शुक्रवार, 2 जून 2017

बिहार झारखंड के कालाहांडी समान पलामू की कथा व्यथा धपेल









वाड्.मय : जुलाई 2013 के आदिवासी विशेषांक- 1 में श्याम बिहारी श्यामल के राजकमल प्रकाशन से वर्ष 1998 में छपे महत्वपूर्ण उपन्यास धपेल पर डा. दया दीक्षित का एक आलेख प्रकाशित हुआ है। आईये पढ़ते हैं यह आलेख 'जंगल की गुहार : धपेल'

दया दीक्षित

    श्याम बिहारी श्यामल का उपन्यास ‘धपेल’ पढ़ने के बाद याद आता है उत्तरांचल के कृतिकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास ‘मेरा जामक वापस दो’। विद्यासागर नौटियाल ‘जामक वापसी’ के जरिये पिछले पन्ने के लोगों या पृष्ठभूमि के लोगों की आवाज़ बनकर फ़रियाद करते हैं देश के लोकतंत्रा की वापसी’ की। अजीब इसलिये नहीं लगेगी लोकतंत्र में लोकतंत्र की वापसी’ की फरियाद, क्योंकि कुछ ‘घरानों’ की घेरेबंदी की गिरफ्त में फँसे हम सब, इस अलोकतांत्रिक शासनिक षड्यंत्र से मुक्त होना चाहते हैं! लोकतंत्र किस तरह से अलोकतंत्र में तब्दील हो रहा है, किस तरह से विचारधाराएँ मर रही हैं, किस तरह से वास्तविक नेतृत्वकर्ता भुखमरी की कगार पर अंतिम सांसे ले रहे हैं, इस सबका आँखों देखा- सा हाल मिलता है-‘धपेल’ उपन्यास में!

उपन्यास का शीर्षक ‘धपेल’ प्रतीक है मनुष्य की ‘हवस’ का। कृतिनायक घनश्याम तिवारी दस-बारह वर्षों की सुदीर्घ अवधि के बाद अपने जन्म स्थान पलामू के डाल्टनगंज में आता है। स्टेशन पर उतरते ही चिरपरिचित स्थान, वस्तुएँ, व्यक्ति उसके मन-मस्तिष्क को आच्छन्न कर लेते हैं। इसी क्रम में उसे याद आती है ‘धपेल बाबा’ की। बाबा का रहवास मार्ग में ही पड़ता है, सो रास्ते में चलते-चलते वह उन्हें देखने की इच्छा पूर्ण कर लेता है। बाबा को देख कर वह सोचता है कि क्या धपेल बाबा की यह अतिस्थूल काजलवर्णी काया, अभी भी ‘मृतक भोज’ के नाम पर ‘सेरों पसेरियों’ अन्न खा जाती होगी....। पूरे नगर में यह मान्यता थी कि यदि धपेल बाबा को खिला पिला कर संतुष्ट कर दिया जाय तो मृतात्मा को शांति मिलती है! जहाँ लोगों को दो समय का भोजन नसीब नहीं उन हालातों में मृत्यु धपेल बाबा के लिए भोजन का उत्सव है। सामान्यतया बाबा दस-बारह व्यक्तियों की खुराक अकेले ही खा लेते हैं, फिर भी पेट भरता नहीं है। अपने परिजन की आत्मशांति के लिए जितनी श्रद्धा से लोग ‘धपेल बाबा’ को खिलाते हैं, उतनी ही तत्परता/तन्मयता से धपेल बाबा भोजन मिष्ठान का भक्षण करते जाते हैं! ‘न वो कम न ये’ की स्थिति बनी ही रहती है। अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, बंधुआ मजूरी, सूखा, भुखमरी, जंगलों की अवैध कटान, पशु तस्करी जैसे क्रूरतम अमानवीय कृत्यों द्वारा धन उगाने लूटने की वृत्ति का ऐसा ‘धपेलीकरण’ हो रहा है, पूरे पलामू में, कि किसी तरह रुकता तो नहीं, वरन दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।

नेताओं, अफसरों द्वारा जो ‘धपेलीकारण’ हो रहा है उससे मुक्ति की आस में लोगों, बुद्धिजीवियों की कातर कथा है इस उपन्यास में। जिन लोगों ने अपना पूरा होश हवास लगा कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे के कंधा भिड़ा कर ‘स्वदेश’ ‘स्वराज्य’ के लिये अपने सारे स्वार्थों को न्यौछावर कर दिया, आज वे अभाव, विपन्नता और भुखमरी से पस्त एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर मौत की तरफ पल छिन बढ़ रहे हैं, मगर देश को संभालने चलाने वाली सत्ता न जाने क्यों इन्हें देख कर भी, देख नहीं पा रही! आज नेतृत्व आँखें फेरे है, तो कम्युनिस्ट विचारधारा के सत्तासीन ही क्यों देखें कि कल तक जिस कॉमरेड ने खून पसीना बहा, पार्टी के लिए, देशहित में काम किया, आज वे किस तरह तिल-तिल तड़प रहे हैं, सूखे की मार से संतप्त अन्न और जल के अभाव में घिसट-घिसट कर मौत को गले लगा रहे हैं। ‘‘कई बार की हाँक के बाद धीरे-धीरे महतो जी ने आँखें खोल दी थी। कभी का कसरती उनका हट्टा-कट्टा शरीर आज सिकुड़ी-सिकुड़ी त्वचाओं के जाल में मछली जैसा फँसा दिख रहा था। धनु बाबू के जेहन में अचानक कौंध गए मास्टर साहब! उन्होंने एक पल के लिए खाट पर महतो जी की जगह भीष्म पितामाह की तरह गिरे मास्टर साहब की छवि वहाँ प्रत्यक्ष देखी, वे काँप उठे! मार्क्स और निराला में रस्सी तानने वाले मास्टर साहब और आज़ादी की लड़ाई में सुभाषचंद्र बोस की सेना में जाकर क्रांति का बिगुल फूँकने और आज़ादी के बाद आज़ादी की बेसब्र तलाश में खुद को सलीब पर चढ़ा देने वाले महतो जी! कैसा विचित्र साम्य है! दोनों एक समय में, एक ही त्रासद अवस्था में समान तरह से भीष्म पितामाह की तरह...! एक जैसी अक्खड़ता के साथ मौत को भी अपने भय से दूर ठिठकाए, इस कदर क्यों पड़े हुए है?’’ (श्याम बिहारी ‘श्यामल’, धपेल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 232) घनश्याम तिवारी तथा उनके साथी मेहतो जी जैसे जांबाज स्वतंत्राता संग्राम सेनानी की यह हालत देख कर उनसे कहते हैं-‘‘यह देश आज कितना कृतघ्न हो चुका है कि आज़ादी मिलने के बाद वह आप जैसे जाँबाज सेनानी तक को किनारे धकेलकर खुद में मशगूल हो गया है।’’ (वही, पृ. 238) तब महतो के जवाब में पीड़ा, आक्रोश का जिस तरह से उबाल उठता है, वह आज के उन सब सेनानियों की पीड़ा है, जिन्होंने घर, परिवार, बाल-बच्चों तथा रोजी-रोटी का त्याग करके अपना तन, मन, धन अर्पित कर रक्खा था देश के लिये। महतो कहते हैं- ‘‘असल में यह देश का नहीं, यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने तमाम लड़ाइयाँ लड़ीं, आज़ादी पाने के लिए सब जतन किए और आज़ादी मिली, तो हमने जो चाहा था, सब उसके विपरीत होने लगा। हमारा दुर्भाग्य यही है कि हम आज जीवित बचकर अपने सपनों को चिंदी-चिंदी उड़ते देख रहे हैं, हमारे अरमान कुत्तों की तरह पागल होकर आर्तनाद करते मर रहे हैं और हम यह देखने को बचे हुए हैं....।’’ (वही, पृ. 238)



‘गिरजा’ इन्हीं महतो का तेजस्वी और प्रखर मुखर पुत्रा है। विचारधारा को प्राणप्रण से समर्पित! लोग पहले तो उसको परिहास में ‘लेनिन दा’ कहते हैं, मगर जिस दिन उसने उँगली काट कर अपनी खून सनी उँगली से फैज़ का ‘‘हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा माँगेंगे, एक बाग नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे, हम दुनिया भर के झंडों में इक लाल सितारा माँगेंगे’’-गीत लिखा, तब से तो वह सभी के लिए ‘लेनिन जैसा’ हो गया। यही गिरजा जेल में बंद था, राहत सामग्री बाँटने वाले की हत्या के जुर्म में! यहाँ उपन्यासकार ने गंभीर प्रश्न उठाया है, हत्या और वध में! प्रश्न भी उठाया है और ठोस तार्किकता के साथ दोनों का अंतर स्पष्ट किया है, मारे जाते सताये जाते लोगों को त्राण देने के लिए राम ने रावण का ‘वध’ किया था, अब उन परिस्थितियों को भी देख लिया जाय, जिनमें गिरजा को यह कदम उठाना पड़ा! उधर राहत सामग्री वालों का सच वही था जो धपेल बाबा का था। किसी की मृत्यु धपेल बाबा के लिए उत्सव था, उसी तरह पलामू का ‘सूखा’ कुछ खास वर्ग वालों के लिए ‘धनवर्षा’ कर देने वाला सच था। ‘‘पच्चीस-छब्बीस साल पहले सन् सड़सठ में एक ऐसा ही भीषण अकाल पलामू में पड़ा था। वह यह कहते हुए ऐसा मुद्रित हुआ, जैसे वह ‘अकाल’ नहीं कोई ‘उत्सव’ की बात बता रहा हो, ‘हमारे ही बाबूजी ने इस इलाके में उस समय विदेशी-देशी सभी राहत संस्थाओं को अपनी हथेली पर उठा रखा था। राहत का सारा सामान मेरे ही घर पर उतरता था। सूखी हुई तरह-तरह की मछली, बोरे का बोरा! पचास तरह के बिस्कुट! नारंगी के स्वाद वाले छोटे बिस्कुट! तो मीठे-मीठे बड़े बिस्कुट! दूध के स्वाद वाले पावरोटी, तो सूखा हुआ टीन का टीन दूध! गेहूँ-चावल-चूड़ा-आटा का तो कोई हिसाब ही नहीं था’....‘कुएँ जमीन पर कटे ही कहाँ थे! कुएँ तो कागज़ों पर बाऊज्जी ने खुदवा दिए और बेचारे भुखमरी के शिकार हो रहे लोगों को काम करवाए बगैर ही थोड़ा-बहुत राहत-सामान बँटवा दिया करते थे। तभी तो बहुत सारा राहत-सामान उनको फायदे के रूप में मिला। उस समय के जमाने में सोचिए अकेले मेरे बाउज्जी ने दो-ढाई लाख रुपए का मुनाफा किया था’.......‘इनके बाउज्जी ने तो उधर के कई इलाकों में तीन सौ से ज्यादा कुआँ खुदवाया था, तीन-साढे़ तीन लाख से भी ज्यादा का फायदा।’’ (वही, पृ. 138-139) इन्हीं प्रत्यक्ष यमदूतों की जमात के लोगों ने बूँद-बूँद पानी को तरसते अन्न के एक-एक दाने के मोहताज निर्बल, अशक्त और मृतप्राय लोगों मंे राहत सामग्री वितरण की जो शर्त रखी, वह वीभत्स और क्रूरता की सारी हदें पार कर गईं। शर्त यह थी कि जिन लोगों को सामग्री चाहिये, वे राहत कैंप तक चलकर आएँ! जहाँ लोग निर्जल निराहार हों, आँखें तक नहीं खोल पा रहे, वहाँ मीलों चलकर आना भला कैसे संभव हो पाता! फिर भी किसी तरह खटिया पर वृद्ध को डाल कर बाँसों के सहारे लोग जैसे-तैसे गिरते पड़ते आए, पर राहत कैंप वाला जा चुका था और उधर वृद्ध भूख प्यास से दमतोड़ गया। गिरजा चश्मदीद था इस पूरे परिदृश्य का, वह दूसरे गाँव गया, जहाँ राहत कैंप वाला अत्याचार की सारी हदें तोड़ रहा था, गिरजा ने उसे समझाना चाहा, मगर उसने गिरजा को भी ‘राहत-लूट’ का लोभ दिया, मारे गुस्से के गिरजा ने उसका गला दबोच लिया और तत्क्षण उस आतताई के अत्याचारों से लोगों को मुक्ति मिली।....बहुत बाद में माननीय न्यायालय ने भी परिस्थितियों पर गौर करके गिरजा को बरी कर दिया। केवल सरकार या शासन या नेताओं की ही नहीं बल्कि उनकी मशीनरी भी उनके पाशविक कामों में हाथ बँटाती है। भूख प्यास से मरते पलामू के जंगलों के पशु, पक्षियों, मनुष्यों को उनकी नियति पर छोड़ मनुष्यता, भावुकता, हृदय की कोमलता का सर्वथा परित्याग करके स्वार्थोन्मुखी यांत्रिकता के पुतलों में तब्दील अपने मुनाफे और नौकरी का ही निहोरा करते हैं। धनु और उसके सरकारी नौकर मित्र की बातों पर गौर कीजिये- ‘‘क्यों इस तरह आदमी की मौत और उसकी विपत्तियों का मजाक उड़ा रहे हो। लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। धरती रूई का फाहा बनकर जल रही है। कहीं पानी नहीं है। लोग प्यास से फड़फड़ा कर प्राण त्याग रहे हैं और तुम सरकारी लोग इस स्थिति को छुपाने में ही व्यस्त हो।’....‘क्या करोगे यार, यह नौकरी की मजबूरी है। ऊपर से आर्डर है कि अकाल को साबित नहीं होने देना है सिर्फ सूखे की बात पर जोर देना है। सूखा प्रदेश तो पूरे राज्य को ही बताया जा रहा है, ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा प्राप्त सहायता की मोटी रकम राज्य भर में खर्च करने की गुंजाइश रहेगी। सरकार के प्रभावशाली नेता लोग उत्तर बिहार के हैं, वे पलामू के नाम की धनराशि सूखा वाली स्थिति में ही तो अपने क्षेत्रा में खींचकर भर दम पी सकते हैं।’......‘कल मैं दिन भर राँची भूख से बेहोश तीन आदिवासियों का इलाज आर. एम. सी. एच. में करवा रहा था। उन्हें होश ही नहीं आ रहा था। होश आया भी नहीं, वे मर गए। पोस्टमार्टम में बात उभरी कि उनके पेट में एक सप्ताह से भी ज्यादा समय से अन्न का कोई दाना नहीं गया था...साहब को राँची से फ़ोन लगाया, तो मुझे आदेश हुआ कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट को सँभाल लेना है, चाहे जितना भी पैसा लगे। अन्यथा पलामू में तो बातें ढँकी-छुपी हुई हैं, राँची में दो-दो, तीन-तीन दैनिक अख़बार छपते हैं, बात उड़ेगी, तो फिर छा जाएगी। सरकार का यह दावा दूध की तरह फट जाएगा कि पलामू में अभी तक किसी की मौत भूख से नहीं हुई है और न होने दी जायेगी। मैंने तुरंत डॉक्टर से जुगाड़ बना लिया...आखिर मेरी आफिसियल  जिम्मेवारी थी, कैपिब्लिटी का सवाल था।’......‘‘हाँ, बात तो कैपिब्लिटी की ही है कि कौन कितनी लाशे खा-पका पाता है। भुखमरी में मरे निरीह लोगों की लाशे खड़े निगलना और अज्ञात बीमारी से मरी लाशे उगल देना ...बात तो कैपिब्लिटी की ही हुई आखिर....।’’(वही, पृ. 272-273) यह है हमारी कार्यपालिका का कटु सच! मगर जिस तरह पुराने समाज में भारत में एकाध  ही चोर या बुरा व्यक्ति होता था, उसी तरह से आज भी चोरों के इस जमाने में एकाथ लोग अच्छे और जमीरशुदा हैं। मगर नक्कारखाने में उनकी सामथ्र्य घनश्याम तिवारी की तरह ‘अकेले चने’ की है।

न जाने क्यों इस संदर्भ में दैनिक जागरण सात फरवरी 2013 की दो खबरें उल्लिखित करना संदर्भ के अनुसार उचित लग रहा है। अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में खबर थी-‘केसी पांडेय का स्टिंग करने वाले एसपी हटे’ इसका कुछ अंश यों है-‘‘मांग हो रही थी पशु तस्करों को बचाने के लिए गोंडा के एसपी नवनीत राणा को रिश्वत की पेशकश करने वाले राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त के. सी. पांडेय को पद से हटाने की लेकिन सरकार ने बुधवार को राणा को ही हटा दिया। उन्हें कहीं तैनाती भी नहीं दी गई है।’...‘मामला उजागर होने के बाद पता चला कि उ. प्र. सरकार ने जिन के. सी. पांडेय को राज्य मंत्री का दर्जा दिया है, उनके खिलाफ न केवल 30 दिसंबर को पशु तस्करी में शामिल होने का मुकदमा दर्ज हो चुका है बल्कि गोंडा पुलिस के लिए के. सी.  पांडेय फरार अभियुक्त हैं। उनकी गिरफ्तारी के लिए छापे मारे जा रहे हैं। दो फरवरी को खुद अपर पुलिस महानिदेशक कानून-व्यवस्था अरुण कुमार ने लखनऊ में प्रेस कांफ्रेस कर कहा था कि गोंडा के एसपी ने जो स्टिंग आपरेशन किया है, वह उनके कहने पर किया है।’...‘शासन ने पशु तस्करों को संरक्षण देने के आरोपों से घिरे उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद के उपाध्यक्ष (राज्य मंत्री दर्जा प्राप्त) के सी पांडेय के मामले की जाँच सीबीसीआइडी को सौंपी है।’......‘पूछे जाने पर प्रमुख सचिव गृह आर.एम. श्रीवास्तव ने बताया कि जाँच सीबीसीआइडी को सौपीं गयी है। जब उनसे यह पूछा गया कि जांच कितने दिनों में पूरी हो जायेगी तो उनका कहना था कि यह तो सीबीसीआइडी ही तय करेगी। उन्होंने कहा कि यह तो जाँच के दौरान तय होगा कि कितना समय लगता है।’’ (विस्तृत ब्यौरा देखें-दैनिक जागरण, कानपुर 7 फरवरी, 2013, प्रथम पृष्ठ)।

(चित्र: लेखक श्याम बिहारी श्यामल)

दूसरी ख़बर भी अख़बार के प्रथम पेज पर है- म.प्र. में मिला पचास करोड़ का वन अधिकारी’-‘‘मध्य प्रदेश में काली कमाई से करोड़पति बना एक और सरकारी कर्मचारी सामने आया है। लोकायुक्त पुलिस ने मुख्य वन संरक्षक बसंत कुमार सिंह के उज्जैन स्थित सरकारी और भोपाल के पाश इलाके में बने बंगले में छापा मार कर पचास करोड़ से ज्यादा की काली कमाई का पर्दाफाश किया है। पुलिस दस्ते को जो दस्तावेज हाथ लगे हैं, उनकी पड़ताल और बैंक लाकरों के खुलने के बाद यह आँकड़ा सौ करोड़ के आसपास पहुँचने का अनुमान है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के मूल निवासी बसंत कुमार अपने राजनीतिक संपर्कों के दम पर 25 साल की नौकरी के अधिकांश सेवाकाल में मलाईदार ओहदों पर रहे हैं।’’ यह हैं हमारे समय की सच्चाइयाँ! हमारा भी क्या मुकद्दर है जो हमें यह समय मिला। मगर इसी तर्ज पर समय भी तो हमसे यह कह सकता है कि समय का भी क्या मुकद्दर था, जिसे हम मिले! कुछ भी बोलने, कहने, लिखने से आज ‘भावनाएँ आहत’ हो जाती हैं। कितना संवेदनशील हो गया है हमारा समय? श्याम जी ने बेहद संतुलित लहजे में हमारी अलोकतांत्रिक सोच, समझ और व्यवहार को अपनी कृति ‘थपेल’ में अंकित किया है। उनके बुद्धत्व को कोटिशः। नमन! जब सारी ‘ताकत’ या ‘सत्ता’ या ‘शक्ति’ ही एक ही स्वर में रोर कर ‘रौरव नरक’ की स्थितियाँ इस शस्य श्यामला पर पैदा करने वाली हों तो कुछ पांडेबाबा जैसे नरकासुरों की भी बात हो ही जानी ज़रूरी है।

पांडे जी के कुछ उद्गारों की जबानी, उन्हीं की कथनी करनी की कहानी-‘‘भला मेरे जैसा आदमी शोषक हो सकता है, सरकार? मैं अमानवीयता और पशुता कर सकता हूँ? मैं तो यह संकल्प जीवित रखता चल रहा हूँ कि पहले अपनी छत्राछाया के दस-बीस-पचास गैर लोगों की भूख की ज्वाला शांत करूँ, तब स्वयं अन्न-जल ग्रहण करूँ!?’...‘भाई, बी. एच. यू. का एक प्रोडक्ट मैं भी रहा, कि जब बनारस से लौट कर अपनी जमींदारी सँभाली थी, तो दस-बारह साल तक लगातार इसे चारों तरफ बढ़ाया। हमारे बाबूजी पाँच-छह परिवारों को सेवकिया (बँधुआ) बनाए थे, हमने चौदह-पंद्रह परिवारों को अपने परिवार में मिला लिया, सेविकिया बना लिया! उनकी जमीन जो हमेशा बीज के लिए पानी के लिए, जोताई के लिए तरसती रहती थी, उसे कैसे-कैसे करके अपने हाथ में ले लिया। उन परिवारों के पेट की चिंता भी खतम, हमारे पास उनकी जमीन आ जाने से हमारी उपज में भी तीन सौ मन अनाज की सालाना बढ़त। उन परिवारों के ऊपर हमारा कर्जा भी ऐसा कि ..... इसी में खटते रहें, हमारा करजा जस-का-तस! करजे के सूद में उनकी सपरिवार मेहनत और बंधक (अमानत) के रूप में उनके खेत! सोचिए, जमींदारी छिन जाने के बाद भी हमने कैसा पेंच निकाल कर अपनी बढ़ोत्तरी की! यह सब हमारी बुद्धि और अपनी पढ़ाई के ही बूते न ’’(वही पृ. 214) करजा भी कैसा और कितना? मृतक संस्कार के लिये या पालतू जानवरों द्वारा रात में खेत चर लिये जाने की एव में वसूला जाने वाला! यह तो ठीक से कर्जे या ऋण की परिभाषा में भी नहीं आता! मगर कर्जा है तो है और पुश्तों से पटता चला आ रहा है! कर्जा पाटने वाले सीधे-साधे वन्यजन इस वस्तुस्थिति से निजात पाने के लिये भागे थे शहर की ओर। मगर ‘शहर वाले’ तो और भी ‘आदमखोर’ निकले उनके लिये! सो वे अपने मउवार मालिक के बंधनों में ही बँधे हैं यह सोच कर कि यहाँ ज़िंदा तो रहेंगे कम से कम! उनका मानना है कि ‘गरीबों’ का कोई हितू नहीं कोई भी नहीं...। हाँ घनु जी या उनकी मंडली में से शायद कोई कृष्ण या अर्जुन निकले तो निकल आए! वरना तो रामप्रसाद दाधीच के शब्दों में ‘कैसा अँधकार उतरा यहाँ’ वाली बात है, जहाँ फिलहाल ‘किसके रोके रुका है सवेरा’ दूर की कौड़ी लगता है।

पलामू जैसे क्षेत्र क्या ‘बँधुआ मजूरी’ के लिए ही जाने जायेंगे, अरे भई, फिर धर्मान्तरण का कोढ़ कहाँ जायेगा! यह उसी की ही तो माया है कि ‘अब्बा’ का बेटा ‘जान’ बन जाता है। धर्मान्तरण के अलमबरदारों में ‘भगवानों’ की ‘प्रतिमाएँ’ और ‘पुड़ियाँ बड़ी चमत्कारिक और देखते ही देखते असरदाई हो जाती हैं, सो लोग अपना ‘धर्म’ और ‘भगवान’ न छोड़े तो क्या करें। वह भी तब जब जान पर बनी हो। जान रहेगी तो जहन रहेगा और जहन रहने से जहान दिखेगा! जो जान बचा दे वही सबसे बड़ा धर्म है-‘‘जब भूख की ज्वाला आँत के झाड़-झंखाड़ों की तरह जलाने-झुलसाने लगती है तब आदमी को कोई हिंदू धर्म या इस्लाम धर्म या ईसाई धर्म नहीं सूझता। सारे धर्मां के सीने पर चढ़कर खड़ा हो जाता है रोटी-धर्म!...और यही चुड़ैल की तरह रोएँ कँपा देने वाला अट्टहास करता है! ऐसा अट्टहास कि जिसमें सारी अकड़-तमाम मूल्य और संपूर्ण कट्टरता के भाव पलक झपकते डूब जाते हैं। मरते हुए भूखे आदमी के धर्मांतरण की बात पर आप इस तरह बहस करना चाहते हैं? भाई, उसे रोटी देकर यदि कोई सिर्फ धर्मांतरण कराकर मरणांतरण से बचा लेता है, तो क्या उस पर भी भीख माँगते समय वादे-पर-वादे लहराकर गायब हो जाते हैं, उनके धर्म और जाति की राजनीतिक नगाड़ेबाजी करके लापता होते रहते हैं, उनके बारे में क्या ख़्याल रखते हैं आप? मरणांतरण और धर्मांतरण में किसे चुनेंगे आप? खुद पर बात को लागू करके सोचिए और बोलिए।’’ (वही, पृ. 172)

दरअसल आज धर्म, शिक्षा, न्याय, स्वास्थ्य, राजनीति, समाजसेवा केवल और केवल ‘ठगी का मेवा’ प्राप्त करने की चलती-फिरती दुकानें बन गईं हैं, जिनके जरिये आदमी दोनों हाथ लूट रहा है, लुट रहा है। पिछड़े क्षेत्रों के/आदिवासी बहुल क्षेत्रों के सीधे, भोले, ईमानदार लोग बराबर छले जा रहे हैं। ‘छलतंत्रा’ के छद्म में खत्म होते जा रहे हैं, उसी तरह जैसे वन्यौषधियाँ/वृक्षों की दुर्लभ किस्में, वन्यचरों की जातियाँ, प्रजातियाँ तथा खानें खदानें! इस विनाश को रोकने के लिए मास्टर साहब जैसे ही ‘राम की शक्ति पूजा’ के पूजक कम हैं फिर भी कितने ही महतो और कितने ‘गिरिजा’ एक मन्यु के साथ पूरे आत्मसम्मान और स्वाभिमान से संघर्षरत हैं, इस बहुक्षेत्रीय धपेलीकरण के। ईश्वर इन्हें कामयाबी दे! कृति में ‘मगही’ तथा ‘पलामू’ बोलियों का स्पर्श कथ्य के प्राण को क्षरित न करके सबल बनाता है। सूखाग्रस्त अकाल पीड़ित पहाड़/वन, तथा वनजन का बेहद मार्मिक चित्र कृति को विश्वसनीय बनाता है, इसकी पठनीयता एक साथ झिंझोड़ती उत्प्रेरित करती है! कम्युनिस्टों की जिजीविषा के साथ ही ‘भूलों पर पछताने’ की समयचूकू प्रवृत्ति से भी रूबरू कराती है। वाकई कृति पढ़ कर कोई भी यही कहेगा कि श्याम बिहारी ‘श्यामल’ बड़े कद के रचनाकार हैं।

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...