भिखारी ठाकुर: भोजपुरी के 'शेक्सपियर' और भारत के जीनियस की कहानी
- नलिन वर्मा
- वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
भोजपुरी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई इलाकों में बड़े पैमाने पर बोली और समझे जाने वाली भाषा है.
भोजपुरी फिल्म और गीत-संगीत के अलावा लोक संगीत का दायरा भी काफ़ी विस्तृत है और इसकी एक पहचान के तौर पर भिखारी ठाकुर हमेशा याद किए जाते रहेंगे.
आधुनिकतम तकनीक के दौर में लोक संस्कृति को बचाने का संकट है, ऐसे में भोजपुरी समाज के लिए भिखारी ठाकुर की विरासत को बचाने की चुनौती है.
भिखारी ठाकुर का जन्म बिहार के एक ग़रीब और उपेक्षित हजाम परिवार में 18 दिसंबर, 1887 को हुआ था.
ग़रीबी और वर्ण व्यवस्था के तहत निचली जाति में आने के चलते भिखारी ठाकुर को पढ़ने लिखने का मौका नहीं मिला.
जानवर चराने जाना और गुनगुनाना
बचपन में वे गाय-भैंस चराने लगे थे.
जानवरों को चराने के समय ही भिखारी ठाकुर अपनी मधुर आवाज़ में गाते गुनगुनाते थे. वे पढ़ तो नहीं सकते थे लेकिन सुनकर याद करने लगे और इस दौरान उन्होंने रामचरितमानस की चौपाइयां, कबीर के निर्गुण भजन और रहीम के दोहों को कंठस्थ किया.
यहां से शुरुआत करके वे भोजपुरी गीत संगीत की दुनिया के सबसे बड़े आयकन बने.
उनका गांव कुतुबपुर पुराने शाहाबाद (अब भोजपुर ज़िला) का हिस्सा है. लेकिन गंगा नदी के रास्ता बदलने की वजह से 1926 में कुतुबपुर सारण ज़िले का हिस्सा हो गया.
बचपन में ही उनकी शादी मतुआ देवी से हो गई और जल्दी ही वे शिलानाथ के पिता भी बन गए.
जानवरों को चराने के अलावा परिवार का गुज़र बसर चलाने के लिए भिखारी ठाकुर अपने पुश्तैनी नाई का काम करने लगे थे. 1927 में आकाल के बाद वे आजीविका कमाने के लिए पहले खड़गपुर और फिर बाद में जगन्नाथपुरी गए.
दूसरे राज्य गए पर ज़िंदगी नहीं बदली
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हिंदू धर्म के रीति रिवाजों और संस्कारों के लिए हजाम, ब्राह्मणों की तरह ही महत्वपूर्ण माने जाते हैं.
उदाहरण के लिए हजाम की ज़रूरत मुंडन, जनेऊ, शादी और श्राद्ध सभी जगहों पर होती है. लेकिन सामाजिक पायदान पर उनकी हैसियत पुजारी जितनी नहीं होती है. उन्हें ‘निचली जाति’ का माना जाता है, यही वजह है कि भिखारी ठाकुर को भी अपने जीवन में ख़राब व्यवहार और अपमान का दंश झेलना पड़ा.
लेकिन उनकी गायकी ने उन्हें सामाजिक जटिलताओं और विसंगतियों की तरफ़ देखने का अवसर भी मुहैया कराया.
उन्होंने समाज को बारीक़ी से देखा और उसे लोकगीतों के माध्यम से आम लोगों के सामने रखा.
आजीविका के सिलसिले में उन्हें प्रवासी मज़दूर के तौर पर दूसरे राज्य में जाना पड़ा. वहां भी उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के दर्द और तकलीफ़ को नज़दीक से देखा. भिखारी ठाकुर उसे विदेश (हालांकि वो देश के अंदर ही एक राज्य से दूसरे राज्य गए थे) कहते थे.
विदेश जाकर भी कमाने से उनके परिवार की हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया.
इस दौरान वे अपने गांव के लोगों और परिवार वालों की कमी महसूस करते थे. कुछ साल बाहर रहने के बाद वे अपने गांव कुतुबपुर लौट आए थे, ताकि सुख दुख अपने परिवार और गांवों के लोगों के बीच ही मना सकें.
जीनियस से कम नहीं थे भिखारी ठाकुर
भिखारी ठाकुर अपने समय में किसी जीनियस से कम नहीं थे. वे पढ़े लिखे नहीं थे, समाजिक हैसियत भी नहीं थी लेकिन वे लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाना जानते थे, लोगों का मनोरंजन करना जानते थे.
गायकी के अलावा अभिनय और नृत्य को भी उन्होंने साध लिया था.
वे कई तरह के वाद्य यंत्रों को भी बजाने लगे थे. इतना ही नहीं उन्होंने गांव के लोगों को इसकी ट्रेनिंग देकर एक मंडली बना ली. वे अपनी नाट्य मंडली के संगीतकार और निर्देशक भी खुद ही थे.
उन्होंने गांव के लोगों में से गायक, अभिनेता, लबार (जोकर) और संगीतकारों की टीम बनाई.
भिखारी ठाकुर के पास नाटक करने के लिए कोई मंच नहीं था. वे चौकी (लकड़ी की चारपाई) को किसी पेड़ के नीचे रखकर स्टेज बना लेते थे और ढोलक, झाल और मजीरा के साथ लोगों का मनोरंजन करते थे.
असल मायनों में भिखारी ठाकुर को भारत में ओपन एयर थिएटर का जनक माना जा सकता है.
भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली कजरी, होली, चैता, बिरहा, चौबोला, बारामासा, सोहार, विवाह गीत, जंतसार, सोरठी, अल्हा, पचरा, भजन और कीर्तिन हर तरह से लोगों का मनोरंजन करने लगी थी. लेकिन भिखारी ठाकुर अपने कविताई अंदाज़ में जिस तरह से सामाजिक सच्चाइयों को पेश करते थे, उसमें मनोरंजन के साथ साथ तंज़ भी होता था.
उन्होंने अपनी टीम के साथ सभी तरह की सामाजिक कुरीतियों, मतलब समाज में उपेक्षित लोगों के साथ होने वाले अत्याचार, धार्मिक रुढ़ियों, संयुक्त परिवार के घटते चलन, बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवाओं का दर्द, बुजुर्गों की उपेक्षा, नशाखोरी, दहेज प्रथा और साधु संतों के वेश में ठगतई जैसे तमाम मुद्दों पर लोक गीत बनाए.
कभी स्कूल नहीं गए पर लिखी 29 किताबें
भिखारी ठाकुर किस प्रतिभा के धनी थे, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि वे खुद स्कूल नहीं गए लेकिन उन्होंने लोकगीतों पर 29 किताब लिखीं जो कैथी लिपि में थीं.
इन किताबों को बाद में देवनागरी लिपि में बदला गया. इनका पूरा संकलन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने भिखारी ठाकुर रचनावली के नाम से प्रकाशित किया है. इनमें बेटी वियोग, विदेशिया, ननद भौजाई, गबर घिचौर और कलियुग का प्रेम जैसे लोक नाटक बेहद चर्चित रहे.
बेटी वियोग, शादी के बाद घर परिवार से बेटी की विदाई के दुख पर आधारित लोक नाटक है, तो विदेशिया उस महिला के दर्द की दास्तां है जिसका पति आजीविका कमाने के लिए विदेश (दूसरे राज्य) गया हुआ है. ननद-भौजाई, एक बहन और उसके भाई की पत्नी के बीच नोंकझोंक भरे रिश्ते की कहानी है.
गबरघिचौर नाटक, एक महिला के सेक्सुअल अधिकारों पर टिप्पणी करता है.
हिंदी साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों को जागरण का वाहक माना जाता है. लेकिन उससे काफी पहले भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में महिलाओं के दर्द और तकलीफ़ को बखूबी उकेरा है. विदेशिया नाटक की महिला किरदार अपने पति को याद करती है, - पिया मोरा गैलन परदेस, ए बटोही भैया. रात नहीं नीन, दिन तनी ना चैनवा.
भिखारी ठाकुर के लोक नाटकों पर महान हिंदी साहित्यकार राहुल सांकृत्यान ने लिखा है, “हमनी के बोली में कितने जो हवअ, केतना तेज़ बा, इ सब अपने भिखारी ठाकुर के नाटक में देखिला. भिखारी ठाकुर हमनी के अनगढ़ हीरा हवें.”
सेक्सुअल अधिकारों की वकालत
भिखारी ठाकुर के एक दूसरे नाटक गबरघिचौर में महिला का पति विदेश कमाने गया हुआ है और वह गांव के किसी अन्य शख़्स के साथ संबंध बना लेती है और अपने सेक्सुअल अधिकारों की वकालत करती है, “घर में रहे दूध पांच सेर, केहू जोरन देहल एक धार. का पंचायत होकात बा, घीऊ साफे भेल हमार.”
भिखारी ठाकुर की करीब तीन चौथाई रचनाएं पद्य के तौर पर हैं जिनमें मेलोड्रामा, भक्ति और सांसारिक प्रेम, उदासी और एकजुटता की खुशी, प्रेम, घृणा और क्रोध, हास्य और तीखे व्यंग्य छंदों में लिखे गए हैं.
आमतौर पर, उनके लोक नाटकों के पात्र दलित और निचली जातियों से आते हैं, यह किरादारों के नामों से भी पता चलता है. उपदार, उदवास, झंटुल, चटक, चेथरू, अखाजो और लोभा जैसे नाम उनके किरदारों के रहे हैं.
भिखारी ठाकुर के दौर में ग्रामीण परिवेश में महिला कलाकार आसानी से नहीं मिलते होंगे, यही वजह थी कि वे पुरुषों को महिलाओं की वेशभूषा में महिला किरदार निभाने के लिए प्रेरित करने लगे थे.
इस तरकीब के ज़रिए उन्होंने महिलाओं के मुद्दों को कुशलतापूर्वक दर्शाया और मंचित किया. भिखारी ठाकुर से प्रेरणा लेते हुए दूसरे लोक कलाकारों ने भी नाच पार्टियों का गठन किया, जो टीवी और इंटरनेट के दौर से पहले ग्रामीण समाज में लोगों का मनोरंजन किया करते थे.
आज तकनीक और प्रोद्यौगिक का दौर बढ़ा है और मनोरंजन के तमाम नए विकल्प मौजूद हैं. लेकिन क्या उन सवालों का हल मिल गया है जिसे भिखारी ठाकुर ने अपने लोक नाटकों के माध्यम से उठाया था?
इसका जवाब है नहीं.
आज भी समाज में नशाखोरी और दहेज प्रथा मौजूद है. समाज में आज भी असमानता, भेदभाव और अन्याय मौजूद हैं. जाति और धर्म के नाम पर सामाजिक उत्पीड़न हो रहा है. समाचार पत्रों और समाचार चैनलों में उपेक्षित लोगों और महिलाओं पर अत्याचार की ढेरों कहानियां आती रहती हैं और सरकारें इस समस्या से उबरने के लिए नए क़ानून बनाने और उसे लागू करने में व्यस्त हैं.
भिखारी ठाकुर की विरासत बचाए रखना ज़रूरी
ऐसे में भिखारी ठाकुर की विरासत को बचाए रखना बेहद ज़रूरी है. राहुल सांकृत्यायन ने ठीक ही ज़ोर देकर कहा है, "भिखारी ठाकुर की कला और साहित्य में सभी गुण विद्यमान हैं. बस ज़रूरत इस बात की है कि उनकी कृतियों वाले सोने की खान से चमचमाते आभूषण तैयार किए जाएं."
ज़ाहिर है, राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर पर और अधिक शोध और अध्ययन की ज़रूरत बताई है.
कुछ विश्लेषक शिष्टता के साथ भिखारी ठाकुर की तुलना 16वीं सदी के विख्यात नाटककार शेक्सपियर से करते हैं और उन्हें 'भोजपुरी का शेक्सपियर' के रूप में याद करते हैं. लेकिन शैक्षणिक दृष्टि से यह अधिक विवेकपूर्ण है कि भिखारी ठाकुर को भिखारी ठाकुर ही रहने दिया जाए और भारतीय संदर्भ में उनका अधिक अध्ययन किया जाए.
भिखारी ठाकुर के जीवन का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में आम लोगों को परेशान करने वाले मुद्दों पर जीवंत प्रस्तुतियों में गुज़रा.
उन्होंने और उनकी मंडली ने बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों की यात्राएं भी कीं, लेकिन उनकी कला मॉरीशस, गायाना, सूरीनाम, टोबैगो और कई अन्य अफ्रीकी देशों तक पहुंची जहां भारत से गिरमिटिया मज़दूर गए थे.
भिखारी ठाकुर अपने परिवेश में रामलीला और रासलीला देखते हुए बड़े हुए थे.
जीवन के अंतिम सालों में उन्होंने अपना अधिकांश समय भगवान राम, सीता, कृष्ण और गणेश की भक्ति में बिताए. विरासत में लोक नाटक और लोक कथाओं के विशाल भंडार छोड़कर 10 जुलाई 1971 को पैतृक गांव में भिखारी ठाकुर का निधन हुआ था.
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