गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
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अनामी शरण बबल
Asb.deo@gmail.com
गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
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गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (अंग्रेज़ी:
Gajanan Madhav Muktibodh, जन्म: 13 नवंबर, 1917
- मृत्यु: 11 सितंबर, 1964)
की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि
के रूप में है। मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य
की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य
में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक
भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।
मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन
गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय
मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नई दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह
और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ। और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा? यह तल्ख टिप्पणी शमशेर बहादुर सिंह
की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिंदी जगत के साहित्यकारों की निस्संगता पर
कही है।[1]
जन्म और शिक्षा
गजानन
माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवंबर, 1917
को श्यौपुर (ग्वालियर)
में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन
में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला
प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढ़ाई में बाधा पड़ती रहती थी। इन्दौर
के होल्कर से सन् 1938 में बी.ए. करके
उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।[2]
इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो
गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को
निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।
परिवार
इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत
शुस्ता फ़सीह उर्दू
बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन
में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ बुन्देलखण्ड
की थीं, ईसागढ़
के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के
प्रतिष्ठित कवि हैं। पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939
में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया।
'मुक्तिबोध' प्रतिमा
आरंभिक जीवन
मुक्तिबोध
जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1940
में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस
तथा जबलपुर
आदि जगहों पर नौकरी की। सन् 1942
के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया,
तो यह शीराज़ा बिखर गया। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये।
भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता
से पार्टी तक। नागपुर
1948
में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग,
आकाशवाणी
एवं 'नया
ख़ून' में
काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: 1958
से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव
में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:-
नौकरियाँ
पकड़ता और छोड़ता रहा।
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ।
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ।
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।
सहपाठी मित्र
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी
कल्पना के कवि वीरेन्द्र कुमार जैन और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक और उस समय के एक
अच्छे, योग्य
कवि थे। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था।
'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल
और महादेवी
की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए
नहीं रहते थे।
मुक्तिबोध अपनी पत्नी श्रीमती शांता के
साथ
पत्रिका सम्पादन
आगरा से नेमिचन्द्र जैन
शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे
भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् 1943
में अज्ञेय
के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध
की कविताओं से होती है। उज्जैन
से सन् 1945
के लगभग मुक्तिबोध बनारस
गये और त्रिलोचन शास्त्री
के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन
से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे;
साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद
नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता
बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् 1946-1947
में जबलपुर
चले गये। वहाँ 'हितकारिणी
हाई स्कूल' में
वह अध्यापक हो गये। और फिर नागपुर
जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था,
किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून'
साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे
ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी
दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते।
तार-सप्तक
शुजालपुर
और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी
को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे
और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे
का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका
सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और
वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय
जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन
का भार उन पर डाल दिया गया। नेमिचन्द्र और भारतभूषण जब कलकत्ता
(अब कोलकाता)
में थे, योजना
ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा
और गिरिजाकुमार माथुर
के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य
था। 1943
में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ,
उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब
भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए
बौद्धिक, बौद्धिक
होते हुए भी रोमानी।
मुक्तिबोध द्वारा हस्तलिखित कविता
बीसवीं
सदी की हिंदी
कविता का सबसे बेचैन, सबसे
तड़पता हुआ और सबसे ईमानदार स्वर है गजानन माधव मुक्तिबोध। मुक्तिबोध की कविता
जटिल है। भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है, ‘वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं। वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं। वे मात्र अर्थग्रहण की
मांग नहीं करतीं,
आचरण की भी मांग करती हैं। तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ‘मेरी कविताएँ अपना पथ खोजते बेचैन मन की
अभिव्यक्ति हैं। उनका सत्य और मूल्य उसी जीव-स्थिति में छिपा है।[1]
"नई
कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है,
जो छायावाद में
निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध
ने भी अपनी युग के सामान्य
काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की
चुनौती देकर उस सर्जनात्मक
विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।"
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लेखक संघ
उज्जैन
में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट
सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से डॉ. रामविलास शर्मा, अमृतराय
आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् 1944
के अन्त में इन्दौर
में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया,
जो राहुल जी
की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस
पर पढ़ा था। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें
आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम
परमार, जगदीश
वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने मज़दूरों से वास्तविक सम्पर्क स्थापित
किया और उनसे घुलमिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के
लिए दौड़-धूप करते। मसलन 'नटवर' जी के लिए उन की दौड़-धूप की, बात चलती है तो, लोग याद करते हैं।
प्रगतिशील कवि
मुक्तिबोध स्मारक
मुक्तिबोध
मूलत: कवि
हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी
शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, तो दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी
प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता
असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। जयशंकर प्रसाद, शमशेर, कुँवर नारायण
जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है,
उसमें पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले
भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध
महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है। उन्होंने
नयी कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं।
उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता है, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती
है। उन्होंने अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा।
'जड़ीभूत
सौन्दर्याभरुचि' तथा
'व्यक्ति
के अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान'
उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं। डॉ. नामवर सिंह जी
के शब्दों में - "नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है ,जो छायावाद में निराला की थी। निराला के
समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के
साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन
हो सका।"
कृतियाँ
मुक्तिबोध
मुक्तिबोध
हिंदी
के अतिविशिष्ट रचनाकार हैं। उन्हें उम्र ज़रूर कम मिली, पर कविता, कहानी
और आलोचना
में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। पहली बार वह व्यवस्थित रूप में ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए।
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके जीवनकाल में उनकी कविता की कोई किताब नहीं
प्रकाशित हो पाई। उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ़ एक किताब छपी, यह थी ‘एक
साहित्यिक की डायरी।’
इसके बावज़ूद बाद में वे ऐसे विलक्षण रचनाकार साबित हुए जिनके लिखे की गूँज
परवर्ती कविता, विचार, आलोचना या कहानी सबमें बढ़ती ही चली गई।
सन् 1954
में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी
में एम. ए. किया, जिसके
फलस्वरूप राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण कृतियाँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:-[3]
मुक्तिबोध स्मारक
मुक्तिबोध
मूलत: कवि हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व
से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही
उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के
कठमुल्लेपन को उभार कर सामने
रखा, तो
दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना
दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध
है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। जयशंकर प्रसाद, शमशेर, कुँवर नारायण जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की
है, उसमें
पर्याप्त विचारोत्तेजकता है
और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन
प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन
उन्होंने किया है, वह
अत्यन्त गहन और तात्विक है। उन्होंने नयी
कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय
आलोचक नहीं हैं।
उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता है, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती
है। उन्होंने
अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के
अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान'
उदाहरण के रूप में
गिनाए जा सकते हैं।
डॉ. नामवर सिंह जी के शब्दों में - "नई कविता में
मुक्तिबोध की जगह वही है ,जो
छायावाद में निराला
की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों
को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन
हो सका।"
कहानी संकलन
1
अँधेरे में /
गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
एक रात को बारह बजे, ट्रेन से एक युवक उतरा। स्टेशन पर लोग एक कतार में खड़े थे और ज्यादा नहीं थे। इसलिए ट्रेन से नीचे आने में उसको ज्यादा कठिनाई नहीं हुई। स्टेशन पर बिजली की रोशनी थी; परंतु वह रात के अँधियारे को चीर न सकती थी, और इसलिए मानो रात अपने सघन रेशमी अँधियारे से तंबूनुमा घर हो गई थी, जिसमें बिजली के दीये जलते हों। उतरते ही युवक को प्लेटफॉर्म की परिचित गंध ने, जिसमें गरम धुआँ और ठंडी हवा के झोंके, गरम चाय की बास और पोर्टरों के काले लोहे में बंद मोटे काँचों से सुरक्षित पीली ज्वालाओं के कंदीले पर से आती हुई अजीब उग्र बास, इत्यादि सारी परिचित ध्वनियाँ और गंध थे, उसकी संज्ञा से भेंट की। युवक के हृदय में जैसे एक दरवाजा खुल गया था, एक ध्वनि के साथ और मानो वह ध्वनि कह रही थी - आ गया, अपना आ गया
युवक झटपट उतरा। उसके पास कुछ भी सामान नहीं था, कोयले के कणों से भरे हुए लंबे बालों में हाथों से कंघी करता हुआ वह चला। पाँच साल पहले वह यहीं रहता था। इन पाँच सालों की अवधि में दुनिया में काफी परिवर्तन हो गया; परंतु उस स्टेशन पर परिवर्तन आना पसंद नहीं करता था। युवक ने अपने पूर्वप्रिय नगर की खुशी में एक कप चाय पीना स्वीकार किया। और वहीं स्टॉल पर खडा हो कर कपबशी की आवाज सुनता हुआ इधर-उधर देखने लगा। सब पुराना वातावरण था। परंतु इस नगर के मुहल्ले में बीस साल बिता चुकने वाला यह पच्चीस साल का युवक पुराना नहीं रह गया था। उसकी आत्मा एक नए महीन चश्मे से स्टेशन को देख रही थी।
टिकिट दे कर स्टेशन पर आगे बढ़ा तो देखता है कि ताँगे निर्जल अलसाए बादलों कि भाँति निष्प्रभ और स्फूर्तिहीन ऊँघते हुए चले जा रहे हैं। युवक ने इसी से पहचान लिया कि यह विशेषता इस नगर की अपनी चीज है।
दुकानें सब बंद हो चुकी थीं, जिनके पास नीचे सड़क पर आदमी सिलसिलेवार सो रहे थे। उनके साथी और उन्हीं के समान सभ्य पशुओं में से निर्वासित श्वान-जाति दुबकी इधर-उधर पड़ी हुई थी। युवक ने पैर बढ़ाने शुरू कर दिए। उखड़ी हुई डामर की काली सड़क पर बिजली की धुँधली रोशनी बिखर रही थी। एक ओर दुकानें, फिर सराय, फिर अफीम-गोदाम, फिर एक टुटपुँजिया म्यूनिसिपल पार्क, फिर एक छोटा चौराहा जहाँ डनलप टॉयर के विज्ञापनवाली दुकान और उसके सामने लाल पंप, फिर उसके बाद कॉलेज! और इस तरह इस छोटे शहर की बौनी इमारतें और नकली आधुनिकता इसी सड़क के किनारे-किनारे एक ओर चली गई थी। दूसरी ओर रेल का हिस्सा, जहाँ शंटिंग का सिलसिला इस समय कुछेक घंटों के लिए चुप था।
युवक को रात का यह वातावरण अत्यंत प्रिय मालूम हुआ। गरमी के दिन थे। फिर भी हवा बहुत ठंडी चल रही थी। सड़क के खुले हिस्से मे जहाँ रेल के तार जा रहे थे, नीम और पीपल के वृक्ष के पत्ते झिरमिर-झिरमिर कर सघन आम के बड़े-बड़े दरख्त दूर से ही दीख रहे थे। उसी मैदान पर, एक ओर, एक नवीन मुहल्ला, शहर के अमीरों, व्यापारियों, अफसरों का उपनिवेश सिकुड़ा हुआ था।
सब दूर शांति थी। रात का गाढ़ा मौन था। युवक के रोजमर्रा के कर्मप्रधान जीवन में रोज रात का एक सोने का समय था, और सुबह के साढ़े आठ के अनंतर जागने का समय था। वैदिक ॠषि-मनीषियों के उष:सूक्त से लगा कर तो अत्याधुनिक छायावादियों के 'बीती विभावरी जाग री, अंबर पनघट ऊषा नागरी' का दर्शन इस युवक ने इस गए पाँच सालों में बहुत कम किया है।
अपने उस कर्म-जटिल क्षेत्र को पीछे छोड़ कर जैसे मनुष्य अपनी अरुचिकर यादों से बचना चाहता हो - यह युवक इस रात में पा रहा था कि वातावरण में पठार-मैदान से उठ कर आने वाली हवा की उत्फुल्ल और मीठी ताजगी के साथ-ही-साथ मानो मनुष्यों की सोई हुई चुपचाप आत्माएँ अपनी गाढ़ नीरवता में अधिक मधुर हो कर वन की सुगंध और वृक्ष के मर्मर में मिल गई हैं।
रेल की पटरियों के पार - रेलवे यार्ड में ही वहाँ के मध्यमवर्गीय नौकरों के क्वार्टर्स बने हुए थे। बाहर ही, जो उसका आँगन कहा जा सकता है; दो खाटें समानांतर बिछी हुई थीं जिनके बीच में एक छोटा-सा टेबल रखा हुआ था। उस पर एक आधुनिक लैंप अपनी अध्ययन समर्पित रोशनी डाल रहा था। एक खाट पर एक पुरुष कोई पुस्तक पढ़ रहा था और दूसरी पर घोर निद्रा थी। लैंप की धुँधली रोशनी में घर के सामनेवाले बाजू पर एक काला-सा अधखुला दरवाजा ओर बाँस की चिमटियों से बनाए गए बंद बरामदे के लेटे-से चतुष्कोण साफ दीख रहे थे। उस घर की पंक्ति में ही कई क्वार्टर्स और दीख रहे थे, उसी तरह पंक्तिबद्ध खाटें बराबर यथास्थान लगी हुई चली गई थीं।
युवक के मन में एक प्यार उमड़ आया! ये घर उसे अत्यंत आत्मीय-जैसे लगे, मानो वे उसके अभिन्न अंग हों!
यही बात उसकी समझ में नहीं आई। इस अजीब आनंदमय भावना ने उसके मन के संतुलित तराजू को झटके देने शुरू कर दिए। वह भावनाओं से अब इतना अभ्यस्त नहीं रह गया था कि उनका आदर्शीकरण कर सके। रोज का कठिन, शुष्क, जीवन उसे एक विशेष तरह का आत्मविश्वास-सा देता था। परंतु... आज...
वह बैठने वाला जीव न था। रास्ते पर पैर चल रहे थे। मन कहीं घूम रहा था। दूसरे उसे अत्यंत आत्मीय एकांत, जहाँ उसकी सहज प्रवृत्तियों का खुला बालिश खिलवाड़ हो बहुत दिनों से नहीं मिला था!
उसने सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों यह अजीब जल के निर्मलिन सहस्त्र स्रोतों-सी भावना उसके मन में आ गई!
उसको जहाँ जाना था, वहाँ का रास्ता उसे मिल नहीं सकता था। एक तो यह कि पाँच साल के बाद शहर की गलियों को वह भूल चुका था। दूसरे जिस स्थान पर उसे जाना था, वह किसी खास ढंग से उसे अरुचिकर मालूम हो रहा था! इसलिए लक्ष्यस्थान की बात ही उसके दिमाग से गायब हो गई थी।
पैर चल रहे थे या उसके पैर के नीचे से रास्ता खिसक रहा था, यह कहना संभव नहीं, परंतु यह जरूर है कि कुछ कुत्ते-चिर जाग्रत रक्षक की भाँति खड़े हुए - भूँक रहे थे।
उसके मन में किसी अजान स्त्रोत से एक घर का नक्शा आया। उसका भी बरामदा इसी तरह बाँस की चिमटियों से बना हुआ था। वहाँ भी वासंती रातों में नीम के झिरिर-मिरिर के नीचे खाटें पड़ी रहती थीं। युवक को एक धुँधली सूरत याद आती है, उसकी बहन की-और आते ही फौरन चली जाती है। बस चित्र इतना ही। यह मत समझिए कि उसके माता-पिता मर गए! उसके भाई हैं, माता-पिता हैं। वे सब वहीं रहते हैं जिस शहर में वह रहता है।
युवक हँस पड़ा। उसे समझ में आ गया कि क्यों उन क्वार्टरों को देख कर एक आत्मीयता उमड़ आई। मजदूर चालों में, जहाँ वह नित्य जाता है, या उसके अमीर दोस्तों के स्वच्छ सुंदर मकानों में, जहाँ से वह चंदा इकट्ठा करता, चाय पीता, वाद-विवाद करता और मन-ही-मन अपने महत्व को अनुभव करता है - वहाँ से तो कोई आत्मीयता की फसफसाहट नहीं हुई। हमारा युवक अपने पर ही हँसने लगा। एक सूक्ष्म, मीठा और कटु हास्य।
दूर, एक दुकान पर साठ नंबर का खास बेलजियम का बिजली का लट्टू जल रहा था। सड़क पर ही कुरसियाँ पड़ी थीं, बीच मे टेबल था। एक आरामकुरसी पर लाल भैरोगढ़ी तहमत बाँधे हुए ताँगेवाले साहब बैठे हुए बिस्कुट खा रहे थे। दूसरी कुरसी पर एक निहायत गंदा, पीछे से फटी हुई चड्ढी पहने, उघाड़े बदन, लडका कभी बिस्कुटों के चूरे खाने की तरफ या भाप उठाते हुए टेबल पर रखे चाय के कप की तरफ देखता हुआ बैठा था! दूसरी कुरसी पर दूसरे मुसलमान सज्जन रोटी और मांस की कोई पतली वस्तु खा रहे थे और बहुत प्रसन्न मालूम हो रहे थे। जो होटल का मालिक था वह एक पैर पर अधिक दबाव डाले - उसको खूँटा किए खड़ा था, सिगरेट पी रहा था और कुछ खास बुद्धिमानी की बातें करता था जिसको सुन कर रोटी और मांस की पतली वस्तु को दोनों हाथों का उपयोग कर खाने वाले मुसलमान सज्जन 'अल्लाहो अकबर' 'अल्ला रहम करे, इत्यादि भावनाप्लुत उद्गारों से उसका समर्थन करते जाते थे। सिगरेट का कश वह इतनी जोर से खींचता था कि उसका ज्वलंत भाग बिजली की भयानक रोशनी में भी चमक रहा था। उसका हाथ आराम से जंघा-क्षेत्र में भ्रमण कर रहा था।
दुकान के अंदर से पानी को झाड़ू से फेंकने की क्रिया में झाड़ू की कर्कश दाँत पीसती-सी आवाज और पानी के ढकेले जाने के बालिश ध्वनि आ रही थी, साथ ही उसके छोटे-छोटे कंकड़ों की भाँति लगातार बाहर उन्नत-वक्र रेखा-मार्ग से चले आ रहे थे। बिजली का लट्टू दरवाजे के ऊपर लगे हुए कवर के बहुत नीचे लटक रहा, था जिस पर लगातार गिरने वाले छींटे सूख कर धब्बे बन रहे थे।
इतने में पुलिस के एक गश्तवान सिपाही लाल पगड़ी पहने और खाकी पोशाक में आ कर बैठ गए! वे भी मुसलमान ही थे। उनकी दाढ़ी पर छह बाल थे, और ओठों पर तो थे ही नहीं। चालीस साल की उम्र हो चुकी थी पर बालों ने उन पर कृपा नहीं की थी। नाक उनकी बुद्धि से व्यापक थी, काले डोरे की गुंडी की भाँति चमक रही थी। आँख में एक चुपचाप दयनीयता झाँक उठती। वह कोई मुसीबतजदा प्राणी था - शायद उसे सूजाक था - या उसकी घरवाली दूसरे के साथ फरार हो गई थी! या वह किसी अभागी बदसूरत-वेश्या का शरीर-जात था। उसे न जाने कौन-सी पीड़ा थी जो चार आदमियों में प्रकट नहीं की जा सकती थी। वह पीड़ा-थीड़ा तो दूसरों के आनंद और निर्बाध हास्य को देख कर चुपचाप निबिड़ आँखों में चमक उठती थी! वह इस समय भी चमक रहीं थी, किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। उसके सामने क्रमानुसार चाय आ गई और वह फुर-फुर करते हुए पीने लगा।
ताँगेवाले महाशय का ताँगा वहीं दुकान के सामने सड़क के दूसरे किनारे खड़ा था। घोड़ा अपने मालिक की भाँति बड़ा चढ़ैल और गुस्सैल था। एक ओर तो वह बिजली की रोशनी में चमकनेवाली हरी घास को बादशाह की भाँति खा रहा था, तो दूसरी ओर आध घंटे में एक बार अपनी टाँग ताँगे में मार देता था। उसके घास खाने की आवाज लगातार आ रही थी और उसका भव्य सफेद गंभीर चेहरा होटल को अपेक्षा की दृष्टि से देख रहा था।
ताँगेवाले महाशय ने चाय पीनी शुरू की। तगड़ा मुँह था। बेलौस सीधी नाक थी और उजला रंग था। ठाठदार मोतिया साफा अब भी बँधा हुआ था। बोलो-चाल निहायत शुस्ता और सलीके से भरी थी। चेहरा पर मार्दव था जो कि किसी अक्खड़ बहादुर सिपाही में ही सकता है। आज दिन में उन्होंने काफी कमाई की थी; इसीलिए रात में जगने का उत्साह बहुत अधिक मालूम हो रहा था।
दुकान के अंदर झाड़ू की कर्कश आवाज और पानी की खलखल ध्वनि बंद हो गई। छोटी-छोटी बूँदें टपकानेवाली मैली झाड़ू लिए एक पंद्रह साल का लड़का, एक घुटने पर से फटे पाजामे को कमर पर इकट्ठा किए खड़ा था कि मालिक का अब आगे क्या हुक्म होता है। परंतु बाहर मजलिस जमी थी। लाल साफेवाला सिपाही बड़ी रुचि के साथ उसे सुन रहा था। चाहता था कि वह भी कुछ कहे...।
इतने में इन लोगों को दूर से एक छाया आती हुई दिखाई दी। सब लोगों ने सोचा कि इस बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं! पर धीरे-धीरे आनेवाली उस छाया का सिर्फ पैंट ही दिखाई दिया और कुछ थकी-सी चाल! युवक चुपचाप उन्हीं की ओर आया और हलकी-सी आवाज में बोला 'चाय है?' उत्तर में 'हाँ' पा कर और बैठने के लिए एक अच्छी आरामदेह कुरसी पा कर वह खुश मालूम हुआ। लोगों ने जब देखा कि चेहरे से कोई खास आकर्षक या आसाधारण आदमी मालूम नहीं होता, तब आश्वस्त हो, साँस ले कर बातें करने लगे!
लाल पगड़ीवाला दयनीय प्राणी कुछ बोलना चाहता था! इतने मे उसके दो साथी दूर से दिखाई दिए! उन्हें देख कर वह अत्यंत अनिच्छा से वहाँ से उठने लगा। उसने सोचा था कि शायद है कोई, बैठने को कहे। परंतु लोगों को मालूम भी नहीं हुआ कि कोई आया था और जा रहा है!
'माधव महारज के जमाने में ताँगेवालों को ये आफत नहीं थी मौलवी सॉब! मैंने बहुत जमाना देखा है! कई सुपरडंट आए, चले गए, कोतवाल आए, निकल गए। पर अब पुलिसवाला ताँगे में मुफ्त बैठेगा भी, और नंबर भी नोट करेगा...' ताँगेवाले ने कहा।
होटलवाला जो अब तक मौलवी साहब से कुछ खास बुद्धिमानी की बात कर रहा था, उसने अब जोर से बोलना शुरू किया! धोती की तहमत बाँधे, बहुत दुबला, नाटे कद का एक अधेड़ हँसमुख आदमी था। वह बहुत बातूनी, और बहुत खुशमिजाज आदमी और अश्लील बातों से घृणा करनेवाला, एक खास ढंग से संस्कारशील और मेहनती मालूम होता था। उसने कहा, 'मौलवी सॉब, दुनिया यों ही चलती रहेगी। मैंने कई कारोबार किए। देखा, सबमें मक्कारी है। और कारोबारी की निगाह में मक्कारी का नाम दुनियादारी है। पुलिसवाले भी मक्कार हैं - ताँगेवाले कम मक्कार नहीं हैं। वह जैनुल आबेदीन-मिर्जावाड़ी में रहने वाला... सुना है आपने किस्सा!'
मौलवी साहब ठहाका मार कर हँस पड़े। 'या अल्लाह' कहते हुए दाढ़ी पर दो बार हाथ फेरा और अपनी उकताहट को छिपाते हुए - मौलवी साहब को एक कप चाय और बिस्कुट मुफ्त या उधार लेना था - आँखों में मनोरंजन विस्मय - कुढ़ कर होटलवाले की बात सुनने लगे।
होटलवाले ने अपने जीवन का रहस्योद्घाटन करने से डर कर बात को बदलते हुए कहा, 'मैं आपको किस्सा सुनाता हूँ। दुनिया में बदमाशी है, बदतमीजी है। है, पर करना क्या? गालियों से तो काम नहीं चलता, क्यों रहीमबक्श (ताँगेवाले की ओर संकेत कर) ताँगेवाले बहुत गालियाँ देते हैं! दूसरे, सड़क पर से गुजरती हुई औरतों को देख - चाहे वे मारवाड़िनियाँ ही हों ढिल्लमढाल पेटवाली, बस इन्हें फौरन लैला याद आ जाती है! यह देख कर मेरी रूह काँपती है। मौलवी सॉब, मेरा दिल एक सच्चे सैयद का दिल है! एक दफा क्या हुआ कि हजरत अली अपने महल में बैठे हुए थे। और राज-काज देख रहे थे कि इतने में दरबान ने कहा कि कुछ मिस्त्री सौदागर आए हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। अब उनमें का एक सौदागर आलिम था।'
मौलवी सिर्फ उसके चेहरे को देख रहे थे जिस पर अनेक भावनाएँ उमड़ रहीं थीं, जिससे उसका चिपका - काला चेहरा और भी विकृत मालूम होता था। दूसरे वह यह अनुभव कर रहे थे कि यह अपना ज्ञान बघार रहा है और ज्ञान का अधिकार तो उन्हें है। तीसरे, उन्होंने यह योग्य समय जान कर कहा, 'भाई, एक कप चाय और बुलवा दो।'
चाय का नाम सुन कर कुरसी पर बैठे हुए युवक ने कहा, 'एक कप यहाँ भी।'
पीछे से फटी चड्ढी पहने हुए गंदा लड़का ऊँघ रहा था! वह ऊँघता हुआ ही चाय लाने लगा। ताँगेवाला रहीमबख्श बातों को गौर से सुन रहा था। वह जानना चाहता था कि इस कहानी का ताँगेवालों से क्या संबंध है!
होटलवाले ने कहना शुरू किया, उनमें का एक सौदागर आलिम था। उसने हजरत अली का नाम सुन रखा था कि गरीबों के ये सबसे बड़े हिमायती हैं। शानो-शौकत बिलकुल पसंद नहीं करते। और अब देखता क्या है कि महल की दीवारें संगमरमर से बनी हुई हैं, जिसमें ख्वाब-कोहके हीरे दरवाजों के मेहराबों पर जड़े हुए हैं और चबूतरा काले चिकने संगमूसे का बना हुआ है। हरे-हरे बाग हैं और फव्वारे छूट रहे हैं। वह मन-ही-मन मुसकराया। गरमी पड़ रही थी, और रूमाल से बँधे हुए सिर से पसीना छूट रहा था।
हजरत अली के सामने जब माल की कीमत नक्की हो चुकी, तो सौदागर उनकी मेहरबान सूरत से खिंच कर बोला, 'बादशाह सलामत! सुना था कि हजरत अली गरीबों के गुलाम हैं। पर मैंने कुछ और ही देखा है। हो सकता है, गलत देखा हो।'
सौदागर अपना गट्ठा बाँधते-बाँधते कह रहे थे। हजरत अली की आँख से एक बिलजी-सी निकली। सौदागर ने देखा नहीं, उसकी पीठ उधर थी, वह अपने माल का गट्ठा बाँध रहा था!
हजरत अली ने कहा, 'ज्यादा बातें मैं आपसे नहीं कहना चाहता। आप मुझे इस वक्त महल में देखते हैं, पर हमेशा यहाँ नहीं रहता। बाजार में अनाज के बोरे उठाते हुए मुझे किसी ने नहीं देखा है।' हजरत अली की आँखें किसी खास बेचैनी से चमक रही थीं!
वे रेशम का लंबा शाही लबादा पहने हुए थे। उन्होंने उसके बंद खोले। सौदागर ने आश्चर्य से देखा कि हजरत अली मोटे बोरे के कपड़े अंदर से पहने हुए हैं।
सौदागर ने सिर नीचा कर लिया।
सैयद होटलवाले की आँखों में आँसू आ गए। मौलवी साहब ने सिर नीचा कर लिया, मानो उन्हें सौ जूते पड़ गए हों। चाय की गरमी सब खतम हो गई। ताँगेवाले को इसमें खास मजा नहीं आया। युवक अपनी कुरसी पर बैठा हुआ ध्यान से सुन रहा था।
होटलवाले ने कहा, 'असली मजहब इसे कहते हैं। मेरे पास मुस्लिम लीगी आते हैं! चंदा माँगते हैं। मुस्लिम कौम निहायत गरीब है! मुझसे पाकिस्तान नहीं माँगते। मुझसे पाकिस्तान की बातें भी नहीं करते। हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद पर मेरा विश्वास है। लेकिन मैं जरूर दे देता हूँ। 'कौमी-जंग' अखबार देखा है आपने? उसकी पॉलिसी मुझे पसंद है। लाल बावटे वालों का है। मैं उन्हें भी चंद देता हूँ। मेरा ममेरा भाई 'बिरला मिल' में है। खाता कमेटी का सेक्रेटरी है। वह मुझसे चंदा ले जाता है।'
युवक अब वहाँ बैठना नहीं चाहता था। फिर भी, सैयद साहब की बातों को पूरा सुन लेने की इच्छा थी। मालूम होता था, आज वे मजे में आ रहे हैं।
रात काफी आगे बढ़ चुकी थी। होटल के सामने म्युनिसिपल बगीचे के बड़े-बड़े दरख्त रात की गहराई में ऊँघ-से रहे थे, जिनके पीछे आधा चाँद, मुस्लिम नववधू के भाल पर लटकते हुए अलंकार के समान लग रहा था।
नवयुवक जब और चलने लगा तो मालूम हुआ कि उसके पीछे भी कोई चल रहा है। उन दोनों के पैरों की आवाज गूँज रही थी। परंतु चाँद की तरफ (जिसकी काली पृष्ठभूमि भी कुछ आरुण्य लिए थी, मानो किसी मुग्ध रुचिर चेहरे पर खिली हुई लाल मिठास हो), जो घने दरख्तों के पीछे से उठ रहा था, वह युवक मुँह उठाए देखता जा रहा था। विशाल, गहरा काला, शुक्रतारकालोकित आकाश और नीचे निस्तब्ध शांति जो दरख्तों की पत्तियों में भटकने वाले पवन की क्रीड़ा में गा उठती थी।
युवक ऐसी लंबी एकांत रात में अर्ध-अपरिचित नगर की राह में अनुभव कर रहा था कि मानो नग्न आसमान, मुक्त दिशा और (एकाकी स्वपथचारी सौंदर्य के उत्सा-सा, व्यक्तिनिरपेक्ष मस्त आत्मधारा के खुमार-सा) नित्य नवीन चाँद से लाखों शक्ति-धाराएँ फूट कर नवयुवक के हृदय में मिल रही हों। नग्न, ठंडे पाषाण-आसमान और चाँद की भाँति ही - उसी प्रकार, उसका हृदय नग्न और शुभ्र शीतल हो गया है। द्रव्य की गतिमयी धारा ही उसके हृदय में बह रही है। पाषाण जिस प्रकार प्रकृति का अविभाज्य अंग है, मनुष्य प्रकृति पर अधिकार करके भी अपने रूप से उसका अविभाज्य अंग है।
चाँद धीरे-धीरे आसमान में ऊपर सरक रहा था। वृक्षों का मर्मर रात के सुनसान अँधेरे में स्वप्न की भाँति चल रहा था, परस्पर-विरोधी विचित्रगति ताल के संयोग-सा।
जो छाया दो कदम पीछे चल रही थी, वह नवयुवक के साथ हो गई। नवयुवक ने देखा कि सफेद, नाजुक, लाठी के हिलते त्रिकोण पर चाँद की चाँदनी खेल रही है; लंबी और सुरेख नाक की नाजुक कगार पर चाँद का टुकड़ा चमक रहा है, जिससे मुँह का करीब-करीब आधा भाग छायाच्छन्न है। और दो गहरी छोटी आँखें चाँदनी और हर्ष से प्रतिबिंबित हैं। उस वृद्ध मौलबी के चेहरे को देख कर नवयुवक को डी.एच. लॉरेन्स का चित्र याद आ गया! उस अर्द्ध-वृद्ध ने आते ही अपनी ठेठ प्रकृति से उत्सुक हो कर पूछा, 'आप कहाँ रहते है?'
वृद्ध के चेहरे पर स्वाभाविक अच्छाई हँस रही थी। इस नए शहर के (यद्यपि नवयुवक पाँच साल पहले यहीं रहता था) अजनबीपन में उसे इस मौलवी का स्वाभाविक अच्छाई से हँसता चेहरा प्रिय मालूम हुआ। उसने कहा, 'मैं इस शहर से भलीभाँति वाकिक नहीं हूँ। सराय में उतरा हूँ। नींद आ रही थी, इसलिए बाहर निकल पड़ा हूँ।'
होटल में बैठा हुआ यह वृद्ध मौलवी सैयद से हार गया था, मानो उसकी विद्वत्ता भी हार गई थी। इस हार से मन में उत्पन्न हुए अभाव और आत्मलीन जलन को वह शांत करना चाहता था। 'सैयद सॉब बहुत अच्छे आदमी हैं, हम लोगों पर उनकी बड़ी मेहरबानी है।'
नयुवक ने बात काट कर पूछा, 'आप कहाँ काम करते हैं?'
'मैं मस्जिद मदरसे में पढ़ाता हूँ। जी हाँ, गुजर करने के लिए काफी हो जाता है।' उसकी आँखें सहसा म्लान हो गईं और वह चुप हो कर, गरदन झुका कर, नीचे देखने लगा। फिर कहा, 'जी हाँ, दस साल पहले शादी हो चुकी थी। मालूम नहीं था कि वह गहने समेट करके चंपत हो जाएगी। ...तब से इस मस्जिद में हूँ।'
युवक ने देखा कि बूढ़ा एक ऐसी बात कह गया है जो एक अपरिचित से कहना नहीं चाहिए। बूढ़े ने कुछ ज्यादा नहीं कहा। परंतु इतने नैकट्य की बात सुन कर युवक की सहानुभूति के द्वार खुल गए। उसने बूढ़े की सूरत से ही कई बातें जान लीं, वही दु:ख जो किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक कुचले मध्यवर्गीय के जीवन में मुँह फाड़े खड़ा हुआ है।
'जी हाँ, मस्जिद में पाँच साल हो गए, पंधरा रुपया मिलते हैं, गुजर कर लेता हूँ। लेकिन अब मन नहीं लगता। दुनिया सूनी-सूनी-सी लगती है। इस लड़ाई ने एक बात और पैदा कर दी है - दिलचस्पी! रेडियो सुनने में कभी नागा नहीं करता। रोज कई अखबार टटोल लेता हूँ। जी हाँ, एक नई दिलचस्पी। किताब पढ़ने का मुझे शौक जरूर है। पर मैं तालीमयफ्ता हूँ नहीं। तो, गर्जे कि समझ में नहीं आती।'
बूढ़ा अपनी नर्म, रेशमी, सितार के हलके तारों की गूँज-सी आवाज में कहता जा रहा था। बातें मामूली तथ्यात्मक थीं, परंतु उनके आस-पास भावना का आलोकवलय था। उसकी जिंदगी में आहत भावनाओं की जो तर्कहीन शक्ति थी, वह उसकी बातों की साधारणता में अपूर्व वैयक्तिक रंग भर देती थी।
युवक को यह अच्छा लगा। प्रिय मालूम हुआ। एक क्षण में उसने अपनी सहानुभूति की जादुई आँख से जान लिया कि कोई असंगत (अजीब) मस्जिद होगी, जहाँ रोज चुपचाप लोग यंत्रचालित-सी कतार में प्रार्थना पढ़ते होंगे। और उसकी सूनी, खाली, दूसरी मंजिल पर यह असंतुष्ट और जीवनपूर्ण अर्द्ध-वृद्ध छोटे-छोटे मैले-कुचैले लड़के-लड़कियों को दुपहर में पढ़ाता होगा। अपने लड़कों की ऊधम से परेशान माँ-बाप उन्हें काम में जुटाए रखने के लिए मदरसे में भेज देते होंगे, और यह अनमने भाव से पढ़ाता होगा और अपनी जिंदगी, दुनिया और दुपहर का सारा क्रुद्ध सूनापन इसके दिल में बेचैनी से तड़पता होगा...।
उसने मौलवी से पूछा, 'अपकी उम्र क्या होगी!'
युवक ने देखा कि मौलवी को यह सवाल अच्छा लगा। उसका चेहरा और भी कोमल होता-सा दिखाई दिया। उसने कहा, 'सिर्फ चालीस। यद्यपि मैं पचास साल के ऊपर मालूम होता हूँ। अजी, इन पाँच सालों ने मुझको खा डाला। फिर भी मैं कमजोर नहीं हूँ। काफी हट्टा-कट्टा हूँ।'
मौलवी यह सिद्ध करना चाहता था कि अभी वह युवक है। जीवन की स्वाभाविक, स्वातंत्र्यर्ण, उच्छृंखल आकांक्षा-शक्तियाँ उसके शरीर में तारल्य भर देती थीं। उसके चलने में, बातचीत में वह अंतिमता नहीं थी जो शैथिल्य और उदासी में पक्वता का आभास पैदा कर देती हैं। उसने चालीस ठीक कहा था और नवयुवक को भी उसकी बात पर अविश्वास करने की इच्छा न हुई।
'ओफ्फो, तो आप जवान हैं।' युवक ने थम कर आगे कहा, 'तो आपका दिमाग लड़ाई पर जरूर चलता होगा...'
'अरे, साहब! कुछ न पूछिए, सैयद साहब मुझसे परेशान हैं।'
'आप 'कौमी जंग' पढते हैं? आपके होटल में तो मैंने अभी ही देखा है।'
'कौमी-जंग तो हमारी मस्जिद में भी आता है! हमारे सबसे बड़े मौलवी परजामंडल के कार्यकर्ता हैं। जमीयत-उल-उलेमा हिंद के मुअज्जिज हैं। वहीं के उलेमा हैं। सब तरह के अखबार खरीदते हैं। यहाँ उन्होंने मुस्लिम-फारवर्ड ब्लॉक खोल रखा है।'
युवक को यहाँ की राजनीति में उलझने की कोई जरूरत नहीं थी। फिर भी, उससे अलग रहने की भी कोई इच्छा नहीं थी। इतने में एक गली आ गई जिसमें मुड़ने के लिए मौलवी तैयार दिखाई दिया। युवक ने सिर्फ इतना ही कहा, 'किताबों के लिए हम आपकी मदद करेंगे। अब तो मैं यहाँ हूँ कुछ दिनों के लिए। कहाँ मुलाकात होगी आपसे?'
'सैयद साहब की होटल में। जी हाँ, सुबह और शाम!'
मौलवी साहब के साथ युवक का कुछ समय अच्छा कटा। वह कृतज्ञ था। उसने धन्यवाद दिया नहीं। उसकी जिंदगी में न मालूम कितने ही ऐसे आदमी आए हैं जिन्होंने उस पर सहज विश्वास कर लिया, उसकी जिंदगी में एक निर्वैयक्तिक गीलापन प्रदान किया। जब कभी युवक उन पर सोचता है। उनके झरनों ने उनकी जिंदगी को एक नदी बना दिया। उनमें से सब एक सरीखे नहीं थे। और न उन सबको उसने अपना व्यक्तित्व दे दिया था। परंतु उनके व्यक्तित्व की काली छायाओं, कंटकों और जलते हुए फास्फोरिक द्रव्यों, उनके दोषों से उसने नाक-भौं नहीं सिकोड़ी थी। अगर वह स्वयं कभी आहत हो जाता, तो एक बार अपना धुआँ उगल चुकने के बाद उनके व्रणों को चूमने और उनका विष निकाल फेंकने के लिए तैयार होता। उनके व्यक्तित्व की बारीक से बारीक बातों को सहानुभूति के मायक्रोस्कोप (बृहद्दर्शक ताल) से बड़ा करके देखने में उसे वही आनंद मिलता था, जो कि एक डॉक्टर को। और उसका उद्देश्य भी एक डॉक्टर का ही था। उसमें का चिकित्सक एक ऐसा सीधा-सादा हकीम था, जो दुनिया की पेटेंट दवाइयों के चक्कर में न पड़ कर अपने मरीजों से रोज सुबह उठने, व्यायाम करने, दिमाग को ठंडा रखने और उसको दो पैसे की दो पुड़िया शहद के साथ चाट लेने की सलाह देता था। सहानुभूति की एक किरण, एक सहज स्वास्थ्यपूर्ण निर्विकार मुसकान का चिकित्सा-संबंधी महत्व सहानुभूति के लिए प्यासी, लँगड़ी दुनिया के लिए कितना हो सकता है - यह वह जानता था! इसलिए वह मतभेद और परस्पर पैदा होने वाली विशिष्ट विसंवादी कटुताओं को बचा कर निकल जाता था। वह उन्हें जानता था और उसकी उसे जरूरत नहीं थी! दुनिया की कोई ऐसी कलुषता नहीं थी जिस पर उलटी हो जाय - सिवा विस्तृत सामाजिक शोषणों और उनके उत्पन्न दंभों और आदर्शवाद के नाम पर किए गए अंध अत्याचारों, यांत्रिक नैतिकताओं और आध्यात्मिक अहंताओं की तानाशाहियों को छोड़ कर! दुनिया के मध्यवर्गीय जनों के अनेक विषों को चुपचाप वह पी गया था, और राह देख रहा था सिर्फ क्रांति-शक्ति की! परंतु इससे उसको एक नुकसान भी हुआ था! व्यक्ति उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं था, व्यक्तित्व अधिक, चाहे वह व्यक्तित्व मामूली ही हो और वह भी तभी जब तक उसकी जिज्ञासा और उष्णता का तालाब सूख न जाए। उसकी उष्णता का दृष्टिकोण भी काफी अमूर्त था क्योंकि उसके व्यक्तित्व का उद्देश्य अमूर्त था। इसलिए अपने आप में व्यक्ति उससे यदा-कदा छूट जाता था, सिवा उनके जो उसकी धड़कनों और रक्त के साथ मिल गए हैं! हकिम मरीजों को फौरन भूल जाते हैं, और मजे के लिए और मर्ज के साथ-साथ वे याद आते है। परिणामत: उसकी सहज उष्णता पा कर व्यक्ति उसके साथ एक हो जाते, अपने को नग्न कर देते; और फिर उससे नाना प्रकार की अपेक्षाएँ करने लगते जो संभव होना असंभव था।
मौलवी जब गली में मुड़ कर गया तो युवक की आँखें उस पर थीं। मौलवी का लंबा, दुबला और श्वेत वस्त्रवृत सारा शरीर उसे एक चलता-फिरता इतिहास मालूम हुआ। उसकी दाढ़ी का त्रिकोण, आँखों की चपल-चमक और भावना-शक्तियों से हिलते कपोलों का इतिहास जान लेने की इच्छा उसमें दुगुनी हो गई।
तब सड़क के आधे भाग पर चाँदनी बिछी थी और आधा भाग चंद्र के तिरछे होने के कारण छायाच्छन्न हो कर काला हो गया था। उसका कालापन चाँदनी से अधिक उठा हुआ मालूम हो रहा था।
युवक के सामने समस्याएँ दो थीं। एक आराम की, दूसरी आराम के स्थान की। और दो रास्ते थे। एक, कि रात-भर घूमा जाए - रात के समाप्त होने में सिर्फ साढ़े तीन घंटे थे और दूसरे, स्टेशन पर कहीं भी सो लिया जाए!
कुछ सोच-विचार कर उसने स्टेशन का रास्ता लिया।
उसके शरीर में तीन दिन के लगातार श्रम की थकान थी। और उसके पैर शरीर का बोझ ढोने से इनकार कर रहे थे। परंतु जिस प्रकार जिंदगी में अकेले आदमी को अपनी थकान के बावजूद भोजन खुद ही तैयार करना पड़ता है - तभी तो पेट भर सकता है - उसी प्रकार उसके पैर चुपचाप, अपने दु:ख की कथा अपने से ही कहते हुए अपने कार्य में संलग्न थे।
उसको एक बार मुड़ना पड़ा। वह एक कम चौड़ा रास्ता था जिसके दोनों ओर बड़ी-बड़ा अट्टालिकाएँ चुपचाप खडी थीं, जिसके पैरों-नीचे बिछा हुआ रास्ता दो पहाड़ियों में से गुजरे हुए रास्ते की भाँति गड्ढे में पड़ा हुआ मालूम होता था। बाईं ओर की अट्टालिकाओं के ऊपरी भाग पर चाँदनी बिछी हुई थी।
थकान से शून्य मन में नींद के झोंके आ रहे थे, परंतु एक डर था पुलिसवाले का जो अगर रास्ते में मिल जाए जो उसके संदेहों को शांत करना मुश्किल है! डर इसलिए भी अधिक है कि रास्ता अँधेरे से ढँका हुआ है, सिर्फ अट्टालिकाओं पर गिरी हुई चाँदनी के कुछ-कुछ प्रत्यावर्तित प्रकाश से रास्ते का आकार सूझ रहा है।
मन में शून्यता की एक और बाढ़। नींद का एक और झोंका। रास्ता दोनों ओर से बंद होने के कारण शीत से बचा हुआ है - उसमें अधिक गरमी है।
युवक कैसे तो भी चल रहा है! नींद के गरम लिहाफ में सोना चाहता है। नींद का एक और झोंका! मन में शून्यता की एक और बाढ़।
युवक के पैरों में कुछ तो भी नरम-नरम लगा - अजीब, सामान्यत: अप्राप्य, मनुष्य के उष्ण शरीर-सा कोमल! उसने दो-तीन कदम और आगे रखे। और उसका संदेह निश्चत में परिवर्तित हो गया। उसका शरीर काँप गया। उसकी बुद्धि, उसका विवेक काँप गया। वह यदि कदम नहीं रखता हैं तो एक ही शरीर पर - न जाने वह बच्चे का है या स्त्री का, बूढ़े का या जवान का - उसका सारा वजन एक ही पर जा गिरे। वह क्या करे? वह भागने लगा एक किनारे की ओर। परंतु कहाँ-वहाँ तक आदमी सोए हुए थे उसके शरीर की गरम कोमलता उसके पैरों से चिपक गई थी। वहीं एक पत्थर मिला; वह उस पर खड़ा हो गया, हाँफता हुआ। उसके पैर काँप रहे थे। वह आँखे फाड़-फाड़ कर देख रहा था। परंतु अँधेरे के उस समुद्र में उसे कुछ नहीं दीखा। यह उसके लिए और भी बुरा हुआ। उसका पाप यों ही अँधेरे में छिपा रह जाएगा! उसकी विवेक-भावना सिटपिटा कर रह गई; उसको ऐसा धक्का लगा कि वह सँभलने भी नहीं पाया। वह पुण्यात्मा विवेक शक्ति केवल काँप रही थी!
युवक के मन में एक प्रश्न, बिजली के नृत्य की भाँति मुड़ कर मटक-मटक कर, घूमने लगा - क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जग कर, जाग्रत हो कर, उसको डंडे मार कर चूर कर देते हैं - क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया?
परंतु इसका जवाब क्या हो सकता है?
वह हारा-सा, सड़क के किनारे-किनारे चलने लगा! मानो उस गहरे अँधेरे में भी भूखी आत्माओं की हजार-हजार आँखें उसकी बुजदिली, पाप और कलंक को देख रहीं हों। स्टेशन की ओर जानेवाली सीधी सड़क मिलते ही युवक ने पटरी बदल ली।
लंबी सीधी सड़क पर चाँदनी आधी नहीं थी क्योंकि दोनों ओर अट्टालिकाएँ नहीं थीं; केवल किनारे पर कुछ-कुछ दूरियों से छोटे-छोटे पेड़ लगे हुए थे। मौन, शीतल चाँदनी सफेद कफन की भाँति रास्ते पर बिछती हुई दो क्षितिजों को छू रही थी। एक विस्तृत, शांत खुलापन युवक को ढँक रहा था और उसे सिर्फ अपनी आवाज सुनाई दे रही थी - पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय आत्म-संतोषियों का घोर पाप। बंगाल की भूख हमारे चरित्र-विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्टा कर रहा था, उसका हृदय काँप जाता था, और विवेक-भावना हाँफने लगती थी।
उस लंबी सुदीर्घ श्वेत सड़क पर वह युवक एक छोटी-सी नगण्य छाया हो कर चला जा रहा था। ।...।.।।।
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2
पक्षी
और दीमक /
गजानन माधव मुक्तिबोध
बाहर
चिलचिलाती हुई दोपहर है लेकिन इस कमरे में ठंडा मद्धिम उजाला है। यह
उजाला इस बंद खिड़की की दरारों से आता है। यह एक चौड़ी मुँडेरवाली बड़ी खिड़की
है, जिसके
बाहर की तरफ, दीवार
से लग कर, काँटेदार
बेंत की हरी-घनी झाड़ियाँ
हैं। इनके ऊपर एक जंगली बेल चढ़ कर फैल गई है और उसने आसमानी रंग के
गिलास जैसे अपने फूल प्रदर्शित कर रखे हैं। दूर से देखनेवालों को लगेगा कि
वे उस बेल के फूल नहीं, वरन
बेंत की झाड़ियों के अपने फूल हैं।
किंतु
इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि उस लता ने अपनी घुमावदार चाल से न केवल बेंत की डालों को, उनके काँटों से बचते हुए, जकड़ रखा है, वरन उसके कंटक-रोमोंवाले पत्तों के
एक-एक हरे फीते को समेट कर, कस
कर, उनकी
एक रस्सी-सी बना डाली है; और
उस पूरी झाड़ी पर अपने फूल
बिखराते-छिटकाते हुए,
उन सौंदर्य-प्रतीकों को सूरज और चाँद के सामने कर दिया
है।
लेकिन, इस खिड़की को मुझे अकसर बंद रखना पड़ता
है। छत्तीसगढ़ के इस इलाके
में, मौसम-बेमौसम
आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्होंने मेरी खिड़की के बंद पल्लों को ढीला कर डाला है।
खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है
कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाड़ियों के भीतर जो
छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं।
वहाँ से
कभी-कभी उनकी आवाजें, रात-बिरात, एकाएक सुनाई देती हैं। वे तीव्र भय की रोमांचक
चीत्कारें हैं क्योंकि वहाँ अपने शिकार की खोज में एक भुजंग आता रहता
है। वह, शायद
उन तरफ की तमाम झाड़ियों के भीतर रेंगता फिरता है।
एक
रात, इसी
खिड़की में से एक भुजंग मेरे कमरे में भी आया। वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पी कर के, सुस्त हो कर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह 'कैरियर'
पर, जिस्म
की लपेट में, छिपा
हुआ था और पूँछ चमकदार 'हैंडिल' से लिपटी हुई थी। 'कैरियर'
से ले कर 'हैंडिल' तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों
से कस लिया था। उसकी वह काली-लंबी-चिकनी
देह आतंक उत्पन्न करती थी।
हमने
बड़ी मुश्किल से उसके मुँह को शिनाख्त किया। और फिर एकाएक 'फिनाइल'
से उस पर हमला करके उसे बेहोश कर डाला। रोमांचपूर्ण थे हमारे
वे व्याकुल
आक्रमण! गहरे भय की सनसनी में अपनी कायरता का बोध करते हुए, हम लोग,
निर्दयतापूर्वक,
उसकी छटपटाती देह को लाठियों से मारे जा रहे थे।
उसे
मरा हुआ जान, हम
उसका अग्नि-संस्कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डाल कर
खड़े हुए हम लोग हैरत में आ कर, एक
कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप
की ही चर्चा होती रही।
इसी
खिड़की से लगभग छह गज दूर, बेंत
की झाड़ियों के उस पार, एक तालाब
है... बड़ा भारी तालाब, आसमान
का लंबा-चौड़ा आईना, जो
थरथराते हुए मुस्कराता
है। और उसकी थरथराहट पर किरनें नाचती रहती हैं।
मेरे
कमरे में जो प्रकाश आता है, वह
इन लहरों पर नाचती हुई किरनों
का उछल कर आया हुआ प्रकाश है। खिड़की की लंबी दरारों में से
गुजर कर वह प्रकाश, सामने की दीवार पर चौड़ी मुँडेर के नीचे
सुंदर झलमलाती हुई आकृतियाँ
बनाता है।
मेरी
दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं
मुग्ध हूँ कि बाहर के लहराते तालाब
ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्छवि मेरी दीवार
पर आँक दी है।
काश, ऐसी भी कोई मशीन होती जो दूसरों के
हृदयकंपनों को, उनकी
मानसिक हलचलों को, मेरे
मन के परदे पर चित्र रूप में उपस्थित कर सकती।
उदाहरणत:, मेरे सामने इसी पलंग पर, वह जो नारी-मूर्ति बैठी है, उसके व्यक्तित्व के रहस्य को मैं जानना
चाहता हूँ, वैसे, उसके बारे में जितनी गहरी जानकारी मुझे है, शायद और किसी को नहीं।
इस
धुँधले अँधेरे कमरे में वह मुझे सुंदर दिखाई दे रही है। दीवार पर गिरे
हुए प्रत्यावर्तित प्रकाश का पुन: प्रत्यावर्तित प्रकाश, नीली चूडियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्यास
के पन्नों पर, ध्यानमग्न
कपोलों पर
और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में
(वह उपन्यास के जगत में और मैं अपने खयालों के रास्तों पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधुले कमरे में गहन
साहचर्य के संबंध-सूत्र तड़प
रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।
बावजूद
इसके, यह
कहना ही होगा कि मुझे इसमें 'रोमांस' नहीं दीखता। मेरे सिर का दाहिना हिस्सा सफेद हो
चुका है। अब तो मैं केवल आश्रय का
अभिलाषी हूँ, ऊष्मापूर्ण
आश्रय का...
फिर
भी मुझे शंका है। यौवन के मोह-स्वप्न उद्दाम आत्मविश्वास अब मुझमें
नहीं हो सकता। एक वयस्क पुरुष का अविवाहिता वयस्का स्त्री से प्रेम
भी अजीब होता है। उसमें उद्बुद्ध इच्छा के आग्रह के सा्थ-साथ जो अनुभवपूर्ण
ज्ञान का प्रकाश होता है, वह
पल-पल पर शंका और संदेह को
उत्पन्न करता है।
श्यामला
के बारे में मुझे शंका रहती है। वह ठोस बातों की बारीकियों का बड़ा आदर करती है। वह व्यवहार की
कसौटी पर मनुष्य को परखती है। वह
मुझे अखरता है। उसमें मुझे एक ठंडा पथरीलापन मालूम होता है।
गीले-सपनीले रंगों
का श्यामला में सचमुच अभाव है।
ठंडा
पथरीलापन उचित है, या
अनुचित, यह
मैं नहीं जानता। किंतु जब
औचित्य के सारे प्रमाण,
उनका सारा वस्तु-सत्य पॉलिशदार टीन-सा चमचमा उठता
है, तो
मुझे लगता है - बुरे फँसे इन फालतू की अच्छाइयों में, दूसरी तरफ मुझे अपने भीतर ही कोई गहरी कमी
महसूस होती है और खटकने लगती है।
ऐसी
स्थिति में मैं 'हाँ' और 'ना' के बीच में रह कर, खामोश,
'जी हाँ' की सूरत पैदा कर देता हूँ। डरता सिर्फ
इस बात से हूँ कि कहीं यह 'जी हाँ' 'जी हुजूर'
न बन जाए। मैं अतिशय शांति-प्रिय व्यक्ति हूँ। अपनी शांति भंग
न हो, इसका
बहुत खयाल रखता हूँ। न झगड़ा करना चाहता हूँ,
न मैं किसी
झगड़े में फँसना चाहता...
उपन्यास
फेंक कर श्यामला ने दोनों हाथ ऊँचे करके जरा-सी अँगड़ाई ली। मैं उसकी रूप-मुद्रा पर फिर से मुग्ध
होना ही चाहता था कि उसने एक
बेतुका प्रस्ताव सामने रख दिया। कहने लगी, 'चलो,
बाहर घूमने चलें।'
मेरी
आँखों के सामने बाहर की चिलचिलाती सफेदी और भयानक गरमी चमक उठी। खस के परदों के पीछे, छत के पंखों के नीचे, अलसाते लोग याद आए। भद्रता की
कल्पना और सुविधा के भाव मुझे मना करने लगे। श्यामला के झक्कीपन का एक
प्रमाण और मिला।
उसने
मुझे एक क्षण आँखों से तौला और फैसले के ढंग से कहा,
'खैर, मैं
तो जाती हूँ। देख कर चली जाऊँगी... बता दूँगी।'
लेकिन
चंद मिनटों बाद, मैंने
अपने को चुपचाप उसके पीछे चलते हुए
पाया। तब दिल में एक अजीब झोल महसूस हो रहा था। दिमाग के भीतर
सिकुड़न-सी पड़
गई थी। पतलून भी ढीला-ढाला लग रहा था,
कमीज के 'कॉलर' भी उल्टे-सीधे रहें होंगे। बाल अन-सँवरे थे ही। पैरों
को किसी-न-किसी तरह आगे ढकेले जा
रहा था।
लेकिन
यह सिर्फ दुपहर के गरम तीरों के कारण था,
या श्यामला के कारण,
यह कहना मुश्किल है।
उसने
पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखा और दिलासा देती हुई आवाज में कहा, 'स्कूल का मैदान ज्यादा दूर नहीं है।'
वह
मेरे आगे-आगे चल रही थी, लेकिन
मेरा ध्यान उसके पैरों और तलुओं
के पिछले हिस्से की तरफ ही था। उसकी टाँग, जो बिवाइयों-भरी और धूल-भरी थी, आगे बढ़ने में, उचकती हुई चप्पल पर चटचटाती थी। जाहिर
था कि ये पैर धूल-भरी
सड़कों पर घूमने के आदी हैं।
यह
खयाल आते ही, उसी
खयाल से लगे हुए न मालूम किन धागों से हो कर,
मैं श्यामला से खुद को कुछ कम,
कुछ हीन पाने लगा;
और इसकी ग्लानि से
उबरने के लिए, मैं
उस चलती हुई आकृति के साथ, उसके
बराबर हो लिया। वह कहने लगी, 'याद है शाम को बैठक है। अभी चल कर न
देखते तो कब देखते। और सबके
सामने साबित हो जाता कि तुम खुद कुछ करते नहीं। सिर्फ जबान की
कैंची चलती है।'
अब
श्यामला को कौन बताए कि न मैं इस भरी दोपहर में स्कूल का मैदान देखने
जाता और न शाम को बैठक में ही। संभव था कि 'कोरम' पूरा न होने के कारण बैठक ही स्थगित हो जाती। लेकिन श्यामला
को यह कौन बताए कि हमारे आलस्य
में भी एक छिपी हुई, जानी-अनजानी
योजना रहती है। वर्तमान सुचालन का
दायित्व जिन पर है,
वे खुद संचालन-मंडल की बैठक नहीं होने देना चाहते। अगर श्यामला
से कहूँ तो पूछेगी, 'क्यों!'
फिर
मैं जवाब दूँगा। मैं उसकी आँखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूँ। प्रेमी जो
हूँ; अपने
व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र
उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।
वैसे
भी, धूप
इतनी तेज थी कि बात करने या बात बढ़ाने की तबीयत नहीं हो रही थी।
मेरी
आँखें सामने के पीपल के पेड़ की तरफ गईं,
जिसकी एक डाल तालाब
के ऊपर, बहुत
ऊँचाई पर, दूर
तक चली गई थी। उसके सिरे पर एक बड़ा-सा भूरा पक्षी बैठा हुआ था। उसे मैंने चील समझा।
लगता था कि वह मछलियों के शिकार की
ताक लगाए बैठा है।
लेकिन
उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में,
जो दूसरी डालें ऊँची हो
कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे
हैं, मानो
वे चील की शिकायत कर रहे हों और उचक-उचक कर,
फुदक-फुदक कर, मछली
की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों।
- कि इतने में मुझे उस मैदानी-आसमानी
चमकीले खुले-खुलेपन में एकाएक, सामने
दिखाई देता है - साँवले नाटे कद पर भगवे रंग की खद्दर का बंडीनुमा कुरता, लगभग चौरस मोटा चेहरा, जिसके दाहिने गाल पर एक बड़ा-सा मसा है, और उस मसे में बारीक बाल निकले हुए।
जी
धँस जाता है उस सूरत को देख कर। वह मेरा नेता है,
संस्था का
सर्वेसर्वा है। उसकी खयाली तस्वीर देखते ही मुझे अचानक दूसरे
नेताओं की और सचिवालय
के उस अँधेरे गलियारे की याद आती है,
जहाँ मैंने इस नाटे-मोटे भगवे खद्दर-कुरतेवाले को पहले-पहले देखा
था।
उन
अँधेरे गलियारों में से मैं कई-कई बार गुजरा हुँ और वहाँ किसी मोड़
पर किसी कोने में इकट्ठा हुए, ऐसी
ही संस्थाओं के संचालकों के उतरे
हुए चेहरों को देखा है। बावजूद श्रेष्ठ पोशाक और 'अपटूडेट'
भेस के सँवलाया
हुआ गर्व, बेबस
गंभीरता, अधीर
उदासी और थकान उनके व्यक्तित्व पर राख-सी
मलती है। क्यों?
इसलिए
कि माली साल की आखिरी तारीख को अब सिर्फ दो या तीन दिन बचे हैं। सरकारी 'ग्रांट'
अभी मंजूर नहीं हो पा रही है,
कागजात अभी
वित्त-विभाग में ही अटके पड़े हैं। आफिसों के बाहर, गलियारे के दूर किसी कोने
में, पेशाबघर
के पास, या
होटलों के कोनों में क्लर्कों की मुट्ठियाँ गरम की जा रहीं हैं, ताकि 'ग्रांट' मंजूर हो और जल्दी मिल जाए।
ऐसी
ही किसी जगह पर मैंने इस भगवे-खद्दर कुरतेवाले को जोर-जोर से अंगरेजी बोलते हुए देखा था। और, तभी मैंने उसके तेज मिजाज और फितरती
दिमाग का
अंदाजा लगाया था।
इधर, भरी दोपहर में श्यामला का पार्श्व-संगीत
चल ही रहा है, मैं उसका
कोई मतलब नहीं निकाल पाता। लेकिन न मालूम कैसे,
मेरा मन उसकी बातों से
कुछ संकेत ग्रहण कर,
अपने ही रास्ते पर चलता रहता है। इसी बीच उसके एक वाक्य
से मैं चौंक पड़ा, 'इससे
अच्छा है कि तुम इस्तीफा दे दो। अगर काम
नहीं कर सकते तो गद्दी क्यों अड़ा रखी है।'
इसी
बात को कई बार मैंने अपने से भी पूछा था। लेकिन आज उसके मुँह से ठीक
उसी बात को सुन कर मुझे धक्का-सा लगा। और मेरा मन कहाँ का कहाँ चला गया।
एक
दिन की बात! मेरा सजा हुआ कमरा! चाय की चुस्कियाँ! कहकहे! एक पीले रंग के तिकोने चेहरेवाला मसखरा, ऊलजलूल शख्स! बगैर यह सोचे कि जिसकी वह
निंदा कर रहा है, वह
मेरा कृपालु मित्र और सहायक है, वह
शख्स बात बढ़ाता
जा रहा है।
मैं
स्तब्ध! किंतु, कान
सुन रहे हैं। हारे हुए आदमी-जैसी मेरी सूरत,
और मैं!
वह
कहता जा रहा है, 'सूक्ष्मदर्शी
यंत्र? सूक्ष्मदर्शी
यंत्र कहाँ हैं?'
'हैं तो। ये हैं। देखिए।' क्लर्क कहता है। रजिस्टर बताता है।
सब कहते
हैं-हैं, हैं।
ये हैं। लेकिन, कहाँ
हैं? यह
तो सब लिखित रूप में हैं, वस्तु-रूप
में कहाँ हैं।
वे
खरीदे ही नहीं गए! झूठी रसीद लिखने का कमीशन विक्रेता को, शेष रकम जेब में। सरकार से पूरी रकम
वसूल!
किसी
खास जाँच के एन मौके पर किसी दूसरे शहर की...संस्था से उधार ले
कर, सूक्ष्मदर्शी
यंत्र हाजिर! सब चीजें मौजूद हैं। आइए,
देख जाइए। जी
हाँ, ये
तो हैं सामने। लेकिन जांच खत्म होने पर सब गायब,
सब अंतर्धान।
कैसा जादू है। खर्चे का आँकडा खूब फुला कर रखिए। सरकार के पास
कागजात भेज दीजिए।
खास मौकों पर ऑफिसों के धुँधले गलियारों और होटलों के कोनों में मुट्ठियाँ
गरम कीजिए। सरकारी 'ग्रांट' मंजूर! और उसका न जाने कितना हिस्सा, बड़े ही तरीके से, संचालकों की जेब में! जी!'
भरी
दोपहर में मैं आगे बढ़ा जा रहा हूँ। कानों में ये आवाजों गूँजती जा रही हैं। मैं व्याकुल हो
उठता हूँ। श्यामला का पार्श्व-संगीत
चल रहा है। मुझे जबरदस्त प्यास लगती है! पानी, पानी!
-कि इतने में एकाकए विश्वविद्यालय के
पुस्तकालय की ऊँचे रोमन स्तंभोंवाली
इमारत सामने आ जाती है। तीसरा पहर! हलकी धूप! इमारत की पत्थर-सीढ़ियाँ, लंबी,
मोतिया!
सीढ़ियों
से लग कर, अभरक-मिली
लाल मिट्टी के चमचमाते रास्ते पर सुंदर काली 'शेवरलेट'।
भगवे
खद्दर-कुरते वाले की 'शेवरलेट', जिसके जरा पीछे मैं खड़ा हूँ, और देख रहा हूँ - यों ही, कार का नंबर - कि इतने में उसके चिकने
काले हिस्से
में, जो
आईने-सा चमकदार है, सूरत
दिखाई देती है।
भयानक
है वह सूरत! सारे अनुपात बिगड़ गए हैं। नाक डेढ़ गज लंबी और कितनी मोटी हो गई है। चेहरा बेहद लंबा
और सिकुड़ गया है। आँखें खड्डेदार।
कान नदारद। भूत-जैसा अप्राकृतिक रूप। मैं अपने चेहरे की उस
विद्रूपता को, मुग्धभाव
से, कुतूहल
से और आश्चर्य से देख रहा हूँ, एकटक।
कि
इतने में मैं दो कदम एक ओर हट जाता हूँ;
और पाता हूँ कि मोटर के
उस काले चमकदार आईने में मेरे गाल, ठुड्डी,
नाम, कान
सब चौड़े हो गए हैं, एकदम
चौड़े। लंबाई लगभग नदारद। मैं देखता ही रहता हूँ,
देखता ही रहता हूँ
कि इतने में दिल के किसी कोने में कई अँधियारी गटर एकदम फूट
निकलती है। वह गटर
है आत्मालोचन, दु:ख
और ग्लानि की।
और, सहसा मुँह से हाय निकल पड़ती है। उस
भगवे खद्दर-कुरते वाले से मेरा छुटकारा कब होगा,
कब होगा।
और, तब लगता है कि इस सारे जाल में, बुराई की इस अनेक चक्रोंवाली दैत्याकार
मशीन में, न
जाने कब से मैं फँसा पड़ा हूँ। पैर भिंच गए हैं,
पसलियाँ चूर हो गई हैं,
चीख निकल नहीं पाती,
आवाज हलक में फँस कर रह गई है।
कि
इसी बीच अचानक एक नजारा दिखाई देता है। रोमन स्तंभोंवाली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की ऊँची, लंबी,
मोतिया सीढ़ियों पर से उतर रही है एक आत्म-विश्वासपूर्ण गौरवमय
नारीमूर्ति।
वह
किरणीली मुस्कान मेरी ओर फेंकती-सी दिखाई देती है। मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि
उसका स्वागत कर सकूँ। मैं बदहवास हो उठता हूँ।
वह
धीमे-धीमे मेरे पास आती है। अभ्यर्थनापूर्ण मुस्काराहट के साथ कहती है, 'पढ़ी है आपने यह पुस्तक।'
काली
जिल्द पर सुनहले रोमन अक्षरों में लिखा है,
'आई विल नाट रेस्ट।'
मैं
साफ झूठ बोल जाता हूँ, 'हाँ
पढ़ी है, बहुत
पहले।'
लेकिन
मुझे महसूस होता है कि मेरे चेहरे पर से तेलिया पसीना निकल रहा है। मैं बार-बार अपना मुँह पोंछता
हूँ रूमाल से। बालों के नीचे
ललाट-हाँ, ललाट, (यह शब्द मुझे अच्छा लगता है) को रगड़
कर साफ करता हूँ।
और, फिर दूर एक पेड़ के नीचे, इधर आते हुए, भगवे खद्दर-कुरतेवाले की आकृति
को देख कर श्यामला से कहता हूँ, 'अच्छा, मै जरा उधर जा रहा हूँ। फिर
भेंट होगी।' और
सभ्यता के तकाजे से मैं उसके लिए नमस्कार के रूप में मुस्कराने की चेष्टा करता हूँ।
पेड़।
अजीब
पेड़ है, (यहाँ
रूका जा सकता है), बहुत
पुराना पेड़ है, जिसकी जड़ें
उखड़ कर बीच में से टूट गई हैं और साबित है,
उनके आस-पास की मिट्टी
खिसक गई है। इसलिए वे उभर कर ऐंठी हुई-सी लगती हैं। पेड़ क्या
है, लगभग ठूँठ
है। उसकी शाखाएँ काट डाली गई हैं।
लेकिन, कटी हुई बाँहोंवाले उस पेड़ में से नई
डालें निकल कर हवा में खेल
रही हैं! उन डालों में कोमल-कोमल हरी-हरी पत्तियाँ झालर-सी दिखाई देती हैं।
पेड़ के मोटे तने में से जगह-जगह ताजा गोंद निकल रहा है। गोंद की साँवली
कत्थई गठानें मजे में देखी जा सकती हैं।
अजीब
पेड़ है, अजीब!
(शायद, यह
अच्छाई का पेड़ है) इसलिए कि एक दिन
शाम की मोतिया-गुलाबी आभा में मैंने एक युवक-युवती को इस पेड़
के तले ऊँची
उठी हुई, उभरी
हुई, जड़
पर आराम से बैठे हुए पाया था। संभवत: वे अपने अत्यंत आत्मीय क्षणों में डूबे हुए थे।
मुझे
देख कर युवक ने आदरपूर्वक नमस्कार किया। लड़की ने भी मुझे देखा और झेंप गई। हलके झटके से उसने
अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया। लेकिन
उसकी झेंपती हुई ललाई मेरी नजरों से न बच सकी।
इस
प्रेम-मुग्ध को देख कर मैं भी एक विचित्र आनंद में डूब गया। उन्हें निरापद करने के लिए जल्दी-जल्दी
पैर बढाता हुआ मैं वहाँ से
नौ-दो ग्यारह हो गया।
यह
पिछली गर्मियों की मनोहर साँझ की बात है। लेकिन आज इस भरी दोपहरी में
श्यामला के साथ पल-भर उस पेड़ के तले बैठने को मेरी भी तबीयत हुई। बहुत
ही छोटी और भोली इच्छा है यह।
लेकिन
मुझे लगा कि शायद श्यामला मेरे सुझाव को नहीं मानेगी। स्कूल-मैदान पहुँचने की उसे जल्दी जो
है। कहने की मेरी हिम्मत ही नहीं
हुई।
लेकिन
दूसरे क्षण, आप-ही-आप, मेरे पैर उस ओर बढ़ने लगे। और ठीक उसी जगह
मैं भी जा कर बैठ गया, जहाँ
एक साल पहले वह युग्म बैठा था। देखता
क्या हूँ कि श्यामला भी आ कर बैठ गई है।
तब
वह कह रही थी, 'सचमुच
बड़ी गरम दोपहर है।'
सामने
मैदान-ही-मैदान हैं, भूरे
मटमैले! उन पर सिरस और सीसम के
छायादार विराम-चिह्र खड़े हैं। मैं लुब्ध और मुग्ध हो कर
उनकी घनी-गहरी छायाएँ
देखता रहता हूँ...
क्योंकि...
क्योंकि मेरा यह पेड़, यह
अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान
नहीं कर सकता, आश्रय
प्रदान नहीं कर सकता, (क्योंकि
वह जगह-जगह काटा
गया है) वह तो कटी शाखाओं की दूरियों और अंतरालों में से केवल तीव्र और
कष्टप्रद प्रकाश को ही मार्ग दे सकता है।
लेकिन
मैदानों के इस चिलचिलाते अपार विस्तार में एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्यामला के साथ रहने की यह जो मेरी
स्थिति है, उसका
अचानक मुझे
गहरा बोध हुआ। लगा कि श्यामला मेरी है,
और वह भी इसी भाँति चिलमिलाते गरम तत्वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है।
गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलमिलाता
हुआ उसमें अपनापन है।
तो
क्या आज ही, अगली
अनगिनत गरम दोपहरियों के पहले आज ही,
अगले कदम
उठाए जाने के पहले,
इसी समय, हाँ, इसी समय,
उसके सामने अपने दिन की गहरी छिपी हुई तहें और सतहें खोल कर रख
दूँ... कि जिससे आगे चल कर उसे गलतफहमी
में रखने, उसे
धोखे में रखने का अपराधी न बनूँ।
कि
इतने में मेरी आँखों के सामने, फिर
उसी भगवे खद्दर-कुरतेवाले की तस्वीर चमक उठी। मैं व्याकुल हो गया और उससे
छुटकारा चाहने लगा।
तो
फिर आत्म-स्वीकार कैसे करूँ, कहाँ
से शुरू करूँ!
लेकिन
क्या वह मेरी बातें समझ सकेगी? किसी
तनी हुई रस्सी पर वजन साधते
हुए चलने का, 'हाँ', और 'ना' के बीच में रह कर जिंदगी की उलझनों में फँसने
का तजुर्बा उसे कहाँ है!
हटाओ, कौन कहे।
लेकिन
यह स्त्री शिक्षिता तो है! बहस भी तो करती है! बहस कर बातों का संबंध न उसके स्वार्थ से होता है, न मेरे। उस समय हम लड़ भी तो सकते हैं।
और ऐसी लड़ाइयों में कोई स्वार्थ भी तो नहीं होता। सामने अपने दिल की सतहें
खोल देने में न मुझे शर्म रही, न
मेरे सामने उसे। लेकिन वैसा करने
में तकलीफ तो होती ही है,
अजीब और पेचीदा,
घूमती-घुमाती तकलीफ!
और
उस तकलीफ को टालने के लिए हम झूठ भी तो बोल देते हैं, सरासर झूठ, सफेद झूठ! लेकिन झूठ से सचाई और गहरी हो
जाती है, अधिक
महत्वपूर्ण और अधिक
प्राणवान, मानो
वह हमारे लिए और सारी मनुष्यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो जाते हैं।
और, यह
सतह अपने सारे निजीपन में
बिलकुल बेनिजी है। साथ ही,
मीठी भी! हाँ, उस
स्तर की अपनी विचित्र पीड़ाएँ
हैं, भयानक
संताप है, और
इस अत्यंत आत्मीय किंतु निर्वैयक्तिक स्तर पर हम एक हो जाते हैं, और कभी-कभी ठीक उसी स्तर पर बुरी तरह
लड़ भी पड़ते हैं।
श्यामला
ने कहा, 'उस
मैदान को समतल करने में कितना खर्च आएगा?'
'बारह हजार।'
'उनका अंदाज क्या है?'
'बीस हजार ।'
'तो बैठक में जा कर समझा दोगे और यह बता
दोगे कि कुल मिला कर बारह हजार से ज्यादा नामुमकिन है?'
'हाँ,
उतना मैं कर दूँगा।'
'उतना का क्या मतलब?'
अब
मैं उसे 'उतना' का क्या मतलब बताऊँ! साफ है कि उस भगवे
खद्दर- कुरतेवाले
से मैं दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता। मैं उसके प्रति वफादार रहूँगा क्योंकि मैं उसका आदमी हूँ। भले
ही वह बुरा हो, भ्रष्टाचारी
हो, किंतु
उसी के कारण ही मैं विश्वास-योग्य माना गया हूँ। इसीलिए, मैं कई महत्वपूर्ण कमेटियों का सदस्य हूँ।
मैने
विरोध-भाव से श्यामला की तरफ देखा। वह मेरा रुख देख कर समझ गई। वह कुछ नहीं बोली।
लेकिन मानो मैंने उसकी आवाज सुन ली हो।
श्यामला
का चेहरा 'चार
जनियों-जैसा' है।
उस पर साँवली मोहक दीप्ति
का आकर्षण है। किंतु उसकी आवाज... हाँ... आवाज... वह इतनी
सुरीली और मीठी है
कि उसे अनसुना करना निहायत मुश्किल है। उस स्वर को सुन कर दुनिया की अच्छी
बातें ही याद आ सकती हैं।
पता
नहीं किस तरह की परेशान पेचीदगी मेरे चेहरे पर झलक उठी कि जिसे देख कर उसने कहा, 'कहो,
क्या कहना चाहते हो।'
यह
वाक्य मेरे लिए निर्णायक बन गया। फिर भी अवरोध शेष था। अपने जीवन
का सार-सत्य अपना गुप्त-धन है। उसके गुप्त संधर्ष हैं, उसका अपना एक गुप्त नाटक है। वह प्रकट करते नहीं
बनता। फिर भी, शायद
है कि उसे प्रकट कर
देने ये उसका मूल्य बढ़ जाए, उसका
कोई विशेष उपयोग हो सके।
एक
था पक्षी। वह नीले आसमान में खूब ऊँचाई पर उड़ता जा रहा था। उसके साथ उसके पिता और
मित्र भी थे।
(श्यामला मेरे चेहरे की तरफ आश्चर्य से
देखते लगी)
सब
बहुत ऊँचाई पर उड़नेवाले पक्षी थे। उनकी निगाहें भी बड़ी तेज थीं। उन्हें दूर दूर
की भनक और दूर-दूर की महक भी मिल जाती।
एक
दिन वह नौजवान पक्षी जमीन पर चलती हुई एक बैलगाड़ी को देख लेता है।
उसमें बड़े-बड़े बोरे भरे हुए हैं। गाड़ीवाला चिल्ला-चिल्ला कर कहता है, 'दो दीमकें लो, एक पंख दो।'
उस
नौजवान पक्षी को दीमकों का शौक था। वैसे तो ऊँचे उड़नेवाले पक्षियों को हवा में ही बहुत-से कीड़े
तैरते हुए मिल जाते, जिन्हें
खा कर वे
अपनी भूख थोड़ी-बहुत शांत कर लेते।
लेकिन
दीमकें सिर्फ जमीन पर मिलती थीं। कभी-कभी पेड़ों पर-जमीन से तने पर चढ़ कर, ऊँची डाल तक, वे अपना मटियाला लंबा घर बना लेतीं।
लेकिन वैसे
कुछ ही पेड़ होते, और
वे सब एक जगह न मिलते।
नौजवान
पक्षी को लगा - यह बहुत बड़ी सुविधा है कि एक आदमी दीमकों को बोरों में भर कर बेच
रहा है।
वह
अपनी ऊँचाइयाँ छोड़ कर मँडराता हुआ नीचे उतरता है और पेड़ की एक डाल पर बैठ जाता
है।
दोनों
का सौदा तय हो जाता है। अपनी चोंच से एक पर को खींच कर तोड़ने में
उसे तकलीफ भी होती है; लेकिन
उसे वह बरदाश्त कर लेता है। मुँह में
बड़े स्वाद के साथ दो दीमकें दबा कर वह पक्षी फुर्र से उड़
जाता है।
(कहते-कहते मैं थक गया शायद साँस लेने के
लिए। श्यामला ने पलकें झपकाईं और कहा,
'हूँ')
अब
उस पक्षी को गाड़ीवाले से दीमकें खरीदने और एक पर देने में बड़ी आसानी
मालूम हुई। वह रोज तीसरे पहर नीचे उतरता और गाड़ीवाले को एक पंख दे कर
दो दीमकें खरीद लेता।
कुछ
दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन उसके पिता ने देख लिया। उसने समझाने
को कोशिश की कि बेटे, दीमकें
हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हैं, और उसके
लिए अपने पंख तो हरगिज नहीं दिए जा सकते।
लेकिन, उस नौजवान पक्षी ने बड़े ही गर्व से
अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया।
उसे जमीन पर उतर कर दीमकें खाने की चट लग गई थी। अब उसे न तो दूसरे कीड़े
अच्छे लगते, न
फल, न
अनाज के दाने। दीमकों का शौक अब उस पर हावी हो गया था।
(श्यामला अपनी फैली हुई आँखों से मुझे
देख रही थी, उसकी
ऊपर उठी हुई पलकें और भौंएँ बड़ी ही सुंदर दिखाई दे रही थीं।)
लेकिन
ऐसा कितने दिनों तक चलता। उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई। अब वह, ऊँचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे। आकाश-यात्रा
के दौरान उसे जल्दी-जल्दी पहाड़ी
चट्टानों गुंबदों और बुर्जो पर हाँफते हुए बैठ जाना पड़ता।
उसके परिवार वाले
तथा मित्र ऊँचाइयों पर तैरते हुए आगे बढ़ जाते। वह बहुत पिछड़ जाता। फिर
भी दीमक खाने का उसका शौक कम नहीं हुआ। दीमकों के लिए गाड़ीवाले को वह अपने
पंख तोड़-तोड़ कर देता रहा।
(श्यामला गंभीर हो कर सुन रही थी। अबकी
बार उसने 'हूँ' भी नहीं कहा।)
फिर
उसने सोचा कि आसमान में उड़ना ही फिजूल है। वह मूर्खों का काम है।
उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पेड़ तक पहुँच
पाता। धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम
होती गई। और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से, पेड़ की एक डाल से लगी हुई
दूसरी डाल पर, चल
कर, फुदक
कर पहुँचता। लेकिन दीमक खाने का शौक नहीं
छूटा।
बीच-बीच
में गाड़ीवाला बुत्ता दे जाता। वह कहीं नजर में न आता। पक्षी उसके इंतजार में
घुलता रहता।
लेकिन
दीमकों का शौक जो उसे था। उसने सोचा,
'मैं खुद दीमकें
ढूँढ़ँगा।' इसलिए
वह पेड़ पर से उतर कर जमीन पर आ गया;
और घास के एक लहराते
गुच्छे में सिमट कर बैठ गया।
(श्यामला मेरी ओर देखे जा रही थी। उसने
अपेक्षापूर्वक कहा 'हूँ।')
फिर
एक दिन उस पक्षी के जी में न मालूम क्या आया। वह खूब मेहनत से जमीन
में से दीमकें चुन-चुन कर, खाने
के बजाय उन्हें इकट्टा करने लगा। अब
उसके पास दीमकों के ढेर के ढेर हो गए।
फिर
एक दिन एकाएक वह गाड़ीवाला दिखाई दिया। पक्षी को बड़ी खुशी हुई। उसने
पुकार कर कहा, 'गाड़ीवाले, ओ गाड़ीवाले! मैं कब से तुम्हारा
इंतजार कर
रहा था।'
पहचानी
आवाज सुन कर गाड़ीवाला रुक गया। तब पक्षी ने कहा,
'देखो, मैंने
कितनी सारी दीमकें जमा कर ली है।'
गाड़ीवाले
को पक्षी की बात समझ में नहीं आई। उसने सिर्फ इतना कहा, 'तो मैं क्या करूँ।'
'ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो।' पक्षी ने जवाब दिया।
गाड़ीवाला
ठठा कर हँस पड़ा। उसने कहा, 'बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।'
गाड़ीवाले
ने 'पंख' शब्द पर जोर दिया था।
(श्यामला ध्यान से सुन रही थी। उसने
कहा, 'फिर')
गाड़ीवाला
चला गया। पक्षी छटपटा कर रह गया। एक दिन एक काली बिल्ली आई और अपने मुँह में उसे दबा कर चली गई।
तब उस पक्षी का खून टपक-टपक कर
जमीन पर बूँदों की लकीर बना रहा था।
(श्यामला ध्यान से मुझे देखे जा रही थी; और उसकी एकटक निगाहों से बचने
के लिए मेरी आँखें तालाब की सिहरती-काँपती,
चिलकती-चमचमाती लहरों पर टिकी हुई थीं)
कहानी
कह चुकने के बाद, मुझे
एक जबरदस्त झटका लगा। एक भयानक प्रतिक्रिया - कोलतार-जैसी काली, गंधक-जैसी पीली-नारंगी!
'नहीं,
मुझमें अभी बहुत कुछ शेष है,
बहुत कुछ। मैं उस पक्षी-जैसा नहीं मरूँगा। मैं अभी भी उबर सकता हूँ।
रोग अभी असाध्य नहीं हुआ है। ठाठ
से रहने के चक्कर से बँधे हुए बुराई के चक्कर तोड़े जा सकते
हैं। प्राणशक्ति
शेष है, शेष
।'
तुरंत
ही लगा कि श्यामला के सामने फिजूल अपना रहस्य खोल दिया, व्यर्थ ही आत्म-स्वीकार कर डाला। कोई
भी व्यक्ति इतना परम प्रिय नहीं
हो सकता कि भीतर का नंगा। बालदार, रीछ उसे बताया जाए। मैं असीम दु:ख के खारे
मृत सागर में डूब गया।
श्यामला
अपनी जगह से धीरे से उठी, साड़ी
का पल्ला ठीक किया, उसकी सलवटें
बराबर जमाईं, बालों
पर से हाथ फेरा। और फिर (अंगरेजी में) कहा,
'सुंदर कथा है, बहुत
सुंदर!'
फिर
वह क्षण-भर खोई-सी खड़ी रही, और फिर
बोली, 'तुमने
कहाँ पढ़ी?'
मैं
अपने ही शून्य में खोया हुआ था। उसी शून्य के बीच में से मैंने कहा, 'पता नहीं... किसी ने सुनाई या मैंने
कहीं पढ़ी।'
और
वह श्यामला अचानक मेरे सामने आ गई,
कुछ कहना चाहने लगी,
मानो उस कहानी में उसकी किसी बात की ताईद होती हो।
उसके
चेहरे पर धूप पड़ी हुई थी। मुखमंडल सुंदर और प्रदीप्त दिखाई दे रहा था।
कि
इसी बीच हमारी आँखें सामने के रास्ते पर जम गईं।
घुटनों
तक मैली धोती और काली, सफेद
या लाल बंडी पहने कुछ देहाती
भाई, समूह
में चले आ रहे थे। एक के हाथ में एक बड़ा-सा डंडा था, जिसे वह अपने आगे,
सामने किए हुए था। उस डंडे पर एक लंबा मरा हुआ साँप झूल रहा
था। कला
भुजंग, जिसके
पेट की हलकी सफेदी भी झलक रही थी।
श्यामला
ने देखते ही पूछा, 'कौन-सा
साँप है यह?' वह
ग्रामीण मुख छत्तीसगढ़ी लहजे में चिल्लाया,
'करेट है बाई, करेट
।'
श्यामला
के मुँह से निकल पडा, 'ओफ्फो!
करेट तो बड़ा जहरीला साँप होता है।'
फिर
मेरी ओर देख कर कहा, 'नाग
की तो दवा भी निकली है, करेट
की तो कोई
दवा नहीं है। अच्छा किया, मार
डाला। जहाँ साँप देखो, मार
डालो, फिर
वह पनियल
साँप ही क्यों न हो ।'
और
फिर न जाने क्यों, मेरे
मन में उसका यह वाक्य गूँज उठा, 'जहाँ
साँप देखो, मार
डालो।'
और
ये शब्द मेरे मन में गूँजते ही चले गए।
कि
इसी बीच... रजिस्टर में चढ़े हुए आँकड़ों की एक लंबी मीजान मेरे सामने
झूल उठी और गलियारे के अँधेरे कोनों में गरम होनेवाली मुट्ठियों का चोर
हाथ ।
श्यामला
ने पलट कर कहा, 'तुम्हारे
कमरे में भी तो साँप घुस आया था, कहाँ
से आया था वह?'
फिर
उसने खुद ही जबाब दे लिया, 'हाँ, वह पास की खिड़की में से आया होगा।'
खिड़की
की बात सुनते ही मेरे सामने, बाहर
की काँटेदार झाड़ियाँ, बेंत
की झाड़ियाँ आ गईं, जिसे
जंगली बेल ने लपेट रखा था । मेरे खुद के तीखे काँटों के बावजूद, क्या श्यामला मुझे इसी तरह लपेट
सकेगी। बड़ा ही 'रोमांटिक' खयाल है,
लेकिन कितना भयानक।
... क्योंकि श्यामला के साथ अगर मुझे
जिंदगी बसर करनी है तो न मालूम
कितने ही भगवे खद्दर कुरतेवालों से मुझे लड़ना पड़ेगा, जी कड़ा करके लड़ाइयाँ मोल लेनी पड़ेगी और अपनी आमदनी
के जरिए खत्म कर देने होंगे।
श्यामला का क्या है! वह तो एक गाँधीवादी कार्यकर्ता की लड़की
है, आदिवासियों
की उस कुल्हाड़ी-जैसी है जो जंगल में अपने बेईमान और बेवफा साथी का सिर धड़ से अलग कर देती है।
बारीक बेईमानियों का सूफियाना अंदाज
उसमें कहाँ!
किंतु
फिर भी आदिवासियों जैसे उस अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्मा का
गौरव दिखाई देता है, मनुष्य
की महिमा दिखाई देती है, पैने
तर्क की अपनी
अंतिम प्रभावोत्पादक परिणति का उल्लास दिखाई देता है - और ये सब बाते
मेरे हृदय का स्पर्श कर जाती हैं। तो,
अब मैं इसके लिए क्या करूँ,
क्या करूँ!
और
अब मुझे सज्जायुक्त भद्रता के मनोहर वातावरण वाला अपना कमरा याद
आता है... अपना अकेला धुँधला-धुँधला कमरा। उसके एकांत में प्रत्यावर्तित और पुन: प्रत्यावर्तित
प्रकाश कोमल वातावरण में मूल-रश्मियाँ
और उनके उद्गम स्त्रोतों पर सोचते रहना,
खयालों की लहरों में
बहते रहना कितना सरल,
सुंदर और भद्रतापूर्ण है। उससे न कभी गरमी लगती है, न पसीना आता है, न कभी कपड़े मैले होते हैं। किंतु
प्रकाश के उद्गम के सामने
रहना, उसका
सामना करना, उसकी
चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रास-दायक है।
पसीने से तरबतर कपड़े इस तरह
चिपचिपाते हैं और इस कदर गंदे मालूम होते हैं कि लगता है... कि
अगर कोई इस हालत
में हमें देख ले तो वह बेशक हमें निचले दर्जे का आदमी समझेगा। सजे हुए टेबल
पर रखे कीमत फाउंटेनपेन-जैसे नीरव-शब्दांकन-वादी हमारे व्यक्तित्व जो
बहुत बड़े ही खुशनुमा मालूम होते हैं - किन्हीं महत्वपूर्ण परिवर्तनों के कारण - जब वे आँगन में और
घर-बाहर चलती हुई झाड़ू जैसे काम
करनेवाले दिखाई दें,
तो इस हालत में यदि सड़क-छाप समझे जाएँ तो इसमें आश्चर्य
की ही क्या बात है!
लेकिन
मैं अब ऐसे कामों की शर्म नहीं करूँगा,
क्योंकि जहाँ मेरा हृदय है,
वहीं मेरा भाग्य है!
।।..
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bahut achi kahani ....thanks for this informative blog...nice
जवाब देंहटाएंFoodDelightByFoodie
kuch khani sbse jyada
जवाब देंहटाएंbest rhi he
best
जवाब देंहटाएंgjb
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