-मुंशी प्रेमचन्द
इधर
एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी
टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुर्ता पहने आदमियों को दौड़ते,
हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मज़ा नहीं आता। काशी की लीला जगद्विख्यात
है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया, पर
मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई
दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं। राक्षसों और
बंदरों के चेहरे पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित बनवासी
भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों; लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही
हू-हू के सिवाय कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगी रहती।
लेकिन
एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था। आनंद तो बहुत
हलका-सा शब्द है। वह आनंद उन्माद से कम न था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से
बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था, और जिस घर में लीला-पात्रों का
रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था।
दो बजे
दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता, और
जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस उत्साह से तो आज अपनी
पेंशन लेने भी नहीं जाता।
एक कोठरी में राजकुमारी का शृंगार होता
था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगाया जाता और
पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा,
भौंहें, गाल, ठोड़ी, बुँदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल
था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की प्यालियों
में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयारियों के
बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो
गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी
नहीं होता। एक बार जब होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक
प्रस्ताव का अनुमोद किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और
रोमाच था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब-तहसीलदारी में नामजद
हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं; पर इनमें और उस बाल-विह्वलता में
बड़ा अंतर हैं। तब ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।
निषाद-नौका-लीला
का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा
था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे
अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की
ज़रूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग
खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। ख़ैर, दाँव पूरा हुआ।
अगर मैं चाहता, तो धांधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी
गुँजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ़ दौड़ा। विमान
जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा - मल्लाह किश्ती लिए आ रहा है।
दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता,
प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था।
रामचंद्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा
दिया करता था, जिससे वह फेल न हो जाएँ। मुझसे उम्र ज़्यादा होने पर भी वह
नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह
फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की
कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह
मुझे क्यों उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा, जिसकी गरदन
पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक
की खोज में पीछे की तरफ़ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी
चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेलीं,
पर उस समय जितना दु:ख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।
मैंने निश्चय किया था अब
रामचंद्र से न कभी बोलूँगा, कभी खाने की कोई चीज़ ही दूँगा, लेकिन ज्यों
ही नाले को पार कर के वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और
ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही न हुई थी।
रामलीला समाप्त हो गई
थी। राजगद्दी होनेवाली थी, पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम
वसूल हुआ था। रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न घर ही जाने की
छुट्टी मिलती थी, न भोजन का ही प्रबंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक
सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को नहीं पूछता।
लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी
रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचंद्र दे
आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी
न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर
रामचंद्र वहाँ न मिलते तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज़
उन्हें न खिला लेता, मुझे चैन न आता था।
ख़ैर, राजगद्दी का दिन आ
गया, रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट
की गई। वेश्याओं के दल भी आ पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली, और
प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई। श्रद्धानुसार किसी ने रुपए दिए,
किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही
आरती उतारी। उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे
पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरे मामा जी दशहरे के पहले आए थे और
मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी
उसे खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया।
पिता जी मेरी ओर कुपित-नेत्रों से देखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं;
लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके
रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की
थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा
अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ
ज़्यादा ही खर्च चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम
दो सौ रुपए और वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम
हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ, और
महफ़िल का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे
हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें। आबादीजान और
चौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें
सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ
ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती-जाती थी।
चौधरी
- सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज़्यादती है। हमारा और तुम्हारा कोई पहला
साबिका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा
रहेगा। अब की चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता।
आबादी
- आप मुझसे भी ज़मींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न
गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूल करूँ, और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का
अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो
जाएँगे। उसके सामने ज़मींदारी झक मारेगी! बस, कल ही से एक चकला खोल दीजिए!
खुद की कसम, मालामाल हो जाइएगा।
चौधरी - तुम दिल्लगी करती हो, और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी - तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप-जैसे काइयों को रोज़ उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी - आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?
आबादी - जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।
चौधरी - यही सही।
आबादी - अच्छा, वो पहले मेरे सौ स्र्पए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी - वाह! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी - अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ! खूब, क्यों न हो। दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!
चौधरी - तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?
आबादी
- अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं।
मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?
चौधरी
की एक न चली। आबादी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की
शोख औरत थी। एक तो कमसिन, उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो इस ग़ज़ब की थीं कि
मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ
कम न था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपए से कम
तो शायद ही किसी ने दिए हों। पिताजी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शर्म के
गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि
पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा
है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। पिता जी मूँछों में हँस
रहे हैं। ऐसी मृदु-हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखा थी। उनकी आँखों
से अनुराग टपक पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने
मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनी
कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ? आबादी तो उनके गले में बाँहें डाले
देती है। अब पिता जी उसे ज़रूर पीटेंगे। चुड़ैल को ज़रा भी शर्म नहीं।
एक महाशय ने मुस्कराकर कहा, ''यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाज़ा देखो।''
बात
तो इन महाशय ने मेरे मन की कही, और बहुत ही उचित कही, लेकिन न जाने क्यों
पिता जी ने उसकी ओर कुपित-नेत्रों से देखा, और मुँछों पर ताव दिया। मुँह से
तो वह कुछ न बोले, पर उनके मुख की आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही
थी, ''तू बनिया, मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने
को तैयार हैं। रुपए की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आज़मा ले। तुझसे दूनी
रकम न दे डालूँ, तो मुँह न दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोर अनर्थ! अरे, ज़मीन तू
फट क्यों नहीं जाती? आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों
नहीं आ जाती!'' पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकली, और
सेठ जी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली।
आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर
तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गए। पिताजी ने मुँह की खाई, इनका निश्चय
मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकालकर
आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो
उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिता जी हैं, जिन्होंने मुझे
आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर उस तरह देखा था मानो मुझे फाड़ ही
खाएँगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फ़र्क आता था, और इस समय
इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर गर्व और आनंद से फूले न समाते थे।
आबादीजान
ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया और आगे बढ़ी, मगर मुझसे
वहाँ न बैठा गया। मेरा शर्म के मारे मस्तक झुका जाता था, अगर मेरी
आँखों-देखी बात न होगी, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ
देखता-सुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्माँ से ज़रूर करता था। पर इस मामले को
मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुख होगा।
रात
भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था,
चलकर देखूँ, पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी
ने पिता जी का ज़िक्र छेड़ दिया, तो मैं क्या करूँगा?
प्रात:काल
रामचंद्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ
चौपाल की ओर भागा। डर रहा था कि कहीं रामचंद्र चले न गए हों। पहुँचा, तो
देखा - तवायफ़ों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरतनाक मुँह
बनाए उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचंद्र के
पास पहुँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो रहे थे, और रामचंद्र खड़े काँधे पर
लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा और कोई न था। मैंने
कुंठित-स्वर से रामचंद्र से पूछा, ''क्या तुम्हारी बिदाई हो गई?''
रामचंद्र- ''हाँ, हो तो गई। हमारी बिदाई ही क्या?'' चौधरी साहब ने कह दिया - ''जाओ, चले जाते हैं।''
'क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले?''
''अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं - इस वक्त बचत में रुपए नहीं हैं। फिर आकर ले जाना।''
''कुछ नहीं मिला?''
''एक
पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपए मिल
जाएँगे तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा! सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं
दिया। कहते हैं - ''कौन दूर है, पैदल चले जाओ!''
मुझे ऐसा क्रोध आया कि
चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपए, सवारियाँ सबकुछ,
पर बेचारे रामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं! जिन लोगों ने रात
को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए न्योछावर किए थे, उनके पास क्या इनके
लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं? पिता जी ने भी तो आबादीजान को एक
अशर्फी दी थी। देखूँ इनके नाम पर क्या देते हैं! मैं दौड़ा हुआ पिता जी के
पास गया। वह कहीं तफ़तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले -
''घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?''
मैंने कहा - ''गया था चौपाल। रामचंद्र बिदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।''
''तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?''
''वह जाएँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!''
'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफ़ी है।''
''आप अगर दो रुपए दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ।''
पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - ''जाओ, अपनी किताब देखो, मेरे पास रुपए नहीं हैं।''
यह
कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दिन से पिता जी पर से मेरी श्रद्धा उठ
गई। मैंने फिर कभी उनकी डांट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता - आपको
मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गई। वह
जो कहते, मैं ठीक उसका उल्टा करता। यद्यपि इससे मेरी हानि हुई, लेकिन मेरा
अंत:करण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।