-माटी है, माटी हो जाना है.
-मंगलसूत्र तो सही है पर विवाहित पति को भी तो छोड़ देना चाहिए, आखिर गुलामी का मूल तो विवाह ही है.
मंगलसूत्र कारक है तो विवाह कारण, अब तो सहजीवन का भी विकल्प है, जब तक जी चाहे रहो नहीं तो दोनों अपने-अपने रास्ते! (२० तमिल महिलाओं के मंगलसूत्र पहनना छोड़ने की घटना पर)
-दिल से और दिमाग से लिखने में यही फर्क होता
है, दिल से लिखी बात सीधे दिल को चीरते हुए घुसती है जबकि दिमाग वाली बात,
आदमी को जबर्दस्ती क़त्ल करने सरीखी लगती है
-अभी एक पोस्ट पढ़ी तो पता लगा कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा क्यों नज़र आता है, खैर दिल्ली के 'राष्ट्रीय' मीडिया के रतौंदी तो जग जाहिर है.
कल ही बंगलूर में मिले, एक टीवी पत्रकार बता रहे थे कि कैसे एक राष्ट्रीय 'पढ़ा लिखा' चैनल आधारहीन आरोप को लेकर स्टोरी बनाने पर जोर दे रहा था. जिसके लिए उन्होंने साफ़ मना कर दिया और ज्यादा जोर देने पर दिल्ली से ही हवाई स्टोरी करने का सुझाव दिया.
ऐसे में, हरियाली के अंधों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है !
-मीडिया आम आदमी की घर में छतरी से झांके तो आबरू खतरे में और जब आम आदमी मीडिया का चरित्र आंके तो तू कौन!
लोकतंत्र का चौथा खम्बा या अंतिम विद्रूपता !
-मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है...
-वीभत्स सत्य
तालिबान ने बामियान में विश्व भर में बलुआ पत्थर की बुद्ध की सबसे ऊंची मूर्ति को विस्फोटक से नष्ट करने के बाद नौ गायों का वध किया था.
-सांवले रंग से इतना लगाव क्यों?
सोच, स्मृति या समझ या कोई पुराना दर्द!
जो रह-रह कर उठता है और पैदा होते हैं नए विवाद.
गोरी जसोदा तो श्याम कैसे सांवला ?
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-चाहता हूँ किसी के दुख का कारण नहीं बनूं पर अकारण अपनों के ही दुख का निमित्त बन जाता हूँ...
-हिंदी के कितने लिखाड़, अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं!
आदतन या कभी अटपटा लगा ही नहीं.
-भय के दो मायने हैं, सबकुछ भूलकर निकल भागो या फिर सब चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ो, मर्जी अपनी है जो मतलब निकालें.
-व्यक्ति की परख तो पैदा करनी होगी.
-कुछ खुशियाँ माँ ही दे सकती हैं...
-कई बार पुरानी यादें और खुशबू जिंदगी में नया रंग भर देती है...
-जीवन में सटीकता और सतर्कता का सातत्य कायम रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है!
-जब आज में उम्मीद लायक कुछ न लगे तो कल की ही उम्मीद बचती है...
-पृथिवी में दो ही जीवित देवता हैं, माँ-पिता. बस बाकि तो भरम है.
-सफलता की कहानी तो सिर्फ सन्देश देती है पर असफलता की कहानी, सफलता के सबक देती है.
-अनुशासन के लिए उठाया गया कष्ट, पश्चाताप की पीड़ा से लाख गुना बेहतर है.
-दिल तो होते ही हैं, टूटने के लिए. अगर टूटा दिल संभल भी जाएं तो भी वह पुराने वाला नहीं होता है क्योंकि खलिश तो रह ही जाती है.
-परीक्षा, परिस्थिति की नहीं व्यक्ति की जीवटता की होती है...
-वीभत्स सत्य
तालिबान ने बामियान में विश्व भर में बलुआ पत्थर की बुद्ध की सबसे ऊंची मूर्ति को विस्फोटक से नष्ट करने के बाद नौ गायों का वध किया था.
-सांवले रंग से इतना लगाव क्यों?
सोच, स्मृति या समझ या कोई पुराना दर्द!
जो रह-रह कर उठता है और पैदा होते हैं नए विवाद.
गोरी जसोदा तो श्याम कैसे सांवला ?
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-चाहता हूँ किसी के दुख का कारण नहीं बनूं पर अकारण अपनों के ही दुख का निमित्त बन जाता हूँ...
-हिंदी के कितने लिखाड़, अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं!
आदतन या कभी अटपटा लगा ही नहीं.
-भय के दो मायने हैं, सबकुछ भूलकर निकल भागो या फिर सब चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ो, मर्जी अपनी है जो मतलब निकालें.
-व्यक्ति की परख तो पैदा करनी होगी.
-कुछ खुशियाँ माँ ही दे सकती हैं...
-कई बार पुरानी यादें और खुशबू जिंदगी में नया रंग भर देती है...
-जीवन में सटीकता और सतर्कता का सातत्य कायम रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है!
-जब आज में उम्मीद लायक कुछ न लगे तो कल की ही उम्मीद बचती है...
-पृथिवी में दो ही जीवित देवता हैं, माँ-पिता. बस बाकि तो भरम है.
-सफलता की कहानी तो सिर्फ सन्देश देती है पर असफलता की कहानी, सफलता के सबक देती है.
-हम बहुधा दूसरों के साथ अतिशय सदाशयता बरतने, कुछ हद तक दिखाने के फेर में, के चक्कर में जाने-अनजाने अपनों की अनदेखी कर देते हैं. जिसका नतीजा अपनों से बिछुड़ने, अलग होने या छिटक जाने के रूप में सामने आता है. और हमें जब तक इस बात का अहसास होता है तो समय अपनी गति पकड़ चुका होता है, हम कही पीछे रह जाते है.
अकेले अपनी जिंदगी में.
-दिल तो होते ही हैं, टूटने के लिए. अगर टूटा दिल संभल भी जाएं तो भी वह पुराने वाला नहीं होता है क्योंकि खलिश तो रह ही जाती है.
-परीक्षा, परिस्थिति की नहीं व्यक्ति की जीवटता की होती है...
-असली शुद्ध देसी घी, शुद्ध देसी घी, देसी घी.
विशेषण की आवश्यकता किसे पड़ती है ?
कुछ समझे तो बताये !
-३५ वर्षों में पहली बार दिल्ली में 'दिल्ली वाला न होने' का अहसास हुआ.
अभी-अभी मोबाइल फ़ोन पर एक चुनावी मेसेज आया, जिसे सुनकर लगा कि देश की राजधानी में केवल बिहारी-पुरबिया ही वोटर रहते हैं!
बाकि की तो दरकार ही नहीं है, न आदमी की न उनके वोट की.
धर्म, भाषा के नाम पर ही खंडित होते समाज में अब इलाके-प्रदेश के नाम पर भेद.
न जाने कैसा समाज रचेंगे अब देश के कर्णधार !
-दूसरों का हल्कापन झलक जाता है, अपनी गुरु गंभीरता में
-आखिर मीडिया के मठाधीश अपने संस्थानों की सत्ता से लड़ने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते ?
पर फिर किस मुंह से राजनीतिकों को ज्ञान देते है ?
अपने यहाँ तो पत्रकारों के वेतन आयोग पर चुप्पी साध लेते हैं और राजनीति में भगीरथ बनने का आव्हान करते हैं!
मतबल
हम्माम में कोई सिर्फ अकेला नहीं है.
-पेरिस में पत्रकारों के हत्याकांड की 'लाल' परिभाषा "असहमति की सजा"!
-छोटा सपना और बड़ा लक्ष्य ही मार्ग प्रशस्त करते हैं.
-जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुधा मन को साधकर थामे रखना पड़ता है.
-गुजरात के समुद्र तट पर पाकिस्तान की ओर से आ रही नौका को लेकर 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'इंडिया टुडे' का 'दिव्य ज्ञान' भिन्न हैं.
पहले को स्त्रोत ने ज्ञानी बनाया है और दूसरे को ट्रांसस्क्रिप्ट ने.
अब पाकिस्तान से गुजरात कोई नयी जियारत का शुरू होने के ब्रेकिंग न्यूज़ ही देखनी बची है.
वैसे इंडियन एक्सप्रेस ही था, जिसने खबर ब्रेक की थी कि जनरल वी.के. सिंह के समय में भारतीय सेना की टुकड़ी 'दिल्ली' की ओर रवाना हो गयी थी.
पुरानी कहावत है, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. अब इसमें पत्रकार को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए वैसे भी अब बिना पत्रकार यानि अख़बार के साहित्यकार को भी कौन जान रहा है ?
तभी तो साहित्यकार को भी पत्रकार को 'बुद्धिजीवी' की जमात में शामिल करना पड़ा है.
-गुजरात के समुद्र तट पर मोमबत्ती जलाने वालों के साथ अमन के कबूतर उड़ाने वालों को भेजना चाहिए ताकि वे अगले साल भारत में रिलीज़ होने वाले पाक-कैलेंडर की तस्वीरें जुटा सकें.
-प्रगति का आकाशवाणी चैनल
पता लगा है कि बिहार के गाँवों में भी 'क्रिसमस' बड़ी धूम धाम से मनाया गया और देशप्रेमियों ने अपने बच्चों को 'लाल' टोपा पहनाया.
बताने वालों का कहना है, यह खबर एकदम पक्की है क्योंकि इस चैनल में 'गिरजे' का पैसा है, लाल की रिश्तेदारी है और वाम का आभारी है.
-साला, यह "पॉलिटिक्स" तो हिंदी को मार रही है!
-बड़े बौद्धिक पत्रकारों के लिए "अखबारों और टीवी चैनलों" में 'आम' श्रमजीवी पत्रकारों को वेज बोर्ड के अनुसार वेतन मिलने का मुद्दा 'बहस' और 'प्राइम टाइम' लायक क्यों नहीं लगता ! दिखता नहीं या देखना नहीं चाहते, रिसर्च की कमी है या "विभीषण" ग्रंथि से ग्रसित मानसिकता?
-तुम भी सब को भुला दो, जैसे वे तुम्हे भुलाने का भ्रम जता रहे हैं...रास्ते पर दूसरों को देखने की अपेक्षा मंजिल पर निगाह बनाए रखो
विशेषण की आवश्यकता किसे पड़ती है ?
कुछ समझे तो बताये !
-३५ वर्षों में पहली बार दिल्ली में 'दिल्ली वाला न होने' का अहसास हुआ.
अभी-अभी मोबाइल फ़ोन पर एक चुनावी मेसेज आया, जिसे सुनकर लगा कि देश की राजधानी में केवल बिहारी-पुरबिया ही वोटर रहते हैं!
बाकि की तो दरकार ही नहीं है, न आदमी की न उनके वोट की.
धर्म, भाषा के नाम पर ही खंडित होते समाज में अब इलाके-प्रदेश के नाम पर भेद.
न जाने कैसा समाज रचेंगे अब देश के कर्णधार !
-दूसरों का हल्कापन झलक जाता है, अपनी गुरु गंभीरता में
-आखिर मीडिया के मठाधीश अपने संस्थानों की सत्ता से लड़ने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते ?
पर फिर किस मुंह से राजनीतिकों को ज्ञान देते है ?
अपने यहाँ तो पत्रकारों के वेतन आयोग पर चुप्पी साध लेते हैं और राजनीति में भगीरथ बनने का आव्हान करते हैं!
मतबल
हम्माम में कोई सिर्फ अकेला नहीं है.
-पेरिस में पत्रकारों के हत्याकांड की 'लाल' परिभाषा "असहमति की सजा"!
-छोटा सपना और बड़ा लक्ष्य ही मार्ग प्रशस्त करते हैं.
-जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुधा मन को साधकर थामे रखना पड़ता है.
-गुजरात के समुद्र तट पर पाकिस्तान की ओर से आ रही नौका को लेकर 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'इंडिया टुडे' का 'दिव्य ज्ञान' भिन्न हैं.
पहले को स्त्रोत ने ज्ञानी बनाया है और दूसरे को ट्रांसस्क्रिप्ट ने.
अब पाकिस्तान से गुजरात कोई नयी जियारत का शुरू होने के ब्रेकिंग न्यूज़ ही देखनी बची है.
वैसे इंडियन एक्सप्रेस ही था, जिसने खबर ब्रेक की थी कि जनरल वी.के. सिंह के समय में भारतीय सेना की टुकड़ी 'दिल्ली' की ओर रवाना हो गयी थी.
पुरानी कहावत है, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. अब इसमें पत्रकार को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए वैसे भी अब बिना पत्रकार यानि अख़बार के साहित्यकार को भी कौन जान रहा है ?
तभी तो साहित्यकार को भी पत्रकार को 'बुद्धिजीवी' की जमात में शामिल करना पड़ा है.
-प्रगति का आकाशवाणी चैनल
पता लगा है कि बिहार के गाँवों में भी 'क्रिसमस' बड़ी धूम धाम से मनाया गया और देशप्रेमियों ने अपने बच्चों को 'लाल' टोपा पहनाया.
बताने वालों का कहना है, यह खबर एकदम पक्की है क्योंकि इस चैनल में 'गिरजे' का पैसा है, लाल की रिश्तेदारी है और वाम का आभारी है.
-साला, यह "पॉलिटिक्स" तो हिंदी को मार रही है!
-बड़े बौद्धिक पत्रकारों के लिए "अखबारों और टीवी चैनलों" में 'आम' श्रमजीवी पत्रकारों को वेज बोर्ड के अनुसार वेतन मिलने का मुद्दा 'बहस' और 'प्राइम टाइम' लायक क्यों नहीं लगता ! दिखता नहीं या देखना नहीं चाहते, रिसर्च की कमी है या "विभीषण" ग्रंथि से ग्रसित मानसिकता?
-तुम भी सब को भुला दो, जैसे वे तुम्हे भुलाने का भ्रम जता रहे हैं...रास्ते पर दूसरों को देखने की अपेक्षा मंजिल पर निगाह बनाए रखो
-राम सेतु निर्माण में गिलहरी का अकिंचन योगदान...
-अस्पर्श्यता ग्रसित वैचारिकी...कितनी अपंग, कितनी एकाकी!
-हम भी अपने देश से कभी दूर नहीं जाना चाहते थे पर यह सेहर का कशिश जो हमको एडवांस के फेर में यहाँ खींच लाया, अब खेंच रहे हैं, रिक्शा.
-हम भी अपने देश से कभी दूर नहीं जाना चाहते थे पर यह सेहर का कशिश जो हमको एडवांस के फेर में यहाँ खींच लाया, अब खेंच रहे हैं, रिक्शा.
दिल्ली की गलियों में.....
-उसे देख यादों की सिलवटे माथे पर आ गईं,
एक दिल था जो धड़कना ही भूल गया
नहीं पता था दिल के कोने में फांस कोई बस गई,
मैं ही अकेला था सो खुद को भूल गया
-आपकी प्रत्येक इच्छा की एक अंतिम परिणति है...
-बोलने की बजाए करना उचित, बखान की बजाए दृश्यमान परिणाम सही, वायदे की बजाए साबित करना बेहतर.
-शक्तिशाली व्यक्ति दूसरों को नीचा गिराने की अपेक्षा उन्हें ऊपर उठाते हैं...
-देह, नेह का ओढ़ना चाहती है और नज़र है कि ढके शरीर को उघाड़ना चाहती है. शरीर और संसार का यह विरोधाभास कैसे सम हो यही यक्ष प्रश्न है ?
-नंगों के बीच में लंगोट का क्या काम ?
-जीवन में कई बार की गयी गलतियाँ, सही मंजिल तक पहुंचा देती है
-जिंदगी बीत जाती है, मौत के मुहाने जागता है आदमी.
-उसने चाहने का आभास देते हुए भुला दिया, एक वह था कि चाहकर भी भूला नहीं सका ...
-किसी के अतीत को खुद उसकी मुँहजुबानी सुनना दर्दनाक भी हो सकता है, ऐसा सोचा नहीं था.
-आपके कुछ कर पाने के लगन को दुनिया पहचान लेती है, आख़िरकार.
-कोई भी सपना पूरा नहीं हुआ, एक पूरी जिंदगी बेमतलब ही चली गयी...
(मेरे प्रस्तावित उपन्यास की पहली पंक्ति)
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