सोमवार, 8 अप्रैल 2024

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं


1.


जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग। 

कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। 

दो दिन पीछे फिर रीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

' रेल-बसों  की दौड़-धूप में तन-मन थक कर  चूर हुए।   ' हारे-हारे भी जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

दफ़्तर की हर ऊँच-नीच को सहते हैं पर कह डालें। 

ऐसे नहीं गए-बीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

रोज़ी-रोटी के चक्कर में सारे मेले छूट गए। 

अपने ज़ख़्मों को सीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।

 2


मैं यूँ तो सबके साथ सदा 

पर मेरा अपना अलग ढंग 


जो बात किसी को चुभ जाए 

मैं ऐसी बात नहीं कहता

हो जहाँ कहीं कुछ ग़लत बात 

मैं क्षण भर वहाँ नहीं रहता


जो बनी-बनाई लीक मिली 

मैं अकसर उस पर चला नहीं 

मुझको वह बात नहीं भाई 

हो जिसमें सबका भला नहीं 


जग जिस प्रवाह में बहता है 

मैं उस प्रवाह में बहा नहीं 

जो भीड़ कहा करती अकसर 

मैंने वह हरगिज कहा नहीं


अपना कुछ काम बनाने को 

मैंने समझौता नहीं किया 

खु़श हो कोई या रुष्ट रहे 

झूठा यशगायन नहीं किया 


मैं सबको रास नहीं आता 

पर इसकी कुछ परवाह नहीं 

सब मुझे सुनें,बस मुझे सुनें

ऐसी कुछ मन में चाह नहीं 


अपनी धुन,अपनी मस्ती है 

अपनी भी कोई हस्ती है। 

*   *   *   *   *   *   *   *



: कुछ लोग जहाँ में हरदम ही तकरार की बातें करते हैं।

कुछ लोग हैं ऐसे दीवाने बस प्यार की बातें करते हैं।। 


ऐसे भी बहुत हैं अहले-चमन करते हैं नज़ारा फूलों का।

कुछ लोग मग़र इस गुलशन में बस ख़ार की बातें करते हैं।। 


बिन सोचे-समझे करते हैं वो बात यहाँ हैरानी की। 

दो-चार कदम जो चल न सकें  रफ़्तार की बातें करते हैं।। 

जो बात पे अपनी ना ठहरें दुनिया से हैं बिलकुल बेगाने। 

वादे की हिमायत करते हैं इकरार की बातें करते हैं।। 

जिनको नग़मों का इल्म नहीं जो दूर रहें हर महफ़िल से। 

वो रक्स की कमियाँ गिनते हैं झनकार की बातें करते हैं।। 

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4



श्रीराम-जन्म का शुभ अवसर 

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शुभ चैत्र मास मंगलवेला

श्रीराम-जन्म का शुभ प्रभात 

हो प्रेम-प्रीत छवि चहुँओर

हर्षित-पुलकित हों तात-मात। 


हो दूर दुराशा-दैन्यभाव

जग में फैले चहुँओर शान्ति

 हो नष्ट घृणा सब आपस की,

 सबके मुख चमके विमल कान्ति। 


वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे

दीनों को गले लगाते थे

करुणामय राम की आँखों को

शबरी-निषाद भी भाते थे। 


पर आज तुम्हारे भक्त बहुत

कट्टरता से समझौता कर

कहते हैं खुद को सर्वश्रेष्ठ 

हिंसा-नफ़रत नित फैलाकर।


श्रीराम बुद्ध और महावीर 

का ध्येय प्रेममय समता है 

हम इसको भी सोचें-समझें

सबसे ऊँची मानवता है। 


हों राम हृदय में,कर्मों में 

ईमानभरी सच्चाई हो 

आचरण हमारा श्रेष्ठ रहे 

मन में यह बात समाई हो। 

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--5

         

 सत्य कहाँ हैे?

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सत्य कहाँ है अब दुनिया में 

कभी-कभी मन होता व्याकुल

'सत्यमेव जयते'  

संसद औ घर-दफ़्तर की दीवारों पर 

टँगा हुआ अच्छा लगता है 

दुनिया चलती नहीं सत्य से 

बड़े-बड़े सच के हामी को 

झूठ यहाँ कहना पड़ता है 

कभी-कभी सोचा करता हूँ 

हरिश्चंद्र या गाँधी

सच की सूली पर चढ़ते आए हैं

आदर्शों की बात करें तो 

अपने सत्पुरुषों की चर्चा करना 

सदा भला लगता है 

पर जीवन के संघर्षों में 

नहीं काम चल पाता सच से

रोज-रोज के व्यवहारों में 

छोटी या फिर बड़ी बात में 

सदा झूठ का डंका बजता 

और सत्य कोने में रोता 

कभी-कभी मन होता व्याकुल 

इस जग में क्यों ऐसा होता

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  6  


  ग़ज़ल 

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 दम भले रौशनी का भरते हैं। 

 नौकरी तीरगी  की करते हैं।।          

  सिर्फ़ दो रोटियाँ जुटाने में ।

 रोज़ जीते हैं  रोज़  मरते हैं।।

 इस कदर ख़ौफ़ हैं फि़जाओं में। 

राह चलते भी लोग डरते हैं।। 

किसकी आँखों में स्वप्न जीवन के?

किसके होठों से फूल झरते हैं?

आपसे दूरियाँ नहीं मिटती।

कैसे औरों की पीर हरते हैं।। 

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7


             

आया वसंत सखे,छाया वसंत


वन-वन में बेला पलाश फूल फूले

आम नीम मेंहदी पर बौर-मौर  झूले

बहता है मस्ती में पवन दिग्-दिगंत

आया वसंत सखे- - -


सरसों की पियराई फैली चहुँओर

कलियों के घूँघट लख नाचे मन-मोर

मेला उमंगों का मस्ती अनंत

आया वसंत सखे- - -


फूलों को छेड़ भ्रमर करते ठिठोली 

राहों में मौसम ने मस्ती सी घोली

कंतों की कौन कहे बहके हैं संत


आया वसंत सखे,छाया वसंत

*   *   *   *   *   *   *   *   *

--8


ये ज़िन्दगी है प्यार की

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ये ज़िन्दगी है प्यार की 

तू हर बशर से प्यार कर


सवेरे तुझको राह में 

मिलेंगे अजनबी कई

तू मुस्कराता गाता चल 

कि ज़िन्दगी लगे नई

कहीं से कोई आएगा,

मिलेगा ख़ूब बाँह भर 

न ऐसी आस पाल तू,

न उसका इंतज़ार कर। 


तू हर बशर से प्यार कर 



चले थे शहंशाह कुछ 

भरे हुए गुमान में 

करेंगे राज ठाठ से 

डटे हुए जहान में 

मगर दिलों में प्यार के 

जला न पाए दीप कुछ

नहीं हुए सफल कभी

चले गए वे हार कर


तू हर बशर से प्यार कर 


ये ज़िन्दगी है कितने दिन 

किसी को भी नहीं पता 

तो किसलिए घमंड में 

तू घूमता है,यह बता

न कोई पास आएगा

जो साँस जाएगी निकल

बनेगा राख ये बदन 

रखा जिसे सँभालकर


तू हर बशर से प्यार कर


झगड़ रहे जो रात-दिन 

ज़मीन धन के वास्ते 

किये हैं बन्द धर्म के 

जिन्होंने नेक रास्ते 

उन्हें मिलेगा स्वर्ग क्या

जो बाँटते रहे सदा

जिन्हें बशर से प्यार की

समझ न आई उम्र भर 


तू हर बशर से प्यार कर 


यही कहा है वेद ने 

यही लिखा कुरान में 

नहीं है कोई  देवता 

कमी है हर इंसान में 

बनाया जिसने आदमी

बसाया जिसने ये जहाँ

उसी का मंत्र है यही

लुटा दे प्यार हर डगर


तू हर बशर से प्यार कर। 

 *  *  *  *  *  *  *  *  *

--- 9            


    गीत

                *  *  *

मर्यादाएँ जीवन भर अड़ी रही, 

वरना मैं भी कुछ खुलकर जी लेता।


मैं रहा बनाता संबंधों के पुल, 

आने-जाने वालों का ध्यान किया।

मेरे अपने ही मुझसे रूठ गए,

 जिनका मैंने दिल से सम्मान किया।।

 कोई बाधा यूंँ अड़कर खड़ी रही,

वरना मैं भी कुछ खुलकर जी लेता।।


 जिम्मेदारी घर की पूरी करते, 

कर पाते हम कोई संकल्प नहीं,

 बच्चों की खातिर जीते हैं अब तो,

अपनी इच्छा का कहीं विकल्प नहीं।।

समझौते करने पड़ते हैं अक्सर, 

वरना फूलों सा खिलकर जी लेता।।


 कुछ बंधन होते हैं इतने सुखकर, 

जिनको हम खुश होकर अपनाते हैं,

 कुछ बंधन ढोने पड़ते हैं यूंँ ही,

 जिसमें जीवन भर बँध पछताते हैं।।

 करुणा बरसाने वाले नहीं मिले,

वरना घावों को सिलकर जी लेता।। 

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10



 ग़ज़ल 



जो गुल करते चरागों को उमर भर हाथ मलते हैं।

मिसालें जिनकी बनती हैं, मशालें लेके चलते हैं।।


जहाँ में लोग अक्सर वक्त पर मुँह फेर लेते हैं।

भले इंसान आड़े वक्त में भी साथ चलते हैं।।


जिसे पत्थर समझ कर देखते हैं सब हिकारत से।

उसी परबत के सीने में कई दरिया मचलते हैं।।


थकन से चूर आते शाम अपने आशियाने पर।



सवेरे बन-सँवर के रोज़ फिर घर से निकलते हैं।।


खटकता है बुजुर्गों को यही इस दौर में "कौशल"।

 नई पीढ़ी के ठंडी रेत पर भी पाँव जलते हैं।।

*   *   *   *   *   *   *   *   *

--किशोर कुमार कौशल 

   मो0- 98998 31002

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

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