिंग 104वीं है ? एक बार तो यह गिर कर 173वें स्थान पर भी आ चुकी है। कुल जमा एक बार ही हम 1950 में फीफा वर्ल्ड कप क्वालीफाई कर पाए मगर तब भी हम कोई मैच इसलिए नहीं खेल सके कि हमारे खिलाड़ियों के पास जूते तक नहीं थे और फेडरेशन ने नंगे पांव हमें खिलाने से मना कर दिया । पिछले 72 सालों में तरक्की के तमाम दावों के बीच आज भी हमारी स्थिति यह है कि हमारे पास फीफा की नियमवालियों के अनुरूप खेल के मैदान तक नहीं हैं । 


फुटबॉल के मामले में भारत हमेशा से फिसड्डी रहा हो , ऐसा भी तो नहीं है। सन 1911 में भारतीयों के मोहन बागान क्लब ने अंग्रेजी फ़ौज की रेजिमेंटल टीम को एक बड़े मैच में हरा कर पूरे बंगाल में धूम मचा दी थी । बागान की जीत ने यह मिथक भी तोड़ा कि अंग्रेज अजेय हैं और उन्हें किसी भी मामले में हराया नहीं जा सकता । इतिहासकार बताते हैं कि देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने में इस मैच की भी भूमिका थी। बंगाल में फुटबॉल की सौ साल पहले जितनी दीवानगी तो अब नहीं है मगर केरल, बंगाल और गोवा में आज भी थोड़ा बहुत फुटबॉल खेला जाता है। बंगाल में फुटबॉल का नशा एक दौर में लोगों के सर इस कदर चढ़ कर बोलता था कि दो बड़ी टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के फैन एक दूसरे के यहां शादी तक नहीं करते थे । बेशक इतनी दीवानगी की अब कोई जरूरत नहीं है मगर फिर भी थोड़ी बहुत कुछ तो हो । आज दो सौ देशों के दो सौ करोड़ लोग टेलीविजन से चिपके मैच देख रहे हैं और हम खुद को विश्व गुरू बताने के बावजूद चुपचाप घर बैठे हैं। क्या सिर्फ यह दावा करने से ही काम चल जाएगा कि भारत ने ही दुनिया को फुटबॉल दिया और भगवान कृष्ण अपने सखाओं के साथ यमुना किनारे जिस गेंद से खेलते थे, वह फुटबॉल ही थी। लफ्फाजी की कोई हद तो तय हो जी ।


वनमाली कथा नव लेखन विशेषांक। ज्ञान प्रकाश विवेक की नजर

 


इस शानदार तहरीक ,बहुत ताज़ादम  की मौजूदगी के लिए संपादक जी हमारे कुणाल, संतोष चौबे जी और वनमाली कथा के तमाम सहयोगियों का ख़ैरमकदम।


इस अंक की कहानियां पढ़ते हुए  मेरे ज़ेहन में एक मिसरा कौंधता रहा


मैं आसमान के माथे को चूम आया हूं।


यह कहानी नवलेखन अंक

जैसे कि युवा अदीबों ने शब्दों के ताप और भाषा की लोच, लय, और कथा जगत के विस्तार और विषय की व्यापकता का बड़ी शिद्दत से एहसास कराया हो।


एक ज़माना पहले जब उर्दू के नक्काद किसी बड़े अदीब पर लिखते तो दो बातों का ज़रुर ज़िक्र करते। कि वो ज़बान का शायर है यानी बहुत साफ़ ज़बान है।दूसरी बात ये कि वो अपना लिखता है यानी, मौलिक लिखता है।

ये दोनों बातें मैं नवलेखन अंक तमाम कथाकारों के लिए बहुत विश्वास के साथ कह सकता हूं।

ये नये कथा लेखक अकेले नहीं आए, अपने साथ अपना मुहावरा और विजन भी लेकर आए हैं।


विशेषांक की मैं सभी कहानियां तो नहीं पढ़ पाया, कुछ छूट गई हैं, वो अगली किसी नशिस्त पर।

फिलहाल जो कहानियां पढ़ी हैं, उन पर संक्षिप्त सी तहरीर।


आशीष शुक्ला और सौरभ सिंह की पहली कहानी है लेकिन इन कहानियों को पढ़कर लगता है जैसे बहुत कहानियां लिख चुके हों। दोनों युवा कथाकारों का अपनी कथा भाषा और शैली है। आशीष की कहानी में कमाल की रवानी है। वो एक मध्यमवर्गीय परिवार के ज़रिए नये समय की रिफ्लैक्शन को व्यक्त करते हैं। सौरभ सिंह के पास जो भाषा है वो ग़ैर मामूली है। कहानी में अकेले मनुष्य और अकेलेपन को बहुत गूड़ ओर प्रतीकात्मक लहजे में रचते हैं। अकेलापन खुद एक किरदार है। दोनों कहानी लेखकों की ये पहली और सशक्त कहानी है।


उतनी मानीखेज और तहदार कहानी युवा कथाकार और कवयित्री पूनम अरोड़ा की है। पूनम पहले भी बहुत सारी कहानियां लिख चुकी हैं।उनकी लेखन शैली जितनी कविता में मुख़तलिफ़ है उतनी कहानी में भी। उनकी कहानी। तुम पर धिक्कार है अनारकली ।

बहुत प्रतीकात्मक शीर्षक है।

कहानी में बग्ज़ निकालती स्त्री पात्र, दरहकीकत, पूरे परिदृश्य पर हस्तक्षेप करती है।एक स्त्री जब घर से जाब के लिए निकलती है तो हर क़दम पर बदनीयती के कीड़ों से टकराती है। स्त्री संसार  के मनोभाव, द्वंद, ख़लिश, व्याकुलता और क्षोभ को बहुत महीन और तीक्ष्ण कथा शैली में रचती हैं।

पूरी कहानी में दृश्यों की रचना है । जैसे कि बिम्ब , ख़ामोश ज़बान में बोल रहे हों।


यही ख़ामोश ज़बान में  पुई का बोलना , पुई कहानी में है। छ सात साल की न बोलने वाली लड़की या कहें कि बच्ची पात्र

को कितनी जीवंतता प्रदान की है।वो नहीं बोलती लेकिन उसकी ख़ामोशी बोलती है। पेड़ पौधे पक्षी उसका ख़ामोश भाषा समझते हैं। कहानी में चार किरदार है। पुई टीचर दादी और पुई का पिता चंदन। इन पात्रों के बीच बुनी गई,जैसे कि मासूमियत के किरोशिये से कहानी को बुन दिया हो। अंत बहुत चौंका देने वाला और बहुत शानदार। बहुत अच्छी कहानी।


नोई अक्का उषा दशोरा की बहुत उत्कृष्ट कहानी है।टीन एजर्स की साइकी को कहानी का तो पहले भी बनता रहा है । यहां मिज़ाज दूसरा है। मुहावरा और शिल्प की क्या बात करें । कहानी जैसे दृश्यों में व्यक्त की गई हो।भाषा हर दृश्य में अपना रूप और लहजा बदलती है। यह बहुत बड़ी बात है। कहानी में आश्रम और बाबा के ज़रिए जो लोक रंग लोक भाषा का सृजन हुआ है वो चकित करता है। कहानी बहुत बहुत अच्छी है।


उज़मा कलाम की बालसुलभ भय की अभिव्यक्ति है। बच्चे चूड़ैलों से डरते हैं और उनसे निजात पाने की तरकीबें आज़माते हैं। बहुत दिलकश कहानी है। भाषा खिलंदड़ी कहानी के मिज़ाज और माहौल को रचती हुई।


कांउट योर ब्लैसिंग  शिल्पी झा की पहली कहानी है और बहुत हलचल पैदा करती हुई।

कहानी एक तरह से नये समय के नये नागरिकों की कहानी है। जितना समय नया है उतनी कथा भाषा और शैली। आखिर वो क्या चीज़ है जो सब कुछ हासिल होने के बावजूद, स्त्री स्वयं को वंचित सा महसूस करती है।उस छूट गये की अव्यक्त सी ख़लिश को व्यक्त करती बहुत ताज़ादम कहानी है और यह शिल्पी की पहली कहानी है।


इमरोज़ में जीना और कहानियां लिखना बेशक ज़रूरी हो, लेकिन कदीमी रिवायतों, निशानियों, जीवन मूल्यों, पुरानी गलियों मौहल्लों आपसदारी कशिश उन्स लगाव को ज़िंदा रखना भी तो कथाकारों का जज़्बाती काम है । इसी परिदृश्य की छोटी लेकिन अच्छी कहानी अम्मी हमारी वायरल हैं, लतिका प्रियदर्शनी की।


ज़बान के ऐतबार और स्त्री पात्र की दृढ़ता भरी कहानी सबाहत आफ़रीन की कहानी है। उन्होंने कहानी में जिस माहौल की रचना की है उसकी अपनी जादूगरी है। वैशाली थापा की हेडफ़ोन कहानी बहुत छोटी सी कहानी है। कहानी में यात्रा है यात्रा में घटनाएं। लेखिका कहानी के बहाने विमर्श तो पैदा किया ही है कि गैजेट्स क्यों ज़रूरी होते चले गए ।यह एक तरह से भावजगत की कहानी भी है। ज़िंदा है अभी क़ासिद।

विस्मय रचती है और अपनी कथा भाषा , वातावरण,और  क़ासिद उपस्थित और अनुपस्थिति की कशमकश को बयान करती गूड़ रचना है।


अंक में कहानी केंद्रित दो ज़रूरी लेख हैं। बड़े अदीब़ों ने कहानी और  बाकी लिखने  के बारे में क्या कहा , उसे ज़रूर पढ़ा जाए।

बहुत मुबारक युवा कथाकारों को। सोचा ही नहीं था कि इतनी कहानियां पढ़ने को मिलेंगी। इन्होंने किसी की लकीर मिटाई नहीं है, आपनी नयी और पुख्ता लकीर खींची है।

बहुत मुबारक कुणाल सिंह

वनमाली कथा और  संतोष चौबे साहब।

शुभकामनाएं।

रविवार, 11 दिसंबर 2022

प्रेम की अविरल "सरिता" मैं तू है सागर, /अक्षिता प्रताप

 प्रेम की अविरल "सरिता" मैं तू है सागर,

मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।

आंजुरी में शुभ्र पावन नीर हूं मैं,

खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।


देख कुंदन सा मेरा चमका हुआ तन,

फूल की लड़ियों सा महका है मेरा मन।

दूसरा टिकता नहीं नयनों में कोई,

पा गई जनमों जनम का मैं रतन धन।

मैं दिये की भांति जलना चाहती हूं,

खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।


बाहुओं के वलय को विस्तार दे दे,

रूक न तू निर्भीक सारा प्यार दे दे।

मन विकल है व्यग्र है व्याकुल बहुत है,

प्रेम का अपने मुझे उपहार दे दे।

नख से शिख तक तेरी रहना चाहती हूं,

मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।


छोड़कर तुझको मैं कैसे रह सकूंगी,

विरह के क्षण न किसी से कह सकूंगी।

तू ही मेरा लक्ष्य है ये जानती हूं,

याद कर तुझको निरन्तर बह सकूंगी।

स्वप्न सारे पूर्ण करना चाहती हूं,

खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।


प्रेम की अविरल नदी मैं तू है सागर,

मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।

आंजुरी में शुभ्र पावन नीर हूं मैं,

खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।


अक्षिता प्रताप

ग्रेटर नोएडा, गौतमबुद्ध नगर

ईरान की माहरुफ शायरा शाहरुख़ हैदर की नज़्म

 


"मैं एक शादीशुदा औरत हूँ!"

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मैं एक औरत हूँ ईरानी औरत


रात के आठ बजे हैं

यहां ख़याबान सहरूरदी शिमाली पर

बाहर जा रही हूँ रोटियां ख़रीदने


न मैं सजी धजी हूँ न मेरे कपड़े ख़ूबसूरत हैं

मगर यहां सरेआम ये सातवीं गाड़ी है

जो मेरे पीछे लगी है


पूछते हैं शौहर है या नहीं

मेरे साथ घूमने चलो जो भी चाहोगी तुम्हें दूंगा 


यहां तंदूरची है वक़्त साढ़े आठ हुआ है

आटा गूंथ रहा है मगर पता नहीं क्यों

मुझे देखकर आंख मार रहा है

नान देते हुए अपना हाथ मेरे हाथ से टच कर रहा है


ये तेहरान है


सड़क पार की तो गाड़ी सवार मेरी तरफ आया

गाड़ी सवार मेरी कीमत पूछ रहा है

एक रात के कितने लेती हो 

मैं नहीं जानती थी रातों की कीमत क्या है


ये ईरान है


मेरी हथेलियां नम हैं लगता है बोल नहीं पाऊंगी

अभी मेरी शर्मिंदगी और रंज का पसीना ख़ुश्क नहीं हुआ था कि घर पहुंच गई


इंजीनियर को देखा एक शरीफ़ मर्द 

जो दूसरी मंज़िल पर 

बीवी और बेटी के साथ रहता है


सलामालेकुम 

बेगम ठीक हैं आप ठीक हैं 

आपकी प्यारी बेटी ठीक है 


वस्सलाम 

तुम ठीक हो खुश हो 

नज़र नहीं आती हो 


सच तो ये है आज रात मेरे घर कोई नहीं

अगर मुमकिन है तो आ जाओ

नीलोफ़र का कम्प्यूटर ठीक कर दो

बहुत गड़बड़ करता है

ये मेरा मोबाइल है

आराम से चाहे जितनी बात करना


मैं दिल मसोसते हुए कहती हूँ

बहुत अच्छा अगर वक़्त मिला तो ज़रूर


ये सरज़मीने-इस्लाम है

ये औलिया और सूफ़ियों की सरज़मीन है

यहां इस्लामी क़ानून राइज हैं

मगर यहां जिन्सी मरीज़ों ने मादा ए मन्विया (वीर्य) बिखेर रखा है 


न दीन न मज़हब न क़ानून

और न तुम्हारा नाम हिफ़ाज़त कर सकता है 


ये है इस्लामी जम्हूरियत और मैं एक औरत हूँ

मेरा शौहर चाहे तो चार निकाह करे और चालीस औरतों से मुताह


मेरे बाल मुझे जहन्नुम में ले जाएंगे

और मर्दों के बदन का इत्र उन्हें जन्नत में ले जाएगा


मुझे कोई अदालत मयस्सर नहीं 

अगर मेरा मर्द तलाक़ दे तो इज़्ज़तदार कहलाए


अगर मैं तलाक़ मांगू तो कहे 

हद से गुज़र गई शर्म खो बैठी


मेरी बेटी को शादी के लिए मेरी इजाज़त दरकार नहीं

मगर बाप की इजाज़त लाज़िमी है 


मैं दो काम करती हूँ 

वह काम से आता है आराम करता है

मैं काम से आकर फिर काम करती हूँ

और उसे सुकून फ़राहम करना मेरा ही काम है।


मैं एक औरत हूँ 

मर्द को हक़ है कि मुझे देखे

मगर ग़लती से अगर 

मर्द पर मेरी निगाह पड़ जाए

तो मैं आवारा और बदचलन कहलाऊं


मैं एक औरत हूँ

अपने तमाम पाबंदी के बाद भी औरत हूँ

क्या मेरी पैदाइश में कोई ग़लती थी

या वह जगह ग़लत थी जहां मैं बड़ी हूई


मेरा जिस्म 

मेरा वजूद

एक आला लिबास वाले मर्द की सोच और 

अरबी ज़बान के चंद झांसे के नाम बिका हुआ है 


अपनी किताब बदल डालूं 

या यहां के मर्दों की सोच

या कमरे के कोने में क़ैद रहूं 

मैं नहीं जानती


मैं नहीं जानती 

कि क्या मैं दुनिया में

बुरे मुक़ाम पर पैदा हुई हूँ

या बुरे मौके पर पैदा हुई हूँ।


© शाहरुख हैदर

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...