सोमवार, 29 मई 2023

असली संत

 ⚛️ आत्मवत सर्वभूतेषु ⚛️प्रस्तुति ज्योतिषाचार्य पंडित कृष्ण मेहता

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गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस से कहा कि " आप माँ काली से अपने लिए प्रार्थना क्यों नही करते ? क्षणभर की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा ! तो रामकृष्ण हंसते रहते , कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा - " तू समझता नहीं है रे नरेन्द्र। जो  किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर से आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है।" तो विवेकानंद बोले - " इतना ना सही , इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे कि जीते जी पानी जा सके, भोजन किया जा सके ! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है, आपकी यह दशा देखकर । " तो रामकृष्ण परमहंस बोले "आज मैं कहूंगा। "

जब सुबह वे उठे, तो जोर जोर से हंसने लगे और बोले - " आज तो बड़ा मजा आया । तू कहता था ना, माँ से कह दो । मैंने कहा माँ से, तो मां बोली -" इसी गले से क्या कोई ठेका ले रखा है ? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है ? "


हँसते हुए रामकृष्ण बोले -" तेरी बातों में आकर मुझे भी बुद्धू बनना पड़ा ! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था ना । और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है ? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हू। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते रहे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं ? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती ! रामकृष्ण ने कहा - " हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने ही हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा ! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है !" 

कितनी ही विकट परिस्थिति क्यों न हो, संत कभी अपने लिए नहीं मांगते, साधू कभी अपने लिए नही मांगते, जो अपने लिए माँगा तो उनका संतत्व ख़त्म हो जाता है । वो रंक को राजा और राजा को रंक बना देते है लेकिन खुद भिक्षुक बने रहते है ।


जब आत्मा का विश्वात्मा के साथ तादात्म्य हो जाता है तो फिर अपना - पराया कुछ नही रहता, इसलिए संत को अपने लिए मांगने की जरूरत नहीं क्योंकि उन्हें कभी किसी वस्तु का अभाव ही नहीं होता !


जय माँ काली !

रविवार, 28 मई 2023

ईमानदारी और स्वाभिमान"

 

प्रस्तुति -कृति शरण /  दिव्यांश भट्ट 


एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

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व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। 


ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। 

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वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। 

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व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

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घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। 

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भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

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काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

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नौकर अति उत्साहित होकर बोला, "मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा, लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?"

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अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

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व्यापारी ने कहा, "मैंने ऊँट खरीदा है," गहने नहीं ! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।"

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नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, "मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।"

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फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

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ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, "मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था.......आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।"

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व्यापारी ने कहा "मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं , धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।"

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व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

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अंत में व्यापारी ने झिझकते हुए कहा, "असल मेंजब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।"

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इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

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वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला "मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

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"दो सबसे कीमती वाले" व्यापारी ने जवाब दिया।

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"मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान"

गुरुवार, 25 मई 2023

गुरु देव के आस पास / बिनोद कुमार राज विद्रोही

 

 



उफ्फ! कोलकाता की गर्मी, तेज धूप, पसीने से तरबतर, बस से उतर कर कई गलियों-चौराहों को लांघते हुए, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के रचयिता कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का पुस्तैनी घर पहुंचा। जहां उनका जन्म इसी महीने में 7 या 8 मई 1861 को हुआ था। जहां वे पले-बढ़े और आखिरी समय में अंतिम सांसे ली। कई वर्षों से मेरी इच्छा थी कि उनका घर जाकर देखूं। लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था। इस बार पहुंच ही गया। उनके घर को संग्रहालय के रूप में तब्दील कर दिया गया है। जहां उनसे जुड़ी तमाम चीजों को संभाल कर रखा गया है।

       इस जगह का नाम है-  जोरासाँको ठाकुर बाड़ी। बंगाली में 'बाड़ी' घर को कहते हैं शायद। लेकिन यह उस जमाने की हवेली है। लगभग पैंतीस हजार वर्ग मीटर में फैला है, और गार्ड के अनुसार तीन सौ से ऊपर कमरे हैं, जिसमें बहुत बंद रहता है। बाड़ी का अधिकतर कमरा, रेलिंग, कुर्सियां, फर्श, सीढ़ियां आज भी अपने मौलिक स्वरूप में है। बाड़ी के अंदर के किसी भी कमरे और उनसे जुड़ी चीजों की तस्वीरें खींचने-छूने की सख्त मनाही है। बहुत सुकून मिला यहां आकर, आत्मविभोर हुआ। सीढ़ी से ऊपर चढ़कर जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो कई तस्वीरें, कूर्सियां, उनका कप-प्याली वगैरह शीशे में सजा कर रखा हुआ है। इसी तरह हर कमरे में कुछ-न-कुछ सजा कर रखा गया है। एक कमरे में उनके सभी मानपत्र रखें हुए हैं। एक दूसरे कमरे में सिगार पीने का स्टैंड रखा हुआ है। हो सकता है यह उनके पुरखों का हो। सभी कमरों की छतों में बेशकीमती लकड़ी का प्रयोग हुआ है। जो आज भी सुरक्षित है। उनका जो शयनकक्ष था, उसमें उस समय की कुछ कुर्सियां, तस्वीरें हैं। बीचोबीच में बेड लगा हुआ है। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि इस एक कमरे में कुल सात दरवाजे हैं। तीन बड़े हालों को आर्ट गैलरी के रूप में तब्दील किया गया है। जिसमें टैगोर सहित उनके परिवार के सदस्यों द्वारा बनाए गए पेंटिंग्स को सजाया गया है। साथ ही उनका एक ऊपरी गाउन एवं शॉल, जिसे हमलोग अधिकतर तस्वीरों में पहने हुए देखते हैं, को शीशे में सजाकर रखा गया है। इस तरह का गाउन और अन्य वस्त्र एक और कमरे में देखा। बहरहाल दर्जनों कमरों में उनसे जुड़ी सैकड़ों चीजों को आज भी संभाल कर रखा गया है। इसके लिए बंगाल सरकार और यहां की जनता बधाई के पात्र हैं। लेकिन इतनी ही श्रद्धा अगर बंगाल सरकार, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के लिए दिखाती, तो शायद उनके पैतृक घर और गांव का कायाकल्प हो जाता। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का घर देखकर आंखों में आंसू आ जाते हैं। कितना वीरान है। कोई देखने वाला नहीं। सहेजने वाला नहीं। तब भी शरतचंद्र जी का सही मूल्यांकन नहीं किया गया था। आज भी नहीं किया जा रहा है। यह दुखद है। 

          खैर, टैगोर जी के इस बाड़ी के विभिन्न कमरों का अवलोकन करते हुए मन प्रफुल्लित होता जा रहा है। यह देखकर कि बहुत ही संभाल कर रखा गया है उनकी विरासत को। महसूस करता हूं कि बचपन के दिनों में वे इस बाड़ी के एक कमरे से दूसरे कमरे में, बरामदे में, सीढ़ियों से होते हुए कितनी अठखेलियां-नादानियां करते होंगे, अपने तेरह भाई-बहनों के साथ खेलते-कूदते होंगे। बड़े होने पर पता नहीं कब, किस कमरे में लिखे होंगे अपनी पहली रचना। कितना प्यार मिलता होगा आपने सभी भाई बहनों से उन्हें। वे घर में सबसे छोटे थे।

           शिक्षा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में इनका और इनके परिवार का योगदान अतुलनीय है। इनके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ और मां शारदा देवी शिक्षा के विकास के प्रति समर्पित थे, तो उनकी बहन भी प्रसिद्ध उपन्यासकार थीं। वही बड़े भाई भी एक प्रसिद्ध कवि थे।

         कहीं पढ़ा था कि एक संपन्न और शिक्षित परिवार में जन्म लेने के बावजूद टैगोर ने स्कूल में पढ़ाई नहीं की। फलस्वरुप घर पर ही उन्हें शिक्षित करने का प्रबंध किया गया। हालांकि बाद में 1878 ई. में उन्हें इंग्लैंड भेजा गया, ताकि वे औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सके। लेकिन वहां से भी उन्होंने बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत लौट गए। 1883 में मृणालिनी देवी से शादी के बाद उनके पांच बच्चे हुए। इस बाड़ी के एक अन्दर के बरामदे में कई सौ सालों का वंशावली तसवीर सहित टंगी हुई है। सन् 1900 से 1910 के बीच इनका जीवन काफी दुख और पीड़ा में गुजरा। क्योंकि इस बीच पत्नी सहित दो संतान रेणुका और समंद्रनाथ का निधन हो गया। पिता का भी 1905 ई. में निधन हो गया था।

         मैं जिस शहर, हजारीबाग से यहां आया हूं। उस शहर से भी इनका बेहद लगाव था। साथ ही झारखंड के मधुपुर और गिरिडीह में भी उन्होंने काफी समय गुजारा है। उनके भाई का भी झारखंड से प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने एक लम्बा समय रांची में बिताया है। जिसका चश्मदीद गवाह टैगोर हिल है। रांची की चर्चा फिर कभी करूंगा। रवींद्रनाथ टैगोर की पुत्री रेणुका का जब 1903 में निधन हुआ था और उसके पहले कई वर्षों से वह बीमार थी तो अपनी पुत्री के स्वास्थ्य लाभ के लिए वे हजारीबाग में भी आकर कुछ दिन रहे थे। 9 मई 2015 को दैनिक प्रभात खबर में प्रकाशित टैगोर पर शोध करने वाले अमल सेनगुप्ता से बातचीत के आधार पर तैयार रिपोर्ट के अनुसार - रवींद्रनाथ टैगोर ने हजारीबाग की पहली यात्रा 1885 में और दूसरी यात्रा 1903 में की थी। अप्रैल 1885 ई. में कोलकाता से मधुपुर, गिरिडीह होते हुए हजारीबाग आए थे। फुसफुस गाड़ी (चार चक्का वाला रथ, दो आदमी आगे से खींचता था, दो आदमी पीछे से धक्का देता था) में सवार होकर आए थे। हजारीबाग आने के संबंध में 'दस दिनेर छुट्टी' लेख से स्पष्ट होता है कि भतीजी इंदिरा देवी लोरेटो कॉन्वेंट, कोलकाता में पढ़ती थी। वहीं की शिक्षिका सिस्टर एलोसिया, इंदिरा देवी को बहुत प्यार करती थी। सिस्टर एलोसिया का स्थानांतरण हजारीबाग कान्वेंट (वर्तमान में पीटीसी प्राचार्य भवन) स्कूल हो गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर को सिस्टर एलोसिया से इंदिरा को मिलाया था। इसलिए हजारीबाग में आकर उस समय जुलू पार्क, पीडब्ल्यूडी डाक बंगला (वर्तमान में पीटीसी मैदान के बगल में) आकर ठहरे थे। यहां से हजारीबाग कान्वेंट स्कूल भी सामने था। उस समय में छह से दस दिन यहां रुके थे। हजारीबाग से कोलकाता जाने के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने दस दिनेर छुट्टी लेख में पूरे हजारीबाग का जीवन्त चित्रण किया है। वहीं इनकी दूसरी यात्रा सन् 1903 ई. में लगभग एक माह की हुई थी। वे अपनी दूसरी बेटी रेणुका जो टीवी रोग (क्षय रोग) से पीड़ित थी। उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए हजारीबाग आए थे। उन्होंने अपनी बीमार बेटी को सबसे पहले कोलकाता से मधुपुर ले गए। लेकिन वहां स्वास्थ्य लाभ में कोई सुधार नहीं होने पर हजारीबाग की ओर रुख किया।

         रवीन्द्रनाथ टैगोर हजारीबाग में आकर अपने गोतिया कालीकृष्ण टैगोर के हजारीबाग जुलू पार्क की स्थित बंगला में ठहरे (वर्तमान में जुलू पार्क पूरा मोहल्ला बसा हुआ है) टैगोर को भाई का यह बगानबाड़ी पसंद नहीं आया। इस बाड़ी के कमरे में अंधेरा हो जा रहा था। टैगोर के साथ बीमार बेटी रेणुका, छोटी बेटी मीरा, पत्नी मृणालिनी के फूफा, साला नागेंद्रनाथ राय चौधरी, उनकी पत्नी व कई सगे-संबंधी उनके साथ आए थे। जुलू पार्क बागान बाड़ी को छोड़कर रवींद्रनाथ पूरे परिवार के सदस्यों के साथ गिरेंद्रनाथ गुप्ता के मकान में आकर रुके। उस समय गिरेंद्रनाथ गुप्ता जीपी कम पीपी थे। यह मकान (वर्तमान में पैगोडा चौक अक्षय पेट्रोल पंप के पीछे) खप्परपोश बांगला है। इसी बंगले में रहे थे। यहां टैगोर ने पांच कविताएं लिखी। नौक डूबी की शुरुआत की।

       खैर ये तो रही अपने शहर हजारीबाग से रवींद्रनाथ टैगोर के लगाव की बात। मैं अपनी अगली यायावरी में शांतिनिकेतन जाऊंगा। वही शांतिनिकेतन-विश्वभारती, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1863 में सात एकड़ जमीन पर एक आश्रम की स्थापना की थी। वहीं आज विश्वभारती है। गूगल बाबा के अनुसार - "रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1901 में सिर्फ पांच छात्रों को लेकर यहां एक स्कूल खोला। इन पांच लोगों में उनका अपना पुत्र भी शामिल था। 1921 में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले विश्व भारती में इस समय लगभग छह हजार छात्र पढ़ते हैं। इसी के इर्द-गिर्द शांति निकेतन बसा है।"


BKR  VIDROHI 

गुरुवार, 18 मई 2023

मिसेज चैटर्जी वर्सेज नार्वे

 

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एक भारतीय जोड़ा  विदेश नार्वे जाता है l

नार्वे में मिस्टर अनिरुद्ध चैटर्जी की प्रतिष्ठित नौकरी है l

यह जोड़ा अपने बड़े बेटे शुभ और पांच महीने की दुधमुंही बच्ची शुचि के साथ हँसी -खुशी रह रहा है l 

   नार्वे के कानूनों के अनुसार बाल कल्याण संस्था सबके घरों में सर्वे कराने जाती हैं कि बच्चों का लालन-पालन ठीक से हो रहा है या नहीं इसलिए इसी संस्था की दो महिलाएं चटर्जी फैमिली में भी सर्वे करने आती है l

अपनी अंतिम विजिट पर वे बिन पूछे ही चटर्जी फैमिली के दोनों बच्चों को वैन  में लेती जाती हैं  तब पता चलता है कि वहां के कानूनों के अनुसार भारतीय तरीके से बच्चों को अपने पास सुलाना , हाथ से खिलाना और बच्चों की गलती पर एक चांटा मार देना भी गुनाह के अंतर्गत आता है l 

 बाल कल्याण संस्था  द्वारा किया गया यह कार्य  चैटर्जी परिवार के लिए अप्रत्याशित  है l 

बच्चों की मां सदमे में आ जाती है और दोनों माता-पिता बच्चों को वापस लाने की कोशिश करते हैं पर यहां पिता हारमान दिखता है क्योंकि वह नार्वे की सिटीजनशिप मिलने के इंतजार में है  l 

 दुखी मां के लिए यह चुनौती है कि वह अपने बच्चों को अपने पास वापस कैसे लाएं !

यहां बाल कल्याण संस्था बच्चों को या तो संस्था में या फॉस्टर परिवार में दे देती हैं l 

 कानूनी लड़ाई चलती है l बाद में छुपी -ढकी यह बात भी चलती है कि  मोटे दानदाताओं के चलते ऐसी संस्थाएं  जबरदस्ती बच्चों को अपने पास रख लेती हैं l

मां के रूप में रानी मुखर्जी ने  बेहद संजीदा अभिनय किया हैl अपने पति अनिरुद्ध  का  सम्पूर्ण सहयोग  न मिलने पर देबिना /रानी मुखर्जी कैसे अकेले यह लड़ाई लड़ती है !!

 पिता के रूप में अनिर्बान भट्टाचार्य भी ठीक हैं ,  भारतीय विदेश मंत्री के रूप में नीना गुप्ता हैl 

क्या नार्वे के कानूनों से लड़कर एक मां अपने बच्चों को वापस ले पाई  !! यही इस कहानी की कहानी का मुख्य  भावपूर्ण भाग  है l

 फिल्म की निर्देशिका हैं आशिमा छिब्बर और संगीत अमित त्रिवेदी का है l

 फिल्म में एक मां के अंतर्द्वंद , दुःख और बच्चों के प्रति प्यार में गुंथा,  लोरीनुमा एक  गीत है जिसे सुनकर आँखें डबडबा आती हैं l 

यह मधुबंती ने गाया है l 

"आमी जानी रे तुमार कट्टी तुमार बत्ती

 आनी जानी रे तुमार सिसकी तुम्हारी हिचकी "


यह फिल्म सच्ची घटना पर आधरित है l


( बहुत दिनों के बाद नेटफ्लिक्स में बच्चों की मित्र के सुझाने पर   यह फिल्म देखी , फिल्म भली है lरानी मुखर्जी मुझे  उनके अभिनय के लिए हमेशा से प्रिय हैं , मुझे इस फिल्म को देखकर रानी की पुरानी  फिल्म ' युवा ' याद हो आई l )

गुरुवार, 11 मई 2023

(इक पाश इह वी....किताब से अनुवाद सतीश छिम्पा)

 हम लड़ेंगे साथी.....


( यह तस्वीर पाश यादगारी समागम की है दो साल पहले सूरतगढ़ की ...)


    

    पाश की बातें....


रूह में तो "वो" बैठी है......


पाश जब मिल्खा सिंह की जीवनी लिख रहे थे तो उनसे काम में देरी हो रही थी तो एक दिन "देश प्रदेश" के सम्पादक तरसेम ने उन्हें कहा कि,"पाश तूं जीवनी लिखते समय अपनी रूह में मिल्खा सिंह को बैठा लिया कर।"

     पाश हमे बुदबुदाते हुए कहता,"बताओ भला मैं मिल्खा सिंह को अपनी रूह में कैसे बैठा लूँ,मेरी रूह में तो बहुत अरसे से "वो" बैठी है,तुम सबको तो पता ही है......मैं किसी और को नहीं बैठा सकता"


'               (२)


रात के समय किसे जगाते,हम (अवतार पाश और शमशेर सन्धु) पाश के घर की दिवार फांद के अंदर पहुँच गए क्योंकि बंटवारे के समय चौबारा बड़े भाई के हिस्से चला गया था।भीतर एक मांची थी बहुत ही ढीली....हम उस पर लेट गए,मगर नींद कहाँ...

कुछ देर बाद.....ये क्या,मेरा कंधा आंसुओं से भीग गया.....हमेशा चहकते,हंसते मुस्कुराते रहने वाला पाश रो रहा है...वो कुछ समय बाद उठा और पौड़ियों पर बैठ बुदबुदाने लगा....

"हमारा परिवार यूँ ही बंट बुंट गया....बापू को मुझसे बहुत उम्मीद थी,मगर मैं अच्छा बेटा न बन सका....बड़े भाई को मुझसे उम्मीद थी मगर मैं कमाऊ भाई न बन सका....मैं यूँ ही रहा....हर रोज़ मैं खुद का कत्ल करता हूँ....."


"    (3)


          पाश जब जेल में कैद थे झूठे कत्ल केस में ये बात पुलिस भी जानती थी कि पाश बेकसूर है।मगर नक्सल लहर की दहशत इतनी थी कि पुलिस और सत्ता पाश को खतरनाक मान रही थी और एक घुप्प अँधेरी कोठड़ी में उसे बंद कर दिया गया था।जहां खटमल और अँधेरा ही उसके साथी थे।और उन्ही मुश्किल दिनों में कविताएँ पाश के भीतर ठांठे मारने लगी थी।मगर कागज़ और कलम उस "खतरनाक" आदमी को कौन देता।अपने मुलाकाती सज्जनो को उसने कहा कि "जैसे भी हो कागज़ कलम पहुँचाओ" और फिर अगली मुलाकात में एक अजीब सी तरकीब से कागज़ कलम अंदर पहुंचे।दरअसल एक खाकी और एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में दो सन्तरे और दो केले भेजे गए।इन्ही कागज़ों पर पाश को कविताएँ लिखनी थी।और केलों में खोंसी गयी थी 2 रिफिलें।

ये जज़्बा था पाश के इंकलाबी कवि का....


  (इक पाश इह वी....किताब से अनुवाद सतीश छिम्पा)

बुधवार, 10 मई 2023

जीवन संदेश

 🙏🙏



जीवन संदेश 



*1. एक 61 वर्षीय रिटायर्ड अधिकारी द्वारा WhatsApp पर सभी वरिष्ठ साथियों व रिटायर होने वाले साथियों के लिए share किया गया एक उत्तम संदेश::::*

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*2. कृपया अंत तक अवश्य पढ़ें*..

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3.●  *जीवन मर्यादित है और उसका जब अंत होगा तब इस लोक की कोई भी वस्तु साथ नही जाएगी*.... 

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4. ● *फिर ऐसे में कंजूसी कर, पेट काट कर बचत क्यों की जाए.... ? आवश्यकतानुसार खर्च क्यों ना करें..? जिन अच्छी बातों में आनंद मिलता है, वे करनी ही चाहिए....*

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5. ●  *हमारे जाने के पश्चात क्या होगा, कौन क्या कहेगा, इसकी चिंता छोड़ दें, क्योंकि देह के पंचतत्व में विलीन होने के बाद कोई तारीफ करे या टीका टिप्पणी करे, क्या फर्क पड़ता है....?*   

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6. ●  *उस समय जीवन का और मेहनत से  कमाए हुए धन का, आनंद लेने का वक्त निकल चुका होगा....*

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7. ●  *अपने बच्चों की जरूरत से अधिक फिक्र ना करें....* 

*उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजने दें....*

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8.  *अपना भविष्य उन्हें स्वयं बनाने दें। उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और सपनो के गुलाम आप ना बनें....* 

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9.  ●  *बच्चों को प्रेम करें, उनकी परवरिश करें, उन्हें भेंट वस्तुएं भी दें, लेकिन कुछ आवश्यक खर्च स्वयं अपनी आकांक्षाओं पर भी अवश्य करें....*

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10.  ●  *जन्म से लेकर मृत्यु तक सिर्फ कष्ट   सहते रहना ही जीवन नहीं है।* 

*यह ध्यान रखें....*

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  11. ● *आप ६ दशक पूरे कर चुके है,*

*अब जीवन और आरोग्य से खिलवाड़ करके पैसे कमाना अनुचित है, क्योंकि अब इसके बाद पैसे खर्च करके भी आप आरोग्य खरीद नही सकते....*

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12. ●  *इस आयु में दो प्रश्न महत्वपूर्ण है: पैसा कमाने का कार्य कब बन्द करें, और कितने पैसे से अब बचा हुआ जीवन सुरक्षित रूप से कट जाएगा....*

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13.  ●  *आपके पास यदि हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन भी हो, तो भी पेट भरने के लिए कितना अनाज चाहिए_? आपके पास अनेक मकान हों, तो भी रात में सोने के लिए एक ही कमरा चाहिए....* 

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14.  ●  *एक दिन बिना आनंद के बीते तो, आपने जीवन का एक दिन गवाँ दिया और एक दिन आनंद में बीता तो एक दिन आपने कमा लिया है, यह ध्यान में रखें....*

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15.  ●  *एक और बात: यदि आप खिलाड़ी प्रवृत्ति के और खुश-मिजाज हैं तो बीमार होने पर भी बहुत जल्द स्वस्थ्य होंगे और यदि सदा प्रफुल्लित रहते हैं, तो कभी बीमार ही नही होंगे....*

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16.  ●  *सबसे महत्व-पूर्ण यह है कि अपने आसपास जो भी अच्छाई है, शुभ है, उदात्त है, उसका आनंद लें और उसे संभाल- कर रखें....*

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17.  ●  *अपने मित्रों को कभी न भूलें। उनसे हमेशा अच्छे संबंध बनाकर रखें। अगर इसमें सफल हुए तो हमेशा दिल से युवा रहेंगे और सबके चेहते रहेंगे....*

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18. ●  *मित्र न हो, तो अकेले पड़ जाएंगे और यह अकेलापन बहुत भारी पड़ेगा....*

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19. ●  *इसलिए रोज व्हाट्सएप के माध्यम से संपर्क में रहें, हँसते-हँसाते रहें, एक दूसरे की तारीफ करें.... जितनी आयु बची है, उतनी आनंद में व्यतीत करें....* 

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20. ● *प्रेम व स्नेह मधुर है, उसकी लज्जत का आनंद लें....*

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21. ●  *क्रोध घातक है। उसे हमेशा के लिए जमीन में गाड़ दें....*

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22.● *संकट क्षणिक होते हैं, उनका सामना करें....*

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23. ●  *पर्वत-शिखर के परे जाकर सूर्य वापिस आ जाता है, लेकिन दिल से दूर गए हुए प्रियजन वापिस नही आते....*

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24. ● *रिश्तों को संभालकर रखें, सभी में आदर और प्रेम बाँटें। जीवन तो क्षणभंगुर है, कब खत्म होगा, पता भी नही चलेगा। इसलिए आनंद दें,आनंद लें....*

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25. *दोस्ती और दोस्त संभाल कर रखें....* 

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26. *जितना हो सके उतने “गैट-टूगेदर (Get-together) करते रहे....*

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🌻🌞🙏🙏🙏🙏🙏🌞🌻

सोमवार, 8 मई 2023

उपेंद्र कश्यप को मिला मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान Aaa

 


तीन दशक से पत्रकारिता व पुस्तक लेखन में हैं सक्रिय


आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक पर छपी हैं पुस्तक


, दाउदनगर  पटना 


स्थित जगजीवन राम शोध संस्थान में शुक्रवार को आयोजित पत्रकारिता सम्मान समारोह सह विचार गोष्ठी में औरंगाबाद जिले के वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र कश्यप को मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान से नवाजा गया। यह पुरस्कार उन्हें वीरेंद्र यादव फाउंडेशन चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दिया गया। पूर्व विधान पार्षद उपेंद्र प्रसाद और वीरेंद्र यादव से पुरस्कार ग्रहण किया। इस अवसर पर बिहार विधान परिषद के उपसभापति डा. रामचंद्र पूर्वे, बिहार सरकार के पूर्व मंत्री श्याम रजक, विधान पार्षद डा. रामबली सिंह एवं कुमुद वर्मा विधायक छत्रपति यादव, राजद समाचार के संपादक और लेखक अरुण नारायण उपस्थित रहे। कहा गया कि दाउदनगर का इतिहास कलम बंद करने, आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक समेत कई पुस्तक लिखने, डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने में सक्रिय योगदान करने, सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहने, सामाजिक सरोकारों और मानवीय संवेदना से जुड़ी रिपोर्टिंग समेत खोजी पत्रकारिता लगातार करते रहने के लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया है। अपने संबोधन में उपेंद्र कश्यप ने कहा कि किसी भी दूसरे जमात को आरोपित करना आसान है और अपने जमात में कमियां ढूंढना और उसे गिनाना मुश्किल है। जरूरत इस बात की है कि जब हम सामाजिक सरोकार की बात करते हैं तो यह भी ध्यान रखें कि किसी वर्ग विशेष की खिलाफत करने वाले लोग जब पद, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त कर लेते हैं तो वह भी आक्रामक, तानाशाह और असहिष्णु हो जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि दूसरे समुदाय की आलोचना करने से बेहतर यह है कि अपने समुदाय से आत्मीय लगाव बढ़ाया जाए। एक दूसरे के सामाजिक सरोकार और हितों को महत्व दिया जाए। तभी समाज का विकास होगा और मजबूती आएगी। इस अवसर पर वेद प्रकाश को राम अयोध्या सिंह पत्रकारिता सम्मान, हेमंत कुमार को राजेंद्र प्रसाद यादव पत्रकारिता सम्मान, जावेद आलम को कृष्ण मुरारी किशन पत्रकारिता सम्मान, प्रमोद यादव को सूर्य नारायण चौधरी पत्रकारिता सम्मान, योगेश चक्रवर्ती को उपेंद्र नाथ वर्मा पत्रकारिता सम्मान, राजीव कुमार को रघुनी राम शास्त्री पत्रकारिता सम्मान, उपेंद्र कश्यप को मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान, सन्नी कुमात को प्रभात शांडिल्य पत्रकारिता सम्मान, अनवार उल्लाह को गुलाम सरवर पत्रकारिता सम्मान, प्रसिद्ध यादव को रविंद्र सिंह लड्डू पत्रकारिता सम्मान, वकील प्रसाद को अब्दुल कयूम अंसारी पत्रकारिता सम्मान और दिनेश पाल को आरएल चंदापूरी पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है।

हार्डिंग पार्क से बिहारशरीफ / रत्नेश

 

-----------बिहार में बस यात्रा 

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उत्तर भारत में अगर सबसे बड़ा बारहमासा मजमा शहर में कहीं लगता है तो वह जगह है बस-स्टैंड। आपको सुबह चार बजे चाय की तलब है? बस स्टैंड आ जाइए। मौसमी फल या शहर की मशहूर मिठाई खरीदनी है? बस स्टैंड आपको बुला रहा है। तीन-पत्ती खेलकर लखपति बनने की ख्वाहिश है? बस स्टैंड से बढ़िया कोई जगह नहीं। स्वादिष्ट समोसे, बढ़िया पान, जीके की किताब, हाजमे का चूरन- आप नाम लीजिए, बस! ऐसे ऐसे काबिल बस कंडक्टर मिलेंगे जो बस की रूट में आने वाले अट्ठाईस पड़ावों के नाम एक साँस में सुना जाएँ। एक-एक फेरीवाला कोह-ए-नूर है जनाब! उसके बस्ते में छह प्रकार के कंघे, टूथब्रश, ताला-चाबी, सिंदूर की डिबिया, कजरौटा, ताश के पत्ते, इत्र की शीशी, नज़र का चश्मा, चूना-तंबाकू की चुनौटी, ठंडे तेल की शीशी, नेलकटर, छुरी, गुडनाइट की टिकिया से लेकर ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी जिनका नाम लेने के बाद मेरा फेसबुक पर बने रहना मुनासिब नहीं होगा। सिर्फ लेकर चलना एक बात है लेकिन इन फेरीवालों से किसी सामान की कीमत या क्वालिटी पर बहस कीजिए। एक कंघे की इतनी खास बातें होती हैं कि बताते-बताते वे आपको पाषाणयुग से घुमा लाएँगे। हर सामान में बला की मजबूती साबित करने के ऐसे ऐसे करतब दिखेंगे कि आप सोचने पर मजबूर हो जाएँगे कि इस सामान को इतना मजबूत होने की जरूरत ही क्या है? भजन गाने वाले सूरदास और तोते से भविष्य बताने वाले त्रिकालदर्शी ज्योतिषी से लेकर हृषीकेश पंचांग, संतोषीमाता व्रत कथा तक का पूरा जुगाड़ है जनाब! आप हैं किस फेर में?

खैर छोड़िए। आते हैं मुद्दे पर वरना हफ्तों तक लिखते रह जाएँ! बात शुरु होती है हार्डिंग पार्क बस स्टैंड से। हालाँकि अब इसे समय  की आँधी उड़ा ले गई है और अब पटना शहर का आधुनिक बस अड्डा पत्रकार नगर में बन गया है जो शहर के एक छोर पर बाईपास के साथ बना है। जो भी हो हमारी स्मृतियों का हार्डिंग पार्क अब भी आबाद है। हनुमान मंदिर चौराहे से आने वाली सड़क पर चलते हुए जैसे ही आप हार्डिंग पार्क पहुँचेंगे, आपका पहले गेट से ही अपहरण की कोशिश होने लगती है। आप सबको सख्त 'ना' कहते हुए निकलते चले जाते हैं। आप भले कलकत्ता जा रहे हों, बस का एजेंट आपको सीतामढ़ी होकर जाने के पचास फायदे गिना देगा। खैर, मुझे जाना है बिहारशरीफ! तो निर्धारित गेट पर पहुँचने पर एजेंट आपका स्वागत यह कहकर कहता है, "आइए आइए खुल रही है।" अनाड़ी लोग यह सुनकर लपककर चढ़ लेते हैं। इसमें ड्राइवर कौरवी ध्वनि वाला हाॅर्न बजाकर आपकी व्यग्रता में उद्दीपन का काम करेगा।  पचपन-छप्पन वाले तजुर्बेकार लोग इन चीजों पर गौर तक नहीं करते। वे बगल वाली पान की गुमटी से कलकतिया पान लगवाते हैं। कत्था-चूना का पूरा हिसाब लेते हैं। बिल्कुल तय वक्त पर वे गाड़ी में दाखिल होते हैं। उनके दाखिल होते ही गाड़ी में गति आने लगती है। अब गाड़ी धीरे से सरक कर मुख्य सड़क पर आ जाती है। खलासी हाँक लगाता है.....' आइए दनियावाँ, नग..नौसा, नू...सराय, सो... सराय.... बीहा .... सरीऽऽऽफ! एक अधेड़ मजदूर दंपति अपनी चार संतानों के साथ बस की ओर लपकते हैं। अपनी गठरी बगल में दबाए महिला एक नजर सीटों पर डालती है और समझ जाती है कि गुंजाइश नहीं। बच्चे भी बस की सीटें थामकर खड़े हो जाते हैं। कंडक्टर किराया उगाहना शुरु करता है और मजदूर परिवार के पुरुष से पूछता है- "कहाँ जायला हऊ?" "फतुहा....।"- जवाब मिलता है। कंडक्टर चिल्लाता है- "फतुहा के पसिंजर कौन बइठाया भाई?" फिर ड्राइवर से कहता है- "धीरे...एएएएएए:।" फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होता है- "अरे मूँह मत ताको... फटाफट उतरो...फतुहा रूट के गाड़ी नहीं है....समझ-बूझ के चढ़ल कर।" परिवार धीमी बस से जैसे-तैसे उतर लेता है। गाड़ी बढ़ जाती है। 

"तोरा कहाँ जाना हौ?"

"दनियावाँ..... आऊ का!"

"तीस रुपैया!"

यात्री बेतकल्लुफी से बीस का मैला-कुचैला नोट बढ़ाता है।

"इ का दे रहे हैं?"

"भाड़ा है... आऊ का!"

"तीस रुपैया.... तीइइइइइऽऽऽऽस!"

यात्री इस अपील से बेफिक्र बाहर खिड़की से नजारे देख रहा है।

"तीस रुपैया लावो आऊ न त उतरो।"

"धीरेएएएएएएए:।" मद्धम स्वर में कंडक्टर आवाज लगाता है। ड्राइवर इस हल्की आवाज़ का मतलब समझता है और गाड़ी की गति बनाए रखता है।

"दे रहा है कि उतारें?"- कंडक्टर डपटता है।

यात्री लापरवाही से कमीज की जेब में झाँकता है। दो रुपए के दो सिक्के निकालकर बढ़ाता है।

"इस गाड़ी पर आगे से मत चढ़ना"- कंडक्टर चेताने की आवाज में बोलते हुए दोनो सिक्के झटक लेता है।

पीछे से आवाज़ आती है- "भीडिओवा कब चलेगा जी? उतर जाएँगे तब?" इस सधी हुई पहल का तुरत असर होता है। वीडियो चालू कर दिया जाता है। वीडियो में एक बीस साल पुरानी एक मसाला फिल्म चलने लगती है। बिहार का  पराजित निम्नमध्यवर्ग फिल्म के नायकों में अपनी छवि देखता है। उसे इसी फैंटेसी का सहारा है। बिहार की राजनीतिक अस्मिता के पहरुए अपने मतदाताओं की यह कमजोरी जानते हैं। कंडक्टर आपको देखकर बेहद शालीनता से मुस्कुराता है- "आप सर?... बिहारेसरीफ न?"

आप मुस्कुराते हुए 'हाँ' में सिर हिलाते हैं।

"कितना?"

"पैंसठ सर!"

आप पाँच सौ का नोट बढ़ाते हैं।

वह फिर शालीनता से पूछता है- "चेंज दे देते सर!"

आप पैंसठ देकर पाँच सौ का नोट वापस लेते हैं।

कंडक्टर आभार प्रकट करता है-"थैंक यू सर!" और पान तंबाकू से रक्तिम दंतपंक्ति आपके सामने प्रस्तुत करता है। आप सोचते हैं कि यह वही आदमी है क्या जो दो मिनट पहले दस रुपए के मार्जिन को कवर करने के लिए बहस करने की सारी हदें लाँघ रहा था! बिहार की सड़कों पर दौड़ती बसों में सामंतवाद पूरी ठसक के साथ बरकरार है। बिहार न जाने क्यों इसी में जीने-मरने की कसमें खाता है। जो लोग शोषित हैं पीड़ित हैं वे भी एक दिन इस पिरामिड की नोंक पर पहुँचने का स्वप्न देखते हैं। अब क्या कहिए कि ये फिर भी और हर कीमत पर अपना बिहार है और हम इसे प्यार करते हैं। देखिएगा,एक दिन यही प्यार इस बिहार को जीत लेगा।

आपकी आँख लग जाती है और फिर 'गाड़ी खाली करिए' की गगनभेदी गर्जना से आपकी आँख खुल जाती है। अहा! गंतव्य आ गया है।


©️ -रत्नेश

शनिवार, 6 मई 2023

सिद्धेश्वर की डायरी 💠

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 ♦️ सुप्रतिष्ठित कथा लेखिका उषा किरण खान की अंतरंगता 

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 🔷 आज की शाम उषाकिरण खान के नाम !🔶🔷♦️

 ठीक ही कहते हैं लोग कि जिनका  व्यक्तित्व बहुआयामी होता है, अनुकरणीय होता है, वे  उस विशाल पेड़ की तरह नम्र होते हैं, जिसमें लदा हुआ फल, आमजन की हाथों तक पहुंचने के लिए, झुक जाता है  l एक जीवंत इंसान ही नम्र और सामाजिक हो सकता है l प्रेरणादायक  भी l       

                        किंतु ऐसे वरिष्ठ साहित्यकारों में गिने-चुने लोगों के ही  व्यक्तित्व इंसानियत की कसौटी पर खरे उतर पातें हैं । ऐसे ही व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी कुछ लोगों में  हैं, हमारे देश की विख्यात कथा लेखिका उषा किरण खान , जो हमारे शहर पटना की है, यह हमारे लिए भी गर्व का विषय है  l

         आज की शाम मेरे लिए विशेष महत्व का रहा l वह इसलिए भी कि कोरोना काल की एक लंबी अवधि के पश्चात, उनके आवास पर जाने का एक बहाना मिल गया मुझे l वैसे तो अक्सर साहित्यिक गोष्ठियों में उनसे मुलाकात  हो जाती थी l राम - सलाम, दुआ -खोज -खबर सब कुछ l किन्तु घर जाकर मिलना एक अलग आत्मीयता का परिचय देता है l वह भी तब,जब  अतीत की स्मृतियों को संजोए हम वर्तमान के दहलीज पर एक सार्थक कदम रखते हैं l

                      वातायन पब्लिकेशन से प्रकाशित  हमारी लघुकथा पुस्तक " भीतर का सच " का लोकार्पण उन्हीं के हाथों हुआ था l उसके बाद आज उनके आवास पर मैं उनके सामने था, बिल्कुल एक पारिवारिक सदस्य की तरह l व्यवहार में बिल्कुल नहीं लगा कि हमारे बीच इतने समय का अंतराल भी था l उनकी बातें हमें अतीत में ले गयीं।

            अक्सर लोग प्रसिद्धि पाने के बाद, अपने जड़ से कट जाते हैं अतीत को भूल जाते हैं  जबकि मैं अतीत को बहुत महत्व देता हूं l किंतु बहुत कम ऐसे लोग हैं, जो अतीत को वर्तमान के दहलीज पर जीवंत रख पाते हैं  l ऐसे कुछ लोग ही मेरे सामने उदाहरण के रूप में है, जिनमें एक है उषा किरण खान l

          1979 में जब मैंने साहित्यिक संस्था भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की स्थापना की थी, नई प्रतिभाओं  यानि युवा प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करने के लिए, तब लगभग हर वर्ष आयोजित हमारी लघु पत्रिका प्रदर्शनी और युवा सम्मेलन में उनकी भागीदारी रहती थी यानि उपस्थिति रहती थी l शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ उन्होंने कई बार हमारी हौसला अफजाई की थी l  और हमने इस मंच के माध्यम से कम से कम एक सौ साहित्य के ऐसे नक्षत्र साहित्य आकाश को दिए, जो आज भी जगमग सितारे की तरह चमक रहे हैं  l वे भले हमें भूल गए हों, किंतु उनकी चमक देख, आज भी हमारी आंखें चमक उठती है  l

             क्योंकि हमने जिस उद्देश्य से संस्था की स्थापना की थी, उसकी यही तो सार्थकता थी l और आज भी किसी न किसी रूप में वह जीवंत है भी, चाहे वह ऑनलाइन के माध्यम से ही क्यों ना हो ? 

                        किंतु कुछ लोग हैं जो हमारी राह का रोड़ा बनते हैं l मुझे भ्रमित करते हैं और  मुझे अपने उद्देश्य से भटकाने की कोशिश करते हैं l तब थोड़ी तकलीफ जरूर होती है किंतु मैं फिर पुनः सब कुछ भुला कर दोबारा अपने जुनून में आगे बढ़ जाता हूं l

                   मैं उनसे मिलने गया था,  लोकप्रिय मासिक पत्रिका सोच विचार के संपादक के आग्रह पर उनसे एक भेंटवार्ता लेने l भेंटवार्ता के दौरान ही हमने उनसे एक सवाल किया - " हमारे एक प्रिय मित्र कहते हैं मुझसे, जितना श्रम तुम नई प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने के लिए करते हो, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए करते हो, उसे छोड़कर सिर्फ अपने साहित्य कर्म के प्रति शक्ति क्यों नहीं झोंकते ? क्यों उनके पीछे अपना श्रम बर्बाद कर रहे हो ? मैं तुम्हें इसलिए सलाह दे रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि  तुम उनसे काफी आगे निकल जाओ l............तो उषा किरण दीदी,आप ही बतलाइए कि सामाजिक सेवा के रूप में नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना, क्या अपने श्रम की बर्बादी है ? "

        जवाब में उन्होंने कहा कि - " बिल्कुल नही l ऐसा सवाल करने वाले बहुत संकीर्ण विचार के होते हैं l आत्म केंद्रित होते हैं, सामाजिक नहीं होते l जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं, निश्चित तौर पर उनका जीवन अधूरा होता है l....   

          ...... कोई भी साहित्यकार पहले नया ही होता है l और फिर वह नया हो या पुराना,  उसे सीखने और सीखलाने की आवश्यकता तो जीवनपर्यंत बनी रहती है l आप ही सोचिए जब आप नये थे, छोटी मोटी लकीरें खींच लिया करते थे,चित्र बनाने के लिए l और कविता लघुकथा सब कुछ लिखने का प्रयास करते थे आप l यहां तक कि लघु पत्रिका की प्रदर्शनी भी लगाना शुरू कर दिया था आपने, मुझे वह सब कुछ  याद है l

          आप जब भी हमें, रामधारी सिंह दिवाकर, काशीनाथ पांडे  या शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ  याद करते थे , तब हमलोग अवश्य उपस्थित होते थे l आप लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए, समय निकालकर  हमलोग, आपके  पास जाते थे  l

            आज आप और आपके मित्रों की सफलता और आप लोगों की  यह ऊंचाई देखकर मुझे लगता है कि मैंने आप लोगों के सर पर हाथ रख कर कोई गलत काम नहीं किया था l आप किसी को कलम पकड़ना सीखा रहे हैं, शब्दों का इमारत खड़ा करना सीखा रहे हैँ, खुद सीख रहे हैं और सीखा रहे हैं , आप साहित्य की सेवा कर रहे हैं, नई प्रतिभाओं के भीतर उत्साह पैदा कर रहे हैं, इसमें समय की बर्बादी कैसी ?  यह तो अपने समय का सदुपयोग है  l इससे बड़ा और सामाजिक सेवा क्या हो सकता है ?

            आप किसी को बंदूक चलाना तो नहीं सीखा रहे हैं, आतंकवादी बनना तो नहीं सीखा रहे हैं ? फिर यह अपने श्रम की बर्बादी कैसे हो सकता है ? दुर्भाग्य है कि ऐसा विचार रखने वाले आज हमारे साहित्य समाज में अधिक लोग हो गए हैं, जबकि पहले के साहित्यकार ऐसी भावना अपने हृदय में नहीं रखते थे! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे संपादक भी थे,  जो नई प्रतिभाओं की रचनाओं को संशोधित कर अपनी पत्रिका में छापने का श्रम करते थे l आप ही बताइए आज कितने ऐसे प्रकाशक संपादक हैं ?

                           हमारे एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि खेमे बाजी और गुटबंदी के घेरे में रहने वाले साहित्यकार, अपने आप को ही छल रहे होते हैं l साहित्य के इतिहास में उनका कोई अस्तित्व नहीं होता और न ही उनकी रचनाएं समाज में कोई बदलाव लाने की दिशा में सकारात्मक पहल कर पाती है l स्त्री विमर्श, नारी विमर्श,नारी सशक्तिकरण आदि नाम देकर रचना लिखने वाले, अपनी सृजनशीलता पर विश्वास नहीं रखते  l

         आज की शाम मेरे लिए बहुत संतुष्टिपूर्ण रहा l उषा किरण खान से भेंटवार्ता के बहाने ढेर सारी साहित्य पर चर्चा हुई, और मन को बड़ा सुकून मिला  l साथ ही साथ चाय पानी का सिलसिला भी चलता रहा l इतनी उम्र में, तमाम बीमारियों से जूझते हुए  रहने के बावजूद, ऐसा अपनत्तव हमने बहुत कम साहित्यकारों में देखा है l समकालीन साहित्यकारों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से अवश्य प्रेरणा लेनी चाहिए l


🔷♦️[] सिद्धेश्वर []

{ मोबाइल: 92347 60365 }

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 एक लंबी भेंट वार्ता वार्ता के कुछ अंश ::

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🔮 सिद्धेश्वर : महादेवी वर्मा के बाद आप दूसरी महिला हैं जिन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत भारती सम्मान मिला l क्या इसे आप अपना सौभाग्य समझती हैं?

♦️ उषा किरण खान  : जी l महादेवी  वर्मा के बाद कई लेखकों को यह सम्मान मिला l लेकिन महिला लेखिकाओं  मेंयह सम्मान को पाने वाली पहली महिला होने का सौभाग्य मुझे जो प्राप्त हुआ है l

🔮 सिद्धेश्वर  : किस उम्र से आप लिख रही हैं ? और आपकी किस रचना ने आपको सर्वाधिक प्रसिद्धि दी !

♦️ उषा किरण खान: मैं करीबन 8 साल की उम्र से लिख रही हूं l लेकिन पहली बार मेरी रचना का प्रकाशन 1977 में हुआ l आंखें तरल रही मेरी पहली रचना थी, इस रचना को मुंशी प्रेमचंद के बेटे श्रीपत राय की मासिक पत्रिका कहानी में जगह मिली थीl इसके बाद धर्मयुग में मेरी रचना प्रकाशित हुई l हसीना मंजिल उपन्यास में मुझे काफी प्रसिद्ध दी,  इस बात में कोई दो मत नहींl जब पहला उपन्यास है जो पूर्वी पाकिस्तान के बंटवारे पर आधारित हैl दूरदर्शन ने मेरी इस रचना पर सीरियल भी बनाया है l कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है इस रचना की l

🔮 सिद्धेश्वर : भामती उपन्यास के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं l क्या मैथिली भाषा में होने के कारण यह पुरस्कार आपको मिले?

♦️ उषा किरण खान  : मेरी भामती उपन्यास  मैथिली भाषा में है, इसलिए इसे मैथिली भाषा के घेरे में रखी गई l क्योंकि साहित्य अकादमी पुरस्कार किसी एक भाषा के लिए नहीं दी जाती l यह एक ऐसी स्त्री पुरुष की कहानी है जिससे स्त्री के मान मर्यादा और उसकी खेती के बारे में पता चलता है lयह पति-पत्नी के संवेदना और सौभाग्य की अनूठी कहानी है l

🔮 सिद्धेश्वर  : इतिहास की छात्रा रहते हुए भी हिंदी साहित्य के प्रति आपकी रूचि कैसे जागी?

♦️ उषा किरण खान : दरअसल में इतिहास की छात्रा जरूरत थी, इतिहास कि मैं प्रोफेसर भी रही लेकिन कॉलेज में इतिहास की पाठ्य सामग्री कम होती थी l तो वह दूसरी भाषा के साथी प्रोफ़ेसर भी मुझे लिखने को प्रेरित करते थेl अंततः मैंने हिंदी साहित्य को ही चुन लिया l

🔮 सिद्धेश्वर: साहित्य में इतने सारे मान सम्मान पाने के बाद आपका अगला पड़ाव क्या है?

♦️ उषा किरण खान : मैं तो अपनी धुन में  लिखती हूंl पुरस्कार देने वाले जाने की उन्हें क्या करने हैं l लोग पुरस्कार के लिए रिकमेंड करते हैं l मैं तो अब वहां पर हूं, जहां पर मैं रिकमेंड  कर सकती हूं l इसके बावजूद मैं सबसे पहले लेखक हूं l अगला पुरस्कार क्या मिलता है यह तो वही जाने l मैं इस उद्देश्य से लेखन नहीं करती l

🔮 सिद्धेश्वर: आपको लेखन सृजन की प्रेरणा किस लेखक से मिली ?

♦️ उषा किरण खान : प्रेरणा तो हमेशा वरिष्ठ लेखकों से ही मिलती है l बाबा नागार्जुन जैसे कवि की प्रेरणा तो मुझे मिलती ही थी, वे कहा करते थे तुम अच्छा लिखती हो लिखती रहो  l उषा प्रियंवदा, फणीश्वर नाथ रेणु जैसे रचनाकारों ने मुझे काफी प्रेरित किया है l यदि मैं बात करूं समकालीन लेखकों की तो मिथिलेश्वर,सूर्यबाला से कई बार साहित्य पर बातें होती नहीं है l मिथिलेश्वर से तो अक्सर इन सारी विषयों पर बातें होती रहती है l

🔮 सिद्धेश्वर : मैथिली साहित्य के बारे में आप क्या कहना चाहिएगा ?

 मैथिली का परिवेश अब बदल रहा है lमैथिली में भी लिखने पढ़ने और समझने वाले कई हो गए हैं l हां मैथिली में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हो रहा इसलिए इसके बारे में बहुत सारे लोगों को पता नहीं है l हिंदी का क्षेत्र जरूर बड़ा है l लेखकों की यह कमी नहीं हैl लोग पढ़ रहे हैं लिख रहे हैं l गुणवत्ता में जरूर कमी आई है l

 जब हम स्कूलों में पढ़ते थे तो साहित्य के लिए अलग कक्षा हुआ करती थी l यदि स्कूल में आरंभ सहित साहित्य के प्रति रुचि जगाई जाए, तो लोगों को साहित्य के प्रति झुकाव बढ़ेगा 




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शनिवार, 29 अप्रैल 2023

❤ समझौता ख़ामोशी से / धर्मवीर भारती

 


ख़ामोश हूँ सदा

मैं चलती-फिरती मूरत

संस्कृति का प्रतीक है मेरा चाल-चलन

सर पर है पल्लू का बोझ

मन में बगावत की आग 

पर चेहरे पर मौन की काली छाया

कज़रारी आँखें बड़ी-बड़ी 

मासूम सी मैं मृगनयनी

ग्रहिणी हूँ 

नया संसार बसाकर


पर भय है मेरी आँखों में 

शराबी  ससुर से

सास की आँखों  से 

देवर के ऐंठन से 

ननद के ताने से 

पर आशा है 

मुझे पति के क्षणिक प्यार से

जो कभी-कभी मिलती है ख़ैरात में 

प्यार की भीख 

संभाल कर रखती हूँ दिल में

ताकती  रहती पति नयन में अनवरत

शायद मिलेगी ही निरंतर जलती आग को

क्षण भर की ठंडक


कभी-कभी अकेले में सोचती

कर दूँ आज बगावत

मिटा दूँ अबला होने का शक O

जी लूँगी ज़िन्दगी अकेले 

बेहतर है कहीं अकेलापन 

उस दरिन्दगी  से 

जो मुझे न जलाते है

न ही बुझाते  है 

उन्हें शौक है सिर्फ़

धूं-धूं कर जलाना 

मिलता है अति आनंद उन्हें 

मेरी ख़ामोशी भरी तडप से

सोचती हूँ आज मचा दूं तहलका

पर पल में ही सोचती हूँ

शायद जाग्रत ज्वालामुखी की ख़ामोशी 

बेहद पसंद है मेरे माँ-बाप को 

जो सर उठा कर जीते हैं संसार में

बन कोल्हू का बैल 

बाँध आँखों में काली पट्टी 

नाचती है अथक 

खाती है 

तन पर डंडे ,कोड़े-लप्पड़-थप्पड़ 

गाली, गलौज, कटुता, ओताने 

बार-बार मेरे कानों  में गूंजते हैं

मेरे माँ-बाप भाई के नपुंसकता भरे शब्द

फट जाते है मेरे कान के परदे 

जो हथौड़े-सी चोट पहुँचाते दिल पर 

कि बेटी दोनों कुल का मान बढ़ाती है 

जिस घर में बेटी की डोली जाती है 

उसी घर से बेटी की अर्थी निकलती है

क्या फ़र्क़ है ? 

मेरे नपुंसक भाई-पिता को

खुश होंगे वे

जब ससुराल से अर्थी मेरी निकलेगी 

गायेंगे झूठी शान गर्व भरी गाथा  

मेरी लाडली रही सदा सुहागन,मरी-भी सुहागन

पर उन्हें क्या मतलब ?

की कैसे मरूँगी  तिल-तिलकर 

क्या फ़र्क़ होगा ?

मृत शरीर विष से नीली है 

या फंदे से कसी हुई ?

सिर्फ़ खोखला गर्व होगा उन्हें

लाडली मरी ससुराल में 

दोनों कुलों का मान बढ़ाकर

अर्थी निकली उसकी 

ससुराल में जाकर


न हूँ मैं घर की ना घाट की 

शायद यही है मेरे जीवन का निष्कर्ष

तभी तो लाचार, कायर, निट्ठाली हूँ

अबला बन कर

कर समझौता ख़ामोशी से

कर समझौता ख़ामोशी से



- धर्मवीर भारती 

मो.न. - 7070886737 

Email-drdharmveerfilm@gmail.com

सोमवार, 24 अप्रैल 2023

*💐💐पेंशन:-सम्मान निधि 💐💐*

🌳🦚आज की कहानी🦚n



माँ, तुम भी न ...यह क्या पिताजी की जरा सी 12000 रुपये की पेंशन के लिए इतना माथापच्ची कर रही हो, अरे इससे ज़्यादा तो हम तनख्वाह तो हम एक कर्मचारी को दे देतें हैं..


मोहित ने चिढ़कर अपनी माँ के साथ स्टेट बैंक की लंबी कतार में लगने की बजाय माँ को घर वापस घर पर ले जाने के लिए आग्रह करने लगा।


वैसे मोहित ने सच ही कहा था, करोड़ों का बिजनेस था उनका, लाखों रुपये तो साल भर में यूँ ही तनख्वाह और भत्ते के नाम पर कर्मचारियों पर निकल जाते हैं, फ़िर मात्र 12000 रुपये प्रतिमाह की पेंशन पाने के लिये, स्टेट बैंक की लम्बी कतार में खड़े होकर पेंशन की औपचारिकता पूर्ण करने के लिये इतना समय व्यर्थ करने का क्या औचित्य  ??


मोहित के पिता विशम्भरनाथ जी का निधन  पिछले माह ही बीमारी की वजह से हुआ था, वह लगभग 12 वर्ष पूर्व एक सरकारी स्कूल में प्राध्यापक पद से रिटायर हुये थे , तब से उनके नाम पर पेंशन आया करती थी, विशम्भर नाथ जी मृत्यु के उपरांत आधी पेंशन उनकी  पत्नी सरला जी को मिलने का शासकीय योजना के अनुसार प्रावधान था, जिसके लिये सरला जी आज स्टेट बैंक में अपने बेटे मोहित के साथ जाकर  पेंशन की औपचारिकता पूर्ण करने  आई हुई थी।

                                    

उस दिन मोहित के बेटे कुशाग्र का आठवां जन्मदिन था, उसने अपनी दादी से साइकिल की फ़रमाइश की थी, सरला के खुद के बैंक अकाऊंट में पैसे नाममात्र के ही बचे थे, उनकी पेंशन अभी शुरू नहीं हुई थी..इसलिए उन्होंने मोहित से 10000 हज़ार रुपये माँगें... मोहित अपने ऑफिस जाने की तैयारी में व्यस्त था, उसने अचानक माँ के द्वारा दस हज़ार रुपये की माँग पर थोड़ा अचरज़ से देखा, फिर अपनी पत्नी श्रेया को माँ को दस हज़ार रुपये देने को कहकर चला गया।


श्रेया ने एक दो बार माँगने पर अपनी सास को दस हजार रुपये देते हुये कहा, "पता नहीं आजकल बहुत मंदी चल रही है, थोड़ा हाथ सम्भालकर खर्च करना... " हालांकि शाम को जब सरला ने उन पैसों से कुशाग्र की साइकिल खरीदी, तो घर का माहौल पूर्ववत हँसी मज़ाक का हो गया।

अगले हफ्ते मोहित की बड़ी बहन दो दिन के लिए मायके आई थी,  जब तक विशम्भरनाथ जी जीवित थे, सरला को कभी पैसे के लिये किसी से पूछना नही पड़ता, वह खुद ही अपनी पेंशन से एक रकम निकाल कर सरला को दे देते थे, मग़र आज बेटी की विदाई के लिए सरला को बहु से पैसे माँगते समय उसके शब्द "पता नहीं आजकल बहुत मंदी चल रही है, थोड़ा हाथ सम्भालकर खर्च करना"... याद आ गये और बहुत दुःखी मन से बेटी को बिना कुछ दिये ही विदा करने लगी, तब बहु ने खुद आकर सरला के हाथ में 2000 रुपये पकड़ाकर कहा, बेटी को खाली हाथ विदा करेंगी क्या? सरला ने महसूस कर लिया था कि बहु की बात में अपनापन कम उलाहना ज्यादा है।


ऐसा नहीं था कि सरला के जीवन में पैसे का आभाव आ गया हो, उसके इलाज़ के लिए, दवा के लिये, मोबाइल रिचार्ज करना, छोटी मोटी जरूरतों के लिए तो मोहित बिना कुछ कहे ही पैसा लाकर दे देता था, परन्तु इसके अलावा सरला को जो भी खर्च करना होता जैसे किसी मंदिर में दान करना, नौकरों को उनकी जरूरत या त्योहार पर पैसा देना या अपने रिश्तेदारों के आने पर उपहार देना जैसे छोटी मोटी जरूरतों के लिए उसे मोहित या बहु से पैसा माँगना स्वाभिमान को चोट करता था।


अभी दो दिन पहले सरला की बहन आई हुई थी, बहन की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी, इसलिए वह सरला से कुछ आर्थिक सहयोग की अपेक्षा कर रही थी, मग़र खुद सरला को छोटे-छोटे खर्चो के लिए बहु की तरफ मुँह देखते देखकर उसने अपनी बहन से कुछ न कहा।


आज जैसे ही उसके मोबाईल पर पहली बार स्टेट बैंक का SMS आया, सरला ने आश्चर्य से मैसेज खोलकर देखा, पिछले छः महीने की पेंशन 72000 रुपये उसके अकाउंट में क्रेडिट होने का मैसेज था वह।

सरला नज़दीक के ATM से 10000 रुपये  निकालकर जब सरला घर आ रही थी, उसके आत्मविश्वास और कदमों की चाल ही बता रही थी कि पेंशन को "सम्मान निधि" क्यों कहतें हैं। 


अपने करोड़पति बेटे की करोड़ों की दौलत से ज्यादा वजन सरला को अपने पति की पेंशन से मिले 12000 रुपयों में लग रहा था।











*सदैव प्रसन्न रहिये।*

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*


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रविवार, 23 अप्रैल 2023

धीरेन्द्र अस्थाना की नजर में पंकज सुबीर


धीरेन्द्र अस्थाना की नजर में पंकज  सुबीर



 तुम्हारे पास तीन बेटियों की संपदा है, मेरे पास चाहने के बावजूद एक भी नहीं। रूदादे सफ़र जैसा महत्वपूर्ण उपन्यास तुम ही लिख सकते थे, मैं नहीं। कंटेंट के स्तर पर यह उपन्यास बहुत बहुत समृद्ध है और संवेदना के स्तर पर कातिलाना। यह लिखने का कारण है कि मैं उपन्यास पढ़ते हुए तीन चार बार रोया हूं। इसका अच्छा मतलब यह लेना चाहिए कि उपन्यास के पात्र अपनी व्यथाओं के साथ किताब से बाहर निकल कर आJपको अपने जीवन में ले आए हैं और आप उनके साथ ही रो और हंस रहे हैं। कायांतरण प्रवेश की यह कितनी बड़ी ताकत तुमने पात्रों के साथ पाठकों को भी सौंप दी है, ऐसा कोई कर पाता है क्या?

  यह देहदान की प्रक्रिया, पब्लिसिटी स्टंट, जरूरत, और अनिवार्यता का पाठ उपलब्ध कराता है,एक। यह पिता पुत्री के मायावी और महत्वपूर्ण रिश्तों की व्याख्या करता है और उसके समीकरण सुलझाता है,दो। यह पति पत्नी के तिलिस्मी रिश्तों पर पड़ी चादर हटाता है और उसे यथार्थ तथा स्नेह के संयुक्त आभासों के दर्पण में दिखाता है,तीन। चौथा सनसनीखेज यह कि मेडिकल जैसे ईश्वरीय पेशे के भीतर पनपते रक्तरंजित मंसूबों को निर्ममता से उघाड़ देता है।यह एजुकेटिव और फैमिलियर एक साथ है। मेरे जैसे आदमी के लिए बोनस भी है इसमें। इस उपन्यास के जरिए मैंने भोपाल को उसकी रूह के साथ महसूस कर लिया।

   तुम बेहतरीन कथागो हो पंकज सुबीर। आज से तुम मेरे महबूब लेखक हुए।

मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

इक्यावन_कविताएँ #ऋषभदेवशर्मा

 

इक्यावन_कविताएँ #ऋषभदेवशर्मा


डॉ. ऋषभदेव शर्मा की 51 चयनित कविताओं के इस गुलदस्ते का हर पुष्प अपने-आप में नयनाभिराम, सुगंधित और चटख रंगों वाला है। किसी भी रचनाकार के लिए अपने शिल्प की सीमा से बाहर लिखना कठिन होता है, लेकिन इन कविताओं में शिल्प की विविधता सहज नज़र आती है। कविताओं में विशुद्ध भारतीय और पौराणिक संदर्भों का विलक्षण मिथकीय प्रयोग और इसे आज की समस्याओं/विषमताओं से जोड़ना एक ऐसे पुल का निर्माण करता है, जिसे पार करते हुए पाठक हजार वर्षों की अंतर्यात्रा कर आता है। 


'अहं ब्रह्मास्मि' के सूत्रवाक्य की तरह इन कविताओं का विषय भी 'मैं' से 'ब्रह्म' तक व्यापक है। लेकिन इस विस्तार में जो समानता है, वह यह कि ये कविताएँ मनुष्यता के पक्ष में रची गई रचनाएँ हैं, जो साबित करती हैं कि ऋषभदेव शर्मा जन-मानस के कवि हैं। खासतौर पर एक ऐसे वक़्त में जब कविताओं के विषय सिमटते जा रहे हैं और भाषा में एकरूपता आती जा रही है, इन कविताओं को पढ़ना एक सुखद अहसास है। 


इन कविताओं से गुज़रना किसी चुंबकीय रास्ते से गुज़रने जैसा है, जहाँ इन कविताओं के अंश पाठकों की आत्मा से चिपक जाते हैं और फिर देर तक उन्हें गुदगुदाते, कचोटते, कोसते और ढाढ़स बँधाते रहते हैं। इस संकलन की कविताओं का रसास्वादन करने के बाद पाठक, प्रो. ऋषभदेव शर्मा के कवि-कर्म की गंगोत्री तक जरूर जाना चाहेंगे, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।


                ✒️ #प्रवीण_प्रणव

           (Praveen Pranav)

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

नभ और धारा की ये दोस्‍ती

 


नभ और धारा की ये कहानी दोस्‍ती, प्‍यार और नफरत के बीच के अजीब सफर से गुजरती है। नभ एक आर्मी ऑफिसर है जो आर्मी में इसलिये गया क्‍योंकि उसे अपनी बचपन की दोस्‍त धारा की नाराजगी को दूर करना था।


धारा और नभ बचपन में गहरे दोस्‍त थे लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि ये दोस्‍ती नफरत में बदल गई। धारा ने अपने हालात और पापा से एक लंबी जंग लड़ने के बाद अपना डॉक्‍टर बनने का सपना पूरा किया लेकिन उसे ये नहीं पता था कि एक दिन नभ खुद मरीज बनकर आएगा। आर्मी का ये जांबाज़ सिपाही तीन गोली खाकर उसी के हॉस्‍पिटल में एडमिट हुआ। 

डॉ धारा क्‍या अपनी नफरत को भुला कर नभ का ऑपरेशन कर पाएगी? 

पढ़िये मेरी किताब 

“प्‍यार मुझसे जो किया तुमने”


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BFC Publications Kahani Ankahi



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लाजवाब 


यदि आपने : / shashi singh

 यदि आपने : 

बखरी की कोठरी के ताखा में जलती ढेबरी देखी है।

दलान को समझा है।

ओसारा जानते हैं।

दुवारे पर कचहरी (पंचायत) देखी है।

राम राम के बेरा दूसरे के दुवारे पहुंच के चाय पानी किये हैं।

दतुअन किये हैं।

दिन में दाल-भात-तरकारी 

खाये हैं।

संझा माई की किरिया का मतलब समझते हैं।

रात में दिया और लालटेम जलाये हैं।

बरहम बाबा का स्थान आपको मालूम है।

डीह बाबा के स्थान पर गोड़ धरे हैं।

तलाव (ताल) के किनारे और बगइचा के बगल वाले पीपर और स्कूल के रस्ता वाले बरगद के भूत का किस्सा (कहानी) सुने हैं।

बसुला समझते हैं।

फरूहा जानते हैं।

कुदार देखे हैं।

दुपहरिया मे घूम-घूम कर आम, जामुन, अमरूद खाये हैं।

बारी बगइचा की जिंदगी जिये हैं।

चिलचिलाती धूप के साथ लूक के थपेड़ों में बारी बगइचा में खेले हैं।

पोखरा-गड़ही किनारे बैठकर लंठई किये हैं।

पोखरा-गड़ही किनारे खेत में बैठकर 5-10 यारों की टोली के साथ कुल्ला मैदान हुए हैं।

गोहूं, अरहर, मटरिया  का मजा लिये हैं

अगर आपने जेठ के महीने की तीजहरिया में तीसौरी भात खाये हैं,

अगर आपने सतुआ का घोरुआ पिआ है,

अगर आपने बचपन में बकइयां घींचा है।

अगर आपने गाय को पगुराते हुए देखा है।

अगर आपने बचपने में आइस-पाइस खेला है।

अगर आपने जानवर को लेहना और सानी खिलाते किसी को देखा  है।

अगर आपने ओक्का बोक्का तीन तलोक्का नामक खेल खेला है।

अगर आपने घर लिपते हुए देखा है।

अगर आपने गुर सतुआ, मटर और गन्ना का रस के अलावा कुदारी से खेत का कोन गोड़ने का मजा लिया  है।

अगर आपने पोतनहर से चूल्हा पोतते हुए देखा है।

अगर आपने कउड़ा/कुंडा/ सिगड़ी/ कंडा  तापा है।

अगर आप ने दीवाली के बाद दलिद्दर खेदते देखा है।


तो समझिये की आपने एक अद्भुत ज़िंदगी जी है, और इस युग में ये अलौकिक ज़िंदगी ना अब आपको मिलेगी ना आने वाली  पीढ़ी को  क्योंकि आज उपरोक्त चीजें विलुप्त प्राय होती जा रही हैं या हो चुकी हैं।

शनिवार, 15 अप्रैल 2023

बनारसी दास जैन ( आगरा )

बनारसी दास जैन ( आगरा )


 अक्सर हम केवल उन्हीं किताबों को पढ़ते हैं जो बहुत चर्चित होती हैं। किंतु कई अच्छी किताबें ऐसी भी हैं, जिनकी तरफ ध्यान कम ही जा पाता है। ‘अर्धकथानक’ या ‘द हाफ स्टोरी’ (The Half Story) भी एक ऐसी ही किताब है जिसकी तरफ लोगों का ध्यान शायद कम ही गया है। यह जानकर आपको हैरानी हो सकती है कि, यह किताब भारतीय भाषा में लिखी गयी पहली आत्मकथा है जिसे 1641 में बनारसीदास द्वारा तत्कालीन ब्रजभाषा में लिखा गया था। मध्यकाल तक किसी भी लेखक या कवि ने अपने बारे में नहीं लिखा किंतु ऐसा पहली बार हुआ जब बनारसीदास द्वारा अपनी आधी जिंदगी की पूरी कहानी को पुस्तक के रूप में वर्णित किया गया। हिंदी की इस आरंभिक आत्मकथा में पहली बार किसी लेखक ने अपने आत्म जीवन को प्रकट किया।

बनारसी दास एक जौनपुरी लेखक, कवि, दार्शनिक और व्यापारी थे जो आगरा में निवास करते थे। उनकी यह आत्मकथा 17वीं शताब्दी में पूरे उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हुई। इस आत्मकथा को लिखने का उनका एक ही मकसद था कि वे अपनी कहानी सबको बताएं। यह आत्मकथा पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ उनके जीवन को प्रकट करती है तथा मानव अस्तित्व की प्रकृति पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। यह बात आश्चर्यजनक है कि पुस्तक का लहजा मध्ययुग की तरफ ना होकर काफी अधिक आधुनिक है। पुस्तक के माध्यम से उनके जीवन के उतार-चढ़ाव तथा बौद्धिक और आध्यात्मिक संघर्षों को जाना जा सकता है। उस समय बनारसीदास आगरा में रहते थे और उनकी उम्र 55 साल थी। उनका जन्म एक श्रीमल जैन परिवार में हुआ था तथा उनके पिता खड़गसेन जौनपुर में जौहरी का कार्य करते थे। उन्होंने अपना बचपन जौनपुर में बिताया लेकिन बाद में वे आगरा आ गए।

इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद रोहिणी चौधरी द्वारा किया गया है तथा उन्होंने ही इस पुस्तक की भूमिका भी तैयार की। जैन शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का पूर्ण जीवनकाल 110 वर्षों का होता है, किंतु क्योंकि इसमें केवल आधे जीवन की ही व्याख्या की गयी है इसलिए इसे ‘अर्ध कथानक’ कहा गया है। लेखक वैश्य परिवार से सम्बंधित थे तथा उनकी आपबीती उनके समाज की भी व्याख्या करती है। लेखक बताते हैं कि कैसे उनके समाज में बचपन से ही बच्चों को व्यापार में पारंगत किया जाता था। लेकिन बनारसीदास न केवल व्यापार में बल्कि छंद, शास्त्र, और प्रेम में भी पारंगत हुए। उन्होंने लिखा कि अपने प्रेमालंबन की उनके ऊपर ऐसी धुन सवार थी कि वे अपने पिता से मानिक, मणि आदि चुराते और खूब पान और मिठाइयां खरीदते तथा अपनी प्रेमिका को पेश करते। अपने प्रेम के ऊपर उन्होंने हज़ार दोहे और चौपाइयां लिखीं हैं। एक बार जब वे बुरी तरह बीमार हुए तब परिवार के सब लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया। उस कठिन समय में अपनी पत्नी की सेवा से वे ठीक हुए और उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया। बाद में उन्होंने जैन धर्म का गहरा अध्ययन किया और अध्यात्म से जुड़ गये।

बनारसीदास की यह कहानी जौनपुर, बनारस, आगरा, और इलाहाबाद में फैली हुई है। वे यह जानते थे कि आपबीती बताते हुए व्यक्ति को पूरी इमानदारी बरतनी चाहिए और इसलिए उन्होंने बिना गुण-दोष विवेचन के यह कहानी बड़ी स्पष्टता से व्यक्त की है। पुस्तक में अनेक स्त्रियों का भी वर्णन है जैसे - उनकी नानी, बूढ़ी दादी जो उनकी पहली कमाई पर मिठाई बांटती हैं, उनकी पत्नी, प्रेमिका आदि। यह दिलचस्प बात है कि इन स्त्रियों के नाम नहीं बताये गये हैं जिससे पता चलता है कि तत्कालीन समाज में सार्वजनिक रूप से महिलाओं का नाम नहीं लिया जाता था। उन्होंने अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ तीन मुग़ल बादशाहों का दौर देखा। पुस्तक में मुगलों के आतंक और उनके इन्साफ का वर्णन तो है ही, समाज में उनकी व्याप्ति के भी प्रसंग हैं। वे लिखते हैं कि जब बादशाह अकबर की मृत्यु हुई उस समय लेखक जौनपुर में थे तथा मौत की खबर सुनकर सीढ़ियों से गिर पड़े और उनके सिर पर चोट लग गयी। अकबर के न रहने के समाचार से पूरे शहर में दंगे भड़क उठे और लोगों में असुरक्षा की भावना भर गयी। तब लोगों ने अपने अच्छे वस्त्र और कीमती आभूषण ज़मीन में गाड़ दिए तथा नकद पैसा सुरक्षित स्थानों में छिपा दिया। दस दिनों तक जौनपुर में भय का ऐसा ही माहौल व्याप्त रहा किंतु जब आगरा से खबर आई कि अकबर का बेटा सलीम शाह गद्दी पर बैठ गया है, तब सब कुछ ठीक हो गया और शहर में शांति लौटी। तीनों बादशाहों के दौर में उनके परिवार को अपमानित होना पड़ा था। लेकिन किताब में मुगलिया सल्तनत को लेकर अच्छी ही बातें कही गई हैं।

निम्नलिखित श्लोक 1605 में अकबर की आकस्मिक मृत्यु के प्रभाव का वर्णन करते हैं कि कैसे उत्तराधिकार की अनिश्चितता ने धनी वर्गों Pके बीच व्यापक भय पैदा किया ‌-
घर-घर डर-डर किये कपाट,
हतवानि नाहिं.न बइठे हाट।
अर्थात, हर घर में सभी कपाट बंद कर दिये गये तथा व्यापारियों ने अपनी दुकानों पर बैठना बंद कर दिया।

भले वस्त्र अरु भूषण भले,

ते सब गड़े धरती तले।

अर्थात सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों को ज़मीन के नीचे गाड़ दिया गया।
घर घर सबने विसाहे सशस्त्र,
लोगन पहिने मोटे वस्त्र।

अर्थात लोगों ने अपने हथियार तैयार कर लिये तथा मोटे (खुरदुरे) वस्त्र धारण किये।

हालांकि लेखक ने इसके अलावा अन्य किताबें भी लिखी हैं किंतु उनके नाम के साथ अर्धकथानक ही लोकप्रिय रूप से जुड़ी है। इसकी भाषा को लेखक ने ‘मध्यदेश की बोली’ कहा है जिसके बारे में विद्वानों का कहना है कि वह आज की खड़ी बोली के अधिक करीब है। इसीलिए शायद इसे हिंदी की पहली आत्मकथा कहा जाता है।

संदर्भ:
1. 
https://www.goodreads.com/en/book/show/10509627-ardhakathanak
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Banarasidas
3. https://www.jankipul.com/2010/11/blog-post_03-2.html
4. http://shabdavali.blogspot.com/2009/04/4.html
चित्र सन्दर्भ:-
1. https://www.rohinichowdhury.com/Translations/39-/Ardhakathanak



शून्य

 जितनी बार पढ़ो उतनी बार जिंदगी का सबक दे जाती है ये कहानी ....


जीवन के 20 साल हवा की तरह उड़ गए । फिर शुरू हुई नोकरी की खोज । ये नहीं वो, दूर नहीं पास । ऐसा करते करते 2 3 नोकरियाँ छोड़ते एक तय हुई। थोड़ी स्थिरता की शुरुआत हुई।


फिर हाथ आया पहली तनख्वाह का चेक। वह बैंक में जमा हुआ और शुरू हुआ अकाउंट में जमा होने वाले शून्यों का अंतहीन खेल। 2- 3 वर्ष और निकल गए। बैंक में थोड़े और शून्य बढ़ गए। उम्र 25 हो गयी।


और फिर विवाह हो गया। जीवन की राम कहानी शुरू हो गयी। शुरू के एक 2 साल नर्म, गुलाबी, रसीले, सपनीले गुजरे । हाथो में हाथ डालकर घूमना फिरना, रंग बिरंगे सपने। पर ये दिन जल्दी ही उड़ गए।


और फिर बच्चे के आने ही आहट हुई। वर्ष भर में पालना झूलने लगा। अब सारा ध्यान बच्चे पर केन्द्रित हो गया। उठना बैठना खाना पीना लाड दुलार ।


समय कैसे फटाफट निकल गया, पता ही नहीं चला।

इस बीच कब मेरा हाथ उसके हाथ से निकल गया, बाते करना घूमना फिरना कब बंद हो गया दोनों को पता ही न चला।


बच्चा बड़ा होता गया। वो बच्चे में व्यस्त हो गयी, मैं अपने काम में । घर और गाडी की क़िस्त, बच्चे की जिम्मेदारी, शिक्षा और भविष्य की सुविधा और साथ ही बैंक में शुन्य बढाने की चिंता। उसने भी अपने आप काम में पूरी तरह झोंक दिया और मेने भी


इतने में मैं 35 का हो गया। घर, गाडी, बैंक में शुन्य, परिवार सब है फिर भी कुछ कमी है ? पर वो है क्या समझ नहीं आया। उसकी चिड चिड बढती गयी, मैं उदासीन होने लगा।


इस बीच दिन बीतते गए। समय गुजरता गया। बच्चा बड़ा होता गया। उसका खुद का संसार तैयार होता गया। कब 10वि आई और चली गयी पता ही नहीं चला। तब तक दोनों ही चालीस बयालीस के हो गए। बैंक में शुन्य बढ़ता ही गया।


एक नितांत एकांत क्षण में मुझे वो गुजरे दिन याद आये और मौका देख कर उस से कहा " अरे जरा यहाँ आओ, पास बैठो। चलो हाथ में हाथ डालकर कही घूम के आते हैं।"


उसने अजीब नजरो से मुझे देखा और कहा कि "तुम्हे कुछ भी सूझता है यहाँ ढेर सारा काम पड़ा है तुम्हे बातो की सूझ रही है ।"

कमर में पल्लू खोंस वो निकल गयी।


तो फिर आया पैंतालिसवा साल, आँखों पर चश्मा लग गया, बाल काला रंग छोड़ने लगे, दिमाग में कुछ उलझने शुरू हो गयी।


बेटा उधर कॉलेज में था, इधर बैंक में शुन्य बढ़ रहे थे। देखते ही देखते उसका कॉलेज ख़त्म। वह अपने पैरो पे खड़ा हो गया। उसके पंख फूटे और उड़ गया परदेश।


उसके बालो का काला रंग भी उड़ने लगा। कभी कभी दिमाग साथ छोड़ने लगा। उसे चश्मा भी लग गया। मैं खुद बुढा हो गया। वो भी उमरदराज लगने लगी।


दोनों पचपन से साठ की और बढ़ने लगे। बैंक के शून्यों की कोई खबर नहीं। बाहर आने जाने के कार्यक्रम बंद होने लगे।


अब तो गोली दवाइयों के दिन और समय निश्चित होने लगे। बच्चे बड़े होंगे तब हम साथ रहेंगे सोच कर लिया गया घर अब बोझ लगने लगा। बच्चे कब वापिस आयेंगे यही सोचते सोचते बाकी के दिन गुजरने लगे।


एक दिन यूँ ही सोफे पे बेठा ठंडी हवा का आनंद ले रहा था। वो दिया बाती कर रही थी। तभी फोन की घंटी बजी। लपक के फोन उठाया। दूसरी तरफ बेटा था। जिसने कहा कि उसने शादी कर ली और अब परदेश में ही रहेगा।


उसने ये भी कहा कि पिताजी आपके बैंक के शून्यों को किसी वृद्धाश्रम में दे देना। और आप भी वही रह लेना। कुछ और ओपचारिक बाते कह कर बेटे ने फोन रख दिया।


मैं पुन: सोफे पर आकर बेठ गया। उसकी भी दिया बाती ख़त्म होने को आई थी। मैंने उसे आवाज दी "चलो आज फिर हाथो में हाथ लेके बात करते हैं "

वो तुरंत बोली " अभी आई"।


मुझे विश्वास नहीं हुआ। चेहरा ख़ुशी से चमक उठा।आँखे भर आई। आँखों से आंसू गिरने लगे और गाल भीग गए । अचानक आँखों की चमक फीकी पड़ गयी और मैं निस्तेज हो गया। हमेशा के लिए !!


उसने शेष पूजा की और मेरे पास आके बैठ गयी "बोलो क्या बोल रहे थे?"


लेकिन मेने कुछ नहीं कहा। उसने मेरे शरीर को छू कर देखा। शरीर बिलकुल ठंडा पड गया था। मैं उसकी और एकटक देख रहा था।


क्षण भर को वो शून्य हो गयी।

" क्या करू ? "


उसे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन एक दो मिनट में ही वो चेतन्य हो गयी। धीरे से उठी पूजा घर में गयी। एक अगरबत्ती की। इश्वर को प्रणाम किया। और फिर से आके सोफे पे बैठ गयी।


मेरा ठंडा हाथ अपने हाथो में लिया और बोली

"चलो कहाँ घुमने चलना है तुम्हे ? क्या बातें करनी हैं तुम्हे ?" बोलो !!

ऐसा कहते हुए उसकी आँखे भर आई !!......

वो एकटक मुझे देखती रही। आँखों से अश्रु धारा बह निकली। मेरा सर उसके कंधो पर गिर गया। ठंडी हवा का झोंका अब भी चल रहा था।


क्या ये ही जिन्दगी है ? नहीं ??


जीवन अपना है तो जीने के तरीके भी अपने रखो। शुरुआत आज से करो। क्यूंकि कल कभी नहीं आएगा।

टोटल टीवी में काम करने वाले तमाम दोस्तों की याद में / पंडित संदीप

 

पंडित संदीप 


टोटल टीवी में काम करने वाले भूत और वर्तमान दोस्तों की याद में... 


इसमे सब है देखो तुम्हारा  नाम है क्या एक यादो की कविता अर्पित है


टोटल के टोटल स्टाफ 


कुछ चहक कर जो मिलते थे मिलेंगे 

कुछ हंस-हंसकर बातें करते थे फिर करेंगे

कुछ खुश होते थे देख कर खुश होंगे 

कुछ भौ ताने गढ़ते थे गढ़ेंगे जलेंगे 

कुछ जिन से कह ना सके अब कहेंगे 

कुछ जिन्हें जान  नहीं पाये जानेंगे कुछ नए-नए से हों कर फिर मिलेंगे

कुछ बदले से बदल कर आएंगे आतुरता है बस अब आलिंगन की 

उन सपनों को फिर फिर जीने की 

जब बांध कमर पर बोझ चले थे जीवन का समझ मोल चले थे 

वह नुक्ताचीनी तल्लफुश की बातें पीटीसी फोनों से मस्त मुलाकाते कथूरिया का पानीपती मुरब्बा नसीम की स्टोरी के अम्मी अब्बा विकास की पेंट पकड़ पीटूसी 

और नोएडा को कहना गुड़गांवा सी 

शालिनी के नाम पर नागिन लिख देना 

वो एमसीडी वाले सोलंकी का कैरा मैन कहना 

प्रदीप की पीटीसी वाली एक अलग टेप

परफ़ेक्ट के लिए भाई के सौ सौ टेक

Live के लिए सुबह कतार में लगना 

का बताये बहिन मस्टरवा का कच्छा में घुसना

कुछ vo करने की हसरत 

चन्दन सर का शीशा लगवाने की हरकत 

अरोड़ा जी का चुप चुप समझाना शरद नारायणर का हाजिरी दिखाना 

शैलेश सर की थी शान निराली 

राहुल पंडिता शब्दों की प्याली नवीन शर्मा थे बड़े कलाकार 

सेंगर साहब ने दिया नया आकार 

नीलम दुबे की पर्ची पर्ची का खेल शशि की टोपी सरवन का मेल

फिर आया केएम का राज

अपनी कोने पड़ गई खाट

सालवी की साधना ov गढ़ना

Gfx वालों का ताना-बाना बुनना मेहता सर थे बहुत असरदार

पवार की इलायची जायकेदार

मनचंदा का नोटो का झोला

टोटल ने बाज़ार में हल्ला बोला

रूबी का रौब ज्योति की शांति

करुणा कि कृपा याद है आतीI

कुलदीप का केला प्रेम भूल न जाना

भटनागर का कर के पछताना

तारा जोशी का अमिट मुकाम

अमित शुक्ला गीता प्रियंका का अद्भुत कामI

प्रीति पांडे का जुनून कुंदन का अभियान 

मनीष शुक्ला की स्क्रिप्ट स्टोरी तमाम 

राणा का चश्मा पूजा की एंकरिंग संतोष तिवारी का सटीक चित्रण 

कमल गौरी का गज़ब था तोता ज्ञान

सच टोटल फैमली एक बड़ी मधुशाला थी  

जहां सत्यम की एक मस्त पाठशाला थी

एक और था नाम बहुत दमदार प्रताप टोटल का पहला चौकीदार संजीत गंगा मुकेश बेहद थे खास यह देते थे मेरा मौके पर साथ 

एक ओझा मानकर मासूम की तिगड़ी 

राय तप्पन दा की भूजा पार्टी ओम मनोहर गांधी धर्मेंद्र ज्ञानेंद्र इनकी भी है बहुत याद सताती लाइब्रेरी के संजीव स्टोर का राक्षस

परवीन pcr मेरा परविंदर एडिटर

विकाश शर्मा और सनरिका का Becoming

टोटल का बस इतना ही मुझे याद है

ये मेरी  यादों की छोटी बरसात है

संदीप मेरे भाई जैसा आज भी साथ है

और जिन्हें भूल गया गलती माफ है।

एक मेरा साथी छूट गया वो कैसे?

अरे कहा मिलेंगे अनिल और चन्द्रशेखर जैसे।


कुछ गलती तो माफी बुरा न मानो  6 की तैयारी है।)

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

विरासत •

 

  • विरासत •

प्रस्तुति - विकास कृष्ण 



        महेश के घर आते ही बेटे ने बताया कि वर्मा अंकल आर्टिगा गाड़ी ले आये हैं। पत्नी ने चाय का कप पकड़ाया और बोली पूरे 13 लाख की गाड़ी खरीदी और वो भी कैश में। महेश हाँ हूँ करता रहा। आखिर पत्नी का धैर्य जवाब दे गया, हम लोग भी अपनी एक गाड़ी ले लेते हैं, तुम मोटर साईकल से दफ्तर जाते हो क्या अच्छा लगता है कि सभी लोग गाड़ी से आएं और तुम बाइक चलाते हुए वहाँ पहुंचो, कितना खराब लगता है। तुम्हे न लगे पर मुझे तो लगता है।


       देखो घर की किश्त और बाल बच्चों के पढ़ाई लिखाई के बाद इतना नही बचता कि गाड़ी लें। फिर आगे भी बहुत खर्चे हैं। महेश धीरे से बोला।


      बाकी लोग भी तो कमाते हैं, सभी अपना शौक पूरा करते हैं, तुमसे कम तनखा पाने वाले लोग भी स्कोर्पियो से चलते हैं, तुम जाने कहाँ पैसे फेंक कर आते हो। पत्नी तमतमाई।*


अरे भई सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ मे ही दे देता हूँ, अब तुम जानो कहाँ खर्च होता है। महेश ने कहा।


मैं कुछ नही जानती, तुम गाँव की जमीन बेंच दो ,यही तो समय है जब घूम घाम लें हम भी ज़िंदगी जी लें। मरने के बाद क्या जमीन लेकर जाओगे। क्या करेंगे उसका। मैं कह रही कल गाँव जाकर सौदा तय करके आओ बस्स। पत्नी ने निर्णय सुना दिया।


अच्छा ठीक है पर तुम भी साथ चलोगी। महेश बोला । पत्नी खुशी खुशी मान गयी और शाम को सारे मुहल्ले में खबर फैल गयी कि सरला जल्द ही गाड़ी लेने वाली है।


सुबह महेश और सरला गाँव पहुँचे। गाँव में भाई का परिवार था। चाचा को आते देख बच्चे दौड़ पड़े। बच्चों ने उन्हें खेत पर ही रुकने को बोला, चाचा माँ आ रही है। तब तक महेश की भाभी लोटे में पानी लेकर वहाँ आईं और दोनों के जूड़ उतारने के बाद बोलीं लल्ला अब घर चलो।


बहुत दिन बाद वे लोग गाँव आये थे, कच्चा घर एक तरफ गिर गया था। एक छप्पर में दो गायें बंधीं थीं। बच्चों ने आस पास फुलवारी बना रखी थी, थोड़ी सब्जी भी लगा रखी थी। सरला को उस जगह की सुगंध ने मोह लिया। भाभी ने अंदर बुलाया पर वह बोली यहीं बैठेंगे। वहीं रखी खटिया पर बैठ गयी। महेश के भाई कथा कहते थे। एक बालक भाग कर उन्हें बुलाने गया। उस समय वह राम और भरत का संवाद सुना रहे थे। बालक ने कान में कुछ कहा, उनकी आंख से झर झर आँसू गिरने लगे, कण्ठ अवरुद्ध हो गया। जजमानों से क्षमा मांगते बोले, आज भरत वन से आया है राम की नगरी। श्रोता गण समझ नही सके कि महाराज आज यह उल्टी बात क्यों कह रहे। नरेश पंडित अपना झोला उठाये नारायण को विश्राम दिया और घर को चल दिये।


महेश ने जैसे ही भैया को देखा दौड़ पड़ा, पंडित जी के हाथ से झोला छूट गया, भाई को अँकवार में भर लिए। दोनो भाइयों को इस तरह लिपट कर रोते देखना सरला के लिए अनोखा था। उसकी भी आंखे नम हो गयीं। भाव के बादल किसी भी सूखी धरती को हरा भरा कर देते हैं। वह उठी और जेठ के पैर छुए, पंडित जी के मांगल्य और वात्सल्य शब्दों को सुनकर वह अन्तस तक भरती गयी।


दो पैक्ड कमरे में रहने की अभ्यस्त आंखें सामने की हरियाली और निर्दोष हवा से सिर हिलाती नीम, आम और पीपल को देखकर सम्मोहित सी हो रहीं थीं। लेकिन आर्टिगा का चित्र बार बार उस सम्मोहन को तोड़ रहा था। वह खेतों को देखती तो उसकी कीमत का अनुमान लगाने बैठ जाती।


दोपहर में खाने के बाद पण्डित जी नित्य मानस पढ़ कर बच्चों को सुनाते थे। आज घर के सदस्यों में दो सदस्य और बढ़ गए थे। अयोध्याकांड चल रहा था। मन्थरा कैकेयी को समझा रही थी, भरत को राज कैसे मिल सकता है। पाठ के दौरान सरला असहज होती जाती जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो। पाठ खत्म हुआ। पोथी रख कर पण्डित जी गाँव देहात की समसामयिक बातें सुनाने लगे। सरला को इसमें बड़ा रस आता था। उसने पूछा कि क्या सभी खेतों में फसल उगाई जाती है? पण्डित जी ने सिर हिलाते हुए कहा कि एक हिस्सा परती पड़ा है। सरला को लगा बात बन गयी, उसने कहा क्यों न उसे बेंच कर हम कच्चे घर को पक्का कर लें। पण्डित जी अचकचा गए। बोले बहू, यह दूसरी गाय देख रही, दूध नही देती पर हम इसकी सेवा कर रहे हैं। इसे कसाई को नही दे सकते। तुम्हे पता है, इस परती खेत में हमारे पुरखों का जांगर लगा है। यह विरासत है, विरासत को कभी खरीदा और बेंचा थोड़े जाता है। विरासत को संभालते हुए हम लोगों की कितनी पीढ़ियाँ खप गयीं। कितने बलिदानों के बाद आज भी हमने अपनी मही माता को बचा कर रखा है। तमाम लोगों ने खेत बेंच दिए, उनकी पीढ़ियाँ अब मनरेगा में मजूरी कर रही हैं या शहर के महासमुन्दर में कहीं विलीन हो गए। तुम अपनी जमीन पर बैठी हो, इन खेतों की रानी हो। इन खेतों की सेवा ठीक से हो तो देखो कैसे माता मिट्टी से  सोना देती है।  शहर में जो हर लगा है बेटा वो सब कुछ हरने पर तुला है, सम्बन्ध, भाव, प्रेम, खेत, मिट्टी, पानी हवा सब कुछ। आज तुम लोग आए तो लगा मेरा गाँव शहर को पटखनी देकर आ गया। शहर को जीतने नही देना बेटा। शहर की जीत आदमी को मशीन बना देता है। हम लोग रामायण पढ़ने वाले लोग हैं जहाँ भगवान राम सोने की लंका को जीतने के बाद भी  उसे तज कर वापस अजोध्या ही आते है, अपनी माटी को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं।


तब तक अंदर से भाभी आयीं और उसे अंदर ले गईं। कच्चे घर का तापमान ठंडा था। उसकी मिट्टी की दीवारों से उठती खुशबू सरला को अच्छी लग रही थी। भाभी ने एक पोटली सरला के सामने रख दी और बोलीं, मुझे लल्ला ने बता दिया था, इसे ले लो और देखो इससे कार आ जाये तो ठीक नही तो हम इनसे कहेंगे कि खेत बेंच दें।


सरला मुस्कुराई, विरासत कभी बेंचा नही जाता भाभी। मैं बड़ों की संगति से दूर रही न इसलिए मैं विरासत को कभी समझ नही पाई। अब यहीं इसी खेत से सोना उपजाएँगे और फिर गाड़ी खरीदकर आप दोनों को तीरथ पर ले जायेंगे, कहते हुए सरला रो पड़ी, क्षमा करना भाभी। दोनो बहने रोने लगीं। बरसों बरस की कालिख धुल गयी।


अगले दिन जब महेश और सरला जाने को हुए तो उसने अपने पति से कहा, सुनो मैंने कुछ पैसे गाड़ी के डाउन पेमेंट के लिए जमा किये थे उससे परती पड़े खेत पर अच्छे से खेती करवाइए। अगली बार  उसी फसल से हम एक छोटी सी कार लेंगे और भैया भाभी के साथ हरिद्वार चलेंगे।


शहर हार गया, जाने कितने बरस बाद गाँव अपनी विरासत को  मिले इस मान पर गर्वित हो उठा था।

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बुधवार, 12 अप्रैल 2023

एक श्रद्धांजलि ऐसा भी / अनिल कुमार चंचल



एक श्रद्धांजलि ऐसा भी  / अनिल कुमार चंचल 


 एहसास 

"एहसास ए दिल "

AGAM SANGEET  की ओर से मेरे संपादन में गीत ग़ज़लों  को संकलित पुस्तक प्रकाशन के क्रम में है. 

अभी तक औरंगाबाद से जनाब shabbir Hasan shabbir ,Sri Dhananjay Jaipuri, Himanshu Chakrapani, Janab Ekbal Akhtar Dil, Arvind Akela, sri Praveen Parimal,  sri sewa Sadan Prasad Smt Reema Sinha lakhnow, Debnath Ranj 

के रचनाएँ मुझे मिल चुकी है. 

यह स्व विनोद कुमार सिन्हा पुत्र स्व डॉ AGAM और हमारी माँ स्व सावित्री देवी को एक अनिल चंचल और उनके बच्चों की ओर से एक श्रद्धांजलि अर्पित होगी. 

स्व विनोद आपके जिले के ही एक गुमनाम गीतकार, लोक संगीत का composers जिसने 1966 में औरंगाबाद को छोड़कर  नौकरी के लिए Daltonganj, घर बसाया और 11july 2011 को अंतिम सांसे ली. 

ये औरंगाबाद का पुत्र झारखंड में परिचय का मोहताज़ भी नहीं है जिसने नटराज कला केंद्र की स्थापना, स्व महेंद्र नाथ त्रिपाठी, स्व हरिशंकर प्रसाद, स्व दीनानाथ साथी जैस संगीतप्रेमी के साथ स्थानीय प्रबुद्ध लोंगो का भरपूर साथ मिला. इनकी बेटी की समान शिष्य स्व नीलिमा सहाय  Ranchi Doordarshan ki Station Director ने उन तमाम नटराज कला केंद्र से जुड़े कलाकारों को आकाशवाणी और Doordarshan केंद्र में बतौर सहायता कर अपने रिश्तों को कायम मरते दम तक रखा. 

चुकीं मैं नौकरी में बाहर था लेकिन दो चार बार भेट हुई एक सगे चाचा का सम्मान वो अपने कार्यालय के कक्ष में मेरे चरण स्पर्श कर ही आशीर्वाद लेती रहीं. 

  यदि नीलम के लिए लोग कुछ कहना चाहे तो प्रक्रियाओं को मैं पुस्तक में स्थान देना चाहूंगा. 

मेरे अनुज funtus जी कुछ अटपटा लगेगा लेकिन बचपन से हम क्या पूरा मुहल्ला स्व प्रदीप कुमार रोशन को जनता था. कब रोशन रौशन हुआ मैंने उसके चले जाने के बाद शहर के लोंगो और उसके लिखे गीत ग़ज़ल नज़्म से पहचाना..

रौशन पर पहली क़िताब, अनामी शरण बबल और उसके बाद दूसरी किताब श्री विजय प्रकाश IAS ने creative learning के माध्यम से लोंगो तक पहुँचा है. 

 चर्चा के क्रम में प्रदीप के प्रति उनके मन में बहुत कुछ है और प्रदीप के कुछ रचनाएँ इस किताब का एक अहम हिस्सा होगी. 

 औरंगाबाद काव्य गोष्ठी में मैंने 2 अप्रैल को घोषणा किया है और ये जून तक काम हो जाना है. 

 वादे के अनुसार कुछ मित्रों की प्रतीक्षा में हूँ. 


सूचनार्थ 


!!  हमे लगता है कि 'एहसास ए दिल की छपाई नवी मुंबई में कराना सुविधाजनक होगा. !

कुछ मित्रों से बात हुई है और उनके बुक्स की छपाई भी हुई है, इसलिए मेरे लिए भी यही सुविधाजनक होगी.


धन्यवाद


अनिल कुमार चंचल 







रविवार, 9 अप्रैल 2023

लघु फिल्म बेसिक स्टेप्स

एक लघु फिल्म बनाने के लिए भी हमें फिल्ममेकिंग के जो बेसिक स्टेप्स है उसको फॉलो करनाहोता है |


एक फीचर फिल्म और लघु फिल्म में क्या अंतर होता है पहले इसके बारे में जानते है ?

एक फीचर फिल्म फुल लेंथ की फिल्म होती है | जो फिल्म 1 घंटा से ज्यादा की होती है वो फीचर फिल्म

की केटेगरी में आती है |

वहीं अगर लघु फिल्म की बात की जाए तो 1 घंटे से कम समय की होती है और ये 1 मिनट की भी हो सकती है |


लघु फिल्म देखना लोग ज्यादा पसंद करते हैं इसकी सबसे बड़ी वजह है की कम समय में भी लघु फिल्म

के माध्यम से लोग पूरी कहानी जान जाते हैं |

6 आसान तरीके में कैसे एक लघु फिल्म बनाई जा सकती यही इसके बारे में जानकरी प्राप्त करते हैं –

Step 1: Create a Plan (लघु फिल्म निर्माण)

लघु फिल्म बनाने से पहले उसकी पहली स्टेप प्लानिंग की होती है | आप किस प्रकार की फिल्म बना रहे हैं
उसकी बजट क्या होगी? फिल्म को किस प्लेटफार्म पे रिलीज़ किया जायेगा ?और फिल्म बनाने का मुख्य
उद्देश्य क्या है ? इन सभी सवालों के बारे में विचार विमर्श करना और फिर लघु फिल्म बनाने की तैयारी
शुरू करना होता है |

लघु फिल्म लोग ज़्यदातर फिल्म फेस्टिवल्स में भेजने के लिए ही बनाते हैं | अगर लघु फिल्म की
बजट की बात की जाये तो किसी भी बजट में लघु फिल्म बनाई जा सकती है बस फिल्म बनाने का
जूनून आपमें होना आवश्यक है |

अगर फिल्म रिलीज की बात की जाये तो अभी शोशल मीडिया का जमाना है और लघु फिल्म के लिए
सबसे ज्यादा परफेक्ट जगह है जहाँ पे आप अपने टैलेंट को दिखा सकते हैं और अगर आपकी लघु
फिल्म अच्छी हुई तो सोशल मीडिया के वजह से वायरल भी जा सकती है |

फेसबुक और यूट्यूब पे आप लघु फिल्म को रिलीज कर सकते हैं और उसके माध्यम से पैसे भी कमा
सकते हैं |

स्टेप 1 में ये सभी प्लानिंग आपकी पूरी होनी चाहिए की आप जो फिल्म बना रहे हैं उसमे
बजट क्या होगा? फिल्म कितने देर की बनेगी और उसको रिलीज कहाँ करना है |

फिर आते हैं अगले स्टेप में और वो प्री-प्रोडक्शन |

Step 2: प्री-प्रोडक्शन (लघु फिल्म निर्माण)

प्री-प्रोडशन के अंदर फिल्म की शूटिंग से पहले की सभी प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है | जैसे कहानी लिखने
से लेकर फिल्म शूटिंग ताकि की जो भी प्रक्रिया है उसकी पूरी तरह से तयारी फिल्म के प्री-प्रोडक्शन चरण में
कर ली जाती है |

फिल्म के कहानी लिखने की प्रक्रिया को स्क्रिप्ट राइटिंग बोलते हैं | स्क्रिप्ट कैसे लिखते हैं इसके बारे में
जानने के लिए अलग से एक पोस्ट काफी डिटेल्स में लिखा हुआ उसको पढ़ के जानकरी प्राप्त कर सकते हैं |

स्क्रिप्ट लिखने के बाद फिल्म की शूटिंग कहाँ की जाएगी उसके लिए लोकेशन ढूँढना भी प्री-प्रोडक्शन चरण
में ही हो जाता है | फिल्म के अंदर कौन करैक्टर के लिए कौन से एक्टर रोल करेंगे ये सभी निर्णय इसी चरण में
कर लिया जाता है |

एक्टर का सिलेक्शन करना कास्टिंग कहलाता है और इस काम के लिए कास्टिंग डारेक्टर जिम्मेबार होता
होता है | अगर आपके फिल्म की बजट कम है तो आप खुद से भी एक्टर की कास्टिंग कर सकते हैं |

कास्टिंग करने के लिए एक्टर का ऑडिशन ले सकते हैं | ऑडिशन लेने के लिए आप एक्टर से एक्टिंग
करवा के देख सकते हैं आप जो फिल्म बना रहे हैं उसके ही कुछ सीन करवा के देख सकते हैं और जो
परफेक्ट लगे उस एक्टर को अपने फिल्म के लिए रख सकते हैं |

फिल्म को शूट जो करेगा उसे सिनेमेटोग्राफर कहते हैं तो आपके फिल्म के लिए सिनेमेटोग्राफर कौन होगा ये
निर्णय लेना प्री-प्रोडक्शन चरण में ही जरुरी है |

आपके फिल्म की शूटिंग के लिए बजट के हिसाब से ही फिल्म इक्विपमेंट का चुनाव करना होता है |
ये सभी निर्णय भी आपको इसी चरण में लेना होता है |

Step 2: प्रोडक्शन (लघु फिल्म निर्माण)

ये सभी तैयारियां होने के बाद फिल्म चली जाती है प्रोडक्शन के लिए |
प्रोडक्शन चरण के अंदर फिल्म की शूटिंग की जाती है | फिल्म शूटिंग में हरेक शार्ट को सेट पे
ही कन्फर्म करना जरूरी होता है |

एक बार आपकी फिल्म अगर शूट हो गयी तो फिर दुबारा से उस सीन को बाद में शूट करना मुश्किल
हो सकता है | फिर से सब लोग को सेट पे बुलाना और फिर से किसी सीन के गलतियों को ठीक करने के
लिए दुबारा से शूट करना मुश्किल हो सकता है | इसी लिए समय रहते सेट पे ही फिल्म के गलतियों को ठीक कर लें |

Step 2: पोस्ट-प्रोडक्शन

फिल्म शूट हो जाने के बाद फिल्म अगले चरण यानि पोस्ट प्रोडक्शन में चली जाती है |
पोस्ट प्रोडक्शन में फिल्म की एडिटिंग की जाती है | अगर फिल्म कलर ग्रेडिंग करना है तो
वो भी फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन चरण में ही की जाती है |

इसी चरण में ऑडियो मिक्सिंग , फिल्म की डबिंग और फिल्म की फाइनल एडिटिंग कर के पूरी तरह
कम्पलीट और रिलीज के लिए तैयार फुटेज निकाला जाता है |

उसके बाद आप फिल्म को जहाँ चाहे रिलीज कर सकते हैं |

लघु फिल्म को फिल्म फेस्टिवल्स में भी भेज सकते हैं लेकिन कुछ फिल्म फेस्टिवल्स में पहले से
रिलीज की हुई लघु फिल्म एक्सेप्ट नहीं की जाती है उसका पको ख्याल रखना है |
इस तरह आसान चरणों में आप अपना पहली लघु फिल्म बना सकते हैं |

How to Make an Independent Film |एक स्वतंत्र फ़िल्म निर्माण कैसे करें

असली संत

 ⚛️ आत्मवत सर्वभूतेषु ⚛️प्रस्तुति ज्योतिषाचार्य पंडित कृष्ण मेहता -------------------------- गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो ग...