गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

शिवमूर्ति शिव की मूर्ति सा वंदनीय


 आपने सुना है शिवमूर्ति को

प्रस्तुति-- प्रवीण परिमल, प्यासा रुपक


बहुत कम ही लेखकों के साथ ऐसा होता है कि वे जितना अच्छा लिखते हैं, उतना ही अच्छा बोलते भी हैं। शिवमूर्ति ऐसे ही रचनाकार हैं। जो पढ़ने बैठिए तो लगता है कि एक ही सांस में पूरा खत्म कर लें और जो सुनिए तो बस सुनते ही चले जाइए। उनका कहा रोचक भी होता है और विचारपूर्ण भी। किस्से-कहानी, लोकगीत-दोहा-चौपाई, कहावतें-मुहावरों का तो विपुल भण्डार है उनके पास । चुटकी और व्यंग्य का खिलंदड़ा अन्दाज और हंसी-हंसी में बड़ी बात कह देने का कौशल। शनिवार को सुपरिचित साहित्यकार अखिलेश के नए उपन्यास ‘निर्वासन’ पर चर्चा के लिए लखनऊ में आयोजित संगोष्ठी में उनको सुनना हर बार की तरह अविस्मरणीय अनुभव तो रहा। इस बहाने सोशल मीडिया, समकालीन साहित्यिक परिदृश्य, हिन्दी साहित्य पर विदेशी प्रभाव को लेकर उनकी जो टिप्पणियां सुनने को मिलीं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
शिवमूर्ति फेसबुक पर हैं लेकिन फेसबुक पर साहित्य और साहित्यकारों को लेकर चलने वाली बहसों को लेकर उन्होंने अपने खास अन्दाज में कई बातें कहीं। सन्दर्भ आया फेसबुक पर ‘निर्वासन’ को लेकर पिछले कुछ समय से चलीं टीका-टिप्पणियों का। उन्होंने ही इस ओर ध्यान भी दिलाया और फिर एक-एक कर उसका जवाब भी दिया। बोले-‘पहले तो बंदूक-वंदूक का लाइसेंस जिसको दिया जाता था तो उसको ये देख लिया जाता था कि भाई इसका दिमाग सही सलामत है। ये पागल तो नहीं है, दिवालिया तो नहीं है, ऐसे तो किसी को तान नहीं देगा, जान नहीं ले लेगा। बड़ी खोज खबर होती थी। उसके बाद नीचे से रिपोर्ट ऊपर आते आते जब सब लोग कह देते थे कि ये ठीक-ठाक आदमी है तो उसको लाइसेंस दिया जाता था। लेकिन आजकल ये जो फेसबुक है वह बिना लाइसेंस के सबके पास है। चाहे जिनको जो जिधर चाहता है गोली दाग देता है।’ शिवमूर्ति को बीच में रोकते हुए सभागार में मौजूद वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी राकेश बोले-‘लेकिन इसमें मारक क्षमता नहीं है।’ शिवमूर्ति ने उनकी बात को शामिल करते हुए कहा- ‘मारक क्षमता हो चाहे न हो लेकिन एक बार जिस पर तान देंगे उसे मालूम थोड़े ही है कि इसमें मारक क्षमता है या नहीं है। एअर गन ही आप तान देंगे तो एक बार खून तो सूख ही जाएगा भाई।’
थोड़ा ठहरते हुए शिवमूर्ति ने फिर कहा कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखा उसकी आज कितनी व्याप्ति हो गई है, जन जन में चला गया लेकिन जब वे लिख रहे थे तो उनको ये आशंका थी कि कुछ लोग जरूर इसके खिलाफ होंगे। इसीलिए उन्होंने शुरूआत उसी से की है, जो आलोचक होंगे पहले उन्हीं के बारे में लिख दिया, खलवन्दना काफी देर तक किया है और वन्दना भी करने के बाद उन्होंने लिखा कि ‘हंसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी, जे पर दूषन भूषनधारी’। शिवमूर्ति ने कहा है कि हंसने वाले हंसेंगे चाहे हम जितनी उनकी वन्दना कर लें। मेरे ख्याल से इसी वजह से बाद में लोगों ने वन्दना का रिवाज खत्म कर दिया। एक कहावत को याद करते हुए बोले पहले कभी कहा जाता था ‘बाभन कुकुर हाथीं ये नहीं जाति के साथी’, मेरे हिसाब से ये कहावत पुरानी हो गई है, प्रासंगिकता नहीं रह गई, अब इसे होना चाहिए ‘लेखक कुकुर हाथीं ये नहीं जाति के साथी’। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में शिवमूर्ति सोशल मीडिया पर ‘निर्वासन’ को लेकर कही गई बातों पर सिलसिलेवार आते गए जिससे ये पता भी चला कि वे सोशल मीडिया को लेकर कितने सजग हैं। उन्होंने कहा कि एक सज्जन कोई कहते हैं कि ये तो हमसे पढ़ा ही नहीं गया, कोई कहता है कि जगदंबा जैसा कोई चरित्र कहां हो सकता है कि गैस पेट में बनती है तो इतनी आवाज हो जाय कि मुकदमा चल जाय। शिवमूर्ति ने कहा कि उपन्यास में जो मुझे खूबियां लगीं वह अभी जल्दी पता चला कि कुछ लोगों को उपन्यास का वह अविश्वसनीय हिस्सा लगा। बोले कि हमारे यहां तो अतिशयोक्ति में बोलने का रिवाज रहा है, हनुमान जी इतना बड़ा पहाड़ उठाकर साढ़े चार हजार किलोमीटर लेकर चले गए थे। अपने यहां आल्हा में कहा जाता है कि ‘येहि दिन जनम भयो आल्हा को धरती धंसी अढ़ाई हाथ’। लोकसाहित्य में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें इस तरह की बातें की जाती हैं और लोग उसका आनन्द लेते हैं। आनन्द आप तभी ले सकते हैं जब आपके संस्कार हों। शिवमूर्ति ने कहा कि विश्वसनीयता कैसे स्थान पाती है, इसके कई उदाहरण हैं। एक गीत की पंक्ति है,‘भोर भये भिनसरवा की जुनिया, सीता बुहारे खोर’, सीता जी भोर होने पर खोर बुहार रही हैं, खोर दो मकानों के बीच की जगह को कहते हैं। जिसने लिखा होगा इसे वह झोपड़ी में रहने वाला होगा, कोई और होता तो शायद ऐसे न लिखता क्योंकि सीता तो जनक की बेटी थीं वह खोर कैसे बुहार सकती हैं लेकिन हम विश्वसनीयता के मुद्दे पर आते हैं। लोककवि लिखता है कि रामचन्द्र उधर से आ जाते हैं, ‘रामचन्द्र की पड़ी नजरिया सीता भई लरकोर’ अर्थात सीता पर रामचन्द्र की नजर पड़ती है और वह मां बन जाती हैं।
गोष्ठी में शिवमूर्ति यहीं रुके नहीं। उन्होंने विदेशी साहित्य के प्रभाव का मुद्दा भी उठाया। बोले, ‘विदेश का बहुत कुछ आकर आपका टेस्ट बिगाड़ देता है और आपको अपनी देसी चीज अच्छी नहीं लगती है। पिज्जा आ जाता है तो खिचड़ी पीछे चली जाती है। अखिलेश के इस उपन्यास में सारी देसी चीजें हैं, इसमें विदेश की कोई छाया नहीं है या विदेश का कोई प्रभाव शुरू से आखिर तक नजर नहीं आता है।’ वह बोले- ‘जब हमारी रुचि बिगड़ जाती है तो हमें घर की चीज लगती है। परिवार में शक्ल न मिलने पर पति पत्नी में झगड़ा हो सकता है कि भाई यह बच्चा किस पर गया है, परिवार में किसी से इसकी शक्ल नहीं मिल रही है लेकिन साहित्य में उसी को गर्व से अपनाया जा रहा है। अभी एक लेख छपा है, किसी किताब का सार-संक्षेप है जिसमें बताया गया है कि विदेश की रचनाओं के विवरणों की छाया किस प्रकार हमारे कई नामी लेखकों के साहित्य में है। ऐसी रचनाएं मानक बन जाती हैं और जो अपना मौलिक है वह पीछे चला जाता है। याद करिए जब मैला आंचल आया तो किसी बड़े आलोचक ने कहा कि इसकी तो हिन्दी ही सही नहीं, ग्रामर ही सही नहीं, आधा गांव के बारे में कहा गया कि बड़ी गालियां हैं इसे कोई भला आदमी अपने घर में रख ही नहीं सकता, जिन्दगीनामा के बारे में कहा गया कि ये बहुत बोझिल है। अगर इसके लेखक कमजोर दिल के होते तो उन शुरू के चार-पांच सालों में उन्होंने आत्महत्या कर ली होती लेकिन आज जब इतना वक्त गुजर गया तो क्या आप उसे खारिज कर देंगे । आज तो मैला आंचल, आधा गांव ही प्रतिमान बने हुए हैं।’ हालांकि विदेशी साहित्य के प्रभाव के मुद्दे को लेकर संगोष्ठी के एक दूसरे वक्ता वरिष्ठ उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा सहमत नहीं दिखे। उन्होंने कहा-‘प्रेमचंद बहुपठित रचनाकार थे और यथार्थवाद के प्रणेता कहे जाते हैं। उनका यूरोपीय साहित्य पढ़ा हुआ था। असली मुद्दा यह है कि आप उस बाहरी प्रभाव को ग्रहण कैसे करते हैं, क्या आप उसे पचा पाते हैं? बिना उसके श्रेष्ठ साहित्य संंभव नहीं है। खिड़की से आने वाली हवा बहुत जरूरी है। ’इस महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट समाचार पत्रों में नहीं दिखी तो यह जरूरी लगा कि वहां उपस्थित होने का कुछ लाभ अपने फेसबुक के साथियों को देना चाहिए।
— with Anita Srivastava, Sushil Siddharth, Arun Singh, Kavi Dm Mishra, Shiv Murti, Dr.Lal Ratnakar, Ratan Bhushan and Pragya Pande.Like · · Share · 13 July

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