गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गजंल / -सुरेश नीरव


-सुरेश नीरव
ग़ज़ल-
नरम आहटके पर्वत से उतरकर भोर आई है
किरण के फूल सतरंगी नयन में भर के लाई है
छतों पर फिर से मौसम के ध्वजा ख़ुशबू ने लहराई
कि चेहरा सर्द झरनों में हवा धोकर के आई है
दरख्तों के मुहल्ले में हुई फ़ूलों की बारिश-सी
है बरकत आसमानों की जो कुदरत ने कमाई है
है दीवाने समंदर में जो मोती ढ़ूंढने जाते
वो सागर आंख में पूरा चुरा के साथ लाई है
है उसके होंठ मखमल के नरम लहजा है बातों का
वो नख़रों की ग़ज़ल पूरी अदाओं की रुबाई है।
-सुरेश नीरव
ग़ज़ल-
नरम आहटके पर्वत से उतरकर भोर आई है
किरण के फूल सतरंगी नयन में भर के लाई है
छतों पर फिर से मौसम के ध्वजा ख़ुशबू ने लहराई
कि चेहरा सर्द झरनों में हवा धोकर के आई है
दरख्तों के मुहल्ले में हुई फ़ूलों की बारिश-सी
है बरकत आसमानों की जो कुदरत ने कमाई है
है दीवाने समंदर में जो मोती ढ़ूंढने जाते
वो सागर आंख में पूरा चुरा के साथ लाई है
है उसके होंठ मखमल के नरम लहजा है बातों का
वो नख़रों की ग़ज़ल पूरी अदाओं की रुबाई है।
-सुरेश नीरव

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