गुरुवार, 8 मई 2014

सिनेमा और दलित चेतना (1975-1984) / जितेन्द्र विसारिया


 

‘निषांत’ (1975) अंकुर के बाद की श्याम बेनेगल की ही फिल्म है, जिसमें वे एक कदम आगे बढ़कर जमींदारी अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को चित्रित करते हैं। फिल्म में पत्नी की मर्यादा भंग होने पर मास्टर साहब (गिरीश कर्नाड) गांव को मिलाकर संगठित रूप से जमींदार (अमरीशपुरी) के घर पर हमला करते हैं। फिल्म अच्छाई पर बुराई के संघर्ष में जमींदार की हत्या के बावजूद आवाम की जीत का अहसास पैदा नहीं कर पाती।
‘दीवार’, (1975) दीवार यश चोपड़ा की बहुचर्चित और बहुदर्शित फिल्म है। फिल्म के मूल में मजदूर संघ के एक नेता आंनद (सत्येन कपूर) है। मिल मालिक आनंद को उसके परिवार सहित जान से मारने की धमकी देते है। बेवश आनंद मालिकों से समझौत कर लेता है। इससे मजदूरवर्ग आनंद को चोर और बेईमान मानकर उस पर जानलेवा हमला करता है। आनंद अपनी जान बचाकर भगता है। मजदूरों के कोप से आनंद का परिवार भी नहीं बचता। उसके दो बच्चे विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) और पत्नी (निरुपाराय) को वह स्थान छोड़कर मुंबई भागना पड़ता है। भागते हुए भी वे मजदूर विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर-‘मेरा बाप चोर है।’ लिख देते हैं। अपने हाथ पर लिखे इस अपराधी शिलालेख के चलते स्वाभिमानी विजय कहीं भी सम्मान नहीं पाता और वह अपराध की दुनिया में धँस जाता है। दूसरा भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस अफसर बनता है। एक कानून का रखवाला है तो दूसरा भंजक। आगे की कहानी दानों भाइयों की इसी तकरार की कहानी है। फिल्म में विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन में बूटपालिश करना और उसी से जुड़ा उसका जवानी में बोला गया यह संवाद-‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता!’ फिल्म ‘दीवार’ को दलित स्वाभिमान अंकुरण की फिल्म बना देता है।[13]
‘मृगया’ (1976) मृणाल सेन निर्देशित यह फिल्म बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी शिकारी घिनुआ (मिथुन चक्रवर्ती) की बहादुरी की कथा कहती है। साहूकार भुवन सरदार एक आदिवासी विद्रोही का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार को पहुँचाकर इनाम पाता है। प्रतिशोध में नायक घिनुआ उस साहूकार का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार के अधिकारी के पास यह कहकर पहुँचाता है कि उसने जंगल के सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है। वह जो दूसरों की बहू-बेटियों को बेइज्जत कर अपनी हवस पूरी करता है, उससे बड़ा शिकारी कौन हो सकता है। उसकी बहादुरी पर अंग्रेज सरकार को भी सजा सुनाते हुए दो बार सोचना पड़ता है। उपनिवेशकालीन शोषण के विरुद्ध और प्रकारांतर से आपातकाल के विरोध में खड़ी यह बहुचर्चित फिल्म, दलितों के बाद आदिवासी जीवन और उनके कथावृत्तों का चित्रपट पर उभरने के प्रारंभिक सफल प्रयासों में से एक है। यह सब अनायास ही नहीं हुआ था उस समय तक 1969 में बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन देश के उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में अपना प्रभाव पकड़ चुका था। तब बंगाली फिल्मकार मृणलसेन इसके प्रभाव से कैसे बचपाते। शोषण के विरुद्ध सार्थक हिंसा इस फिल्म का मूल स्वर है।
‘मंथन’ (1976) श्वेत क्रांति के जनक और गुजरात के नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी और श्याम बेनेगल निदेर्शित यह फिल्म यथार्थ जीवन की कथा पर आधारित है। इसमें सहकारिता की शक्ति को प्रदर्शित किया गया है और इसके साथ ही उन बाधाओं का भी निरूपण किया गया है जो सामाजिक कार्यों के बीच आ खड़ी होती हैं। इनमें सिर्फ शोषक वर्ग ही नहीं होता अपितु जातिवाद और अस्यपृश्यता जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी होते हैं जो सृजानत्मक कार्यों में अवांछित अवरोध खड़े करते हैं।
गंगा की सौगंध (1976) राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के दौर सुल्तान अहमद निर्देशित ‘गंगा की सौंगध’ एक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा(ंगंगा) जमींदारी अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य सी कहानी है। फिल्म में ध्यान देने योग्य एक चीज़ यह है कि फिल्मकार के मुस्लिम होने के कारण इसमें दलितों के ज़मीदारी अत्याचारों से तंग आकर गाँव से पलायन का दृश्य, पूरी तरह पैगंबर हजरत मुहम्मद के मदीना से मक्का ‘हिजरत’ करने की शैली में फिल्माया गया है। जमींदारों और सवर्णीय अत्याचारों के विरुद्ध दलितों का अपना निवास छोड़ सुरक्षित स्थान की ओर हिजरत (पलायन) कर जाने का विचार गाँधी का भी था। फिल्म में यह प्रभाव मिलाजुला माना जा सकता है, क्योंकि धनिया का पिता कालू चमार(प्राण) अपनी जूते दुकान में गाँधी की तस्वीर लगाए हुए दिखाया गया है दूसरे जमींदार के अत्याचारों से पलायन अपनी जाति-बिरादरी के साथ कालू जिन उदार मुस्लिमों के यहाँ शरण पाता है वहाँ उसका स्वागत ठीक वैसे ही होता है, जैसे मदीना छोड़कर गए हजरत मुहम्मद का मक्का में स्वागत होना बताया गया है। फिल्म में प्राण का कालू चमार के रूप में विद्रोही अभिनय एक स्मरणीय हिस्सा है।
‘आक्रोश’ (1980) आदिवासी विद्रोह की जो शुरूआत ‘मृगया’ से हुई थी, उसकी समकालीन समय के क्रूर यथार्थ में परणिति, गोविन्द निहालनी निर्देशित व विजय तेन्दुलकर कृत फिल्म ‘आक्रोश’ में होती है। यह फिल्म भीखू लहन्या (ओमपुरी) नामक आदिवासी की व्यथा बयान करती है जो अपनी ही पत्नी नागी लहन्या (स्मिता पाटिल) के कत्ल के जु़र्म में मुज़रिम है और अपने बचाव में एक भी शब्द नहीं बोलता! स्थानीय राजनेता, पूँजीपति और पुलिस तीनों ने मिलकर ही उसकी पत्नी से बलात्कार करने के बाद उसकी जघन्य हत्या की है। निरक्षर होने बावजूद लहन्या मूर्ख नहीं है वह जानता है कि उसे यह स्वार्थी व्यवस्था न्याय नहीं दे सकती और व्यवस्था के इस ढोंग में पड़कर अपनी पत्नी की अस्मिता की और छीछालेदर नहीं करवाना चाहता, इसलिए वह न अदालत में एक शब्द बोलता है और न सरकार द्वारा न्युक्त किए गए वकील को कुछ बतलाता है। उसे जब अपने पिता के अन्तिम संस्कार की इजाजत मिलती है तो वह मौके का फायदा उठाकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के साथ ही अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि उसकी असहाय बहन भी उसकी पत्नी की तरह ही समाज के बेईमानों की दरिंदगी का शिकार न हो। दलित-आदिवासी जीवन के नग्न यथार्थ को रूपायित करने वाली इस फिल्म में नक्सलवाद की स्पष्ट अनुगूँज है और कथा परिदृश्य में एक अनाम नक्सली (महेश एलंकुचवार) भी है जो आदिवासियों के बीच संगठन का काम करता है। वहीं दूसरी ओर भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) है जिसका कानून और न्यायवस्था पर से अभी विश्वास छूटा नहीं है उन दोनों के निम्न संवाद से हम फिल्म ‘आक्रोश’ की पक्षधरता समझ सकते हैं-
कामरेड: दया आती है तुम्हें?
भास्कर कुलकर्णी: ये लोग सोचते क्यों नहीं, जब तक ये बोलेंगे नहीं तब तक कोई इनकी मदद नहीं कर सकता? कामरेड: आप उन्हें साँस भी लेने दें, तब ना? दोष उनका नहीं आपकी व्यवस्था का...? भास्कर कुलकर्णी: जी हाँ जानता हूँ, मार्क्सिस्ट लोग तो हर...। कामरेड: हर्ट करना चाहते हो...। भास्कर कुलकर्णी: सो सारी...! कामरेड: मुझे घिन आती है तुम्हारे एटीट्यूड पर... तुम्हें दया आती है लेकिन जो कुछ चल रहा है उस पर गुस्सा नहीं आता। खिचाई की तो आदत बन गई है, बड़ा नाॅवेल फील कर लेते हैं आप...फिर उसके बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं। भास्कर कुलकर्णी: और किया भी क्या जा सकता है...? काॅमरेड: टिपीकल पेटी बुर्जुआ एटीट्यूड, क्रांति तो दूर इस घिनौनी परिस्थिति को बदलने का ख्याल तक नहीं आता हमें... ऐसा तो रोज़ ही होता है कहकर चुप हो जाते हैं सब... क्या हो गया हमें; हमें शर्म ही नहीं आती? गुस्सा भी नहीं आता? भास्कर कुलकर्णी: यश! आई डू हिम वट वरी सैम....लेकिन हमारी इतनी ताकत नहीं है; मैं सिर्फ लहन्या की मदद कर सकता हूँ...।
कामरेड: लहन्या जैसे इक्के-दुक्के की की मदद करने से क्या यह समस्या हल हो जाएगी? इस व्यवस्था को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तब तक कुछ नहीं होने वाला...।’’ भास्कर कुलकर्णी: लेकिन, देखिए यदि मैं एक भी गरीब आदिवासी की मदद कर सकूँ, उसे न्याय दिला सकूँ, तो कहीं तो कुछ तो फर्क पड़ेगा...।’’
कामरेड: तो तुम यह समझतो हो कि तुम्हारी इस व्यवस्था में इंसाफ मिलना मुमकिन है? भास्कर कुलकर्णी: इंसाफ दिलाना हमार फ़र्ज़ है...।
फिल्म का एक पक्ष दुसाणे वकील (अमरीश पुरी) है, जो स्वयं आदिवासी होकर भी पूँजीपति, नेताओं और वकीलों के केस लड़ता है। उन्हीं के साथ उसका उठना-बैठना है और उन्हीं की गालियाँ भी खाता है। किन्तु वह अपने को इस तरह डी-कास्ट कर चुका है कि सिर्फ केस लड़ने के अलावा उसकी न तो ह्यूमनिटी में आस्था है न ही आत्मसम्मान और खुद्दारी में। बाबा साहेब ने संभवतः ऐसे ही पढ़े-लिखे प्रशासनिक दलित-आदिवासियों को ध्यान में रखकर कहा था, कि मुझे सबसे ज्यादा धोखा पढ़े-लिखे लोगों ने ही दिया है। ‘चक्र’ (1980) रवीन्द्र धर्मराज की इकलौती फीचर फिल्म जो मुंबई में झोपड़पट्टियों में रहने वालों के जीवन की आशा-निराशाओं की मार्मिक कथा बयान करती है। उन कारणों की ओर इशारा करती है जो उनको विपदाग्रस्त वीभत्स जीवन से बाहर नहीं निकलने देते। व्यवस्था की उनकी कुटिलताओं को भी रेखांकित करती है जो उन्हें पशुवत जीवनयापन के लिए मजबूर कर रही हैं। जयंत दलवी के मराठी उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा, रंजीता चैधरी, सविता बजाज और रोहिणी हट्टंगड़ी।
अंधेर नगरी’ (1980) गुजराती लोककथा ‘अछूत नो वेश’ पर आधारित केतन मेहता की यह पहली फिल्म में अछूतों की हीन दशा और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है। एक राजा की दो रानियों के आपसी संघर्ष में बड़ी रानी के बेटे को छोटी रानी मरवा डालने का प्रयत्न करती है परंतु वह दलित-आदिवासियों द्वारा बचा लिया जाता है और उसके समुदाय की ही एक लड़की से प्यार करने लगता है। गुजरात के ‘भवाई’ लोकनाट्य शैली में फिल्म के अंत में सूत्रधार यह संदेश देता दिखाया गया है कि यदि हम अपने अधिकारों की प्राप्ति के प्रति सचेत और सघर्षशील हो जाएँ तो अन्याय का उन्मूलन कर सकते हैं। नसीरुद्दीन शाह, मोहन गोखले, ओमपुरी, स्मिता पाटिल और दीना पाठक इसके मुख्य कलाकार थे।
‘सदगति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित यह एक मात्र फिल्म है, जो उस अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचन्द ने ‘सद्गति’ में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी उसी प्रकार सत्यजीत राय ने भी उसी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे।
‘आरोहण’ (1982) समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी से उत्पन्न वर्गसंघर्ष को केन्द्र में रखकर बनाई गई श्याम बेनेगल की यह फिल्म एक ग्रामीण हरिमंडल की कहानी है जो जमींदार के अत्याचार से उत्पीड़ित है। पुलिस और प्रशासन भी हरि की जगह जमींदार की सहायता करते हैं। हरि लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारता और निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने को ही शोषण से मुक्ति का साधन मापता है। मुख्य कलाकार थे ओमपुरी, शीला मजूमदार, पकंज कपूर ओर विक्टर बैनर्जी।
‘सौतन’ (1983) सावन कुमार निर्देशित और राजेश खन्ना के नायकत्व वाली इस फिल्म में टीना मुनीम के विरुद्ध सौतन के रूप में एक दलित युवति राधा की भूमिका का निर्वहन पद्मिनी कोल्हापुरे ने किया था।
‘दामुल’ (1984) ‘शुरू होता है जहाँ से भय और अंधेरा/शुरू होती है भय और अंधेरे को भेदने की इच्छा भी वहीं से।’ कुमार अंबुज की ‘गुफा’ कविता की यह पंक्तियाँ प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘दामुल’ पर सटीक बैठती हैं। यह फिल्म आईना है बिहार का, जिसके समाजार्थिक स्थितियों का खुलासा वह करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद के दंश झेलते उन दलितों की असाहयता को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर हिन्दू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहाँ आदमी जानवर होने को अभिशप्त है। ‘दामुल’ है तो एक बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता। इसके अलावा फिल्म में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में हरिजन (दलित) कैसे पिसते है, यह प्रकाश झा की आँख देखती है।
बिहार के जिला मोतीहारी के बच्चा सिंह राजपूत की खुन्नस यह है कि परधानी में ब्राह्मण माधो पांड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने की चाल स्वरूप वे इस वार हरिजन टोले के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो पांड़े का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव ई बाभन लोग का बनाया हुआ है। अपनी इस चाल में बच्चा सिंह सफल तो हो जाते है, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चासिंह को छोड़कर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग करने नहीं जाते। बच्चासिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम, जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो पांडे़ चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडे को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के अहाते में बंधक बना देने वाले माधो पांडे़ अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना बैठना, उनकी बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ बेकार चला जाता है। इधर गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में बहुत खून-खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में बदल जाता है। आगजनी और हत्याओं के नंगे-नाच के बीच अंततः सारे गिले-शिकवे मिटाकर माधो पांड़े और बच्चासिंह का बाभन-राजपूती मेल हो जाता है। इसके बाद तो फिर पुलिस, नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते?
गाँव की विधवा महत्माइन जिसकी जर-ज़मीन ही नहीं, माधो पाड़ें उसका शारीरिक शोषण भी करता है, एक रात वह उसकी हत्या करवा देता है। केस में फँसा दिया जाता है संजीवना। संजीवना माधो पाड़ें का बंधुआ है। कानून तो ताकतवर के लिए है। बंधुआ संजीवना के लिए महत्माइन की हत्या का झूठा केस दामुल साबित होता है। उसे इसमें फाँसी हो जाती है।...गौर करने की बात है कि जो दलित बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उठा खड़ा नहीं होती, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पांड़ें ठंड की रात में अपने गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी) गंड़ासा लेकर आती है और माधो पांड़े के गले पर प्रहार करती है। माधो कुर्सी से गिरकर छटपटाने लगता है और अंततः दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं, रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है-‘तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...!’ यशस्वी कथाकर शैवाल की कहानी पर आधारित ‘दामुल’ में मुख्य कलाकार थे मनोहर सिंह, अन्नू कपूर, दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजना कामथ, प्यारे मोहन सहाय इत्यादि।[15]

शबनम खान ... दिल से






पैदाइश के फौरन बाद
मैं खुद ब खुद हिस्सा हो गई
कुल आबादी के
आधे कहलाने वाले
एक संघर्षशील 'समुदाय' का,
कानों से गुज़रती
हर एक महीन से महीन आवाज़
ये अहसास दिलाती रही
तुझे कुछ सब्र रखना होगा
कुछ और सहना होगा
कुछ और लड़ना होगा..
और दिल से आती
हर ख़ामोश सदा ने कहा,
नहीं! तुझे नहीं बदलना
बिगड़ा नज़रिया किसी बेअक़्ल का
तुझे नहीं बनानी नई दुनिया
अपनेसमुदायविशेष के लिए
और न ही
तुझे करना है साबित
किसी को कुछ भी..
इस ज़िंदगी में इक काम बस
तुझे करना होगा
अपने लिए
हां, सिर्फ अपने लिए
एक छोटा सा काम
तुझे सीखना होगा
पैदाइश के उस पाठ को भूलना
जो तुझे सबसे पहले पढ़ाया गया था
कि तू लड़की है
स्त्री है, औरत है
ज़िम्मेदारी है, कभी बोझ है कभी खुशी है
कभी गुड़िया कभी देवी भी है..
तुझे सीखना होगा खुदको
सिर्फ और सिर्फ
एक इंसान समझना।


अपने हिस्से का प्यार..






चांद तारों की महफिल लगने से
आसमान में सूरज लहराने तक
बादल के आखिरी टुकड़े से
बारिश की हर बूंद निचुड़ जाने तक
घर के बाहर लगे गुलाब के पौधे में
एक नया फूल उग के सूख जाने तक
 सड़क पर लगे गाड़ियों के मजमें से
उसके ख़ामोश सुनसान हो जाते तक
चूड़ियों की सजी खनखनाहट से
ड्राउर के लकड़ी के केस में रखे जाने तक
करीने से बनी ज़ुल्फों के
कंधों पर बिखर जाने तक
सुबह जैसी चमकती आखों में
रात का अंधेरा पसर जाने तक
मैंने कर लिया तेरा इंतज़ार
मैंने कर लिया, अपने हिस्से का प्यार

तेरी सासों में क़ैद, मेरे लम्हे


वो लम्हे
तेरी सांसों में क़ैद
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे,
जिनमें नहीं थी
मसरूफियत ज़माने की
रोज़ी-रोटी कमाने की
और
जिसमें नहीं थी
कोई रस्म दिखावे की,
कहां गुम गए
सभी, एकदम से
एकसाथ..
क्या सच है
बुज़ुर्गो की वो बात
जो कहते हैं
कुछ मिल जाने के बाद
उसकी चाह
होने लगती है ख़त्म,
या फिर
ये एक वहम ही है
जैसा
हमेशा कहते हो तुम
लेकिन फिर भी,
मैं अक्सर
दिन के किसी उदास पल में
उन लम्हों को
याद करती हूं
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे
तुम्हारी सांसों में क़ैद
मेरे लम्हें..!

बुधवार, 7 मई 2014

बालकृष्ण शर्मा नवीन



बालकृष्ण शर्मा नवीन (जन्म- 8 दिसम्बर, 1897 ई., भयाना ग्राम, ग्वालियर; मृत्यु- 29 अप्रैल, 1960) हिन्दी जगत के कवि, गद्यकार और अद्वितीय वक्ता हैं।
जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा “नवीन” का जन्म 8 दिसम्बर, 1897 ई. में ग्वालियर राज्य के भयाना नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री जमनालाल शर्मा वैष्णव धर्म के प्रसिद्द तीर्थ श्रीनाथ द्वारा में रहते थे वहाँ शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी, इसलिए इनकी माँ इन्हें ग्वालियर राज्य के शाजापुर स्थान में ले आईं
यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा लेने के उपरांत इन्होंने उज्जैन से दसवीं और कानपुर से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इनके उपरांत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक श्रीमती एनी बेसेंट एवं श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया। शाजापुर से अंग्रेज़ी मिडिल पास करके वे उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रविष्ट हुए। इनको राजनीतिक वातावरण ने शीघ्र ही आकृष्ट किया और इसी से वे सन् 1916 ई. के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन को देखने के लिए चले आये। इसी अधिवेशन में संयोगवश उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से हुई। सन् 1917 ई. में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करके बालकृष्ण शर्मा गणेशशंकर विद्यार्थी के आश्रम में कानपुर आकर क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढ़ने लगे।
व्यावहारिक राजनीति
सन 1920 ई. में बालकृष्ण शर्मा जब बी.ए. फ़ाइनल में पढ़ रहे थे, गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन के आवाहन पर वे कॉलेज छोड़कर व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में आ गये। 29 अप्रैल, 1960 ई. को अपने मृत्युपर्यन्त वे देश की व्यावहारिक राजनीति से बराबर सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे। उत्तर प्रदेश के वे वरिष्ठ नेताओं में एक एवं कानपुर के एकछत्र अगुआ थे। भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य के रूप में हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार कराने में उनका बड़ा योगदान रहा है। 1952 ई. से लेकर अपनी मृत्यु तक वे भारतीय संसद के भी सदस्य रहे हैं। सन् 1955 ई. में स्थापित राजभाषा आयोग के सदस्य के रूप में उनका महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है।
व्यक्तित्व
‘नवीन’ जी स्वभाव से अत्यन्त उदार, फक्कड़, आवेशी किन्तु मस्त तबियत के आदमी थे। अभिमान और छल से बहुत दूर थे। बचपन के वैष्णव संस्कार उनमें यावज्जीवन बने रहे। जहाँ तक उनके लेखक-कवि व्यक्तित्व का प्रश्न है, लेखन की ओर उनकी रुचि इंदौर से ही थी, परन्तु व्यवस्थित लेखन 1917 ई. में गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद प्रारम्भ हुआ।
पत्रकार
गणेशशंकर विद्यार्थी से सम्पर्क का सहज परिणाम था कि वे उस समय के महत्त्वपूर्ण पत्र ‘प्रताप’ से सम्बद्ध हो गये थे। ‘प्रताप’ परिवार से उनका सम्बन्ध अन्त तक बना रहा। 1931 ई. में गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के पश्चात् कई वर्षों तक वे ‘प्रताप’ के प्रधान सम्पादक के रूप में भी कार्य करते रहे। हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ का सम्पादन भी उन्होंने 19211923 ई. में किया था। इन पत्रों में लिखी गई उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ अपनी निर्भीकता, खरेपन और कठोर शैली के लिए स्मरणीय हैं। ‘नवीन’ अत्यन्त प्रभावशाली और ओजस्वी वक्ता भी थे एवं उनकी लेखन शैली (गद्य-पद्य दोनों ही) पर उनकी अपनी भाषण-कला का बहुत स्पष्ट प्रभाव है। राजनीतिक कार्यकर्ता के समान ही पत्रकार के रूप में भी उन्होंने सारे जीवन कार्य किया।
राजनीतिज्ञ एवं पत्रकार के समानान्तर ही उनके व्यक्तित्व का तीसरा भास्वर पक्ष कवि का था। उनके कवि का मूल स्वर मनोरंजक था, जिसे वैष्णव संस्कारों की आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय जीवन का विद्रोही कण्ठ बराबर अनुकूलित करता रहा। उन्होंने जब लिखना प्रारम्भ किया तब द्विवेदीयुग समाप्त हो रहा था एवं राष्ट्रीयता के नये आयाम की छाया में स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन काव्य में मुखर होने लगा था। परिणामस्वरूप दोनों ही युगों की प्रवृत्तियाँ हमें ‘नवीन’ में मिल जाती हैं।
कृतियाँ
उर्मिला
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा ने ही कवियों की चिर-उपेक्षिता ‘उर्मिला’ का लेखन उनसे 1921 ई. में प्रारम्भ कराया, जो पूरा सन् 1934 ई. में हुआ एवं प्रकाशित सन् 1957 ई. में हुआ। इस काव्य में द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, स्थूल नैतिकता या प्रयोजन (जैसे रामवन गमन को आर्य संस्कृति का प्रसार मानना) स्पष्ट देखे जा सकते हैं, परन्तु मूलत: स्वच्छन्दतावादी गीतितत्वप्रधान ‘नवीन’ का यह प्रयास प्रबन्धत्व की दृष्टि से बहुत सफल नहीं कहा जा सकता। छ: सर्गों वाले इस महाकाव्य ग्रन्थ में उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन
तक की कथा कही गयी है, पर वर्णन प्रधान कथा के मार्मिक स्थलों की न तो उन्हें पहचान है और न राम-सीता के विराट व्यक्तित्व के आगे लक्ष्मण-उर्मिला बहुत उभर ही सके हैं। उर्मिला का विरह अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं प्रौढ़ अंश वही है। यों अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक् ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका है। यह विलम्ब उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ है।
कुंकुम
सन 1930 ई. तक वे यद्यपि कवि रूप में यशस्वी हो चुके थे, परन्तु पहला कविता संग्रह ‘कुंकुम’ 1936 ई. में प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है। यत्र-तत्र रहस्यात्मक संकेत भी हैं, परन्तु उन्हें तत्कालीन वातावरण का फ़ैशन प्रभाव ही मानना चाहिए। ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ’ तथा ‘आज खड्ग की धार कुण्ठिता है’ जैसी प्रसिद्ध कविताएँ ‘कुंकुम’ में संग्रहीत हैं।
अन्य रचनाएँ
स्वतंत्रता संग्राम का सबसे कठिन एवं व्यस्त समय आ जाने के कारण ‘नवीन’ बराबर उसी में उलझे रहे। कविताएँ उन्होंने बराबर लिखीं, परन्तु उनकों संकलित कर प्रकाशित कराने की ओर ध्यान नहीं रहा। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद भी वे संविधान निर्माण जैसे कार्यों में लगे रहे। इस प्रकार एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् 1951 ई. में ‘रश्मि रेखा’ तथा ‘अपलक’, 1952 ई. में और ‘क्वासि’ संग्रह प्रकाशित हुआ। विनोबा और भूदान पर लिखी उनकी कतिपय प्रशस्तियाँ एवं उदबोधनों का एक संग्रह ‘विनोबा स्तवन’ सन् 1955 ई. में प्रकाशित हुआ। इस प्रकाशित सामग्री के अतिरिक्त कुंकुम-क्वासि काल (1930-1949) की अनेक कविताएँ तथा ‘प्राणर्पण’ नाम से गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान पर लिखा गया खण्ड काव्य अभी अप्रकाशित ही है। 1949 ई. के बाद भी वे बराबर लिखते एवं पत्रों में प्रकाशित कराते रहे हैं। “यह शृल युक्त यह अहिआलिंगित जीवन” जैसी श्रेष्ठ आत्मपरक कविताएँ इसी अन्तिम अवस्था में लिखी गयीं हैं। पर ये सब भी असंग्रहीत हैं। ‘नवीन’ राष्ट्रीय वीर काव्य के प्रणेताओं में मुख्य रहे हैं, परन्तु उनके प्रकाशित संग्रहों में ये कविताएँ बहुत कम आ सकी हैं। उनका गद्य लेखन भी असंकलित रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है।
रश्मिरेखा
अब तक प्रकाशित संग्रहों में प्रणय के कवि ‘नवीन’ का संवेदना और शिल्प की समग्रता की दृष्टि से श्रेष्ठतम एवं प्रतिनिधि संग्रह ‘रश्मिरेखा’ है। इसमें ‘नवीन’ की मौजी एवं प्रेमिल अभिव्यक्तियाँ प्रचुर मात्रा में हैं। “हम अनिकेतन हम अनिकेतन” अत्यन्त निर्लिप्त आत्मस्वीकरण के भाव से वे कह उठते हैं,
अब तक इतनी यों ही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी? कौन बनाये आज घरौंदा, हाथों चुन-चुन कंकड़ माटी। ठाट फ़कीराना हैं, अपना बाघम्बर सोहे अपने तन।
प्रणय एवं विरह की कितनी ही मादक स्मृतियाँ, कितने ही मनोरम चित्र, कितने ही व्याकुल बेसुध पुकारें एवं विवशता की कितनी ही चीत्कारें ‘रश्मिरेखा’ में संगृहीत हैं। यह प्रणयी अनिकेतन अत्यन्त उद्दाम भाव से कहता है,
कृजे दो कृजे में बुझने वाली प्यास नहीं, बार-बार ‘ला!ला!’ कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं।
वस्तुत: हिन्दी में हालाबाद के आदि प्रवर्तक ‘नवीन’ ही हैं तथा भगवतीचरण वर्मा एवं ‘बच्चन’ ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है।
‘अपलक’ और ‘क्वासि’
‘अपलक’ और ‘क्वासि’ में संकलित कविताओं में यद्यपि कविताओं का रचनाकाल वही है, जो ‘रश्मिरेखा’ की कविताओं का है। पर इनमें जो कविताएँ संकलित हैं, उनमें प्रणय का वेग दर्शन एवं भक्ति भावना से प्रतिहत होता लगता है। ‘आध्यात्मिकता’ का स्वर छायावाद के बहुत से आलोचकों को भी भ्रम और विवाद में डालता रहा है, परन्तु शिल्प के जिस लाक्षणिक वैचित्र्य के माध्यम से वह स्वर व्यक्त हुआ है, उसने उन कविताओं को अनगढ़ नहीं होने दिया। परन्तु ‘नवीन’ का छायावादकाल में ही लिखा गया यह अध्यात्म निवेदन बहुत कुछ स्थूल एवं इतिवृत्तात्मक पदावली में व्यक्त हुआ है। छायावाद के शिल्प को वे मन से नहीं स्वीकार करते, पर रहस्य या अध्यात्म की पदावली उन पर हावी प्रतीत होती है। परन्तु इन संकलनों में जहाँ उनका मस्त एवं प्रणयी व्यक्तित्व सहज ही व्यक्त हुआ है, वहाँ काव्य नितान्त रसनिर्भर हो सका है। ‘हम हैं मस्त फ़कीर’ (‘अपलक’) ‘तुम युग-युग की पहचानी सी’ (‘क्वासि’), ‘मान छोड़ो’ (क्वासि), ‘सुन लो प्रिय मधुर गान’ (‘अपलक’), ऐसी ही कविताएँ हैं। आध्यात्मिक अन्योक्ति की दृष्टि से ‘डोलेवालों’ (‘क्वासि’) उनकी श्रेष्ठतम कविता है।
भाषा
ब्रजभाषा ‘नवीन’ की मातृभाषा थी। उनके प्रत्येक ग्रन्थ में ब्रजभाषा के भी कतिपय गीत या छन्द मिलते हैं। ब्रजभाषा में ‘नवीन’ भाव-संवेदना की अभिव्यक्ति का प्रयास कर उन्होंने ब्रजभाषा के आधुनिक साहित्य को समृद्ध किया है। उर्मिला का एक सम्पूर्ण सर्ग ही ब्रजभाषा में है। परन्तु उनका ब्रजभाषा मोह एवं खड़ीबोली के परिनिष्ठित प्रयोगों के मध्य आ प्रकट होता है। तब पाठक के लिए रसभंग की स्थिति पैदा हो जाती है। ब्रजभाषा के क्रियापदों या शब्दों जानृँ हूँ, सोचृँ हूँ, नैक, लागी, नचीं, उमड़ाय दिया आदि का निखरी तत्सम प्रधान खड़ीबोली में प्रयोग अत्यन्त अकुशल ढंग से हुआ है। वस्त्र के लिए ‘बस्तर’[3] जैसे प्रयोग भी बहुधा खटकते हैं। वस्तुत: आधुनिक काल के श्रेष्ठ कवियों में ‘नवीन’ से अधिक भाषा के भ्रष्ट प्रयोग मिल ही नहीं सकते। लगता है यह भी उनकी भाषणकला का ही प्रभाव था। सम्भवत: राजनीतिक व्यस्तता भी इस परिष्कारहीनता के मूल में थी। संस्कृत के भारी भरकम अप्रचलित एवं दुरूह शब्दों को लाने की प्रवृत्ति उनकी बराबर बढ़ती गयी है।
दुरूह अकाव्यात्मक शब्दावली
सन 1950-51 ई. के बाद की कविताओं में अध्यात्म मोह के साथ-साथ दुरूह अकाव्यात्मक शब्दावली (शब्द और अर्थ के वक्र कविव्यापारशाली सहभाव से विच्छिन्न) का उनका आग्रह उनके काव्य के रसास्वादन में बराबर बाधक बनता गया है। लगता है शैली जीतती गयी है और वे हारते गये हैं।
काव्य
हिन्दी काव्य धारा की द्विवेदी युग के पश्चात् जो परिणति छायावाद से हुई है, ‘नवीन’ उसके अंतर्गत नहीं आते। राजनीति के कठोर यथार्थ में उनके लिए शायद यह सम्भव नहीं था कि वैसी भावुकता, तरलता, अतीन्द्रियता एवं कल्पना के पंख वे बाँधते, परन्तु इस बात को याद रखना होगा कि उनका काव्य भी स्वच्छन्दतावादी (मनोरंजक) आन्दोलन का ही प्रकाश है। ‘नवीन’ मैथिलीशरण गुप्त आदि का काव्य छायावाद के समानान्तर संचरण करता हुआ आगे चलकर बच्चन, अंचल, नरेन्द्र शर्मा, दिनकर आदि के काव्य में परिणत होता है। काव्यधारा के इस प्रवाह की ओर हिन्दी आलोचकों ने अभी तक उपेक्षा का ही भाव रखा है। अस्तु, ‘नवीन’ के काव्य में एक ओर राष्ट्रीय संग्राम की कठोर जीवनाभूतियाँ एवं जागरण के स्वर व्यंजित हुए हैं और दूसरे सहज मानवीय स्तर (योद्धा से अलग) पर प्रेम-विरह की राग-संवेदनाएँ प्रकाश पा सकी हैं। इसी क्रम में हालावादी काव्य की भी सृष्टि हुई है। इस प्रकार छायावाद केसमानान्तर बहने वाली वीर-श्रृंगार धारा के वे अग्रणी कवि रहे हैं। कवि के अतिरिक्त गद्यलेखक के रूप में भी ‘प्रताप’ जैसे पत्र के माध्यम से उन्होंने ओज-गुणप्रधान एक शैली के निर्माण में अपना योग दिया है।
पुरस्कार
बालकृष्ण नवीन को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन् 1960 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
मृत्यु
बालकृष्ण शर्मा नवीन जी का निधन 29 अप्रैल, 1960 ई. में हुआ था।
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सोमवार, 5 मई 2014

सुभद्रा कुमारी चौहान



सुभद्रा कुमारी चौहान
SubhadraKumariChauhan Stamp.jpg
सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में जारी डाक-टिकट
जन्म: १६ अगस्त १९०४
निहालपुर इलाहाबाद भारत
मृत्यु: १५ फरवरी १९४८
जबलपुर भारत
कार्यक्षेत्र: लेखक
राष्ट्रीयता: भारतीय
भाषा: हिन्दी
काल: आधुनिक काल
विधा: गद्य और पद्य
विषय: कविता और कहानियाँ
साहित्यिक
आन्दोलन
:
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन
से प्रेरित देशप्रेम
सुभद्रा कुमारी चौहान (१६ अगस्त १९०४-१५ फरवरी १९४८) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभुतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है।

जीवन परिचय

उनका जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे कविताएँ रचने लगी थीं। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं।[1]सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। १९१९ में खंडवा के ठाकुर लक्षमण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। १९२१ में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। वे दो बार जेल भी गई थीं।[2] सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है।[3] वे एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। डॉo मंगला अनुजा की पुस्तक सुभद्रा कुमारी चौहान उनके साहित्यिक व स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डालती है। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में उनके कविता के जरिए नेतृत्व को भी रेखांकित करती है।[4] १५ फरवरी १९४८ को एक कार दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया था।[5]

कथा साहित्य

बिखरे मोती उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल १५ कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं! उन्मादिनी शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह १९३४ में छपा! इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल ९ कहानियां हैं! इन सब कहानियो का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है! सीधे साधे चित्र सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है! इसमें कुल १४ कहानियां हैं! रूपा, कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला ८ कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं ! हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल ४६ कहानियां लिखी, और अपनी व्यापक कथा दृष्टि से वे एक अति लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं![6]

सम्मान पुरस्कार

भारतीय तटरक्षक सेना ने २८ अप्रैल २००६ को सुभद्राकुमारी चौहान की राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नए नियुक्त एक तटरक्षक जहाज़ को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है।[7] भारतीय डाकतार विभाग ने ६ अगस्त १९७६ को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में २५ पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया है।

कृतियाँ

कहानी संग्रह

  • बिखरे मोती(१९३२)
  • उन्मादिनी(१९३४)
  • सीधे साधे चित्र(१९४७)

कविता संग्रह

  • मुकुल
  • त्रिधारा

जीवनी

'मिला तेज से तेज'

संदर्भ

  1. मिश्र अनुरोध, रामेश्वरनाथ (जुलाई २००४). राष्ट्रभाषा भारती. कोलकाता: निर्मल प्रकाशन. प॰ २०.
  2. "सुभद्रा कुमारी चौहान" (अंग्रेज़ी में) (एचटीएम). इंडियन हीरोज़. अभिगमन तिथि: २००८.
  3. "सुभद्रा कुमारी चौहान -बचपन, विवाह: मिला तेज से तेज" (एचटीएमएल). हिन्दी - चिट्ठे एवं पॉडकास्ट. अभिगमन तिथि: २००८.
  4. "स्वराज पुस्तक माला" (एचटीएम). स्वराज संस्थान संचालनालय. अभिगमन तिथि: २००८.
  5. "ग्रेट वूमेन ऑफ इंडिया" (अँग्रेज़ी में) (एचटीएम). दक्षिण कन्नडा फेलेटेलिक एंड न्यूमिस्मेटिक असोसिएशन. अभिगमन तिथि: २००८.
  6. "सुभद्रा कुमारी चौहान की कथा दृष्टि" (एचटीएम). रचनाकार. अभिगमन तिथि: २००८.
  7. "कमिशनिंग ऑफ कोस्ट गार्ड शिप सुभद्रा कुमारी चौहान" (अँग्रेज़ी में) (एचटीएम). इंडियन कोस्ट गार्ड. अभिगमन तिथि: २००८.

बाहरी कड़ियाँ

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