शुक्रवार, 29 मार्च 2024

हरिवंश रॉय बच्चन और उनका साहित्य


प्रस्तुति - A. न कॉलेज. पटना (मगध विश्वविद्यालय )


 रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में

और चारों ओर दुनिया सो रही थी,

तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं

जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,

मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे

अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,


रात आधी खींच कर मेरी हथेली

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,

कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,

इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू

बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,

मैं लगा दूँ आग इस संसार में है

प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,

जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने

के लिए था कर दिया तैयार तुमने!


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


प्रात ही की ओर को है रात चलती

औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,

मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,

खूबियों के साथ परदे को उठाता,

एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,

और मैंने था उतारा एक चेहरा,

वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर

ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


और उतने फ़ासले पर आज तक सौ

यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,

फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका

उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,

और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,

क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--

बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो

रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


~ हरिवंश राय बच्चन


आज, मॉं हिंदी की वीणा को अपनी सरल व सरस शैली द्वारा झंकृत करके कविता को जन-जन के कंठ तक पहुँचाने वाले समर्थ गीत-ऋषि तथा मधुशाला व निशा-निमंत्रण जैसी अमर काव्य-कृतियों के रचनाकार स्व हरिवंश राय 'बच्चन' जी का जन्मदिन है। अपनी सम्मोहक कविताओं के जरिए खड़ी बोली की कविता को लोक-रूचि का केन्द्र बनाने वाले स्व. हरिवंश राय बच्चन जी को जन्मदिन पर कृतज्ञ प्रणाम। 🙏🏻🙏🏻

प्रभा वर्मा और केरल साहित्य हिंदी और मीडिया में योगदान

 प्रस्तुति - केरल यूनिवर्सिटी

 (हिंदी विभाग)


कवि, साहित्यकार, गीतकार प्रभा वर्मा,  पारंपरिक मीडिया के साथ साथ इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मी तथा एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । वे समकालीन मलयालम साहित्य के महत्वपूर्ण स्वारों में से एक हैं। उनकी कविताएं परंपरा एवं आधुनिकता का समुचित समागम प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक और विधि संबंधी उपाधि प्राप्त की है। मलयालम और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान रूप से अधिकार रखने वाले इस द्विभाषिक साहित्यकार ने इस वर्ष अपने सृजनात्मक लेखन के पचास वर्ष पूर्ण किए हैं। ऐतिहासिक पंपा नदी के तट पर बसे तिरुवल नामक कस्बे में उनका जन्म सन् १९५९ में हुआ था। उनकी कविताएं अपने कोमल रोमानी भावों, काव्य बिंबों के एक विशिष्ट संगुम्फन, मौलिक और रचनात्मक अख्यान की क्षमता, दार्शनिक अन्तर्दृष्टि और जीवन के व्यापक अर्थों की एक गहरी समझ के लिए सुविख्यात हैं । उनकी काव्य प्रज्ञा अनुभववाद और प्रयोगवाद का एक अद्भुत सामंजस्य प्रकट करती है। अपने सांस्कृतिक विरासत में व्याप्त सूक्ष्म यथार्थ को आत्मसात् करते हुए वह ऐसी आधुनिक संवेदना को जन्म देते हैं जो न केवल समकालीन पीढ़ी बल्कि आने वाले कल के लिए भी उतनी ही प्रेरणादायी है।


उनके साहित्यिक योगदान में तीस से अधिक पुस्तकें शामिल हैं, जिसके अंतर्गत लगभग दर्जन भर कविता संग्रह, तीन काव्यात्मक उपन्यास, समकालीन  सामाजिक राजनैतिक परिवेश और साहित्य पर आठ पुस्तकें, सात आलोचनात्मक निबंध संग्रह, मीडिया संबंधित एक विश्लेषणात्मक पुस्तक, एक अंग्रेजी उपन्यास,  एक संस्मरण और एक यात्रा वृतांत आते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक मलयालम उपन्यास और प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतकार शादकला गोविंदा मरार के जीवन पर आधारित शादकलम नामक एक पटकथा भी लिखी है। 


उनकी प्रसिद्ध रचनायें, मुख्यतः काव्याखिकाओं में  ‘श्यामामाधवम’ (सांवले भगवान का विलाप), कनल चिलंब (अग्नि पायल) और रौद्र सातविकम आदि को गिना जा सकता है। ‘श्यामामाधवम’ पंद्रह अध्यायों वाली ऐसी पुस्तक है जो भगवान कृष्ण के पृथ्वी पर  अवतरित जीवन में आये पात्रों पर आधारित पुनर्रचना है। कनल चिलंब सात अध्यायों में प्रेम, वासना, शक्ति, कौतूहल, प्रतिशोध और व्यभिचार की कथा है। 


उनका पुरस्कृत छंदबध उपन्यास रौद्र सातविकम राजनीति और सत्ता, व्यक्ति और राज्य, कला और शक्ति के संबंधों में व्याप्त अंतर्विरोधों की एक विशिष्ट शैली में विश्लेषण करता है । यह किताब काल और गति की अवधारणा से परे धर्म और धर्मिकताओं को पुनर्व्याख्यायिक करता है।प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अवधारणा से अवगत है  लेकिन वह इसका अभ्यास करने में विफल रहता है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अधर्म क्या है...फिर भी वह इससे विरक्त नहीं रहता। 


इस पुस्तक में धर्म संबंधी इस विरोधभास की दार्शनिक, रचनात्मक व्याख्या के साथ इस विषय में अन्य दूरदर्शी आयामों को अभिव्यक्त किया गया है। संक्षेप में रौद्र सातविकम अपने महाकाव्यात्मक स्वरूप में एक आधुनिक महाकाव्य है। रौद्र और सात्विकम  जैसे  विरोधी पर्याय वाले  दो संस्कृत शब्दों से गढ़े गये  इस शीर्षक का सामान्य अनुवाद सतोगुणी क्रोध के तौर पर किया जा सकता है।

हर व्यक्ति जीवन की उतार चढ़ाव वाली परिस्थितियों के मध्य जूझते हुए जिन दो विरोधाभासी भावों का किसी न किसी समय अनुभव करता है, उनके रचनात्मक समेकन द्वारा गठित इस नए शब्द से लेखक की काव्य प्रज्ञा लक्षित की जा सकती है। प्रभा वर्मा कहते हैं कि “बरसे बिना बादल, खिले बिना कली और रोदन बिना वेदनामय हृदय के पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है, कविता भी इसी तरह जन्म लेती है।”

प्रभा वर्मा को सत्तर से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिसमें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी सम्मान, रजत कमल राष्ट्रीय फिल्म सम्मान, केरल साहित्य अकादमी सम्मान, केरल संगीत नाटक अकादमी सम्मान, केरल राजकीय फिल्म सम्मान, वायलार सम्मान, पद्मप्रभा पुरुष्कार इत्यादि सम्मिलित हैं। उन्होंने मोहिनीअट्टम और भरतनाट्यम के लिए दर्जनों कार्नाटिक संगीत कृतियों, भजनों, और पद्मों को शब्दबध कर शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में अपना महान योगदान दिया है। 

वर्तमान में वह केरल के मुख्यमंत्री के मीडिया सचिव के रूप में कार्यरत हैं।

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।

उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल हैं, उदास हो?” 

जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं.. 

उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।


जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”।


फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख़्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।


वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख़्स का मयार था कि पैसे देते वक़्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।

 

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। 

अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब, आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं”, साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा। 

साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक़्त गुज़रता रहा।


और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख़ आई #25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।


वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी आर चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे।


मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक़्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।


जूहू क़ब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक़्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्दे ख़ाक किया जाना था। ये वही क़ब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की क़ब्रें हैं। 

साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए, लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक क़ब्र के पास ही बैठे रहे।


काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू क़ब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक़ साहब थे।


अशफाक़ उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़े हैं क्या? 

वो क़ब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, “हां-हां, कितने रुपए देने हैं’, उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए"...!!

रविवार, 3 मार्च 2024

परख


*योग्यता की परख*


प्रस्तुति - उषा रानी- राजेंद्र प्रसाद सिन्हा 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



*शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।**योग्यता की परख* 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



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साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...