शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

सम्राट अशोक










अशोक
अशोक
पूरा नाम राजा[1] प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय अशोक मौर्य
अन्य नाम 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'[2]
जन्म 304 ईसा पूर्व (संभावित)
जन्म भूमि पाटलिपुत्र (पटना)
मृत्यु तिथि 232 ईसा पूर्व
मृत्यु स्थान पाटलिपुत्र, पटना
पिता/माता बिन्दुसार, सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा)
पति/पत्नी (1) देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), (2) कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता), (3) असंधिमित्रा- अग्रमहिषी, (4) पद्मावती, (5) तिष्यरक्षिता[3]
संतान देवी से- पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से- पुत्र तीवर, पद्मावती से- पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है।
उपाधि राजा[1], 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'
राज्य सीमा सम्पूर्ण भारत
शासन काल ईसापूर्व 274[3] - 232
शा. अवधि 42 वर्ष लगभग
राज्याभिषेक 272[4] और 270[3] ईसा पूर्व के मध्य
धार्मिक मान्यता हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म
प्रसिद्धि अशोक महान, साम्राज्य विस्तारक, बौद्ध धर्म प्रचारक
युद्ध सम्राट बनने के बाद एक ही युद्ध लड़ा 'कलिंग-युद्ध' (262-260 ई.पू. के बीच)
निर्माण भवन, स्तूप, मठ और स्तंभ
सुधार-परिवर्तन शिलालेखों द्वारा जनता में हितकारी आदेशों का प्रचार
राजधानी पाटलिपुत्र (पटना)
पूर्वाधिकारी बिन्दुसार (पिता)
वंश मौर्य
संबंधित लेख अशोक के शिलालेख, मौर्य काल आदि
अशोक अथवा 'असोक' (काल ईसा पूर्व 269 - 232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का राजा था। अशोक का देवानाम्प्रिय एवं प्रियदर्शी आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर, कर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक गौतम बुद्ध का भक्त हो गया और उन्हीं[5] की स्मृति में उसने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी में 'मायादेवी मन्दिर' के पास अशोक स्‍तम्‍भ के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक के अभिलेखों में प्रजा के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।

[सम्पादन] जीवन परिचय

[सम्पादन] जन्म

अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। लंका की परम्परा में [6] बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - सुसीम [7] जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था।[8]भाइयों के साथ गृह-युद्ध के बाद 272 ई. पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया।
Seealso.jpg इन्हें भी देखें: अशोक का परिवार, बिंदुसार एवं चंद्रगुप्त मौर्य

[सम्पादन] देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ

'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार 'देवानाम्प्रिय' आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में हमने भी इसको लिया है किंतु देवानाम्प्रिय शब्द (देव-प्रिय नहीं) पाणिनी के एक सूत्र[9] के अनुसार अनादर का सूचक है। कात्यायन[10] इसे अपवाद में रखा है। पतंजलि[11] और यहाँ तक कि काशिका (650 ई.) भी इसे अपवाद ही मानते हैं। पर इन सबके उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजिदीक्षित इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ 'मूर्ख' ही करते हैं। उनके मत से 'देवानाम्प्रिय ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो यज्ञ और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का यत्न करता है। जैसे- गाय दूध देकर मालिक को।[12] इस प्रकार एक उपाधि जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में आदरवाची थी। उस महान राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादर सूचक बन गई।

[सम्पादन] शासन साम्राज्य

अशोक सीरिया के राजा 'एण्टियोकस द्वितीय'[13] और कुछ अन्य यवन[14] राजाओं का समसामयिक था, जिनका उल्लेख 'शिलालेख संख्या 8' में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख़ का पता नहीं चलता है। अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया। इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा। अशोक के राज्यकाल के प्रारम्भिक 12 वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। [15] अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक अशोक ने मौर्य साम्राज्य की परम्परागत नीति का ही अनुसरण किया। अशोक ने देश के अन्दर साम्राज्य का विस्तार किया किन्तु दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार की नीति अपनाई।[4]

[सम्पादन] दक्षिण भारत में अशोक

दक्षिण में मौर्य प्रभाव के प्रसार की जो प्रक्रिया चंद्रगुप्त मौर्य के काल में आरम्भ हुई, वह अशोक के नेतृत्व में और भी अधिक पुष्ट हुई। लगता है कि चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी। गावीमठ, ब्रह्मगिरि, मस्की, येर्रागुण्डी, जतिंग रामेश्वर आदि स्थलों पर स्थित अशोक के शिलालेख इसके प्रमाण हैं। और फिर परिवर्ती कालीन साहित्य में, विशेष रूप से दक्षिण में अशोकराज की परम्परा काफ़ी प्रचलित प्रतीत होती है। ह्यूनत्सांग ने तो चोल-पांड्य राज्यों में (जिन्हें स्वयं अशोक के शिलालेख 2 एवं 13 में सीमावर्ती प्रदेश बताया गया है) भी अशोकराज के द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का वर्णन किया है।

[सम्पादन] कलिंग युद्ध

कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा।[4] 260 ई. पू. में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया, उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।[16]

[सम्पादन] धर्म परिवर्तन

Blockquote-open.gif सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे धम्म का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग। Blockquote-close.gif

- अशोक
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। महावंश के अनुसार वह प्रतिदिन 60,000 ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी - देवताओं की पूजा किया करता था। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक के इष्ट देव शिव थे। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी। किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह जिज्ञासु भी था। मौर्य राज्य सभा में सभी धर्मों के विद्वान भाग लेते थे। जैसे - ब्राह्मण, दार्शनिक, निग्रंथ, आजीवक, बौद्ध तथा यूनानी दार्शनिक। दीपवंश के अनुसार अशोक अपनी धार्मिक जिज्ञासा शान्त करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के व्याख्याताओं को राज्यसभा में बुलाता था। उन्हें उपहार देकर सम्मानित करता था और साथ ही स्वयं भी विचारार्थ अनेक सवाल प्रस्तावित करता था। वह यह जानना चाहता था कि धर्म के किन ग्रंथों में सत्य है। उसे अपने सवालों के जो उत्तर मिले उनसे वह संतुष्ट नहीं था।

[सम्पादन] अशोक का धम्म

संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है, "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"

[सम्पादन] बौद्ध धर्म


बौद्ध धर्म का प्रचार करते अशोक
इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके अभिलेख हैं। राज्याभिषेक से सम्बद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा। भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न—बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है। लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में अशोक ने बोध गया की यात्रा की, बारहवें वर्ष वह निगालि सागर गया और कोनगमन बुद्ध के स्तूप के आकार को दुगुना किया। महावंश तथा दीपवंश के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई और मोग्गलिपुत्त तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया। यह दूसरी बात है कि एकता थेरवाद बौद्ध सम्प्रदाय तक ही सीमित थी। अशोक के समय थेरवाद सम्प्रदाय भी अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया था।

[सम्पादन] शिलालेख और स्तूप

पूर्व में बंगाल तक मौर्य साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि महास्थान शिलालेख से होती है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है और मौर्य काल का माना जाता है। महावंश के अनुसार अशोक अपने पुत्र को विदा करने के लिए ताम्रलिप्ति तक आया था। ह्वेन त्सांग को भी ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट, पूर्वी बंगाल तथा पुण्ड्रवर्धन में अशोक के स्तूप देखने को मिले थे। दिव्यावदान में कहा गया है कि अशोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का ही एक अंग था। आसाम कदाचित् मौर्य साम्राज्य से बाहर था।
Blockquote-open.gif 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। Blockquote-close.gif

- मौर्य सम्राट के शब्दों में

[सम्पादन] स्तूप

कहा जाता है कि अशोक ने एक हज़ार स्तूपों का निर्माण कराया था, जिनमें से भिलसा के एक स्तूप को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो गये हैं। उसका राजप्रासाद, जिसे फाहियान ने चौथी शताब्दी में देखा था, सातवीं शताब्दी में हुएनसांग की यात्रा के समय तक नष्ट हो गया था। अशोक का राजप्रासाद इतना भव्य था कि उसे देखकर यह समझा था कि उसको अशोक के लिए देवों ने तैयार किया होगा। उसके कुछ प्रस्तर स्तम्भों पर इतनी सुंदर पॉलिश है कि शताब्दियाँ बीत जाने पर भी ख़राब नहीं हुई है। ललित कला और स्थापत्य कला के पारखी उनकी बहुत प्रशंसा करते है। दूर दूर तक फैले ये प्रस्तर स्तम्भ एक ही चट्टान से काट कर बनाये गये थे। और भारतीय शिल्प के अनुपम उदाहरण हैं। "उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय पत्थर पर पॉलिश करने की कला अत्यंत उन्नत थी और आधुनिक युग में यह कला विलुप्त हो गयी है।"[17]

[सम्पादन] अशोक के धर्म संबंधी शिलालेख

अशोक के लेख शिलाओं, प्रस्तर स्तम्भों और गुफाओं में पाये जाते हैं। अशोक के लेखों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -
  1. शिलालेख
  2. स्तम्भलेख
  3. गुफालेख[18]

[सम्पादन] विदेशों से सम्बन्ध

धम्म प्रचार एवं धम्म विजय के संदर्भ में अशोक के शिलालेखों में कुछ ऐसे विवरण भी मिलते हैं, जिनमें उसके एवं विदेशों के पारस्परिक सम्बन्धों का आभास मिलता है। ये सम्बन्ध कूटनीति एवं भौगोलिक सान्निध्य के हितों पर आधारित थे। अशोक ने जो सम्पर्क स्थापित किए वे अधिकांशतः दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों में थे और धम्म मिशनों के माध्यम से स्थापित किए थे। इन मिशनों की तुलना आधुनिक सदभावना मिशनों से की जा सकती है। अशोक के ये मिशन स्थायी तौर पर विदेशों में एक आश्चर्यजनक तथ्य हैं कि स्तंभ अभिलेख नं. 7, जो अशोक के काल की आख़िरी घोषणा मानी जाती है, ताम्रपर्ण, श्रीलंका के अतिरिक्त और किसी विदेशी शक्ति का उल्लेख नहीं करती। शायद विदेशों में अशोक को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी साम्राज्य के भीतर। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विदेशों से सम्पर्क के जो द्वार सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात खुले थे, वे अब और अधिक चौड़े हो गए।

[सम्पादन] निधन

इस बात का विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ मे फूट डालने की निंदा करना था। सम्भवत: यह घटना बौद्धों की तीसरी संगति के बाद की है। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई थी।[19]

[सम्पादन] उत्तराधिकारी

40 वर्ष तक राज्य करने के बाद लगभग ई. पू. 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक अशोक के अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। किन्तु इन मौर्य शासकों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त तथा अनिश्चित है। पुराण, बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में इन उत्तराधिकारियों के नामों की जो सूचियाँ दी गई हैं वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती हैं।
  • पुराणों के अनुसार अशोक के बाद 'कुणाल' गद्दी पर बैठा। दिव्यावदान में उसे 'धर्मविवर्धन' कहा गया है। 'धर्मविवेर्धन' सम्भवतः उसका विरुद्ध था, किन्तु अशोक के और भी पुत्र थे।
  • पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफ़ाओं के शिलालेख के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। नागार्जुनी गुफ़ाओं को दशरथ ने आजीविकों को दान में दिया था। इन प्रमाणों के आधार पर यह मत प्रस्तुत किया गया कि मगध साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में तथा संप्रति का पश्चिमी भाग में था।
  • विष्णु पुराण तथा गार्गी संहिता के अनुसार संप्रति तथा दशरथ के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक सालिसुक था। उसे संप्रति का पुत्र बृहस्पति भी माना जा सकता है।
  • पुराणों में ही नहीं वरन् हर्षचरित में भी मगध के अन्तिम सम्राट का नाम बृहद्रथ दिया गया है। इनके अनुसार मौर्य वंश के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ की, उसके सेनापति पुष्यमित्र ने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।

[सम्पादन] जीवन कालक्रम

सम्राट अशोक का परिवार[20]
क्रमांक रिश्ता नाम एवं विवरण
1- पिता बिंदुसार, जिसकी कई रानियाँ थीं।
2- माता उत्तरी परम्परा में सुभद्रांगी और दक्षिण परम्परा में धर्मा
3- भाई
  1. सुमन या सुसीम - सबसे बड़ा परंतु सौतेला भाई
  2. तिष्य - सहोदर और सबसे छोटा भाई, उत्तरी परम्परा में इसका नाम वीताशोक या विगताशोक भी मिलता है। युवांचुंग इसका नाम महेंद्र बताता है और अन्य चीनी ग्रंथों में सुदत्त और सुगात्र नाम भी आये हैं।
  3. उपरि उल्लिखित 'थेरगाथा टीका' के अनुसार वीताशोक।
4- पत्नियाँ
  1. देवी- पूरा नाम 'वेदिस महादेवी शाक्यकुमारी'
  2. कारुवाकी- लेखों में द्वितीय देवी तीवल्माता
  3. असंधिमित्रा- अग्रमहिषी
  4. पद्मावती[21]
  5. तिष्यरक्षिता
5- पुत्र
  1. देवी का पुत्र महेंद्र
  2. कारुवाकी का पुत्र तीवर
  3. पद्मावती का पुत्र कुणाल[22] अपर नाम धर्मविवर्धन
  4. जलौक- राजतरंगिणी में उल्लिखित। लेखों में दूर के चार प्रांतों के वाइसराय के रूप में चार पुत्रों का उल्लेख है, इन्हें 'कुमार' या 'आर्यपुत्र' कहा गया है। ये 'दालकों' से भिन्न थे। 'दालक' माताओं की निम्न स्थिति के अनुरूप पुत्रों की संज्ञा थी। [23]
6- पुत्रियाँ व जामाता (दामाद)
  1. देवी की पुत्री संघमित्रा और संघमित्रा का पति अग्निब्रह्मा
  2. देवी की पुत्री चारूमती और चारूमित्रा का पति देवपाल क्षत्रिय।
7- पोते व नाती
  1. दशरथ, जो राजा बना
  2. कुणाल का पुत्र संप्रति
  3. संघमित्रा का पुत्र सुमन
अशोक के जीवन और शासन का जो कालक्रम उसके लेखों से विदित होता है उसकी तुलना जनश्रुतियों से करना लाभदायक होगा। ये जनश्रुतियां उत्तरी और दक्षिणी दोनों हैं। उत्तरी जनश्रुति दिव्यावदान में और दक्षिणी महावंश में सुरक्षित है। कालक्रम के ये दोनों आधार यद्यपि अलग-अलग हैं तथापि अनेक मामलों में ये एक दूसरे का समर्थन करते प्रतीत होते हैं।

[सम्पादन] अशोक का परिवार

लंका की परम्परा में [24] बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - सुमन [25] जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था। उत्तरी परम्पराओं में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी[26] मिलता है, जिसे चम्पा के एक ब्राह्मण की रूपवती कन्या बतलाया गया है। इससे बिंदुसार को एक दूसरा पुत्र भी हुआ था, जिसका नाम विगताशोक (वीताशोक) था ना कि तिष्य जैसा कि लंका की परम्परा में आता है। दक्षिण की परम्परा में उसकी माता का नाम 'धर्मा' आया है। धर्मा को अग्रमहिषी (अग्ग-महेसी)[27] कहा गया है। उसके परिवार के गुरु का नाम 'जनसान' था, जो कि 'आजीविक' साधु था। इससे इस बात का खुलासा हो जाता है कि अशोक आजीविकों को आश्रय क्यों देता था। धर्मा का जन्म मोरियों के क्षत्रिय वंश में हुआ था।[28]


मौर्य काल
Arrow-left.png पूर्वाधिकारी
बिन्दुसार
अशोक उत्तराधिकारी
दशरथ मौर्य
Arrow-right.png


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार

प्रारम्भिक



माध्यमिक



पूर्णता



शोध


[सम्पादन] टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि अशोक सर्वोच्च शासक था पर वह अपने को सिर्फ 'राजा' शब्द से निर्दिष्ट करता है। 'महाराजा' और 'राजाधिराज' जैसी भारी-भरकम या आडम्बर-पूर्ण उपाधियाँ, जो अलग-अलग या मिलाकर प्रयुक्त की जाती हैं, अशोक के समय में प्रचलित नहीं हुई थीं। 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:6
  2. 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:5
  3. 3.0 3.1 3.2 'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 8-9
  4. 4.0 4.1 4.2 द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली “मौर्यकाल”, प्राचीन भारत का इतिहास, द्वितीय संस्करण (हिंदी), दिल्ली: हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय, 178।
  5. महात्मा बुद्ध
  6. जिसका आख्यान 'दीपवंश' और 'महावंश' में हुआ है
  7. उत्तरी परम्पराओं का सुसीम
  8. मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 2।
  9. पाणिनी 6,3,21
  10. ई.पू. 350 सर आर. जी. भंडाकर
  11. ई. पू. 150
  12. तत्त्वबोधिनी और बालमनोरमा
  13. 261 - 246 ईसा पू.
  14. यूनानी
  15. भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 26।
  16. 'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर| प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 63
  17. भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 27-28।
  18. भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 27।
  19. भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 28।
  20. मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 7-8।
  21. दिव्यावदान अध्याय 27, के अनुसार अशोक ने अपनी रानी पद्मावती में उत्पन्न अपने नवजात पुत्र को धर्मविवर्धन नाम दिया था। पर जैसा उसके साथ गये मंत्रियों ने कहा था शिशु की आँखें हिमालय के कुणाल पक्षी की तरह थीं। इसलिए अशोक ने उसे कुणाल कहना शुरू कर दिया था।
  22. दिव्यावदान और फाहियान के अनुसार
  23. (स्तम्भ लेख 7 के अनुसार)
  24. जिसका आख्यान 'दीपवंश' और 'महावंश' में हुआ है
  25. उत्तरी परम्पराओं का सुसीम
  26. इसका उल्लेख 'अशोकावदानमाला' में तो है, पर 'दिव्यावदान' में नहीं है।
  27. महावंश टीका, अध्याय 4, पृ. 125
  28. मोरियवंसजा, महावंश टीका, अध्याय 4, पृ. 125 व महाबोधिवंश, पृ. 98
  • 'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास
  • 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी
  • 'प्राचीन भारत का इतिहास' | लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली | प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय
  • 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' | लेखक: सत्यकेतु विद्यालंकार | प्रकाशक: श्री सरस्वती सदन
  • 'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

[सम्पादन] संबंधित लेख


साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...