रविवार, 7 अगस्त 2011

-विजयदान देथा / बना रहे बनारस

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२१ जुलाई २०११


विचित्र अधिकार


एक महात्मा फेरी पर जा रहे थे। एक नवेली बहू ने  न  तो  उन्हें दक्षिणा में आटा डाला और न उन्हें रोटियाँ ही दीं। महात्मा को काफी गुस्सा आया। उनको ऐसी शान तो पहली बार ही बिगड़ी। रास्ते भर उसे कोसते हुए ,बुरा-भला कहते हुए बड़बड़ाते जा रहे थे कि सर पर लकड़ियों की भारी उठाए बहू की सास मिल गई।

उसे रोककर कहने लगे कैसी कुलच्छनी बहू लाई होए जो हाथ की बजाए सन्तों को मुँह से उत्तर दे। क्या एक अंजलि  भर आटे व एक रोटी से भी साधु सस्ता हो  गया ? महात्मा के भेख में एक कुत्ते जितनी भी इज्जत नहीं रखी। मुँह के सामने ही साफ मना कर दिया कि मुफ्तखोर साधुओं को देने के लिए आटा नहीं पीसा। अब तो घर-घर बहुओं का राजहोने लगा  है। थोड़े दिन बाद तो खुद भगवान भी भूखे मरे लगेंगे।

महात्मा की बात सुनकर सास आगबबूला हो गई। अविश्वास के भाव से पूछाए सच कह रहे हैं ?

नहीं तो  क्या झूठ बोल रहा हूँ। लगता है अब इन  बहुओं के कारण हमें भी झूठ सीखना पड़ेगा।
फिर तो य दुनिया जीने के काबिल नहीं रहेगी। नहीं महारराज,आप  अपने  मुँह से ऐसी बात न करें,सुनने से ही  पाप लगता है। चलिए मेर साथ। बड़ी आई नवाबजादी,जीभ न खींच लूँ तो मेरे नाम पर जूती। खड़े-खड़ेे देख क्या रहे  हैं,चलिए न मेरे साथ।

महात्मा ने सास का यह रंग-ढंग देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। बार-बार मना करने पर उसके सर की भारी अपने कन्धे पर धरने के बाद ही वे उसके पीछे-पीछे चले। सास गुस्से में तेज चलती हुई बहू को दनादन गालियाँ निकाल रही थी। सुनकर महात्मा को भी अचरज हुआ कि इत्ती गालियाँ तो वो भी नहीं जानते। पर मन-ही-मन बड़े खुश थे कि सास-हू के झगड़े में उनके पौ-बारह हो जाने हैं। लकड़ियों का भारी बोझ उन्हें फूलों की डलिया जैसा हल्का लगा और उधर भार उतरने से सास का मुँह और ज्यादा खुल गया था।

घर पहुँचते ही महात्मा जी से भारी लेकर वह दनदनाती अन्दर पहुँची। गले की पूरी ताकत से बहू को झिड़कते हुए उसने अन्त में पूछा,बोल तूने, सचमुच महात्मा जी को मना किया ?

बहू ने धीमे से अपराधी के नाईं हामी भरी। सास की आँच और तेज हो गई,बेशऊर कहीं की ! तेरी इतनी हिम्मत कि मेरे रहते तू मना करे ?

महात्मा मन ही मन सोचने लगे कि आज तो यह झोली छोटी पड़ जाएगी। बड़ी लाते तो अच्छा रहता। उन्हें क्या पता कि सास इतनी भली है ! उबलती हाँडी के ढक्कन के तरह फदफदाते सास बाहर आई। पर खाली हाथ। गुस्से के उसी लहजे में बोली,भला आप ही बताइए,मेरे रहते वह मना करनेवाल कौन होती है ? मरने के बाद भी उसकी ऐसी हिम्मत क्या हो जाए ! मना करूँगी तो मैं करूँगी। यूँ मुँह बाए क्यूँ खड़े हैं ? हाथ-पाँव हिलाते मौत आती है ! खबरदार कभी इधर मुँह किया तो। इस घर की मालकिन हूँ तो मैं हूँ,एक बार नहीं सौ बार मना करूँगी। फौरन,अपना काला मुँह करिए यहाँ से। बेकार झिकझिक करने की मुझे फुरसत नहीं है।

बेचारे महात्मा ने डरते-सहमते अपने सर पर हाथ फेरा। सचमुच,लकड़ियों का गट्ठर तो सास उतार ले गई थी,फिर यह असह्य बोझ कहो का है ? उनके पाँव मानो धरती से चिपक गए हों।

विजयदान देथा

४ अप्रैल २०११


मेहनत का सार


एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया पार्वती को साक्छी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएँगे शंकर भगवान शंख बजाएँ तो बरसात हो

अकाल-दर-अकाल पड़े पानी की बूँद तक नहीं बरसी न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही न किसी रंक दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया लोगों ने मुँह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया, पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे

संजोग की बात ऐसी बनी की एक दफ़ा शंकर-पार्वती गगन में उड़ते जा रहे थे उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत कि जुताई कर रहा है पसीने में सराबोर, मगर आपनी धुन में मगन जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी

फिर भी वह जी जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो उसकी आँखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते, तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है

शंकर पार्वती विमान से नीचे उतरे उससे पूछा," अरे बावले! क्यूं बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती बरसात का तो अब सपना भी दूभर है"

किसान ने एक बार आँख उठा कर उनकी और देखा,और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया," हाँ बिलकुल ठीक कह रहे हैं आपमगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊँ, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूँ जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी ! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है फ़कत लोभ की खातिर हीं मैं खेती नहीं करता "

किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए सोचने लगे," मुझे भी शंख बजाये बरस बीत गए कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस,उससे आगे सोचने कि जरुरत ही उन्हें नहीं थी खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका चारो और घटायें उमड़ पडी- मतवाले हाथिओं के सामान  आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूँजने लगी और बेशुमार पानी बरसा- बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूँदें पहले ही खेत में मौजूद थीं

-विजयदान देथा

१४ मार्च २०११


सच्चाई का भ्रम

किस्मत की मारी एक बामनी ने जटिये से घरवास किया.

कुण्ड में भीगे हुए कच्चे चमड़े की दुर्गन्ध से नाकोंदम होने लगा,जी मितलाता, उबकाई आने लगती,सर चकराता न पूरी भूख लगे और न रात को अच्छी तरह नींद आये आँखें हरदम जलती रहतीं हर वक्त नाक में इत्र के फोहे रखती और मुह पर कपड़ा.

दिन बीतने में बरस नहीं लगते

एक दिन बामनी ने गुमान के स्वर में जटिये से कहा, "देखी मेरी करामत!

मेरे आने से तेरे घर की बदबू ही मिट गई, ऊँची जात का तो चमत्कार ही ऐसा होता है!"

पति ने तनिक व्यंग्य से भरे परिहास में कहा," बदबू तो वैसी ही है, पर तू उसकी आदी हो गई है. तेरे नाक कि कोंपल इती जल्दी मर जायेगी, मुझे ऐसी आशा नहीं थी
अब तो इत्र-फुलेल का खरच कम करदे"

" तुम मुझे अकल देने चले हो? वह तो कभी का कम कर दिया, अपने घर का भला मैं नहीं सोचूँगी तो और कौन सोंचेगा?"

-विजयदान देथा

९ मार्च २०११


"मैं री मैं"

एक मालदार जाट मर गया तो उसकी घरवाली कई दिन तक रोती रही जात -बिरादरी वालों ने समझाया तो वह रोते-रोते ही कहने लगी,  "पति के पीछे मरने से तो रही ! यह दुःख तो मरूँगी तब तक मिटेगा नहीं रोना तो इस बात का है कि घर में कोई मरद नहीं मेरी छः सौ बीघा जमीन कौन जोतेगा, कौन बोएगा?"
हाथ में लाठी लिए और कंधे पर खेस रखे एक जाट पास ही खड़ा था वह जोर से बोला,"मैं री मैं"

जाटनी फिर रोते-रोते बोली,"मेरी तीन सौ गायों और पांच सौ भेड़ों की देखभाल कौन करेगा?

उसी जाट ने फिर कहा, "मैं री मैं"

जाटनी फिर रोते रोते बोली, "मेरे चारे के चार पचावे और तीन ढूंगरियाँ हैं और पांच बाड़े हैं उसकी देखभाल कौन करेगा?"

उस जाट ने किसी दूसरे को बोलने ही नहीं दिया तुरंत बोला,"मैं री मैं "

जाटनी का रोना तब भी बंद नहीं हुआ सुबकते हुए कहने लगी,"मेरा पति बीस हज़ार का कर्जा छोड़ गया है,उसे कौन चुकाएगा?"

अबके वह जाट कुछ नहीं बोला पर जब किसी को बोलते नहीं देखा तो जोश से कहने लगा, "भले आदमियों,इतनी बातों की मैंने अकेले जिम्मेदारी ली तुम इतने जन खड़े हो, कोई तो इसका जिम्मा लो! यों मुँह क्या चुराते हो!"

-विजयदान देथा

२७ जनवरी २०११


बनिए का चाकर

कोल्हू का बैल और बनिए का चाकर हर वक्त फिरते हुए ही शोभा देते हैं.

किसी एक सुहानी वर्षा की बात है कि बादलों की मधुर-मधुर गरज के साथ झमाझम पानी बरस रहा था. चौक वाली बरसाली में सेठ जी के पास हीं उनका नौकर मौजूद था. पानी बिना रुके बह रहा है और यह ठूंठ कि तरह खड़ा है, कैसे बर्दाश्त होता !

चौक में पत्थर की पंसेरी पडी थी,सेठ जी इसी चिंता में खोये थे कि नौकर को क्या काम बताया जाये. यह तो मालिक कि तरह ही आराम कर रहा है !

पंसेरी पर नज़र पड़ते ही तत्काल उपाय सूझा चाकर कि तरफ मुँह करके हुक्म सुनाया,  "खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है,यह पंसेरी अन्दर ले आ बेचारी पानी में भीग रही रही है"

- विजयदान देथा

नोट - विजयदान देथा की कहानियां हमें सुधांशु के सौजन्य से प्राप्त हो रही हैं।  

३ जनवरी २०११


साधु की कमाई

एक जाट बैलगाड़ी से कहीं जा रहा था. रास्ते में उसे एक साधु मिला.चौधरी भला था गाड़ी रोकते हुए कहा,"महाराज,जय राम जी की ! गाड़ी के रहते आप पैदल क्यों जा रहे हैं ! रास्ता आराम से कटे उतना ही अच्छा. आईए,गाड़ी पर बैठ जाईए ! आपकी सांगत से मुझे भी थोड़ा धरम-लाभ हो जायेगा"

महाराज के पास एक वीणा थी.  पहले उसे गाड़ी पर रखा और फिर खुद भी बैठ गया.

चौमासे के कारन रास्ता बहुत उबड़ खाबड़ था. हिचकोलों से गाड़ी का चूल-चूल हिल गया.चौधरी ने बैलों को पुचकारकर रास खींची.

नीचे उतारकर देखा-पहिये की पुट्ठीयाँ खिसक कर बाहर निकल आई थी. ठोंकने के लिए और कुछ नहीं दिखा तो उसने महाराज की वीणा उठा ली.एक तरफ बड़ा-सा तूंबा देख कर उसे लगा यह ठोंकने के लिए अच्छा औजार है.उसने पूरे जोर से पुठी पर वीणा का प्रहार किया तूंबा भितर से थोथा था.  पुट्ठी और पाचरे पर पड़ते हीं उसके परखच्चे उड़ गए.

चौधरी ने महाराज को उलाहना दिया, "वह महाराज,सारी उम्र भटककर एक ही औजार सहेजा और वह भी थोथा ! आपकी इस भगति में मुझे कुछ सार दिखा नहीं"


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