मंगलवार, 5 नवंबर 2024

कुछ प्रेरक कहानियाँ / वीरेंद्र सिंह

प्रेरक कहानी* 

1


बुजुर्ग महिला और बस कंडक्टर


एक बार एक गांव में जगत सिंह नाम का व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहता था। वह अपने गांव से शहर की ओर जाने वाली डेली बस में कंडक्टर का काम करता था। वह रोज सुबह जाता था और शाम को अंतिम स्टेशन पर उतरकर घर वापिस चला आता था।


एक दिन की बात है कि जब शाम को बस का अंतिम स्टेशन आ गया तो उसने देखा कि बस के सभी यात्री उतर चुके हैं, परंतु अंतिम सीट पर एक बुजुर्ग महिला एक पोट्ली लिये हुए अभी तक बैठी हुई है । जगत सिंह ने उस महिला के पास जाकर कहा,” माता जी, यह अंतिम स्टेशन आ गया है। गाड़ी आगे नहीं जाएगी इसलिये आप उतर जाइए।“ यह सुनते ही वह बुजुर्ग महिला उदास हो गयी और कहने लगी,” बेटा मैं कहॉ जाउंगी? मेरा कोई नहीं घर नही और कोइ सगा भी नही।” जगत सिह ने उसके परिवार/अता-पता पूछा लेकिन महिला कुछ भी बता नही पा रही थी। जब काफी देर हो गयी तो जगत सिह ने सोचा कि इस बुजुर्ग बेसहारा महिला को अपने साथ घर ले चलूं। फिर उसने कहा,” माता जी आप मेरे घर चलो। यह सुनकर महिला अपनी पोट्ली साथ लेकर चल पडी।

घर जाकर जगत सिह ने पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। पहले तो उसकी पत्नि सुलोचना उस बुजुर्ग महिला को घर पर रखने को तैयार न थी लेकिन जगत सिह के समझाने के बाद वह मान गयी। अब घर पर एक कमरा जो खाली था, उसी में वह बुजुर्ग महिला रहने लगी। जगत सिंह और सुलोचना दोनो उसका ख्याल रखने लगे। सुलोचना प्रतिदिन उसे खाना देती थी, उसकी सेवा करती थी। इस तरह वे नि:स्वार्थ भाव से उसकी सेवा करते रहे। इस तरह दो साल बीत गये और फिर एक दिन उस बुजुर्ग महिला की मृत्यु हो ग़यी। उस महिला के पास जो पोट्ली थी, उसे अभी तक किसी ने खोला नही था। बुजुर्ग महिला का अंतिम संस्कार कररने के बाद जब जगत सिह ने पोट्ली को खोला तो उसकी आंखे फटी रह गयी। वह पोट्ली नोटों से भरी थी। जब नोट गिने तो दस लाख रुपये निकले। जगत सिह और उसकी पत्नि को यकीन ही नही हो रहा था कि जिस बुजुर्ग महिला को वह बेसहारा समझ कर बिना किसी स्वार्थ के सेवा कर रहे थे, वह उनके लिये इतना धन छोड कर जायेगी।


  मनुष्य द्वारा समाज व देश में समय-समय पर अनेक प्रकार की सेवाएं की जाती हैं लेकिन उनमें यदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप कहीं स्वार्थ छुपा हुआ है तो वह सेवा, सेवा नहीं कहलाती । धर्मग्रन्थों के अनुसार अपने तन-मन-धन का अभिमान त्याग कर निष्काम व निस्वार्थ भाव से की गई सेवा ही फलदायी साबित होती है। निस्वार्थ भाव की सेवा ही प्रभु भक्ति का उत्कृष्ट नमूना है। जो सेवा स्वार्थ भाव से की जाए तो स्वार्थपूर्ती होते ही उस सेवा का फल भी समाप्त हो जाता है। निस्वार्थ सेवा करते रहिए शायद आप का रंग औरों पर भी चढ़ जाये,जिसे भी आवश्यकता हो निःस्वार्थ सेवा भाव से उसकी मदद करें। आपको एक विशिष्ट शांति प्राप्त होगी।🙏




2

 *अनमोल धरोहर* 



डैडी....आज आपके रखें नये ड्राइवर ने मेरे साथ बदतमीजी की ....देर शाम लौटी जांहवी ने अपने पापा को बाहर हाल में बैठे हुए देखकर शिकायती लिहाजे में कहा...।


क्या ....उसकी ये हिम्मत .... कहा है वो बदत्तमीजी महेंद्र बाबू गुस्से में बोले।


तभी उनकी पत्नी ने कहा ....वो नौकरी छोड़कर चला गया कह रहा था मुझे मेरा आत्मसम्मान प्यारा है मुझे आपके यहां नौकरी नहीं करनी तो मैंने कहा ठीक है अगले महीने की दस तारीख को आकर जो भी हिसाब बने ले जाना ...।


हिसाब तो मैं पूरा करता हूं मेरी बिटिया के साथ बत्तमीजी की और मैं उसे ऐसे ही छोड़ दूं तुम चलो अभी मेरे साथ जांह्णवी अभी उसके घर चलते हैं वहां उसके परिवार के सामने उसकी वो हालत करुंगा की तमीज सीख जाएगा गुस्से में भरे महेंद्र बाबू अपनी बेटी और पत्नी के साथ ड्राइवर बिरजू के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया दरवाजा एक पंद्रह सोलह साल की लड़की ने खोला......जी .......कहिए।


कहा है वो बिरजू का बच्चा बुलाओ उसे ... गुस्से से महेंद्र बाबू गरजे ओह तो आप पापा की पहचान वाले हैं नमस्ते अंकलजी नमस्ते आंटीजी आइए आइए बैठिए मैं आपके लिए पानी लेकर आती हूं।


सुनो लड़की ... महेंद्र बाबू बस इतना ही कह पाएं थे मगर वो लड़की अपनी मां को आवाज़ लगाते हुए अंदर से पानी लेने चली गई....तबतक उसकी मां बाहर निकल आई ...।


नमस्ते ....जी माफ़ कीजियेगा मैंने आपको पहचाना नहीं मैं अर्पणा हूं आराध्या की मम्मी ... बिरजू कहा है जी वो तो समान लाने गये है बस आते ही होंगे लीजिए वो आ गये ...।


बिरजू को दरवाजे पर आते हुए देखकर अर्पणा बोली अरे साहब मैडम आप यहां .... अर्पणा ये हमारे साहब मैडम है जिनके यहां मैं काम कर रहा था मगर अब छोड़ चुका हूं छोड़ दिया तुम्हें धक्के देकर बाहर निकालना चाहिए तुमने मेरी बेटी के साथ क्या बत्तमीजी की है।


बत्तमीजी....माफ कीजिए साहब मैं तो अंजान लोगों से भी तमीज से पेश आता हूं तो आपकी बेटी के साथ ... जबकि ये मेरी आराध्या की हम उम्र है।


जांह्णवी तुम बताओ क्या बदतमीजी की इसने तुम्हारे साथ पापा सुबह स्कूल जाते हुए इसने अचानक बड़ी तेजी से ब्रेक मारी तो मैंने इससे कहा... देखकर नहीं चला सकते।


कितनी जोर से ब्रेक मारी है ये तो शुक्र है मैंने सीट पकड़ ली वरना मैं मुंह के बल गिर पड़ती तो जबाव में ये बोला ... बेटी वो अचानक एक छोटी सी  बच्ची रोड क्रॉस करने लगी मैं ब्रेक नहीं मारता तो... बहाने मत बनाओ और ध्यान से गाड़ी चलाओ फिर से अगर ब्रेक मारी तो मुझसे बुरा नहीं होगा पापा भी ना जाने कैसे-कैसे बदतमीज लोगों को ड्राइवर रख लेते है।


बेटी ... अगर मैं ब्रेक नहीं मारता तो वो बच्ची गाड़ी के नीचे आ जाती ये गाड़ी थाने में और मैं जेल में होता तो ....  लगता है तुमने आज से पहले कभी बढ़िया आलीशान गाड़ी नहीं चलाई हमारी लग्जरी गाड़ियों को देखकर इन छोटे लोगों को खुद ही दूर हो जाना चाहिए ना की तुम्हारी तरह डरकर गाड़ियों में ब्रेक मारनी चाहिए और ये क्या बेटी बेटी लगा रखा है ? क्या मैं तुम्हारी बेटी हूं।


तो फिर क्या कहूं आपको .... मैडम को दीदी कहते हैं तो मैं आपको दीदी कहूं ।


पागल वागल हो गया मैं तुमसे बड़ी लगती हूं अपनी उम्र देखी है बूढ़े .... मुझे बेटी दीदी नहीं नहीं सीधे सीधे जांह्णवी कहो समझे.... बस यही हुआ था डैड।


साहब मैं ही एक बेटी का पिता हूं आजतक यहां भी नौकरी की वहां मैंने सभी छोटे बड़ों का आदर किया बदलें में मुझे भी खूब आदर मिला और अधिकतर जगहों पर खुशी जाहिर करते हुए रुपए मिठाई और प्यार मिला मगर आपके यहां बदतमीजी का पुरस्कार ...जो मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहा था इसलिए मैंने मैडम जी को बता दिया था कि मैं कल से आपके यहां काम करने नहीं आऊंगा बस यही बात हुई थी.....।


महेंद्र बाबू कुछ कहते तबतक आराध्या सबके लिए ठंडा ठंडा शर्बत बनाकर ले आई ... लीजिए अंकलजी लीजिए आंटीजी लो बहन .... पापा मम्मी ... अंकलजी गर्मी बहुत है ये शर्बत पीजिए हमारे यहां का खास है सभी मेहमान कहते हैं मन को ठंडक मिलती है पीजिए ना प्यार से आराध्या ने कहा तो महेंद्र बाबू ने शर्बत होंठों से लगा लिया और घुट घुट कर पीने लगे...।


शर्बत पीने के बाद महेंद्र बाबू बिरजू की और देखकर बोले .... बिरजू आया तो था तुम्हें सबक सिखाने मगर आज खुद यहां से एक सबक सीखकर जा रहा हूं कि अपने बच्चों को पैसा गाड़ी मोबाइल लेपटॉप मंहगी आयटम दो ना दो मगर तमीज और संस्कार जरूर दो ... वरना बच्चे तमीज भूलकर बदतमीज बन जाते है।


तुम एक छोटे से घर में रहते हो शायद वो तमाम जरुरतों को तुम पूरा नहीं कर सकते जो मैं मिनटों में चुटकी बजाकर पूरी कर सकता हूं मगर मेरे भाई जो अनमोल धरोहर अच्छी परवरिश अच्छे संस्कार तुमने अपनी बेटी को दिए हैं वो में अमीर होते हुए भी नहीं दे पाया ..🙏


3


 *दया पर संदेह* 


एक बार एक अमीर सेठ के यहाँ एक नौकर काम करता था। अमीर सेठ अपने नौकर से तो बहुत खुश था, लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को अनाप शनाप कहता और बहुत कोसता था।


एक दिन वह अमीर सेठ ककड़ी खा रहा था। संयोग से वह ककड़ी कच्ची और कड़वी थी। सेठ ने वह ककड़ी अपने नौकर को दे दी।

नौकर ने उसे बड़े चाव से खाया जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो।


अमीर सेठ ने पूछा– “ककड़ी तो बहुत कड़वी थी। भला तुम ऐसे कैसे खा

गये ?”


नौकर बोला– “आप मेरे मालिक हैं। रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते हैं। 


अगर एक दिन कुछ बेस्वाद या कड़वा भी दे दिया तो उसे स्वीकार करने में भला क्या हर्ज है ?


अमीर सेठ अपनी भूल समझ गया। अगर ईश्वर ने इतनी सुख – सम्पदाएँ दी है और कभी कोई कटु अनुदान या सामान्य मुसीबत दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं।


असल में यदि हम समझ सकें तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है। ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता   है। 🙏


4



*न्याय* 



एक कबूतर और एक कबूतरी एक पेड़ की डाल पर बैठे थे।


उन्हें बहुत दूर से एक आदमी आता दिखाई दिया।


कबूतरी के मन में कुछ शंका हुई और उसने कबूतर से कहा कि चलो जल्दी उड़ चलें नहीं तो ये आदमी हमें मार डालेगा।


कबूतर ने लंबी सांस लेते हुए इत्मीनान के साथ कबूतरी से कहा.. भला उसे ग़ौर से देखो तो सही, उसकी अदा देखो, लिबास देखो, चेहरे से शराफत टपक रही है, ये हमें क्या मारेगा.. बिलकुल सज्जन पुरुष लग रहा है...?


कबूतर की बात सुनकर कबूतरी चुप हो गई।


जब वह आदमी उनके करीब आया तो अचानक उसने अपने वस्त्र के अंदर से तीर कमान निकाला और झट से कबूतर को मार दिया... और बेचारे उस कबूतर के वहीं प्राण पखेरू उड़ गए....


असहाय कबूतरी ने किसी तरह भाग कर अपनी जान बचाई और बिलखने लगी।


उसके दुःख का कोई ठिकाना न रहा और पल भर में ही उसका सारा संसार उजड़ गया। 


उसके बाद वह कबूतरी रोती हुई अपनी फरियाद लेकर उस राज्य के राजा के पास गई और राजा को उसने पूरी घटना बताई।


राजा बहुत दयालु इंसान था। राजा ने तुरंत अपने सैनिकों को उस शिकारी को पकड़ कर लाने का आदेश दिया।


तुरंत शिकारी को पकड़ कर दरबार में लाया गया। शिकारी ने डर के कारण अपना जुर्म कुबूल कर लिया।


उसके बाद राजा ने कबूतरी को ही उस शिकारी को सज़ा देने का अधिकार दे दिया और उससे कहा कि "तुम जो भी सज़ा इस शिकारी को देना चाहो दे सकती हो, तुरंत उस पर अमल किया जाएगा"..


कबूतरी ने बहुत दुःखी मन से कहा कि "हे राजन, मेरा जीवन साथी तो इस दुनिया से चला गया जो फिर कभी भी लौटकर नहीं आएगा..


इसलिए मेरे विचार से इस क्रूर शिकारी को बस इतनी ही सज़ा दी जानी चाहिए कि

अगर वो शिकारी है तो उसे हर वक़्त शिकारी का ही लिबास पहनना चाहिए.. 


ये शराफत का लिबास वह उतार दे क्योंकि शराफत का लिबास ओढ़कर धोखे से घिनौने कर्म करने वाले सबसे बड़े नीच और समाज के लिए हानिकारक होते हैं।


कबूतरी ने कहा, जब हम किसी को जीवन दे नही सकते तो किसी का जीवन लेने का अधिकार मुझे नहीं है।


कितना सुन्दर त्याग कबूतरी का?      

हमे भी अपना जीवन किसी से बदले की आग में नही बिताना, मन से उसे क्षमा करना है । 🙏


5



 बुरी स्मृतियाँ भुला ही दी जाएँ


दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।


पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। 

बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला।

 कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।


वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।


पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। 

अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।


किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ''आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।''


दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?


बड़ा भाई बोला- "मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।'' संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।'' सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?


बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?


संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।


संत बोले 'देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।


अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।


उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।''🙏


6



 *कुंदन काका की कुल्हाड़ी* 



कुंदन काका एक फैक्ट्री में पेड़ काटने का काम करते थे. फैक्ट्री मालिक उनके काम से बहुत खुश रहता और हर एक नए मजदूर को उनकी तरह कुल्हाड़ी चलाने को कहता.  यही कारण था कि ज्यादातर मजदूर उनसे जलते थे.


एक दिन जब मालिक काका के काम की तारीफ कर रहे थे तभी एक नौजवान हट्टा-कट्टा मजदूर सामने आया और बोला, “मालिक! आप हमेशा इन्ही की तारीफ़ करते हैं, जबकि मेहनत तो हम सब करते हैं… बल्कि काका तो बीच-बीच में आराम भी करने चले जाते हैं, लेकिन हम लोग तो लगातार कड़ी मेहनत करके पेड़ काटते हैं.


इस पर मालिक बोले, “भाई! मुझे इससे मतलब नहीं है कि कौन कितना आराम करता है, कितना काम करता है, मुझे तो बस इससे मतलब है कि दिन के अंत में किसने सबसे अधिक पेड़ काटे….और इस मामले में काका आप सबसे 2-3 पेड़ आगे ही रहते हैं…जबकि उनकि उम्र भी हो चली है.”

मजदूर को ये बात अच्छी नहीं लगी.

वह बोला-

अगर ऐसा है तो क्यों न कल पेड़ काटने की प्रतियोगिता हो जाए. कल दिन भर में जो सबसे अधिक पेड़ काटेगा वही विजेता बनेगा.

मालिक तैयार हो गए.

अगले दिन प्रतियोगिता शुरू हुई. मजदूर बाकी दिनों की तुलना में इस दिन अधिक जोश में थे और जल्दी-जल्दी हाथ चला रहे थे.


लेकिन कुंदन काका को तो मानो कोई जल्दी न हो. वे रोज की तरह आज भी पेड़ काटने में जुट गए.


सबने देखा कि शुरू के आधा दिन बीतने तक काका ने 4-5 ही पेड़ काटे थे जबकि और लोग 6-7 पेड़ काट चुके थे. लगा कि आज काका हार जायेंगे.

ऊपर से रोज की तरह वे अपने समय पर एक कमरे में चले गए जहाँ वो रोज आराम करने जाया करते थे.

सबने सोचा कि आज काका प्रतियोगिता हार जायेंगे.

बाकी मजदूर पेड़ काटते रहे, काका कुछ देर बाद अपने कंधे पर कुल्हाड़ी टाँगे लौटे और वापस अपने काम में जुट गए.

तय समय पर प्रतियोगिता ख़त्म हुई.

अब मालिक ने पेड़ों की गिनती शुरू की.

बाकी मजदूर तो कुछ ख़ास नहीं कर पाए थे लेकिन जब मालिक ने उस नौजवान मजदूर के पेड़ों की गिनती शुरू की तो सब बड़े ध्यान से सुनने लगे…

1..2…3…4…5…6..7…8…9..10…और ये 11!

सब ताली बजाने लगे क्योंकि बाकी मजदूरों में से कोई 10 पेड़ भी नहीं काट पाया था.

अब बस काका के काटे पेड़ों की गिनती होनी बाकी थी…

मालिक ने  गिनती शुरू कि…1..2..3..4..5..6..7..8..9..10 और ये 11 और आखिरी में ये बारहवां पेड़….मालिक ने ख़ुशी से ऐलान किया…


कुंदन काका प्रतियोगिता जीत चुके थे…उन्हें 1000 रुपये इनाम में दिए गए…तभी उस हारे हुए मजदूर ने पूछा, “काका, मैं अपनी हार मानता हूँ..लेकिन कृपया ये तो बताइये कि आपकी शारीरिक ताकत भी कम है और ऊपर से आप काम के बीच आधे घंटे विश्राम भी करते हैं, फिर भी आप सबसे अधिक पेड़ कैसे काट लेते हैं?”

इस पर काका बोले-

बेटा बड़ा सीधा सा कारण है इसका जब मैं आधे दिन काम करके आधे घंटे विश्राम करने जाता हूँ तो उस दौरान मैं अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज कर लेता हूँ, जिससे बाकी समय में मैं कम मेहनत के साथ तुम लोगों से अधिक पेड़ काट पाता हूँ.

सभी मजदूर आश्चर्य में थे कि सिर्फ थोड़ी देर धार तेज करने से कितना फर्क पड़ जाता है.

दोस्तों, आप जिस क्षेत्र में भी हों…. आपकी योग्यता आपकी कुल्हाड़ी  है जिससे आप अपने पेड़ काटते हैं… यानी अपना काम पूरा करते हैं…. शुरू में आपकी कुल्हाड़ी जितनी भी तेज हो…समय के साथ उसकी धार मंद पड़ती जाती है…


उदाहरण के लिए- भले ही आप कम्प्यूटर साइंस के अग्रणी रहे हों…लेकिन अगर आप नयी तकनीक, नयी भाषा नहीं सीखेंगे तो कुछ ही सालों में आप पुराने हो जायेंगे आपकी आपकी धार मंद पड़ जायेगी.


इसीलिए हर एक व्यक्ति को कुंदन काका की तरह समय-समय पर अपनी धार तेज करनी चाहिए…अपने उद्योग से जुड़ी नयी बातों को सीखना चाहिए, नयी विधि को प्राप्त करना चाहिए और तभी सैकड़ों-हज़ारों लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बना पायेंगे, आप अपने क्षेत्र के विजेता बन पायेंगे!


6



 " *नारी* "



एक अमीर आदमी की शादी एक बेहद बुद्धिमान स्त्री से हो गई थी।  वह हमेशा अपनी पत्नी से तर्क-वितर्क और वाद-विवाद में हार जाता था। एक दिन पत्नी ने कहा, "स्त्रियां पुरुषों से कम नहीं होतीं।" पति ने हंसते हुए कहा, "अगर ऐसा है तो मैं दो साल के लिए परदेश जा रहा हूं। इस दौरान, तुम एक महल बनाकर, बिजनेस में मुनाफा कमाकर और एक बच्चा पैदा करके दिखाओ। तभी मैं मानूंगा कि महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं और तुम्हारी बुद्धि व ज्ञान बेमिसाल है।" 


अगले ही दिन पति विदेश चला गया। पत्नी ने कर्मचारियों में ईमानदारी और मेहनत का गुण भर दिया, और उनकी पगार भी दोगुनी कर दी। सभी कर्मचारी दिल लगाकर काम करने लगे, और मुनाफा उम्मीद से भी ज्यादा बढ़ गया। उसी मुनाफे से पत्नी ने एक आलीशान महल बनवाया, जो देखने में बहुत ही खूबसूरत था। 


महल तो बन गया, पर अब समस्या थी बच्चे की। पत्नी ने दस गायें पाली और उनकी सेवा कर दूध की नदियां बहा दीं। देश-विदेश से दूध, दही, और घी के लिए ऑर्डर आने लगे। पत्नी को अब विदेश भी जाना पड़ता था। एक दिन, संयोग से पत्नी ने अपने पति को विदेश में देखा और सोचा कि क्यों न उसे सरप्राइज़ दिया जाए, पर उसे शर्तें याद आ गईं और वह संभल गई। 😌


शर्त तो लगभग पूरी हो गई थी, पर बच्चा कैसे पैदा होगा? पत्नी एक समझदार और नैतिक महिला थी, इसलिए वह किसी गैर पुरुष के साथ हमबिस्तर नहीं होना चाहती थी। फिर उसके दिमाग में एक योजना आई। 🤔


पत्नी ने भेष बदलकर अपने पति से पार्क में मुलाकात की, वह गरीब लड़की बनकर उसके सामने आई। पति उसे पहचान नहीं पाया। पत्नी ने कहा, "मैं यहां दूध, दही और मलाई बेचती हूं।" पति ने कहा, "तुम मुझे रोज दूध और दही मेरे घर पर ला दिया करो।" इस तरह रोज़ मुलाकात होने लगी। पत्नी उसके लिए चाय-नाश्ता भी बनाती थी। एक दिन, मोहपाश में फंसाकर संबंध बना लिया। 😌


कुछ दिनों बाद, पत्नी ने अपने पति से एक अंगूठी उपहार में ली और फिर अपने देश लौट आई। अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी। 🍼


दो साल बाद जब पति घर आया, तो महल और शानो-शौकत देखकर वह खुश हो गया। पर जैसे ही उसने पत्नी की गोद में बच्चा देखा, वह क्रोध से चीख उठा, "यह बच्चा किसका है?"  पत्नी ने उसे उस 'दही वाली' गूजरी की कहानी और दी गई अंगूठी याद दिलाई। पति यह सब सुनकर हक्का-बक्का रह गया। 


पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, "अगर वो दही वाली गूजरी मेरी जगह कोई और होती, तो क्या होता?" इस सवाल का जवाब शायद पूरी पुरुष जाति के पास नहीं है। 


नारी नर की सहचरी है, उसकी धर्म की रक्षक है, उसकी गृहलक्ष्मी है और उसे देवत्व तक पहुंचाने वाली साधिका है। 🙏



7



 *मुश्किल दौर* 



एक बार की बात है, एक कक्षा में गुरूजी अपने सभी छात्रों को समझाना चाहते थे कि प्रकृति सभी को समान अवसर देती है और उस अवसर का इस्तेमाल करके अपना भाग्य खुद बना सकते हैं। इसी बात को ठीक तरह से समझाने के लिए गुरूजी ने तीन कटोरे लिए। पहले कटोरे में एक आलू रखा, दूसरे में अंडा और तीसरे कटोरे में चाय की पत्ती डाल दी। अब तीनों कटोरों में पानी डालकर उनको गैस पर उबलने के लिए रख दिया। 

 

सभी छात्र ये सब हैरान होकर देख रहे थे, लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। बीस मिनट बाद जब तीनों बर्तन में उबाल आने लगे, तो गुरूजी ने सभी कटोरों को नीचे उतारा और आलू, अंडा और चाय को बाहर निकाला।

 

अब उन्होंने सभी छात्रों से तीनों कटोरों को गौर से देखने के लिए कहा। अब भी किसी छात्र को समझ नहीं आ रहा था।


आखिर में गुरु जी ने एक बच्चे से तीनों (आलू, अंडा और चाय) को स्पर्श करने के लिए कहा। जब छात्र ने आलू को हाथ लगाया तो पाया कि जो आलू पहले काफी कठोर हो गया था और पानी में उबलने के बाद काफी मुलायम हो गया था। 


जब छात्र ने, अंडे को उठाया तो देखा जो अंडा पहले बहुत नाज़ुक था  उबलने के बाद वह कठोर हो गया है। अब बारी थी चाय के कप को उठाने की। जब छात्र ने चाय के कप को उठाया तो देखा चाय की पत्ती ने गर्म पानी के साथ मिलकर अपना रूप बदल लिया था और अब वह चाय बन चुकी थी। 


अब गुरु जी ने समझाया, हमने तीन अलग-अलग चीजों को समान विपत्ति से गुज़ारा, यानी कि तीनों को समान रूप से पानी में उबाला लेकिन बाहर आने पर तीनों चीजें एक जैसी नहीं मिली। 


आलू जो कठोर था वो मुलायम हो गया, अंडा पहले से कठोर हो गया और चाय की पत्ती ने भी अपना रूप बदल लिया। उसी तरह यही बात इंसानों पर भी लागू होती है। 

 

 

अर्थात सभी को समान अवसर मिलते हैं और मुश्किलें आती हैं लेकिन ये पूरी तरह आप पर निर्भर है कि आप परेशानी का सामना कैसा करते हैं और मुश्किल दौर से निकलने के बाद क्या बनते हैं।🙏




8


 *मुश्किल दौर* 



एक बार की बात है, एक कक्षा में गुरूजी अपने सभी छात्रों को समझाना चाहते थे कि प्रकृति सभी को समान अवसर देती है और उस अवसर का इस्तेमाल करके अपना भाग्य खुद बना सकते हैं। इसी बात को ठीक तरह से समझाने के लिए गुरूजी ने तीन कटोरे लिए। पहले कटोरे में एक आलू रखा, दूसरे में अंडा और तीसरे कटोरे में चाय की पत्ती डाल दी। अब तीनों कटोरों में पानी डालकर उनको गैस पर उबलने के लिए रख दिया। 

 

सभी छात्र ये सब हैरान होकर देख रहे थे, लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। बीस मिनट बाद जब तीनों बर्तन में उबाल आने लगे, तो गुरूजी ने सभी कटोरों को नीचे उतारा और आलू, अंडा और चाय को बाहर निकाला।

 

अब उन्होंने सभी छात्रों से तीनों कटोरों को गौर से देखने के लिए कहा। अब भी किसी छात्र को समझ नहीं आ रहा था।


आखिर में गुरु जी ने एक बच्चे से तीनों (आलू, अंडा और चाय) को स्पर्श करने के लिए कहा। जब छात्र ने आलू को हाथ लगाया तो पाया कि जो आलू पहले काफी कठोर हो गया था और पानी में उबलने के बाद काफी मुलायम हो गया था। 


जब छात्र ने, अंडे को उठाया तो देखा जो अंडा पहले बहुत नाज़ुक था  उबलने के बाद वह कठोर हो गया है। अब बारी थी चाय के कप को उठाने की। जब छात्र ने चाय के कप को उठाया तो देखा चाय की पत्ती ने गर्म पानी के साथ मिलकर अपना रूप बदल लिया था और अब वह चाय बन चुकी थी। 


अब गुरु जी ने समझाया, हमने तीन अलग-अलग चीजों को समान विपत्ति से गुज़ारा, यानी कि तीनों को समान रूप से पानी में उबाला लेकिन बाहर आने पर तीनों चीजें एक जैसी नहीं मिली। 


आलू जो कठोर था वो मुलायम हो गया, अंडा पहले से कठोर हो गया और चाय की पत्ती ने भी अपना रूप बदल लिया। उसी तरह यही बात इंसानों पर भी लागू होती है। 

 

 

अर्थात सभी को समान अवसर मिलते हैं और मुश्किलें आती हैं लेकिन ये पूरी तरह आप पर निर्भर है कि आप परेशानी का सामना कैसा करते हैं और मुश्किल दौर से निकलने के बाद क्या बनते हैं।🙏







शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024


चिड़िया का घोंसला 



सर्दियाँ आने को थीं और चिंकी चिड़िया का घोंसला पुराना हो चुका था। उसने सोचा चलो एक नया घोंसला बनाते हैं ताकि ठण्ड के दिनों में कोई दिक्कत न हो।


अगली सुबह वो उठी और पास के एक खेत से चुन-चुन कर तिनके लाने लगी। सुबह से शाम तक वो इसी काम में लगी और अंततः एक शानदार घोंसला तैयार कर लिया। पर पुराने घोंसले से अत्यधिक लगाव होने के कारण उसने सोचा चलो आज एक आखिरी रात उसी में सो लेते हैं और कल से नए घोंसले में अपना आशियाना बनायेंगे। रात में चिंकी चिड़िया वहीँ सो गयी


अगली सुबह उठते ही वो अपने नए घोंसले की तरफ उड़ी, पर जैसे ही वो वहां पहुंची उसकी आँखें फटी की फटी रही गयीं; किसी और चिड़िया ने उसका घोंसला तहस-नहस कर दिया था। चिंकी की आँखें भर आयीं, वो मायूस हो गयी, आखिर उसने बड़े मेहनत और लगन से अपना घोंसला बनाया था और किसी ने रातों-रात उसे तबाह कर दिया था।


पर अगले ही पल कुछ अजीब हुआ, उसने गहरी सांस ली, हल्का सा मुस्कुराई और एक बार फिर उस खेत से जाकर तिनके चुनने लगी। उस दिन की तरह आज भी उसने सुबह से शाम तक मेहनत की और एक बार फिर एक नया और बेहतर घोंसला तैयार कर लिया।


जब हमारी मेहनत पर पानी फिर जाता है तो हम क्या करते हैं – शिकायत करते हैं, दुनिया से इसका रोना रोते हैं, लोगों को कोसते हैं और अपनी frustration निकालने के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं पर हम एक चीज नहीं करते – हम फ़ौरन उस बिगड़े हुए काम को दुबारा सही करने का प्रयास नहीं करते। और चिंकी चिड़िया की ये छोटी सी कहानी हमें ठीक यही करने की सीख देती है।


घोंसला उजड़ जाने के बाद वो चाहती तो अपनी सारी उर्जा औरों से लड़ने, शिकायत करने और बदला लेने का सोचने में लगा देती। पर उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि उसी उर्जा से फिर से एक नया घोंसला तैयार कर लिया


दोस्तों, जब हमारे साथ कुछ बहुत बुरा हो तो हम न्याय पाने का प्रयास ज़रुरु करें, पर साथ ही ध्यान रखें कि कहीं हम अपनी सारी energy; frustration, गुस्से और शिकायत में ही न गँवा दें। ऐसा करना हमें हमारे original loss से कहीं ज्यादा नुक्सान पहुंचा सकता है। और मैं तो ये भी कहूँगा कि अगर कोई बहुत बड़ी बात न हुई हो तो उसे अनदेखा करते हुए अपने काम में पुन: लग जाएं। क्योंकि बड़े काम करने के लिए ये ज़िन्दगी छोटी है, इसे बेकार की चीजों में नहीं गंवाया जाना चाहिए।.


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रविवार, 6 अक्तूबर 2024

लक्ष्मण गायकवाद

 

लक्ष्मण मारुति गायकवाड़ 


(जन्म 23 जुलाई 1952, धानेगांव, जिला लातूर , महाराष्ट्र ) एक प्रसिद्ध मराठी उपन्यासकार हैं जो अपनी बेहतरीन रचना द ब्रांडेड के लिए जाने जाते हैं, जो उनके आत्मकथात्मक उपन्यास उचलया ( उकलया के नाम से भी जाना जाता है) का अनुवाद है । इस उपन्यास ने न केवल उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई बल्कि उन्हें इस उपन्यास के लिए महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। मराठी साहित्य की एक उत्कृष्ट कृति माने जाने वाले उनके उपन्यास ने पहली बार साहित्य की दुनिया में उनकी जनजाति, उचलया, जिसका शाब्दिक अर्थ है चोर, एक ऐसा शब्द है जिसे अंग्रेजों ने गढ़ा था, जिन्होंने इस जनजाति को एक आपराधिक जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया था। यह पुस्तक भारत में दलितों के सामने आने वाली समस्याओं को भी सामने लाती है । वर्तमान में वे मुंबई में रहते हैं। ​​उद्धरण वांछित ]

उनके द्वारा लिखे गए अन्य उल्लेखनीय उपन्यासों में डुबांग , चीनी मथाची दिवस , समाज साहित्य अनी स्वतंत्र , वादर वेदना , वकीला पारधी , उतव और ए स्वतंत्र कोनासैट शामिल हैं । [ 1 ]

सामाजिक सेवाएं

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गायकवाड़ लंबे समय से सामाजिक सेवाओं से जुड़े रहे हैं। 1986 से वे जनकल्याण विकास संस्था के अध्यक्ष हैं और 1990 से वे जनजातियों के कल्याण से जुड़ी संस्था विमुक्त एवं घुमंतू जनजाति संगठन के अध्यक्ष हैं। उन्होंने मजदूर आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया है और किसानों , झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के कल्याण के लिए काम किया है । [ 2 ]

प्रकाशित पुस्तकें

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  1. उचाल्या
  2. हे स्वातंत्र्य कोणासति
  3. चीनी मटिटिल दिवस
  4. समाज साहित्य अनी स्वातंत्र्य
  5. वकील्य पारधी
  6. वदार वेदना
  7. बुद्धचि विपश्यना
  8. धुबांग
  9. डॉ. बीआर अंबेडकरांची जीवन अणि कार्य
  10. उताव
  11. गाव कुसा बहेरिल मानसा


पुरस्कार और सम्मान

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गायकवाड़ ने कई पुरस्कार जीते हैं। वे हैं:

अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार

  1. भारत के राष्ट्रपति द्वारा सार्क साहित्य पुरस्कार, 2001

सरकारी पुरस्कार

  1. 1988 में सबसे कम उम्र के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता
  2. 1990 में महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार।
  3. 2003 में महाराष्ट्र सरकार से सर्वश्रेष्ठ लेखक पुरस्कार

अन्य पुरस्कार

  1. पिंपरी चिंचवड़ महानगर पालिका पुरस्कार
  2. पुणे महानगर पालिका पुरस्कार
  3. नासिक नगर निगम से गौरव सम्मान पुरस्कार
  4. महाराष्ट्र कामगार कल्याण मंडल सम्मान पुरस्कार
  5. साहित्य रत्न अन्ना भाऊ साठे पुरस्कार
  6. -बहुजन कर्मचारी से गौरव सम्मान पुरस्कार
  7. सर्वश्रेष्ठ लेखक के लिए महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार
  8. गुंथर सोंथीमर मेमोरियल अवार्ड
  9. समता पुरस्कार
  10. संजीवनी पुरस्कार
  11. पंगहंती पुरस्कार
  12. मुकदम पुरस्कार
  13. ग़ालिब रत्न पुरस्कार, मुंबई
  14. डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर पुरस्कार

सम्मान

  1. दिग्गजों का खिताब लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स
  2. भारत में कई विश्वविद्यालयों और स्कूलों में छात्रों द्वारा अध्ययन के लिए कई पुस्तकों का संदर्भ दिया जाता है
  3. राष्ट्रीय स्तर पर उचाल्या पर नाटक का मंचन किया गया
  4. उचल्या पर भारत सरकार द्वारा एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म तैयार की गई है।

पूर्व सरकारी सदस्यता (पूर्व सदस्य)

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  1. राज्य एवं केन्द्र सरकार साहित्य विभाग सदस्य
  2. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सदस्य
  3. साहित्य अकादमी संयोजक
  4. राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग सदस्य


[ 3 [ 4 ]

संदर्भ

संपादन करना ]
  1. "लक्ष्मण मारुति गायकवाड़ - मराठी लेखक: दक्षिण एशियाई साहित्यिक रिकॉर्डिंग परियोजना (कांग्रेस लाइब्रेरी नई दिल्ली कार्यालय)" . Loc.gov. 23 जुलाई 1956 30 अक्टूबर 2013 को लिया गया .
  2. "लक्ष्मण गायकवाड़" . Samanvayindianlanguagesfestival.org 30 अक्टूबर 2013 को लिया गया .
  3. "लक्ष्मण गायकवाड़" . Samanvayindianlanguagesfestival.org 30 अक्टूबर 2013 को लिया गया .
  4. "मराठी उपन्यास उचाल्या पर फिल्म बनेगी" । टाइम्स ऑफ इंडिया । 26 मार्च 2013। मूल से 29 मार्च 2013 को संग्रहीत । 30 अक्टूबर 2013 को लिया गया ।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

भोजपुरी गीतों का सांस्कृतिक सौंदर्य / कुमार नरेन्द्र सिंह

 

भोजपुरी गीतों में सामाजिक चेतना और प्रतिरोध के स्वर



आज भोजपुरी के गीत इतने पतित हो चुके हैं कि उसे सुना नहीं जा सकता। लेकिन इन गीतों का मिज़ाज हमेशा से अश्लील नहीं रहा, वह तो प्रेम और विद्रोह की भाषा रही है। हमेशा अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ तनकर खड़ी रही है।

कुमार नरेन्द्र सिंह


आजकल गाए जा रहे अधिकतर भोजपुरी गीतों को सुनकर मन में वितृष्णा का भाव ही जग सकता है और जगता भी है। अश्लील, फूहड़ और द्विअर्थी गीतों का उबकाऊ चलन भोजपुरी गीतों और समाज के लिए लोगों के मन में हिक़ारत पैदा करता है। उच्छृंखलता उसकी पहचान बनती जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि आज भोजपुरी के बाज़ार का अप्रत्याशित विस्तार हुआ है। वह गांव-गलियों से निकल कर देश के बड़े-बड़े शहरों तो क्या, विदेश तक में अपने पांव पसार चुका है, लेकिन इसी अनुपात में उसका स्वभाव और स्वर मलीन भी हुआ है। उसका स्वभाव और सरोकार सिकड़ते जा रहे हैं। करुणा और विद्रोह की यह भाषा अश्लीलता की सारी सीमाएं लांघती जा रही है। आज भोजपुरी के गीत इतने पतित हो चुके हैं कि उसे सुना नहीं जा सकता। इन गीतों को सुनकर ऐसा लगता है, जैसे भोजपुरी में केवल ऐसे ही गीत गाए जाते रहे हैं। लेकिन यह सच नहीं है। भोजपुरी का मिज़ाज कभी अश्लील नहीं रहा, वह तो प्रेम और विद्रोह की भाषा रही है। हमेशा अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ तनकर खड़ी रही है। चाहे सामाजिक भेदभाव हो, ग़रीबों की पीड़ा हो, महिला-पुरुष विभेद हो या प्रतिरोध की बात हो, भोजपुरी गीत हमेशा अगुआ की क़तार में खड़े रहे हैं।

चूंकि सामयिकता भोजपुरी गीतों की ख़ास विशेषता रही है, इसलिए भोजपुरी भाषी लोग, समाज और देश से कटकर नहीं रह सकते, कभी रहे भी नहीं हैं। देश-दुनिया में ऐसी शायद ही कोई घटना हो, जिसे भोजपुरी ने नहीं गाया है। भोजपुरी गीतों में लास्य, उल्लास और सुरुचिपूर्ण रसिकता के साथ-साथ सामाजिक सरोकार, जन-चेतना और प्रतिरोध के स्वर भी प्रमुखता से मुखरित हैं।

भोजपुरी लोकगीतों ने अक्सर मेहनतकशों के संघर्ष की बुनियाद तैयार की है और आम जनता को अन्याय के विरुद्ध जगाया है, उन्हें गोलबंद किया है। ‘केकरा से करी अरजिया हो सगरे बंटमार’ या ‘लड़े के बा किसान के लड़ैया, चल तुहुं लड़े बदे भइया’ जैसे गीतों ने जनता को प्रतिरोध की ताकत दी है। लोकगीतों का यह चरित्र शोषकों के विरुद्ध रहा है। इनमें गहन दर्शन, विचार, संवेदनशीलता और जीवंतता भरी पड़ी है। बानगी देखिए –

केकर ह ई देश के काटत बड़ुवे चानी

केकर जोतल केकर बोअल के काटेला खेत

केकर माई पुआ पकावे, केकर चीकन पेट।

के मरि-मरि सोना उपजावे के बनि जाला दानी….केकर ह ई देश।

ताजमहल केकर सिरजल ह, केकर ह ई ताज

केकर ह ई माल खजाना, करतु आज के राज

पांकी-कादो में के बइठल, के सेवे रजधानी….केकर ह ई देश।

किसानों की दुर्दशा और पीड़ा की अभिव्यक्ति अनेक भोजपुरी गीतों में दिखाई देती है। बेचारे मज़दूर-किसान ग़रीबी में पैदा होते हैं और ग़रीबी में ही मर जाते हैं। दिन-रात परिश्रम करने के बावजूद उन्हें भर पेट खाना तक नसीब नहीं होता। खेती के लिए क़र्ज़ लेते हैं और क़र्ज़ चुकाते-चुकाते मर जाते हैं, लेकिन क़र्ज़ कभी चुकता नहीं है। निम्नलिखित गीत में उनकी पीड़ा किस तरह घनीभूत हुई है, देखिए –

फिकिरिया मरलसि जान, दुरदिनिवा कइलसि हरान।

करजा काढ़ि के खेती कइलीं, मरि गइल सब धान।

बैला बेंच के सहुआ के दिहलीं, रतिया कइलीं बिहान।

लइका-लइकी के लंगटे देखलीं, मेहरी के लुगरी पुरान।

सहुआ रजना चैन से सूते, हमरे नाहीं ठेकान

कबहुंक लपसी लाटा खइलीं, कबहुंक साझ-बिहान….फिकिरिया मरलसि जान।

एक भोजपुरी गीत में एक घास गढ़ने वाले की व्यथा को इतने मार्मिक शब्दों में बयान किया गया है कि सुनकर मन भर आता है। इस गीत को सुनकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आंखें गीली हो जाएंगी –

भोरहीं गढ़ीला जा के टंड़िया प घास रे।

नाम घसगढ़ा पड़ल काम घसगढ़िया, कबहूं ना दिहले आराम घसगढ़िया

हंसुआ खुरुपिया रसरिया बा पास रे…..भोरही।

चुड़वे चबेनिया प काटीं दुपहरिया, सांझ ले उपास रहीं सेई ला बधरिया

ओनहीं सहीला घाम बरखा बतास रे….भोरहीं गढ़ीला।

होला गदबेरा त लउटी ला घरवा, कौड़ी भ गुड़ मिलल जीव के अहरवा

पनिये से पेट के मिटाई ला भुखास रे…..भोरहीं गढ़ीला।

चार घड़ी रात गइल मांड़- भात नूनवा, संझिए के संझिए मिलेला एक जुनवा

उहो कबो मिले नाहीं रही ला उपास रे…..भोरहीं गढ़ीला।

इसी तरह एक गरीब की बेटी, जो बकरी चराने के लिए अभिशप्त है, उसकी व्यथा कथा इस भोजपुरी गीत में बहुत ही मार्मिक रूप से व्यक्त हुई है –

गरीबवन के बेटिया चरावेली बकरिया, भोरहीं बधरिया के ओर।

अंचरा में बान्हि के फुटहा चबेनवा चली जाली फजिरे सबेर

मथवा प बतवा के टूटेला पहड़वा कहियो जे कइली अबेर।

कतहीं त नदिया सुखइली बरखवा में जेठवो में कतहीं अथाह

केकरो लोकनिया बा लाखन करोड़वा के केहू के भुलाइल बाटे हो राह।

ग़रीब जन के लिए जाड़ा किसी विपत्ति से कम नहीं होता। गर्म कपड़े की बात कौन करे, उनके पास तो इतना कपड़ा नहीं होता कि वे पूरी तरह से अपना तन भी ढंक सकें। उसमें भी यदि पछुआ हवा बहने लगे, तब तो जुल्म ही हो जाता है। देखिए इस गीत में उस स्थिति का कैसा दारुण बयान है –

जड़वा के रतिया गरीबवन के छतिया से पछेया बहेली बिछीमार।

फटली लुगरिया से तोपीं कइसे देहिया कि तोपलो प रहेला उघार।

उघरल देहिया प गीधवा के डिठिया से फूटि जाए अंखिया तोहार।

यहां देखने वाली बात यह भी है कि इस गीत में केवल ग़रीब स्त्री की स्थिति का वर्णन ही नहीं है, बल्कि उस नज़र के प्रति हिक़ारत भरा प्रतिकार भी है।

एक भोजपुरी गीत में फुटपाथ पर जीवनयापन करने वाले मज़लूमों को उठ खड़ा होने का आह्वान किया गया है। ग़रीबों को शोषकों के ख़िलाफ़ जागरूक करने के संदर्भ में यह गीत अद्वितीय है –

तनी जाग हो जवान फूटपाथ के।

अजबे समइया बा गजबे त हाल बा, जेही बिसकरमा से ही फटेहाल बा।

रचेला कंगूरवा से फूस खातिर छछनेला, तड़पेला एक मुठी भात के…..तनी जाग।

झमझम-झमझम गाव ता बदरवा, तोहरो मेहरिया के तारे ला अंचरवा

देखिले जुलूम बरसात के….तनी जाग।

ए हो हलुमान बल आपन इयाद कर

छोड़ि द भरोसा भगवान के….तनी जाग।

उल्लेखनीय है कि इस गीत में इस बात को लेकर असंतोष जाहिर किया गया है कि जो विश्वकर्मा यानी सृजन करने वाला है, वही फटेहाल है। समाज में आर्थिक असमानता को चुनौती देता यह गीत अविस्मरणीय है। इसमें जनता को हनुमान कहकर संबोधित किया गया है और उससे कहा जा रहा है कि वह अपने बल का स्मरण करे और सबसे बड़ी बात यह कही गयी है कि जनता अब भगवान पर भरोसा करना छोड़ दे।

भोजपुरी के अनेक गीतों में बेटा और बेटी के बीच क़ायम सामाजिक भेदभाव को उजागर किया गया है। न केवल उजागर किया गया है, बल्कि इसे व्यवहार को ग़लत भी बताया गया है। बेटा-बेटी के बीच सामाजिक भेदभाव को राहुल सांकृत्यायन ने अपने इस गीत में जिस उत्कृष्टता के साथ उकेरा है, वह अद्वितीय है –

एके माई बपवा से एक ही उदरवा में, दुनों के जनमवा भइले रे पुरुखवा।

पूत के जनमवा में नाच अउरी सोहर होला, बेटिया जनम पर सोग रे पुरुखवा।

तिरिया के मुअले त बतिये कवन कहीं, जिअते सवतिया ले आवे रे पुरुखवा।

ओहि रे कसुरवा मरदवा के किछु नाहीं, तिरिया के भकसी झोंकावे रे पुरुखवा।

इसी भेदभाव को एक पारंपरिक सोहर में मार्मिक रूप से उकेरा गया है। इस सोहर में एक बेटी के जन्म पर पूरा घर बेटी जनने वाली स्त्री के साथ किस तरह का व्यवहार करता है, वह परेशान करने वाला है। बाक़ी लोगों की बात कौन करे, बेटी के जन्म की बात जानकर स्वयं उसके पति की हंसी भी गायब हो जाती है। ज़रा देखिए इस सोहर को –

जेठ बैसाख के महीनवा त पुरइन लहसी गइली हो

ए ललना ताही तर बेटिया जनम लिहली पियवा निहंसी भइले हो।

काई ओढ़न काई डांसन काई चउरा पंथ पड़े हो, ए ललना काई लकड़ी जरेला सउरिया

त सउरी भेयावन लागे हो।

लूगरी ओढ़न लूगरी डांसन कोदउवा चउरा पंथ पड़े हो, ए ललना रेंड़िया के लकड़ी जरेला

त सउरी भेयावन लागे हो।

लेकिन जब बेटा पैदा होता है, तो सबका व्यवहार बदल जाता है। बेटा जनने वाली स्त्री को सभी चीजें उत्तम गुणवत्ता वाली दी जाती हैं। इसी सोहर में आगे उसका बयान है –

जेठ बैसाख के महीनवा त पुरइन लहसी गइली हो, ए ललना ताही तर बेटवा जनम लिहले

पियवा हुलसी गइले हो।

बेटा जनने वाली स्त्री को पहनने के लिए लूगरी नहीं दी जाती है, बल्कि –

चुनरी ओढ़न चुनरी डांसन त बासमती चउरा के पंथ पड़े हो

ए ललना चंदन लकड़ी जरेला सोइरिया त सोइरी सोहावन लागे हो।

इसी तरह एक अन्य सोहर में सामंतवाद पर चोट की गयी है। इस सोहर में एक हिरण-हिरणी के जोड़े के माध्यम से बात कही गयी है। राजा दशरथ के सिपाही हिरण का शिकार कर लेते हैं। हिरणी फरियाद लेकर कौशल्या के पास जाती है और कहती है –

मचिया बइठल रानी कोसिला त हिरनी अरज करे हो

ए ललना मसुआ तो सिंझिहें रसोइया खलड़िया मोहे देती नु हो।

तो कौशल्या हिरणी को जवाब देती हैं –

जाहु-जाहु हिरनी तु जाहु खलड़िया नाहीं देइब हो

ए ललना खलड़ी के खंजड़ी बनइबो, त राम मोरा खेलिहन हो।

हिरणी निराश होकर वन में चली जाती है और राम खंजड़ी से खेलने लगते हैं। हिरणी के कानों में जब खंजड़ी की आवाज़ पड़ती है, तो उसे कैसा महसूस होता है और तब वह क्या चाहती है, ज़रा देखिए –

जब-जब बाजे उ खंजड़िया सबद सुनि अहंकई हो

ए ललना कब ले इ फूटिहें खंजड़िया ते मनवा में धीर धरीं हो।

यहां इस सोहर में पूरे सामंतवादी व्यवस्था पर चोट की गयी है। हिरणी जानती है कि उसका हिरण अब लौट कर आनेवाला नहीं है, लेकिन उसे तो चैन तभी पड़ेगा, जब वह व्यवस्था ही नष्ट हो जाए, जिसमें उसका हिरण छीन लिया गया है और उसके चमड़े का खिलौना बनाकर कोई खेल रहा है। यही कारण है कि हिरणी खंजड़ी फूटने की कामना करती है।

नारी स्वाभिमान को स्वर देता भोजपुरी का यह गीत सचमुच बेमिसाल है। इस गीत में सीता राम का मुंह देखने के लिए भी तैयार नहीं हैं –

अइसने पुरुखवा के मुंह नाहीं देखबो, जिनि मोहे देले बनवास रे

फटि जइती धरती अलोप होई जइतीं, अब ना देखबि संसार रे।

शोषण से परेशान एक स्त्री कहती है –

माई रे माई बिहान कोई कहिया

भेड़ियन से खाली सिवान होई कहिया।

हमरा के कागज के नइया थमाई, अपने आकाशे जहजिया उड़ाई

अंतर के जंतर गियान होई कहिया……माई रे माई।

दहेज प्रथा पर भी भोजपुरी गीतों में ज़बर्दस्त चोट की गयी है। एक बेटी पैसा नहीं होने के चलते अपने पिता द्वारा वर खोजने में बार-बार असफल होते देखकर कहती है कि धनी घर-वर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है, इसलिए आप वैसा वर खोजिए, जैसा मैं कहती हूं –

जेकरे ना होई बाबा हाथी से घोड़ा, नाहीं होई मोहर पचास

जेकरे ना होइहें बाबा नौ लाख तीलक, से बर हेरी हरवाह।

हर जोती आवे कुदार गोड़ियावे, बइठे मुंह लटकाई

ओनहीं के तीलक चढ़इह मोरे बाबा, उ नाहीं तीलक लेई।

एक बेटी तो दहेज के चलते विवाह नहीं होने से आत्महत्या का मन बना लेती है। वह अपने भाभी से कहती है –

रचि-रचि कई द सिंगार मोरी भउजी, कि अइले दुअरिया कहार

अबहीं त बाड़ू कुंआर मोरी ननदी, कहवां से अइले कहांर।

बेटी आत्महत्या के पहले अपनी भाभी से कहती है –

बपई से कहि दिह पगरी बचइहें, माई से भेंट अंकवार

बिरना से कहि द लवटी घर आई, नाहीं अप बहिनी तोहार।

दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है। दहेज के ख़िलाफ़ कानून बन जाने के बावजूद इसका प्रचलन न केवल क़ायम है, बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। दहेज लेना समाज में प्रतिष्ठा की बात समझी जाती है। न जाने कितनी महिलाएं दहेज के लिए मौत के घाट उतार दी जाती हैं। अख़बारों में प्राय: ऐसी ख़बरें हमें पढ़ने को मिलती रहती हैं। एक बाप अपनी बेटी को जला दिए जाने के बाद पछताते हुए कहता है –

जनतीं की जारल जइबू आग में दहेज के

पाप नाहीं करतीं ए बेटी ससुरा में भेज के।

भोजपुरी को छोड़कर शायद ही कोई बोली हो, जिसमें भ्रूण-हत्या के बारे में गीत लिखा गया हो। हमारे देश में हजारों बेटियां गर्भ में ही मार दी जाती हैं। कोख कत्लगाह बन गया है। बेटे की चाहत इतनी प्रबल है कि बेटी को गर्भ में मारने में भी गुरेज़ नहीं होता है। देखिए यह गीत, जिसमें एक अजन्मा बेटी अपनी मां से कहती है –

मुंहवो ना देखलीं तोर ए माई, देखलीं ना दुनिया जहानवा

कवना करनवा तू मरलू ए माई, गरभे में हमार जानवा।

हमारे देश में आज भी पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। ग़रीब और दलित तबक़े की स्त्रियों के लिए आज भी पढ़ना करिया अक्षर भैंस बराबर ही है। लेकिन अब वे अनपढ़ नहीं रहना चाहतीं। अब वे श्रम करते हुए पढ़ने की चाहत रखती हैं। वे नहीं चाहतीं कि नहीं पढ़ी-लिखी होने के कारण उन्हें कोई ठग ले। वे बैंक और पोस्ट ऑफिस का काम स्वयं करना चाहती हैं और बीडीओ, कलक्टर से ख़ुद मामला सुलझाना चाहती हैं। इस संदर्भ में यह गीत अत्यंत उल्लेखनीय जान पड़ता है –

चल ए सजनी हमनियों पढ़ेला।

खेतवा में दिन भर खुरुपिया चलाइब, आरे सिलेटवा प पिलसिन घुमाइब

करिया अछर जब भैंसी ना लगिहें, हमनी के तब कोई ठगवा न ठगिहें

सीख लेब आपन-आपन दसखत करेला।

अपने से चिट्ठी लिखे के पढ़े के, बैंक पोस्ट आफिस में फारम भरे के

बीडियो कलट्टर से सलटब झमेला…….चल ए सजनी हमनियों पढ़ेला।

पढ़ाई की यह चिंता गोरख पांडेय के इस गीत में भी अभिव्यक्त हुई है –

गुलमिया अब नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।

……………………….

दिनवा खदनिया सोना निकललीं, रतिया लगवलीं अंगूठा

सारी जिनगिया करजे में डूबल कइल हिसबवा झूठा

जिनगिया अब हम नाहीं डुबइबो अछरिया हमरा के भावेले।

दुर्भाग्य है कि आज भोजपुरी गीतों की यह शानदार परंपरा और विरासत अश्लीलता के कूड़ेदान में तिरोहित हो रही है। आश्चर्य है कि इसकी चिंता भोजपुरी समाज के पढ़ुआ लोगों को भी नहीं है। वे इस परिघटना को आंखें मूंदकर देख रहे हैं। बाजार ने भोजपुरी गीतों की मिठास और सुरुचि को फूहड़ता को कूड़े में डाल दिया है, जिससे केवल दुर्गन्ध आती है।

कुछ प्रेरक कहानियाँ / वीरेंद्र सिंह

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