मन की बात
अनामी शरणबबल
हमारे परम पूज्य प्रात:स्मरणीय
देवस्वरूपा गंगा इतना निर्मल( बकौल रविशंकर प्रसाद पटना वाले संचार मंत्री महोदय) प्रधानमंत्री
नरेन्द्र दामोदर मोदी जी धन्य है। वैसे भी उनकी कविताओं की एक किताब का नाम ये
आंखे धन्य है। खैर निसंदेह
पाताल की गहराई से निकलकर उन्होने आसमान से भी उपर अपना एक मुकाम बनाया है
। इस चमत्कारी सफर के बीच के खुरदुरे रास्तों का सफर भी किया है। वे इस कलयुग के
सुपर शक्तिमान है।
1988-90 के दौरान अशोक रोड वाले भाजपा
के दफ्तर में श्रीश्रीश्री गोविंदाचार्य जी से कई बार मिला और गजब की याद्दाश्त
वाले श्रीश्रीश्री को पहली बार मैने ज्योंहि अपना जिला औरंगाबाद बिहार बताया तो
वहां के सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल के प्राचार्य रामरेखा सिंह का फटाक से नाम लिया।
बाद में वे मुझे देखते ही हमेशा रामरेखा सिंह कहने लगे, तो.मैने घोर आपति की कि आप
रेखा से तो बाहर निकलिए । मेरा नाम भी रेखा से कम सुदंर नहीं है। मैं तो अनामी शरण
हूं। उनको मेरा नाम बहुत भाया फिर वे हमेशा मुझे अनामी ही कहने लगे।
यह बात शायद बहुतों को याद भी हो या न
हो या जानकर अजीब सा भी महसूस करें कि जिस हरदिल अजीज पीएम मोदी का मोहक स्वरूपा छवि
और 56 इंची
सीना भी सबको भा रहा है। वही मोदी जी अनाम से बगैर किसी पहचान के श्रीश्रीश्री के साथ ही आसपास भाजपा दफ्तर में रहते हुए सबसे
निकट थे। जिस पार्टी में आज जब वे जाते हैं तो पहले से सैकड़ो ओबी वैन मौजूद रहती
है मगर उसी पार्टी दफ्तर में इनको शायद ही बेधड़क किसी भी नेता (उस समय तो नेता
यानी अटल आडवाणी सुषमा मनोहर जोशी मलहोत्रा कोहली खुराना ही टॉप पर थे ) के कमरे
में घुसने की हिम्मत हो या अनुमति हो। इस
दढियल 37-38 साल के रूखे सूखे बेनूर युवक से दो चार बार बातचीत की। कभी तो आते
जाते उनको देखकर यह जानने के लिए कि क्या श्रीश्रीश्री है या कभी मैने ही इस युवक
को नमस्ते कर हाल चाल ले ली। आमतौर पर कोई पत्रकार इन पर घास भी नहीं डालता था मगर
दो चार बार की बातचीत का चारा मैं इन पर जरूर डाल रखा था।
उस समय तो मैं भी दिल्ली में एकदम नया नया
ही पत्रकार था लिहाजा मुलाकात कम हुई या फिर नहीं हुई। मगर जब 10-12 साल के बाद
गुजराती सीएम बन ठन गए और चारो तरफ इनकी शोहरत फैलने लगी तो फिर केवल एक बार
दिल्ली में इनके दर्शन हुए। और शायद पुराने कठिन दिनों के साक्षी मानकर जिस प्यार
दुलार आत्मीयता का प्रदर्शन किया वह मेरे को अभिभूत सा कर दिया। फिर अब तो 15 साल
हो गए और हमलोग जो बिछड़े तो फिर जीवन में वो किसी सिनेमा की तरह दोबारा मिलनसुखिया
अंतकी तरह सुखांत का संयोग फिर नहीं आया भले ही अब तो शायद ही वे मुझे पहचान पाए। केवल गुजरात तक सिमटे हमारे इस बिछडे सखा का दायरा
तो अब संसारी हो गया है। बराक से लेकर शरीफ तक के यहां एकाएक जा धमकने वाले मोहक मोदी
जी भला क्या देखकर इस यार को यार मानेंगे।
वे जिस दंबगई से मन की बात कह देते हैं और
लगातार कहते आ रहे हैं यह सबको हैरान और चमत्कृत भी कर देता है। तोउसी मन की बात के
जनक अपने दो चार मुलाकाती और गप्पी सुख देने वाले एक बेनाम युवक की पहचान सामने
रखकर मैं भी मन की बात कर रहा हूं । यह सही है कि वे पहले सीएम और बाद में तोपची
पीएम ना बने होते तो वे मुझे क्या याद करते या रखते यह तो मैं नहीं जानता पर वे
मेरी याद्दाश्त से भी कब के गुम हो गए होते। कभी कभी तो मैं भी किसी लुप्तप्राय
नेता के बारे मे जब कभी सोचता हूं या बाते सुनता हूं तो एक समय के बड़े नरम गरम
दर्जनों नेताओं की सो गयी याद मन में जाग जाती है।
अपने परम पूज्यनीय चरम लोकप्रिय गरम
प्रशासक और नरम दिल के बालप्रिय मोदी जी से प्रेरणा लेकर मैने भी अपने मन की बात
लिखने की योजना बनायी। लगा कि लाखो के साथ रहने और कहने वाला जब एक नेता दूसरों के
सामने अपने मन की बात कहने में कोई संकोच नहीं करता तो अपन कौन सा पहाड तोड डाला
है जो मन में आएगा वहीं लिख डालूंगा। फिर अपन जीवन में तो कोई खास लोचा मोचा भी
नहीं है कि हंगामा बरपा जाएगा। मन की बात कहने वालों के मन की टोह लेना ही तो अपन
धंधा है।
अभी मेरे मन में मन की बात लिखने की योजना
मन में ही थी कि जगत विख्यात होने का सुख मन में अर्जित होने लगा। लोगों की तारीफ
की कल्पना करके मैं तो चेतनभगत से भी आगे बाजी मारने के सपने में मुंगेरी लाल सा डूबने
लगा। जन जन में लोकप्रिय होने
का मुंगेरी सपना भी मन को भाने लगा। फिर क्या था मेरे मन में ख्याल आया कि इतिहास
भले ही पहले के बाद यानी दूसरों को याद नहीं करता मगर यही ख्याल मन को मोटा भी बनाए
जा रहा था कि प्रधानमंत्री के बाद तो कमसे कम मन की बात लिखने में तो मेरा ही नाम
आएगा। मैं भी इस महान विभूति के बाद अपना नंबर देखकर ही मन ही मन में
मन की बात को और बढिया लिखने का संकल्प किया। सोचा कि पद में भले ही वे
बड़े प्रधानमंत्री हो मगर मन की बात लेखन की जब समीक्षा या सामाजिक साहित्यिक
मूल्यांकन की बारी आएगी तब तो बाजी मै ही मारूंगा। फिर मुझे लगा भी कि कहां तो एक
तरफ पार्टटाईमर लेखक और कहां दूसरी तरफ मेरे जैसा धांसू लेखक पत्रकार दर्जनों किताबों
और सैकड़ो लेखो और हजारों अखबारी रपटो का लेखक मैं । भला लेखन के मामले में तो वे
मेरे पासंग भी नहीं ठहरेंगे।
और अब तो मैं एक डेली
पेपर सहित कई वीकली पेपरों और किताबों का संपादक भी रह चुका हूं। यानी उनसे लेखन के मामले में अपनी तुलना करके
मैं ही शर्मसार सा हो गया कि कहां मैं इतना बड़ा कलम घसीटू और कहां केवल भाईयों
बहनों कहने वाले मंचीय हीरो अपने पीएम साहब। ।
यह अलग बात है कि
हमारे देश में आजकल कवि प्रधानमंत्री की परम्परा चल पड़ी है। जिसे देखो वहीं पीछे
से कविता बैकग्राउण्ड का निकल जा रहा है। एक तरफ हिन्दी के तमाम अपाठक नीरे बुद्दू
आलोचक कविता को खत्म मान रहे है। इन असामयिक निंदकों का कुतर्क है कि कविता के पाठक
नहीं रहे या बचे है सो कविता ( कविता नाम की तमाम देवियों बहनों माताओ बेटियों और
छोटी लाडलियों तुम सबको भगवान लंबी आयु नसीब करे यही मंगल कामना है।) मर रही है। कवि के रूप में एक नेता से ज्यादा
मान्य श्रीश्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के पहले घोषित कवि पीएम बने।
लेखक पीएम की परम्परा
तो जवाहरलाल नेहरू जी की रही है, मगर वे कवि होने के गौरव से वंचित ही रहे। हालंकि
इसकी शुरूआत कवि ह्रदया राजा कवि (यूपी के हरदिल अजीज विधायक राजा भैय्या से कोई
दूर तक का नाता नहीं है न रिश्तेदारी और ना ही गोतियादारी) विश्वनाथ प्रसाद सिंह
जी पहले पीएम कवि थे। मगर कांग्रेस के बागी राजा और सबको सच बता दूंगा सबके सामने सच
ला दूंगा का अईसा हाहाकार मचाया कि बिन भेडिया आए ही भेडिया पकड़ा गया के शोर में बागी
कवि राजा साहब पीएम कवि हो गए । मगर इनके
जमाने में मछली बाजार के नक्कार खाने में इता शोर हंगामा बरपाया कि पूरा भारत ही
मंडल कमंडल की आग में झुलसने लगा। तो जाहिर है कि राजनीति के इस संग्राम काल उर्फ
लंका कांड में कविता पर कौन कान दे। इस तरह कवि पीएम होकर भी इनकी मान्यता पहला
पहला वाला नहीं मिला।
भारी विद्वान और इतनी भाषाओं के ज्ञाता कि पीएम
राव साहब खुदे ही कभी कभी भूल जाते थे कि उनको 18 लैंग्वेज में कमांड है या 19 मे।
ओहो अईसा ज्ञान भी किस काम की कि काम पर खुदे
भूल भूलैय्या में फंस जाए । मगर सुप्रभात ने अटल जी की नामी बेनामी गुमनामी कवितओं
की दर्जनों किताबें छापकर कवि पीएम का लोहा मनवा ही दिया। बाद में मौन रहने के लिए
विख्यात पीएम मनमोहन जी ने शोर कोलाहल हंगामा के बागी राज में मौन पोलटिक्स की
अनूठी परम्परा स्थापित करके उन तमाम
नेताओं को एक दशक तक पानी पानीकर छोड़ा। जिनकी इकलौती राजनीतिक बिरासत केवल हंगामा
खड़ा करने की ही थी। और अब भूत बनते ही मौन महाराज कविताएं पढ़ने लगे है। गजल शेर
काफिया नज्म के मार्फत बात करने लगे है। तो भावी पीएम का रियाज करते हुए कंग्रेसी
बाबा कविताओं के जरिए जनता से प्यार भरी बात करने लगे है। (जय हो पटकथा लेखक जर्नादन
द्विवेदीजी)
और मन की बात करने वाले परम आदरणीय वर्तमान पीएम
साहब तो जन्मजात लेखक कवि कथाकार है अभी विश्व पुस्तक मेला समाप्त हुआ ही भर है मगर
सुप्रभात के स्टॉल पर पीएम मोदी साहब की 13 किताबें सबसे हॉट यानी सेल में हॉट
साबित हुई है।. यह सुप्रभात भी गजब का है हर पीएम की पाताल में फेंक दी गयी
कविताओं को भी अपने सागर गोताखोरो से वे छनवाकर काव्य संकलन सबसे पहले (आजतक से भी
तेज) बाजार में लाकर टीआरपी में सबको पछाड छोड़ते है।
खैर मैं भी कहां कहां विषयांतर हो जाता
हूं। भला इस तरह कोई पाठक अपना सिर खपाकर पढेगा इसको। हां तो मन की बात की लगातार उपर भागती
लोकप्रियता को देखकर मेरे मन में भी मन की बात लिखने की अदम्य लालसा इच्छा बलवती
होने लगी । मन की बात को मैं कैसे किस और किस तरह से किस किस पर लिखू इस पर मंथन
करने जब मैं चला तो मेरा दिमाग ही खराब होने गया। दिल तो बच्चा है न मानकर लिख भी
दूं मगर उसके बाद बच्चे की जो दिल से लोग पिटाई कुटाई निंदाई आलोचनाई नजरगिराई थप्पडाई
करेंगे इसकी कल्पना मात्र से ही कोट पैंट में भी मैं बहुत सारे नेताओं की तरह
बाथरूम हाल में नजर आने लगा या दिखने लगा।
जन जन के नेताओं की बात तो और है । जो
जितना बड़ा जन नेता है वह केवर इडियट बक्से में ही अपार भीड़ के समक्ष दिखता और
होता है। आम जनता की पहुंच तो अपने जननेता से इतनी होती है कि नेताजी के दर्जनों
मसखरों स्पूनो या स्पूनचियों को पार करके ही जन नेता तक जनता की किसी तरह कभी कभार
ही पहुंच हो जाती है। और जो लोग जननेता के
साथ इर्द गिर्द होते हैं उनकी इतनी हिम्मत कहां कि अपने जननेता जी पर कुछ कह सके
या उनको कुछ बता सके। अलबत्ता जब जननेता ना हो तो अपने साहब की सबसे ज्यादा मां
बहनापा भी यही इनके दास ही करते है और मन ही मन में मुस्कुराते भी है।
मन की बात लिखने की असली दिक्कत तो
हमारे जैसे जन लेखक की है जो जन होकर भी जीवन भर जन से उपर ना उठ सके ना कहीं
पहुंच सके।. ओह जनता के बीच रहना और जनता मेल में सफर करना या जनता डिब्बा में सफर
करने वाले की भी भला कोई औकात होती है। एक तरफ किराए से 10गुना भाड़ा देकर शान से
यात्रा करने वालों की ठाठ देखो तो वहीं जनजन के नाम पर सही किराए में भी सबसिड़ी
की मांग करने वालो का नेता बनना या इन पर कुछ लिखना भी बड़ा डेंजरस होता है भाई ।
तारीफ में लिख दो तो साले थैंक्यू तक नहीं कहेंगे। मगर जरा सी निंदा की बू आ गयी
तो सारे उबालची कभी भी घरके बाहर धरना देकर चाय की तरह उबलने लगेंगे। लिखने से पहले ही केवल संकटों की
कल्पना करके मैं घबरा सा गया। फौरन संकट मोचन के दरबार में जाकर इस तरह के भावी
संकटों के आने पर मदद की फरियाद की।
मगर नेत्र खुलते ही मेरे नयन खुले के खुले ही रह गए।
खुद संकट मोचक नाथ प्रभू ओम जय जगदीश हरे श्री सबको हरा महावीरा तो मेरे सामने
खुदे हाथ जोडे लाचार नतमस्तक विराजे थे। इस बेहाल हाल में प्रभू को देख मै द्रवित
स्वर में पूछा क्या बात है लंकेश्वर विजेता। आप तो फरियाद से पहले ही सरेंडर मार रहे
है। सजल नेत्रों से भरे संकट मोचक अपना दर्द जाहिर किए बेटा सिपाही मरता है मगर युद्द
हमेशा राजा जीतता है। लंका फतह में तुम सब मेरी भूमिका जानते हो मगर मेरे परमेश्वर
राम ही लंका जीत के नायक कहलाए। मैं तो कल भी दास था और अभी दास का दास ही हूं।
जमाना फैंटेसी का है इस कारण किसी को भी ये स्टार सुपर बना डालते है। मेरे को भी प्रभू
ने स्टार बनवा डाला है। इसको तुम लंका फतह का मेहनताना के तौर पर संकटमोचक का तगमा
मान बेटा तगमा।
यह तगमा नहीं देते तो उनकी भी तो नाक कट
सकती थी, कि बिना सात समंदर पार के लंका में आग कौन और कैसे लगाया ?
वाण लगने पर तो राम केवल विलाप ही करते रह गए मगर पहाड तो मुझे ही लानी पड़ी थी। ई सब मीडिया वालों का कमाल है कि मैं संकट मोचक होकर
भी सबसे अधिक संकट में हूं।. देख रहे हो न मेरे वंशजो का क्या हाल है.संकट मोचक
समाज में हर जगह सबसे बड़े संकट की तरह देखे जाते हैं। पहले लोग हाथ जोडकर प्रणाम
करेंगे और फिर मुझपर टूट पड़ेगे। मैं अपने परम प्रिय मोचक का हाल सुनकर निराश हो रहा
था।
तभी मेरे सिर पर हाथ धरकर और भरत से गले
मिलने जैसा अपनी बांहों मे लेकर महावीर बोल पड़े बेटा तू जनता का आदमी है जनता है तो
जनता की सोच। ई राजा महाराजाओं की बात भूल जा। इनकी सनक और रहने की कहने की नकल ना
कर । इनका तो कुछ नहीं बिगडेगा मगर तेरे को मेरी तरह ही मुंह जलाना पडेगा दर दर भटकना
पडेगा । और सुन सच कोई नहीं सुनना चाहता सब मेरे संतानों की तरह ही तुमको भी मार मार
कर बेहाल कर देंगे। तू कोई राजा या जननेता तो है नहीं। रहना तो तुमको भी इनके साथ
ही है। इस कारण मन की बात भूल जा और मन ही मन में लिख ।
इसमें कोई खतरा नहीं है। जिसके बारे में जो मन में आए मन ही मन में कह डाल
या मन में ही लिख डाल मन में ही सुना डाल सबको। बता डाल। पर ख्याल रखना कि सब मन
ही मन में करना और मन ही मन के इस खेल का तू ही राजा है तू ही रंक भी और तू ही
रावण तानाशाह भी। मन ही मन में जो चाहे कर बेटा। तेरा कोई बिगाड़ नहीं सकता। कोई
बाल बांका भी नहीं कर सकता । दुनिया की कोई अदालत तुम्हें दोषी ठहरा नहीं सकती और
ना मान सकती है। जा सब कर मगर मन ही मन में जो आए सो कर । मेरा सदा आर्शीवाद साथ
रहेगा।
मगर मन से निकली बात तो मैं क्या तुमको
फिर .यमराज भी नहीं बचा सकते। संकट मोचक की पीडा सुनकर मन की बात लिखने का सारा
उत्साह पल भर में ही रफूचक्कर हो गया और हाथ जोडू दास महावीरा की पीडायुक्त लांछनों से बच गया। और मन ही मन में सुपर फास्ट
पीएम की हिम्मत पर मुग्ध सा हो गया कि मन की लगातार बात करने का जिगरा हो तो हमारे
गुजराती पीएम सा हो जो किसी की परवाह किए
बगैर ही जमाने को बेधडक अपने मन की बात कह डालते आ रहे है। 56 इंची ठोककर सुना रहे
है। मैं मन ही मन में इस शक्तिमान फैंटम की साहस पर मुग्ध हो गया कि केवल इडियट
बॉक्स के बूते यह बंदा पूरे भारत पर भारी दिख रहे है।