सोमवार, 4 दिसंबर 2023

गरमाहट / गुलज़ार

 न जाने क्यों महसूस नहीं होती वो गरमाहट, 

इन ब्राँडेड वूलन गारमेंट्स में,

जो होती थी 

दिन- रात, उलटे -सीधे फन्दों से बुने हुए स्वेटर और शाल में.


आते हैं याद अक्सर 

वो जाड़े की छुट्टियों में दोपहर के आँगन के सीन,

पिघलने को रखा नारियल का तेल, 

पकने को रखा लाल मिर्ची का अचार.


कुछ मटर छीलती,

कुछ स्वेटर बुनती, 

कुछ धूप खाती

और कुछ को कुछ भी काम नहीं,

भाभियाँ, दादियाँ, बुआ, चाचियाँ.


अब आता है समझ, 

क्यों हँसा करती थी कुछ भाभियाँ ,

चुभा-चुभा कर सलाइयों की नोक इधर -उधर,

स्वेटर का नाप लेने के बहाने,


याद है धूप के साथ-साथ खटिया

और 

भाभियों और चाचियों की अठखेलियाँ.


अब कहाँ हाथ तापने की गर्माहट,

वार्मर जो है.


अब कहाँ एक-एक गरम पानी की बाल्टी का इन्तज़ार,

इन्स्टेंट गीजर जो है.


अब कहाँ खजूर-मूंगफली-गजक का कॉम्बिनेशन,

रम विथ हॉट वॅाटर जो है.


सर्दियाँ तब भी थी 

जो बेहद कठिनाइयों से कटती थीं,

सर्दियाँ आज भी हैं, 

जो आसानी से गुजर जाती हैं.


फिर भी 

वो ही जाड़े बहुत मिस करते हैं,

बहुत याद आते हैं.

                            

-गुलज़ार-

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