सोमवार, 14 मार्च 2011

मीडिया / मल्टी एडीशन युग की वापसी के खतरे

मल्टी एडीशन युग की वापसी के खतरे

अनामी शरण बबल
पिछले कई सालों से खबरिया और मनोरंजन चैनलों के अलावा धार्मिक चैनलों और क्षेत्रीय या लोकल खबरिया चैनलों का बढ़ता जलवा फिलहाल थम सा गया दिख रहा है। हालांकि अगले छह माह के दौरान कमसे कम एक दर्जन चैनलों की योजना प्रसवाधीन है। इन खबरिया चैनलों की वजह से खासकर हिन्दी के अखबारों के मल्टी एडीशन खुमार थोड़ा खामोश सा दिखने लगा था।
खासकर एक दूसरे से आगे निकलने के कंपीटिशन में लगे दैनिक भास्कर, अमर उजाला और दैनिक जागरण का मल्टी एडीशन कंपीटिशन फिलहाल थमा हुआ है। अलबता, दैनिक हिन्दुस्तान का मल्टी एडीशन कल्चर इस समय परवान पर है। इस समय थोडा अनजाना नाम होने के बावजूद बीपीएन टाईम्स, और स्वाभिमान टाईम्स का एक ही साथ दो तीन माह के भीतर एक दर्जन से भी ज्यादा शहरों से प्रकाशन की योजना हैरानी के बावजूद स्वागत योग्य है। इनकी  भारी भारी भरकम योजना निसंदेह पत्रकारों और प्रिंट मीडिया के लिए काफी सुखद  है। उतर भारत के खासकर हरियाणा, पंजाब इलाके में पिछले दो साल के दौरान आज समाज ने भी आठ दस एडीशन  चालू करके हिन्दी प्रिंट मीडिया को नया बल प्रदान किया है।
हिन्दी में मल्टी एडीशन का दौर 1980 के आसपास शुरू हुआ था, जब नवभारत टाईम्स के मालिकों ने पटना, लखनऊ, जयपुर आदि कई राजधानी से एनबीटी को आरंभ करके प्रिंट मीडिया में मल्टी कल्चर शुरू किया। मात्र पांच साल के भीतर ही एनबीटी के मल्टी कल्चर का जादू पूरी तरह उतर गया और धूमधड़ाके से चालू एनबीटी के खात्मे से पूरा हिन्दी वर्ग सालों तक आहत रहा।
हालांकि दैनिक जागरण और अमर उजाला से पहले दैनिक आज के दर्जन भर संस्करणों का गरमागरम बाजार खासकर उतरप्रदेश और बिहार में काफी धमाल मचा रखा था। सही मायने में 1989 और 1992 के दौरान दैनिक जागरण के बाद राष्ट्रीय सहारा का राजधानी दिल्ली से प्रकाशन आरंभ हुआ, और आज दोनें के बगैर मुख्यधारा की पत्रकारिता अधूरी है। हालांकि इसी दौरान हंगामे के साथ कुबेर टाईम्स और जेवीजी टाईम्स का भी प्रकाशन तो हुआ, मगर देखते ही देखते ये कब काल कवलित हो गए, इसका ज्यादातरों को पता ही नहीं चला। लगभग 1987-91 के बीच में ही य़ूपी के पूर्व मुख्यंमत्री नारायण दत तिवारी के किसी रिश्तेदार ने यूपी, हरियाणा के सगभग सात आठ शहरों से तडतड़ातड विश्वमानव नामक अखबारों की सीरिज शुरू की। दो तीन साल तक इसकी पशि्चमी यूपी में धूम धाम भी रही, मगर देखते ही देखथे धीरे धीरे फिर विश्वमानव के बंद होने का सिलसिला शुरू हो गया। पूरा बाजार तो ढह गया है, मगर शायद दो एक शहरों से हांफते हुए यह अखबार आज भी जीवित है। यह दूसरी बात है कि इसके मालिकों का पूरा कुनबा भी बदल गया है, मगर इसकी नियति नहीं बदली है।
1990 के बाद हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्णकाल का दौर शुरू हुआ, जब दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दिव्य हिमाचल, हरिभूमि,  राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, नवभारत,आदि कई अखबार एक साथ अलग अलग इलाकों से प्रकाशन आरंभ करके हिन्दी प्रिंट मीडिया को सबसे ताकतवर बनाया।
 नयी सदी में खबरिया चैनलों के तूफानी दौर के सामने  सबकुछ  फीका सा दिखले लगा था। रोजाना चालू हो रहे, मगर आम दर्शकों की नजर से ओझल इन चैनलों का संस्पेंस आज भी एक पहेली है। नए चैनल को चालू करने से ज्यादा उसको घरों में लगे इडियट बाक्स तक पहुंचाना आज भी एक बड़ा गोरखधंधा है। इसके बावजूद अभी तक खबरिया चैनलों के ग्लैमर को कम नहीं किया जा सका है। अलबता, धन और पगार के मामले में इनका जादू पूरी तरह खत्म सा हो गया है मगर, फाईव सी के बूते इन चैनलों के बुखार को कम करने वास्ते फिलहाल कोई क्रोसीन दवा अभी खतरे की घंटी नहीं बनी है।
ठंडा सा पड़ा प्रिंट मीडिया पिछले साल से एकाएक  परवान पर है। हालांकि अमर उजाला  से अलग होकर अग्रवाल बंधुओं के एक भाई ने अपने पिता डोरीलाल अग्रवाल के नाम पर ही मीड डे न्यूज पेपर डीएलए के लगभग एक दर्जन संस्करण चालू करके धमाल तो मचाया, मगर साल के भीतर ही आधा दर्जन संस्करणों पर ताला लग गया। हिन्दी प्रिंट मीडिया के साथ बंद होने और फिर से चालू होने का यह लुडो गेम  लगा रहता है।
इसी मल्टी कल्चर को एक बार फिर आगे बढ़ाने वाले स्वाभिमान टाईम्स और बीपीएन टाईम्स का सिंहनाद से हिन्दी पाठकों को खुशी जरूर हो रही होगी। हालांकि इस खुशी के पीछे आशंका को भी महसूस किया जा सकता है। देखना है कि 2011 का स्वर्णकाल  क्या आगे तक बना रहेगा ? ताकि हिन्दी के पाठक खुद को आश्वस्त कर  सके। यही देखना हम हिन्दी वालों के लिए सबसे दिलचस्प और यादगार होगा।

 2.









हमारा महानगर पतनगाथा
अनामी शरण बबल
ये है मुंबई नगरिया तू देख बबूआ। मुबंई का जादू भले ही पूरे देश में चल जाए, मगर दिल्ली में सब का जादू उतर ही जाता है। पूर्वी उतरप्रदेश के किसी एक शहर से सामान्य  लेबर की तरह मुबंई में जाकर सिनेमाई कामयाबी पाने वाले हमारा महानगर के मालिक आर एन सिंह आज मुबंई की धड़कन है। एक सिक्योरिटी कंपनी खोलकर हर माह करोड़ों रूपए की खाटा आमदनी कमाने वाले सिंह साहब की जेब में लाखों पूरबिया वोट का जादू  है। यही वजह है कि शिवसेना से लेकर महाराष्ट्र का कोई भी मुख्यमंत्री आर. एन सिंह को हर तरह से अपने काबू में रखना चाहता है। हमारा महानगर के मालिकों के इसी जादू का असर है कि मुबंई में यह अखबार चल नहीं दौड़ रहा है। लाखों की प्रसार वाले इस अखबार को पूर्वी यूपी का दर्पण बना दिया गया है। मुबंई में बैठा हर पूरबिए के लिए यह अखबार रोजाना की जरूरतों में शामिल हो गया ह। यही वजह है कि सामान्य मजदूर की तरह आज से 40-45 साल पहले मुबंई गए सिंह को यह शहर इस कदर भाया कि वे अपने पोलिटिकल संपर्को के चलते मुबंई के मेयर बनने का सपना भी साकार किया। अखबार की कमाई को और बढ़ाने में इनका आधुनिक प्रेस भी कारू का खजाना साबित हुआ। मुबंई की शान माने जाने वाले हमारा महानगर के मालिक का यह जलवा है कि इनके समारोहों में बड़े बड़े धनकुबेरों से लेकर मायानगरी के चमकते सितारो और सारिकाएं भी आकर चरण छूकर आशीष पाना अपना सौभाग्य मानती हैं।
मुबंई के इसी जलवा को दिल्ली में बिखेरने का स्वप्न पाले हमारा महानगर को दिल्ली से चालू करने का कार्य़क्रम बना। पैसा खर्च करने के मामले पूरी तरह कंजूसी बरतने की सख्त योजना के साथ हमारा महानगर की योजना को लेकर राजीव रंजन नाग सामने आए। लोकल का हेड कर रहे संदीप ठाकुर की टीम में मैं भी शामिल था। मोहन सिंह काफी होम में होने वाली करीब आधा दर्जन बैठकों में पूरी तरह शामिल भी रहा। पगार के अलावा किसी भी संवाददाता को मोबाइल, अखबार,या परिवहन भता देने से साफ मना कर दिया गया।  
करौलबाग के दफ्तर में मुबंईया अधिकारियों ने फिलहाल अन्य खर्चो पर रोक लगा दी। मुबंई से रोजाना तुलना करते हुए खबरों से ज्यादा विज्ञापन और इस तरह की खबरों को ज्यादा फोकस करने का आदेश दिया जिसका भविष्य में लाभ हो सके। मुबंईया अधिकारियों ने तमाम संवाददाताओं को अपने संपर्को को रिचार्ज करते रहने का भी फरमान सुनाया, ताकि कभी भी उसका लाभ लिया जा सके। विज्ञापन लाने वाले महान पत्रकारों को 20 प्रतिशत कमीशन देने का भी भरोसा दिया गया।
पत्रकारिता के इस महान दौर में सबसे संतोष की बात यही रही कि  राजीव रंजन नाग और संदीप ठाकुर ने इससे खुद को पूरी तरह अलग रखा। हमारा महानगर शुरू होने से पहले ही तथाकथित मालिकों के फरमान का बीच हमारा महानगर की पूरी योजना बनी।

यह मेरा सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि हमारा महानगर से जुड़ने से पहले ही मैनें नागजी एवं ठाकुर से मुबंई जाने की वजह से 10 दिन  की छुट्टी मंजूर करवा ली थी। इसी दौरान पाइल्स की पुरानी बीमारी से मैं इस कदर पीडि़त हुआ कि करीब 15 दिनं तक तिब्बिया अस्पताल में जाकर इलाज कराने के सिवा मेरे पास कोई चारा ना रहा।  मामला इतना संगीन था कि आपरेशन कराने की नौबत आ गई थी। इस दौरान निसंदेह नाग साहब का मेरे पास फोन आया और उन्होनें हाल चाल जानने के बाद कहा कि मैं तुम्हारे बारे में क्या करू ?  यह सवाल नाग के प्रति मन को आदर से भर दिया। शारीरिक अस्वस्थता का हवाला देते हुए मैने उनसे कहा कि सर आप पूरी तरह आजाद है, किसी को भी रख लें, मगर फिलहाल तो मैं मजबूर हूं। संदीप ने भी मेरी सेहत पर चिंता प्रकट करते हुए बाद में देखने का भरोसा दिया। हमारा महानगर की तरफ से आफर लेटर, बैंक खाता चेक बुक और एटीएम कार्ड आज भी मेरे लिए हमारा महानगर की याद में धरोहर बन गई।
जब मैं नवम्बर 2008 में पूरी तरह ठीक हो गया, तब तक हमारा महानगर के प्रकाशन आरंभ हो चुका था। नाग और ठाकुर के प्रयासों के बाद भी फिर मेरा दोबारा इससे जुड़ना नही हो सका। हालांकि छह माह की उपहार योजना के तहत इसे लगातार लेना चालू तो किया, मगर दो माह के भीतर ही उपहार दिए बगैर ही हमारा महानगर घर पर आना बंद हो गया। हाकर से दर्जनों बार की गई जवाब तलब के बाद भी अखिरकार महाराजा समूह की तरफ से हम जैसे हजारों लोगों को इस ठगी का शिकार बनना पड़ा।
मुबंई की तरह दिल्ली में भी अपना रूतबा कायम करने का सिंह सपना साकार नहीं हो पाया। दिल्ली में बगैर किसी धूम मचाए ही हमारा महानगर की दिल्ली में खामोश मौतहो गई। हालांकि हमारा महानगर  पर कोई आंसू बहाने वाला भी नहीं है। इससे जुड़कर भी नहीं जुड़ पाने का गम तो कभी नहीं रहा। हां इसका अफसोस जरूर है कि अपने लाभ के वास्ते  मीडिया का दुरूपयोग करने वालों की लालच से अंततः मीडिया और अखबार की साख का ही बट्टा लगता है, जो इसकी विश्वसनीयता को कम करती है। हमारा महानगर के बंद होने का तो कोई मलाल नहीं है, मगर 10-12 कप चाय का कर्ज मेरे ऊपर जरूर  है, जिसको उतारना अब मेरे लिए आसान नहीं है।

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