कुदरत की गोद में / विद्यासागर नौटियाल
रेखांकन: लाल रत्नाकर समय की चिंता करते हुए मैं सुबह काफ़ी जल्दी उस घर से निकल गई थी, जहाँ रात में ठहरी थी. मुझे अपने ज़िला मुख्यालय लौटने के लिए पहली सवारी बस पकड़ने की फिकर थी. उन इलाकों में सवारी गाड़ी का कोई भरोसा नहीं रहता, सुबह कै बजे निकल जाए या कितने घंटों तक उसकी कहीं गूंज तक सुनाई न दे. पहाड़ की घाटियों में वाहनों के चलने की आवाज़ें काफ़ी दूर-दूर तक सुनाई दे जाती हैं और उनकी गूंज बहुत देर तक कायम रहती हैं. चढ़ाई पर पाँच किलोमीटर दूर, किसी ऊँची चोटी से भी साफ़-साफ़ दिखाई दे जाती है नीचे घाटी में खिसकती-रेंगती हुई गाड़ियाँ. आपके साथ कोई और नहीं था दीदी? नहीं, सरिता मैं अकेली थी. रीजनल इंस्पेक्टर ऑफ गर्ल्स स्कूल्स. वह अध्यापक, जिसके घर पर मैं रात में ठहराई गई थी, मेरे साथ सड़क तक आना चाहता था. बहुत ज़ोर कर रहा था, साहब, आप अकेली कैसे जा सकती हैं, सड़क तक मैं चलूँगा आपके साथ. उसकी नज़रों में तो मैं ना जाने कितनी बड़ी अफ़सर थी. पर मैंने उसे साफ़ मना कर दिया. वह मान गया आपकी बात? मान नहीं गया, मैंने उसे जबर्दस्ती स्कूल जाने को मजबू