बुधवार, 29 जून 2016

रसभरी प्रेम कविताओं में कतरा कतरा दर्द








अनमी शरण बबल



कैसे एक दर्द/ किसी की  खुशियों और उम्मीदों पर
अमरबेल सा पसर जाता है
अब वो पहाड़ और मैं / एक ही दर्द के साझीदार है/
अनंतकाल तक के लिए।
  
नागपुर की चर्चित कवयित्री अर्चना राज के पहल काव्य संकलन कतरा कतरा दर्द की अंतिम कविता पहाड़ की आखिरी चार पंक्तियां है। मैं इसका इसलिए खासतौर उल्लेख कर रहा हूं कि इनकी कविताओं में प्रेम केंद्रीय भाव है। मगर उसके प्रति मरने जीने मदहोश रहने और झूठे कसमें वादों मे ही सिमटे रहने की लालसा भर  की ये कविताएं नहीं है। इसमें प्रेम के साथ आत्मसंघर्ष की पीड़ा और सामाजिक नियति से टकराने या विद्रोह करने का हौसला भी है। काव्य संकलन की भूमिका लिखते हुए ओम प्रकाश नौटियाल नें आरंभ में ही लिखा है कि जीवन के विषाद निराशा टीस कसक क्षोभ प्रेम की उहापोह की संवेदना भाव प्रस्फुटन से ये कवितएं पाठकों के मन को झंकृत करने में सामर्थ्थ रखती है।
कतरा कतरा दर्द में छोटी बड़ी 83 छंदमुक्त कविताएं है । जिसको पढ़ना यदि काव्य सौंदर्य के साथ भावों के विराट सागर में पाठक आनंदित महसूसेगा। कहा जाता है कि संक्षेप में लिखना या भावों की प्रस्तुति कठिन होता है. मगर सबसे ,सुखद प्रसंग यही है कि कवयित्री की छोटी कविताएं ज्यादा सारगर्भित और भावों को ज्यादा सरलता के साथ  अभिव्य्क्त करती है।
संग्रह की पहली कविता है ढलती उम्र का प्रेम ।

कभी कभी बहुत गाढा /कभी सेव के रस जैसा/
कभी बुरांश / कभी वोगेनविलिया के फूलो जैसा/
 कभी जड़ तले / तो कभी पोखर की मछलियों जैसा
ढलती उम्र में भी होता है प्रेम
यह कविता सहसा चौंकाती है मगर एक के बाद एक करके आगे बढते हुए करीब 22-23 कविताएं प्रेम की भाव विभोर अनुभूति के साथ पठकों को अपने में बंध लेगी।  

नकार नहीं पाओगे /अपने एक टुकड़ा जीवन पर /
तुम मेरा हक
 मेरा प्रेम

एक तरफ संबंधों को रखने की अंतिम हद तक की यही लालसा एकाएक अगली ही कविता में लुप्त हो जाती है।
समस्त प्रेम के पश्चात भी/ मैं इंकार करती हूं /
तुम्हारी परछाई होने से ।

काव्य संयोजन की नियोजित प्रस्तुति में असमानता दिख रही है।  एकाएक प्रेम में  साकार होने से इंकार के बाद ही  अगली कविता  उल्लास में एक दूसरे में साकार होने का उल्लास है।

कम्पित हथेलियों में
गिरी एक बूंद / मुस्कान की ,जीने की
आज मेरे सामने आईना नहीं /
तुम थे।

इसी तरह की भावनाओं को प्रस्तुत करती एक और छोटी कविता है

कई बार जीतना/जीतने सा नहीं होता /

हार सुखद होती है /
सामने तुम जो थे ।  

यानी एक तरफ बिना शर्ते समर्पण एक दूसरे के प्रति निष्ठा है।

मैं तुम्हें रचती हूं घटक
भरती रहती हूं तुम्हारे भीतर का खालीपन /
तुम छलक उठते हो /अतिरेक से गर्व से ।


कतरा कतरा दर्द की सबसे बड़ी खासियत है कि प्रेम की लालसा और चाहत के साथ ज्यादातर कविताओं में दर्द पीडा का भाव शिकायतों के लहजे में नहीं आया है।
वियोग कविता को देखे

तुम्हारे वियोग ने नकारात्मक कर दिया /
दर्द मन कलश में/
 कष्ट देह की अंतिम सीमा तक /
क्रम अनवरत ।

एक और कविता रात में इनकी अभिव्यक्ति इस तरह है

लगातार जोड़ता रहता है प्रेम/
 तोड़ती रहती है तकलीफ/
रात दोनों है एक साथ/
प्रेम भी तकलीफ भी / मैं रात होना चाहती हूं।

ठीक यहीं पर प्रेम में एकांत या अकेलेपन की सार्थकत को सुदंर ढंग से सामने लाया गया है। जहां पर प्रेम में फिर किसी की जरूरत ही खत्म सी हो जाती है।

 तमाम उदसियॉ -तन्हाईयॉ कोख की नमी हो जाती है /
महसूस होता है स्वंय का स्वंय के लिए प्रेम हो जाना
अब और किसी की दरकार नहीं /
बहुत सुदंर है प्रेम होकर आईन देखना /
अकेले मे ।



एक स्त्री कविता में उसकी पीडा नियति सौभग्य और सपनो के चक्रव्यूह के बीच एक छवि उभरती है।

एक स्त्री मुस्कुरती है /
रोती है तब भी/
रौंदी जाती है तब भी।
एक स्त्री खिलखिलती है /
अपमनित होती है तब भी /
अतिरिक्त होती है तब भी/ अपने भीतर मात्र अकेली /
एक स्त्री ।


तयशुदा कविता की अंतिम पंक्ति है , जो सामान्य.होकर भी विवशता को परिभषित करती है।
मजबूरियं भी / कई बार
जिंदगी का रूख तय करती हैं।

अनिता राज की कविताओं में मौन बेहद मुखर है। यह मौन कभी प्रेम तो कभी पीड़ा तो कभी अंर्तेद्वंद को रेखाकिंत करती है।

मौन ही एक अकेली दरख्वस्त है / तुम्हारे आने की /
तुम्हारे न आने की।

एक और कविता उम्मीद में मौन कुछ इस तरह मुखर हुआ है।

मौन को उम्मीद की
अंगूली थामें बरसों हुए / कभी कुछ अनकहा रह गया था
शायद अनसुना भी।
मौन को फिर शब्दार्थ करती एक और कविता है खुद ही खुद में।

मौन दर मौन एक  कविता गढ़ती गयी/
खुद ही खुद में 

मगर मौन की शब्दावली में कविताओं के कई रंग है। अनकहा कवित में मौन इस तरह खुद को परिभाषित करती है। ।
मौन के धरातल पर विचरते कुछ शब्द/
समस्त भावनात्मक तीव्रता के साथ भी /
अनकहे ही रह जाते है।

कविता के मौन भाव पर एक पाठक नवीन कुमर चौरसिया की यह टिप्पणी एकदम सटीक सी है कवयित्री अर्चन की मौन की अगर कई भाषा होती तो मौन आज फफक पड़ती बिलख पडती और सारे संयम के बांध को तोड़कर लिपट जाती आपसे और आपके शब्दों के जरिए सीने में उतर कर जी भर स्नेह बरसती और कहती कि तुम मेरी आवाज हो तुम धड़कन हो और आज तुमने मेरी खवाहिश पूरी करके मेरी जिंदगी बन गयी हो। किसी और कवि ने शायद ही मौन को मर्मज्ञ होकर समझा हो। नवीन की इस टिप्पणी मे काव्यसार निहित है।

कई पाठकों मे अंजू शर्मा आवेश तिवारी दिवकर विघार्थी, मुकेश मिश्र ,अमन त्यगी
ह्रषीकेश सुलभ की संक्षिप्त टिप्पणी भी कविताओं के सौंदर्य को ही निखारती है। मगर एक पाठक को यदि आपकी कविताएं मनभावन लगेगी तो निसंदेह वह लंबी कविताओं को लेकर थका हुआ सा भी महसूस करेगा. यदि इन कविताओं को निर्ममता के साथ संपादन करके काव्यात्मक लिबास दें तो ये तमाम कविताएं कविता जगत की श्रृंगार बनेगी। 
प्रेम के जीवंतता और प्रेम के सर्वकलीन महत्व को यथार्थ  कविता में अंकित किया है। प्रेम की यह अभिव्यक्ति एकदम दिल में जगह घेर लेती है।
जब तुम नहीं रहोगे जीवित
तब भी रहेगी धरती/ खिलेगा फूल/रहेग आसमान
उगेगा सूरज/ रहेग जल  होगी शीतल......
रहूंगी मैं भी /
कि रहेगा प्रेम ..तब भी।

एक जगह उबाल इस कदर  लावा सा बन गया है कि विद्रोह कविता में इसका स्वर है  
तली से उठा विद्रोह / हाहाकार बन गया/
कि सीमा निश्चित है /सहने की गंगा के लिए

प्रेम की अगन पीडा ललक और नियति को कौन नहीं जानता है। फिर भी जिंदा है प्रेम और जब तक रहेगी सृष्टि तो प्यार भी रहेगा।एक कविता अवशयंभवी में प्रम को ही सुदंर तरीके से परिभाषित किया है।

प्रेम कितना भी दुर्वह हो / दुराध्य हो /
होता अवश्य है।
कभी अतिथि तो कभी शत्रु सा।   

कतर कतरा संकलन में संग्रहित ज्यादातर कवितें छोटी और कई तो बहुत ही छोटी है, मगर यह एक विस्मयकारी  विरोधाभास है कि जिस सहजता सरलता और कोमलता के साथ कोई कविता चंद लाईनों में खत्म होकर प्रभाव छोड़ती है। लगभग तमाम संक्षिप्त  कविताएं प्रेम की पाग से मीठी और रसभरी भी है जो सहसा आकृष्ट करके विभोर कर देती है। यही कवयित्री की सबसे बड़ी ताकत भी लगती है। मगर इनकी लंबी कविताएं शिथिल पड़ने लगती है। ज्यादातर जगह पर भाव सटीक और सुदंर होने के बाद भी प्रभाव नहीं डाल पाती। लंबी कविताएं बहुत सारे अर्थ को विश्लेभित तो करती है मगर अंत अंत तक पाठकों के मन में  ठहर नहीं पाती। यहां पर कवयिज्ञी से एक समीक्षक की बजाय एक पाठक के रूप में कहना चाहूंगा कि वे इन लंबी कविताओं के पुर्नलेखन का मन बनाए। निसंदेह शब्द भाव अक्षरों और कद की परवाह किए बिन यदि निष्ठुरता से इन कविताओं पर फिर से संशोधन या पुर्नलेखन कर सके तो निसंदेह तमाम कवितएं खिल उठेगी और एक नए भाव विचार और काव्य धरातल पर नवीन शब्दावली गढेगी। तमाम विरोधभास के बावजूद अर्चना राज की कविताएं पाठको को रास आएगी। खासकर छोटी कविताएं इनकी काव्य यात्रा को नयी जमीन दे सकती है यदि वे कम शब्दों मे ही या एक एक कर एक बड़ी कविता को क्रमवार अलग रूप में लिखने की चेष्टा करती हैं तो समकालीन बहुत सारे हजारों कविओं से वे काफी आगे भी निकल सकती हैं क्योंकि लंबी कवितएं तो सब लिख लेते हैं मगर छोटी छोटी कवितओं में एक ही भाव को प्रस्तुत करने वाले लेखल कवि तो अंगूलियों पर ही गिने जा सकते है।






रविवार, 26 जून 2016

मधुकर शाह बुंदेला 1857 नहीं 1842 में हुआ था पहला विद्रेह









1842 में बुंदेलखंड में वीर मधुकर शाह ने किया था अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह

प्रस्तुति-  शैलेन्द्र किशोर

फिल्म अभिनेता गोविंद नामदेव के निर्देशन में होगा नाटक का मंचन
30 एवं 31 दिसंबर और 1 जनवरी को होगी नाटक की प्रस्तुति
संदीप तिवारी -!- सागर
देश के स्वाधीनता संग्राम की बात आती है, तो सभी को 1857 की क्रांति याद आ जाती है। देश की पहली क्रांति इसे ही माना जाता है। यह बात शायद चंद लोग ही जानते होंगे कि अंग्रेजी हुकूमत के 

















खिलाफ पहला विद्रोह 1857 की क्रांति से भी करीब 15 साल पहले हो चुका था। वर्ष 1842 में बुंदेलखंड के मधुकर शाह बुंदेला ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था। इसे ‘बुंदेला विद्रोह’ कहा जाता है। ‘सागर गजेटियर’ में भी इसका उल्लेख है। सीधी सी बात है 1857 की क्रांति इसके बाद ही हुई। इस पर केंद्रित नाटक का मंचन 30 एवं 31 दिसंबर को शाम 7 बजे से एवं 1 जनवरी 2014 को दोपहर 1 और शाम 7 बजे से डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती सभागार में होगा।
नाटक के माध्यम से समझ सकेंगे लोग : वीर मधुकर शाह बुंदेला के गौरवपूर्ण कार्य और उनके जीवन पर फिल्म अभिनेता गोविंद नामदेव एक नाटक का निर्देशन कर रहे हैं। नाटक उन्होंने ही लिखा है। नाटक को नाम दिया गया है ‘मधुकर कौ कटक’। सह निर्देशन कर रहे हैं मुंबई से आए डायरेक्टर संतोष तिवारी। नाटक की रिहर्सल जोरों पर है। एनएसडी, अथग और सागर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में जो एक माह की वर्कशॉप लगी है, उसी के प्रशिक्षणार्थियों को अभिनय के लिए चुना गया है। कुछ अन्य लोग भी शामिल हैं। श्री नामदेव बताते हैं कि वीर मधुकर शाह के बारे में अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है। युवा पीढ़ी इनसे अंजान है। उन्होंने 1842 में पहला विद्रोह किया, यह बुंदेलखंडवासियों के लिए गौरव की बात है। मुझे उम्मीद है कि नाटक के मंचन के बाद लोग मधुकर शाह के बारे बहुत कुछ जान सकेंगे।

शनिवार, 25 जून 2016

गरीब भारत की कथा व्यथा







अनामी शरण बबल


हिन्दुस्तान यानी भारत को आमतौर पर दो नाम से जाना जाता है भारत और  इंडिया के रूप में यही दो चेहरा जगत विख्यात है। मॉल मेट्रो मोबाइल मल्टीप्लेक्स मल्टीनेशनल कंपनियां मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट मनी मैनेजमेंट मल्टी मोटर हैबिट  और मल्टी जॉब के साथ साथ मल्टी रिलेशन का जमाना है। जिसकी चमक दमक और रौनक से पूरा इंड़िया गुलजार है। महज 10 फीसदी अमीरों के वैभवपूर्ण रहन सहन और जीवन शैली से अपना इंडिया भी किसी विकसित देश से कहीं कम नहीं दिखता है। मगर गांवो गलियों और गरीबों के इस भारत में 40 फीसदी लोग आज भी बुनियादी जरूरतों और दो जून की रोटी के लिए भी दूसरों पर मोहताज है।

 एकदम युवा कथाकार भरत प्रसाद का ताजा कहानी संग्रह चौबीस किलो का भूत सबसे पहले अपने नाम के अनोखेपन से सहसा अपनी तरफ ध्यान खिंचता है।  कथाका भरत प्रसाद की कहानियों में कई तरह के नयापन का प्रयोग है, मगर मुझे लगता है कि कहानियों पर बात करने से पहले इसके कथाकार पर बात करन भी जरूरी है। भारत के सबसे आधुनिक विवि के रूप में विख्यात जवाहरलाल नेहरू विवि में पढ़े और वहीं से पीएचडी करने वाले भरत बड़ी आसानी से दिल्ली या आस पास के किसी विवि से जुड़कर अपने लेखकीय  चमक दमक के सथ लेखन की मुख्यधारा में रह सकते थे। मगर दिल्ली से काफी दूर शिलांग में जाकर हिन्दी के विकस प्रचार प्रसार और अध्यापन करना चकित करता है। यही मुख्य कारण है कि भरत प्रसाद को लेकर मेरे मन में एक उत्सुकता प्रकट हुई। और इनके लेखन को लेकर मैने जानने की रूचि दिखाई। भले ही देर से ही मान्यत मिले पर इनकी कहानियों को बड़े स्तर स्वीकार्य किया जाएगा। खासकर इनकी शैली भविष्य में एक अलग कथाधारा को भी प्रवाहित कर सकती है।
इनकी कहानियों का सबसे बड़ा अनोखापन यह है कि कहानियां खुद आगे नहीं बढती या अपनी कहानी की धारा में बहती है। इनकी शांत कहानियों को लगता है कि मानो वे किसी दंतकथा सी खुद कथा बयान कर रही हो। पढ़ते हुए भी अक्सर लगता है मानो कहानी सुनायी जा रही है। वह भी भावपूर्ण सरल सरस अंदाज में भाषा की रवानी और धारावाह लय ताल के साथ। कभी कभी तो एकदम छायावादी काल की कविता सी मोहक और प्राकृतिक सौंदर्यमय भाषा से मन को रीझाता भी है तो कभी लगता कि यह प्राकृतिक सौंदर्य बोध कुछ ज्यादा हो रहा है, मगर भाषा की लयात्मक प्रवाह कहानी की धारा से विमुख होकर भी पाटको को कहानी से जोड़े रखती है। एक कहानी के भीतर ही कई कहानियों के संगम भी देखने को मिलता है। सब एक ही कहानी के अलग अलग चैप्टर होकर भी संयुक्त हो कथा को बड़े फलक पर प्रस्तुत करने में सहायता करती है।  24 किलो का भूत कहानी संग्रह में केवल आठ कहानियं है मगर ये कहानियं आज के गरीब भारत के नागरिकों की पीड़ा भय अविश्वास संशय डर और अपनी असुरक्षा से ग्रसित नागरिकों के कमजोर चरित्र को अलग तरीके से सामने रखती है। कहानी के ज्यादातर पात्रों में समाज से टकराने का हौसला नहीं है। हालांकि बुलंद फैसला करने की हिम्मत तो है मगर अपने फैसले पर अंत अंत तक पात्रों का टूट जाना कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं लगता। खासकर अपने बीमार पात्रों की पीडा से ये कहानियं समाज को दर्पण बन जाती है। धरनी में धसौं, की कासहिं चीरौं  कहानी तमाज की तमाम मान्यतों को नकार देती गै। अमूमन मां अपने संतान को किसी भी कीमत पर दूसरों को नहीं सौंपती है,मगर इस कथा की नायिक रामदेई अपने कंगाली की वजह से कई बच्चों की मौत हो जाने के बाद अपने एक बच्चे को पास रखने को तैयार नहीं है। अपना बच्चा किसको देगी यह भी नहीं जानती मगर उसके सिर पर अपने मरे हुए कई बच्चों का इतना दर्द है कि वो हर हाल में बच्चे को अपने से दूर कर देना ही चाह रही है। किसी को देने के लिए अपने बच्चे को लेकर रामदेई घर से निकल जाती है। और भटकती हुई रामदेई अंतत अपने बच्चे को संयोग से मिल गए एक सज्जन चक्रधर दास को देकर ही संतोष से भर जाती है। मगर कुछ ही घंटो में वो बिन बालक खुद को मार लेती है। पत्नी के इंतजार और अपने खोए पुत्र की तलाश में ही पति दयाल लगा रहता मगर पुत्र की वापसी से कहानी रोमांचक हो जाती है। मगर अपने बेटे शीतल के जीवन के लिए अभिशाप सा महसूस करके दयाल भी अपनी जीवन लीला को खत्म कर लेता है। तकि बेटे के जीवन पर असर न हो । उधर अपने बीमार पति के इलाज के लिए पत्नी द्वारा एक निसंतान के साथ कोख का सौदा करना जितना अप्रत्याशित लगता है उससे कहीं ज्यादा सुखद पुत्र की ललक में सौदे से इंकार कर बेसहारा होकर भी उसका संघर्ष करना लड़ना है। अपनी पत्नी की बेवफाई से शर्मसार होकर रामदेई का पति सजीवन बीमार होकर चल बसता है । इसके बाद अकेली रामदेई का संघर्ष की जीवटता मां ममता और मातृत्व की सार्थकता को साबित करती है।         
             
गांव से काम के लिए शहरी पलायन की त्रासदी को कहानी जीयो रे हरामी  में दर्शाया गया है कि घर के लिए सहारा बनने की ललक से मुबंई या एक बालक किस तरह समलैंगियों का शिकार बन जाता है और रोग के साथ घर वापसी के साथ ही परिवार की उम्मीदों और सपनों पर भी ग्रहण लग जाता है।  यह कहानी भी गरीब भारत के गरीब परिवार की पीड़ा को मार्मिक ढंग से पाठकों को अपने साथ ले जाती है। इस सच्चाई को भी बयान करती है कि गांव के लाखो बच्चे महानगर में किन हालातों  में रह रहे होते है। महुआ पट्टी कहानी में पुलिस ठेकेदार दारू औरत मार पीट दमन शोषण और मौत यानी उत्पीडन के सारे एटम बम मशाला मौजूद है। जिसको कथाकार भरत ने शोषण अन्याय की पूरी गाथा को इस तरह रखा है मानों गरीबों के लिए यह देश कितना असहज और असामन्य  सा है। विडम्बना है कि किसी भी गरीब भारत के किसी भी इलाके के लिए यह सामान्य सा मान लिया जाता है।

 संग्रह की सबसे रोचक रोमांचक और मोहक कहानी गुलाबी गैंग है। देखना यह होगा कि यदि फिल्म गुलाबी गैंग से पहले इस कहानी को लिखा गया है तो  इसके श्रेय से यह कहनी या कथाकार महरूम क्यों रह गया ? महिला शक्ति की कहनी में शोषण के खिलाफ उठ खड़ी होने वाली महिलाएं हमेशा ताकत देती है। कहानी प्रेरक और बुलंद हौसले को बयान करती है। 

 का गुरू कहानी  भी उल्लेखनीय है। शिक्षातंत्र में एय्याश गुरूजनों की पोल खोली गयी है। किस तरह शोधार्थी कन्याओं पर गुरूओं की नजर रहती है। किस तरह उन्हें बेबस कर कन्याओं को बिस्तर तक लाने के जोड़ तोड़ मे लगे एय्याश प्रोफेसर हर जगह दिखते और मिल जाते हैं। यह कहानी शिक्षा प्रणाली की विसंगतियों को सामने करती है। और माया महाठगिनी हम जानी भी शिक्षा जगत में प्रतिभा से ज्यादा चापलूस और चाटूकार छात्रों की दास्तान है कि किस तरह वे तिकड़म लगाकर  वे बुद्धिमान प्रतिभावान छात्रों पर भारी पड़ जाते है। शिक्षा जगत में गुरू घंटालों की कमजोरियों की कलई खोलने में लेखक पूरी तरह सफल रहे है। और अंत में 24 किलो का भूत कहानी में भारतीय जनमानस प्रतिबिम्बित होता है कि भूत प्रेत को लेकर जनमानस में व्याप्त भय अंधविश्वास को में सच क्या होता है। किस तरह एक रंगमंडली द्वारा या भूत प्रेत का चक्कर फैलाकर ग्रामीणों को ठगा जाता है। भूत प्रेत को लेकर आज भी बहुधा लोगों में एक अदृश्य शक्ति से घबराहट ब्याप्त है।  इसी को कथा का मुख्य आधार बनाया है। जिसमें  गरीबों ग्रामीमों और गरीब भारत की दशा दिशा और मन में ब्याप्त घोर डर को ही बखूबी उभारा है।
 भरत की कहनियों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो एकदम मौलिक लगे।  खास यही बात इस किताब की सबसे बडी मौलिकता है कि सभी कहानियों के पात्र इंडिया या भारत के नहीं अपितु गरीब भारत से हैं जो रोजाना कदम कदम पर नाना तरह की विसंगतियों से जूझने और अत्याचर दमन सहने के लिए बाध्य और अभिशप्त है।

भरत प्रसाद की कहानियों को हिन्दी के तथाकथित आलोचक समीक्षक किस अदाज  में लेंगे यह तो उन महापुरूषों की मर्जी और मन पर निर्भर करता है की कहनी लेखन की इस नवीन शैली कथा प्रवाह को गतिमय करते हुए कहानी की धार को बढाने में मदद करते हैं या इस लोक शैला की धार को कुंद करके बेकार बना डालते है। युवा लेखक भरत प्रसाद की कहनियों की भाषा रसमय और बेहद दिलचस्प है। कहीं कहीं पर तो भाषा की रवानी और उसमें ठेठ देहाती शब्दों के प्रयोग से कहानियां अधिक सजीव निखरेपन के साथ मनभावन हो जाकी है।  कहानी में कई चैप्टर बना देने की यह नवीन शैली भी बहुतों को रास आएगा या नहीं यह खुदा ही जान सकते हैं पर कहानी को बोझिल और थकाउ बनाने की अपेक्षा शीर्षक खंड से अलग करने का यह कौशल भी पाठकों को मनभावन और कुछ अलग भी लग सकता हैं.।इससे कहानी में कोई अलगावा की बजाय रूचिकर  जुडाव सा  प्रतीत होता है। मैं तो कोई समीक्षक हूं नहीं मैं हमेशा एक पाठक की तरह ही किसी भी किताब को पढना आरंभ करता हूं और यह उस किताब में ताकत होनी चाहे कि वो मुझे अंत अंत बांधे रखे। ज्यादातर किताबें 50 से 100 पेज तक आते आते अपना दम तोड़ देती है और उस किताब को मैं अपने पास रखना भी नहीं चाहता.। अलबता कुछ किताबें मुझे दोबारा या कई बार भी पढने के लिए बाध्य कर देती है तो इसमें मेरी नहीं किताब की ताकत है कि वो मेरे दिमाग में घंटियों सी गूंजती रहती है। किसी भी तरह की किताब में वो गूंज ही उसकी ताकत और उसकी पठनीयता है। सामान्य पाठकों की कसौटी पर यह 24 नहीं 48 किलो का काफी वजनदार भूत है जिसको पढकर खारिज करना संभव नहीं है। इसकी कहनियां पाठकों से संवाद करेगी और मन में गूंजती रहेगी।यही भरत प्रसाद की कहानियों की सबसे बडी ताकत है कि वह पाठकों को पढने का हौसला देती है।

गुरुवार, 23 जून 2016

यादों के चिराग / अनामी शरण बबल



 

यादों के केंचुल या  केंचुल में यादें / अनामी शरण बबल

1

a
मैं किसी की याद के केंचुल  में हूं
अस बस , लस्त पस्त
चूर किसी मोहक सुगंध से
नशा सा है इस केंचुल का
निकल नहीं पा रहा
यादों के रौशन सुरंग से
जाग जाती है यादे मेरे जागने से पहले
और सो नहीं पाती है तमाम यादें
 मेरे सोने के बाद भी
मोहक अहसास के केंचुल से
नहीं चाहता बाहर आना
इन यादों को खोना
जो वरदान सा मिला है
मुझे
अपलक महसूसने को ।

b



केंचुल में यादें

नहीं नहीं सब कुछ 
उतर जाता है एक समय के बाद
पानी का वेग हो या आंधी तूफान
सागर का सुनामी
लगातार उपर भागता तेज बुखार
आग बरसाता सूरज हो
चांदनी रात की शीतलता
कुछ भी तो नहीं ठहरता
सदा -सदा के लिए
केंचुल से भी तो एक दिन 
हो जाएगी बाहर सर्पीली यादें
हवा में बेजान खाली केंचुल भी        
यादों पर बेमानी है।
नहीं उतरेगा मेरा खुमार
दिन रात धरती पहाड़ की तरह
चमकता रहेगा यादों का अमरप्रेम
सूरज चांद की तरह
कोई रहे ना रहे
क्या फर्क पड़ता है  
हवाओं में गूंजती रहेगी प्रेम की खुश्बू
खंडहर घाटियों में महकेगी
प्यार की मोहक गंध
प्यार की अपनी यादों पर
केंचुल नहीं
केंचुल में डाल दी है अपनी तमाम यादें
फूलो की तरह पेड़ों की तरह
जबतक रहेगी हवा मे खुश्बू
अपना प्यार भी धूप की तरह
दमकता चमकता महकता रहेगा 
तेरी तरह
मेरे लिए
हमदोनों के लिए
 सदा सदा सदा सदा सदा 
 सदा के लिए ।      


 2


मेरी यादों में तैरती है हरदम
एक मासूम सी शांत
लड़की
चंचल कभी नहीं देखा
हमेशा अपलक गुम सी निहारते
उदास भी नहीं
पर मुस्कान बिखेरते भी नहीं पाय
हरदम हर समय खुद में ही खोई
एक शांत सी लड़की
मेरी आंखों मे तैरती है
 किसी की तलाश में
या अपनी ही तलाश में
फिर भी यादों में बेचैन रहती है
एक लड़की खुद अपनी तलाश में 

3

एक चेहरे की मोहक याद
जिसको महसूसते ही मन गुलाब सा खिल जाता है
खिल जाता है मन
अनारकली की तरह सलीम को देखकर
मुझे तो उसके चेहरे का भूगोल भी ठीक ठीक याद नहीं
याद है केवल एक सुदंर सी महकती फूल की
जिसकी खुश्बू से ही मन हर भरा सा लगता था
जिसकी चाहत से ही मन भर उठता था मुस्कन से
चिडियों की तान सी जब भी देखा दूर से
नहीं देखा तो कभी
आमने सामने - आस पास
फिर भी मोहक गंध सी लगी
किसी ऐसी सौगंध सी लगी
जिसके पार
पर नहीं था मेरा कोई अधिकार

  4


किसी कसक की तरह हमेशा
वो मन में टिकी रही
ना होकर भी उम्मीद मन में बनी रही
यादों के रंग मलीन होकर भी मन में चहकती रही
कैसा होगी और कहां जानने की आस रही
भूल गए हो शायद दोनों
इसकी भी टीस खड़ी रही
मन के दरवाजें पर एक आस अड़ी रही 
पास पास ना होकर भी
मन में साथ की याद रही।
रहो हमेशा हर दम हर पल खुश महकती खिलखिलाती  
ऐसी ही मन में कुछ फरियाद रही।


5

कोई कैसे अपना सा लगने लगता है
इसकी चाहत भी तब जागी
जब दूर हो गए  मजबूर से हो गए
देखने की तमन्ना भी तब उठी सीने मे
जब देखना भी ना रहा आसान
पाने की ललक भी मुर्छा गयी देखकर दूरी
तन मन रहन सहन की
फिर भी कोई कैसे मांग ले फूल को अपने लिए
जाने बिना
धड़कन की रफ्तार
महक की धार



6

यह कौन सा नाता है
न मन का न नयन का
केवल चाहत है मन का
बिन देखे बिन बोले बिन कहे सुने
कौन गिने इस दुख की पीर
जिसमें 
कुछ नहीं है न टीस न यादों की पीड़ा न विरह का संताप
है केवल मन का मोह मन की ललक
यादों को जिंदा रखने का जतन
यादों में बने रहने का लगन
खुद को खुद से खुद में
खुश रखने का अहसास 


7

किन यादों को याद करे मन
नहीं है कहीं स्पंदन
चाहत का है केवल एक बंधन
यादों के लिए भी तो कुछ चाहिए मीछे पल
केवल चेहरे को याद करके निहाल हो जाना
फिर बेहाल रहना
जाने बगैर कि आंधी किधर है
मन में या धड़कन में


8

तुम्हारे होने भर के ख्याल से ही
मन भर जाता है
खिल जाता है
लगता है मानों
मंदिर की घंटियां बजनेलगी हो
या
कोई नवजात
अपनी मां से लिपटकर ही
पाने लगता है
सबसे सुरक्षित होने का अहसास   
तुम्हारे ख्याल से ही
लगता है अक्सर
उसको कैसा लगता होगा  
क्या मैं भी कहीं हूं
किसी की याद में ?


9

किसी की याद में रहना
या
याद बनकर ही रह जाना
बड़ी बात है।
यादों के भूत बनने से बेहतर है
यादों की ही मोहक स्पंदन से
ताकत देना उर्जा देना
याद में रहकर भी सपना नहीं
अपना होकर भी अपना नहीं
मन से हरदम पास होकर साथ का शिकवा नहीं
बड़ी बात है।


10

कुछ ना होकर भी
हम सबकी चाहत एक हैं
 एक ही साया है दोनों के संग
हर समय
मन में तन मे
एक ही तरंग उमंग
फासला भी अब हार नहीं
जीत सा लगता है
दिल के धड़कन का संगीत सा लगता है
पास ना होकर भी
पास का हर पल
प्यारा दीवना सा लगता है
जेठ का मौसम भी सुहाना लगता है।


11
यह अंधेरे का कोई  
गुमनाम बदनाम सा नाता नहीं
यह तो दिल और मन का बंधन है
मेरी यादें बेरहम कातिल नहीं
नफरतों सा बेदिल नहीं
हमारी यादों में फूलों की महक है, चिडियों की चहक है
 अबोध बच्चे का मां से आलिंगन है
हमारी यादें तो मां के चुबंन सी निर्मल है  
प्यार अपना भी गंगाजल है
तेरे चेहरे पर हरदम
मुस्कान की शर्त है
तभी तुम्हारे होने का अर्थ है
तेरी हर खुशी से प्यार है
वही तेरे जीवन का श्रृंगार है
यादों में बनी रहो, हरदम हरपल
शायद
यह मेरा अधिकार है।

12

करते ही आंखे बंद 
जाग जाते हैं मन के सारे प्रेत
आंखों के सामने सबकुछ घूम रहा होता हैं
सिवाय तुम्हारी सूरत
जिसकी याद में
लीन होने के लिए
 मैं करता हूं 
अपनी आंखे बंद  

13

 यह कैसी नटलीला है प्रभू 
खुली आंख में सूरत नहीं दिखती 
बंद आंख मे भी 
सूरत की याद नहीं आती 
याद करके भी 
 याद नहीं कर पाता
मोहक चेहरा
कि मन को 
शांति मिले
या शांत मन में कोई उपवन खिले
इतना जटिल क्यों है
याद को याद करना
जिसके लिए मन हरदम हरपल 
विचलित 
सा रहता है 
बार बार 
फिर भी याद  है कि आती नहीं 
 और 
मोहक सूरत दिखती नहीं ।





14


तुम्हारे होने भर के
अहसास से
भर जाता है
मेरे मन में
धूप चंदन की महक
खिल जाते हैं मन आंगन उपवन में  फूल

जाड़े की धूप से नहा जाता है पूरा तन मन
नयनों में भर जाती है
तृप्ति का सुख
चेहरे पर बिखर जाती है मुस्कान
रोम रोम होकर तरंगित
मन तन बदन को करता पुलकित
होकर सांसे तेज
देखता आगमन की राह   
बिह्वल हो
मैं भी मोहक अहसास
बनकर देखने लगता हूं
अक्सर
उस अहसास की उर्जा
गंध तरंग को
जिससे मेरा तन मन पूरा बदन  
रोमांचित होकर
खो जाता है मोहक मीठे खवाब में

15

यह  नहीं है 
दीवनापन या पागलपन
पिर भी 
हर तरफ केवल 
तू और तेरा ही चेहरा
स्कूल जाती बच्चियां हो 
या गांव के पनघट पर शोर मचाती 
हंस हंस कर देती उलाहनों की 
मुस्कान में भी तेरा ही चेहरा 
हर चेहरे पर मुस्कान और संतोष है 
मिठास के साथ 

तेरे ही रंग में 
 हर चीज मीठी मादक दिखती है
तेरे ही संग खिलता है सूरज 
और पलकों पर उतरने को चांद बेकरार है
निर्मल पावन मंदिर की घंटियों सी तुम  
मन में गूंजती हो 
याद को मोहक सुहावन बनाने की  मेरी लालसा है 
तुम्हारा सुख निर्मल शांति ही मेरी अभिलाषा है 
मैं तो हवा की तरह हर पल हूं 
यही सुख है 
यादों के बचपन में
यादें भी हो बचपन सी 
कोमल पावन
किसी अबोध बच्चे कीतरह 

  16

1


अनजाना अनदेखा

चेहरा ही दिखाता है

बार बार बार बार बार

कभी मन से नयन से

औरों की भी नजर से

देख ही लिया जाता है

अनदेखी छवि की , कली की

ललक भरी रुमानी रेखा।



यही तो चाहत है

उस मोहक याद की

जिसको 
हर बार नए नए तरह से देखता है मन

कल्पना की गंध में ही दिखता है

हर बार
अनूठापन नयापन

मोहक ख्याल से ही

कोमलता खिल जाती है चेहरे की

 चांद भी शरमाता है

शांत चेहरे की नूर से

दूर होकर भी सिंदूरी चेहरा

हर पल खिला खिला

रहता है

हर क्षण दिल से कुछ मिला होता है

चेहरे की चमक से

चांदनी रात भी

शरमाती है

बिन देखे ही चेहरे की

मिसरी सी मीठी याद सताती है।



2

और 
बढ जाता है मोहक खुमार

देखने के बाद

ख्यालों में खोए खुमार

में ही

मिट जाता है अंतर

देखे और बिन देखे का

जिंदा होता है

केवल

ललक उमंग उत्साह की उन्मादी खुशी ।।

3
मेरी बात  



मेरे सपने

अपाहिज नहीं यह जाना

सालो-सालों साल दर साल के बाद। 

मेरा सपना अधूरा भले ही रहा हो

मगर दिल का धड़कना

सांसो का महकना या फूलों का देखा अनदेखा सपना

अधूरा नहीं था।

तोते की तरह

दिल रटता ही रहा

दिल की बात

कोयल भी चहकी और फूलों की महके

हवाओं ने दिए संकेत रह रहके

दिल की बात दिल जानती है। 
 


प्रेम -1

न जाने

अब तक

कितने/ दिलवर मजनू फरहाद

मर खप गए

(लाखों करोडों)

बिन बताएं ही फूलों को उसकी गंध

चाहत की सौगंध / नहीं कह सके

उनका दिल भी किसी के लिए

धड़कता था।

एक टीस मन ही मन में दफन हो गयी 

फिर भी / करता रहा आहत

तमाम उम्र ।

बिन बोले ही

एक लावा भूचाल सी

मन में ही फूटती रही

टीसती रही

अपाहिज सपनों की पीड़ा 

कब कहां कैसे किस तरह

मलाल के साथ  

मन में ही टिकी रही बनी रही

काश कह पाते / कह पाते कि

दिल में तुम ही तो धड़कती थी

हमारे लिए

दिल 



दिल से दिल में

दिल के लिए

दिल की कसम खाकर

दिल ने

दिल की बात कह ही दी

तू बड़ा

बेदिल है।। 
 b 

हंसकर दिल ने 

दिल में ही 
दिल की कर शिकायत 
दिल के लिए 
कसम खाकर
दिल में कहा  
और तू बडी कातिल है।



 फिर हंसकर
दिल ने दिल से कह डाला
दिल में मत रख बात
तू कह दे तू कह ही दे
दिल से ही दिल मिलते हैं
सपनों के फूल खिलते हैं
दिल में ही तड़प होती है
पर एकटक मौन शांत रहा दिल
तब खिलखिला कर बोली दिल
तू बड़ा बुजदिल है।।


विश्वास
 
अर्थहीन सा लगे जग सारा
जब कोई मुझसे रूठ जाए।
व्यर्थ लगने लगे जग सारा
जब कोई मुझसे ही नजरें चुराए।
बेदम सा मन हो जाए
जब अविश्वास से मन भर जाए किसी का ।
तमाम रिश्तों को
केवल विश्वास ही देता है श्वांस ((ऑक्सीजन)
सफाई जिरह तर्क कुतर्क सवाल जवाब से
होता है विश्वास शर्मसार
जिसको बचाना है
बहुत जरूरी है बचााना  
कल के लिए
प्रेम के लिए
सबके लिए।।


केवल सात

मेरी यादों के रंग हजार
और इंद्रधनुष में केवल सात ?
नयनों के भीतर अश्क की असीम दरिया
और दुनियां में महासागर केवल सात ?
तेरे कंगन चूड़ी बिछुआ पायल बाली के धुन बेशुमार
और संगीत साधना के सूर केवल सात
उसके घरौंदे में अनगिन कक्ष (कमरे)
और रहने को दुनियां में  महादेश केवल सात ।।
अब शिकायत भी करे
तो क्या 
  और
किससे 

 किसके लिए।।।।

इंतजार

रंगीन यादों की मोहक तस्वीरें
देख गगन पर इंद्रधनुष भी शरमाए
तेरे स्वागत में
रोज खड़े होते हैं मेरे संग संग
कोयल मैना गौरेया तोता टिटिहरी की तान तुम्हें पुकारे ।
किधर खामोश हो छिपकर
इनको सताने के लिए ।।




.मैं मदमाता समय बावरा
1



कोई रहे ना रहे  ना भी रहे तो क्या होगा

यादें इस कदर बसी है

अपने मन तन बदन और अपनी हर धड़कन में  
कि अब किसी के होने ना होने पर भी

कोई अंतर नहीं पड़ता

फसलों की कटाई से दिखती है

मगर होती नहीं जमीन बंजर

पतझड़ में ही बसंत खिलता है

जेठ की जितनी हो तपिश

उतनी ही बारिश से मन हरा भरा होता है

ठंड कितनी भी कटीली हो

हाथों की रगड से गरमी आ ही जाती है।

मैं मदमाता समय बावरा

अपने सीने की धड़कन में देखता हूं नब्ज तेरा

हर समय हर दम

समय की बागडोर लेकर

घूमता हूं देखने

तेरी सूरत तेरी हाल तेरी आस प्यास

तेरी खुश्बू चंदन पानी में ही

शुभ छिपा है

मुस्कान की आस छिपी है

मैं मदमाता समय बावरा

छोड़ नहीं सकता अकेले

तुमको तो हंसना ही होगा खिलखिलाना ही पड़ेगा

इसी से

धरती की रास बनेगी आस बनेगी

लोगों में प्यार की प्यास जगेगी।

मैं मदमाता समय बावरा  

कल के लिए बचाना है समय  

 कलवालों के लिए
हरी भरी धरती में
हरियाली को बचाना है तुम्हारी तरह 
तुमको ही तो बचाना है 
तुम ही तो हो जीवन, उमंग रंग, खुश्बू, 
धरा की हरियाली सबकी लाली 
सबकी रंग 
मैं मदमाता समय का मस्त बावरा।। 
मैं मदमाता समय बावरा।।

 3




मैं मदमाता समय बावला
मौज करो मस्ती करो  पर मेरी भी बात सुनो

पहले नहीं था मैं कभी इतना लाचार
मेरी तूती बोलती थी, मै ही करता था हुंकार

मेरे ही इर्द गिर्द घूमती थी दुनिया
और
मैं ही था समय कालबोध का साधन
मेरे ही चक्रव्यूह  में सदियां बीत गयी
केवल सूरज के संग ही होता था जीवन रसमय
बाकी घोर अंधेरे में
जीवन के संग संग
सपने भी रंगहीन होते थे।
रात में केवल मैं होता था
एकदम अकेला
घनघोर सन्नाटे  में सन्नाटों के संग करता था रंगरास लीला
अंधेरे में ही जागती थी एक दुनिया,
जिसका राजा मैं / मेरी थी हुकूमत
मेरा ही साम्राज्य था
मेरे ही दबदबे में पूरी रचना थी सृष्टि होती थी
मैं मदमाता दबंग बादशाह / समय बड़ा बलवान

समय बड़ा बलवान / चारो तरफ केवल मेरी ही जय मेरी ही जय
मेरा ही जय जयकार 
मेरे ही हुंकार पर जागती थी सृष्टि / और नीरवता में खो जाती थी रचना
समय बड़ा बलवान  समय बड़ा बलवान
मैं मदमाता समय दबंग बादशाह / समय बड़ा बलवान

मैं मदमाता समय बावला
मौज करो मस्ती करो  पर मेरी भी बात सुनो
यह कहना सरासर गलत है, गलत है
समय बदला है / समय बदल गया है / बदल रहा है समय
नहीं नहीं नहीं समय नहीं बदला है
समय कभी नहीं बदलता
निष्ठुर समय की केवल एक चाल / दिन हो या रात केवल एक चाल
मैं नहीं बदला
तुमलोग बदल गए / जमाना बदल गया
सदियों से मैं निष्ठुर / मेरी केवल एक चाल 
जमाने की बदल गयी चाल रफ्तार
जिसको प्रकृति करती है इंकार
मैं समय भी करता हूं अस्वीकार
समय नहीं बदला है न बदलेगा
मैं मदमाता समय बावला
मौज करो मस्ती करो  पर मेरी भी तो बात सुनो

ज्ञान विज्ञान अनुसंधान से
तेरी लगन मेहनत जतन से
खुल गए धरती आकाश पाताल के भेद
कोई भी न रहा अब तेरी पकड़ से बाहर 
हर ज्ञात अज्ञात रहस्य पे भी है तेरी नजर तेरी पकड़
मौत से लेकर जीवन से और शरीर पर भी है तेरा ज्ञान
तेरी खोज पर दुनिया करे नाज और मैं भी दंभ करूं
जीवन निर्माण भले हो लंबा / पर संहार पल दो पल में ही होता है
पूरी दुनिया बनी युद्धस्थल /और,
कहीं भी हो कोई धरती आकाश पाताल में
विध्वंस से कोई नहीं बाहर 
मैं मदमाता समय बावला
मौज करो मस्ती करो  पर मेरी भी तो कुछ सुनो



 निहारना

निहारना खुद को खुद में
 कहां इतना आसान?
आईना / कातिल सा बेरहम
केवल सच बोलता है
सौंदर्य की भाषा में खुद को निहारना 
अपने तन की त्रुटियों की तलाश है
आज तो
लोग खुद से भागते हैं खुद को ठगते हैं
खुद को ही अंधेरे में ऱखकर
खुद से झूठ बोलते हैं।
मगर आईने में खुद को तलाशना
अपनी ही एक नयी खोज होती है
और सुदंर
पहले से सुदंर
......या अब तक की सबसे सुदंर ।
औरों से अलग या बेहतर
होना दिखना भी
कोई बच्चों का खेल नहीं
निहारना
सौंदर्य का दिखावा नहीं
केवल सुदंर तन की तलाश नहीं
निहारना तो
मन को भी सुदंर कर देती है
निहारना तो अपनी तलाश का आरंभ है।
और भला
कितने हैं लोग
जो निहारते हुए खुद से
खुद को भी खुद में ही
तलाशते हैं। निहारते हैं।।


एक ही रंग



पत्ता नहीं क्यों

नहीं चढ़ पाया /

रंग किसी का, किसी पर

न तेरे ही रंग से खिल पाया मैं

ना अपना ही रंग दिखता है तुम पर

बेरंग होकर भी /

यह कौन सा रंग है नशा है , साया है, खुमार है

जिसमें सबकुछ दिखता है एक समान एक सा

एक ही तरह की सूरत मूरत

एक ही ध्यान

एक ही रंग रूप में

तेरी साया तेरी काया तेरी माया।।
  



मुबारक हो जन्मदिन







मुबारक हो जन्मदिन

बहुत बहुत मुबारक हो जीवन के सफर में

आए एक नए साल का

एक ठहराव का ही तो नाम है जन्मदिन

जहां पर

समय देता है एक मौका एक दिन का

अपनी पड़ताल का

कैसा रहा साल जो आज बीत गया ?

कैसा होगा साल
जिसका पहिया अब घूमने लगा है।
इस पर ही दो क्षण तय करने का
समय देता है एक मौका एक दिन का

जन्मदिन है ही उत्साह उल्लास का पर्व
जिसमें खोकर ही
नए लक्ष्य होंगे निर्धारित / नए संकल्पों का जन्म होगा 
कुछ तो होगा खास
खुद को पहचानने का
एक अवसर सा होता है यह दिन
अपने आप में खो जाने का

अपने आप को भी
बेहतर रखना, स्वस्थ्य रखना भी
बड़ी सेवा है समय की समाज की
छोटे छोटे संकल्प से ही पूरे होते है बड़े लक्ष्य  

सीमा पर शहीद होना ही केवल देशभक्ति नहीं होती
अपने इर्द गिर्द भी मिलकर या एकल
अपनी बुरी आदत्तों से लडना भी समय की सेवा है
फिर से बहुत बहुत मंगलमय हो यह दिन
फिर अगले साल देंगे हम शुभकामनाएं
आज से ही हो मंथन / यही है आज का बंधन  
मंगलमय हो जन्म से लेकर अबतक के सुनहरे सफर का चंदन
समय देता है एक मौका खुद को जानने का
समय देता है एक मौका एक दिन
बाकी सारे दिन तुम्हारे अपनों के सपनो के
जिंदगी का सफर जारी है
अगले साल फिर
हैप्पी बर्थ डे कहने की तैयारी है, इंतजारी है     
समय देता हैं हमसबों को एक मौका
एक दिन का
हर साल हर साल हर बार ।।
 
 
तुम परी हो इस घर की 



तुम परी हो इस घर की     
तुम गीत, गजल, कविता - शायरी हो
मीठे गानों की बोल धुन संगीत
रसभरी प्रेम की डायरी हो
तुम इस घर की परी हो

चांद तारे भी तेरे पास आए सूरज भी आकर प्यार जताए
बादल झुकझुक कर ले तुम्हें गलबंहिया
चांद तारे सितारें भी आकर तुम्हें
बादलों वाले घर में बुलाएं
तुम परी हो इस घर की     

तुम परी हो इस धरा मन उपवन की
हर मन सुमन धड़कन बचपव की 
तेरी तेज रौशन प्रतिभा से
संसार में एक नयी आकांक्षा की रौशनी है
तुम परी हो इस घर की
   
नहीं रहा अब लोक लुभावन संसार
शेष रही नहीं कथा कहानियों का खुमार
जमाना विज्ञान का जिसे परियों से ज्यादा
रोबोट भाता है
किसी के रहने भर से घर की रौनक नहीं दिखती   
चहकते गीतों से चमकते घर कहां देख पाता विज्ञान
अनुसंधान अनुसंधान में ही खोजते हैं हंसने का राज
परी की मुस्कान भर से दीवारे खिलखिला पड़ती है  
घर का हर कोना
कोना कोना जगमगा उठती है
चांद तारे बादल फूल खुश्बू
नयनों में झिलमिला उठते हैं
सब तेरे से ही मुमकिन  
तेरी मुस्कान हर कोने पर खिली पडी है
खुशिया मानो बिखरी पड़ी है
तुम परी हो इस घर की
तुम परी हो इस घर की ।।    

चांदनी 



नूरानी चांद सा चेहरा,सबों को भाता है
कोई मम्मा कोई चंदा तो कोई मामा बुलाता है।
कोमल शीतल पावन उजास सबों का अपना है
निर्मल आंखों का एक सपना है
सूरज सा तेज अगन तपिश नहीं
बादल सा मनचला  बेताब नहीं
हवाएं मंद मंद सबकी जरूरत
बेताबी बेकाबू रफ्तार नहीं
कोमल शीतल पावन प्रकाश
देखकर बचपन भी हो जाए बावला 


नूरानी चांद सा चेहरा ...............




सबों के बीच सबों का अपना हो जाना ही खास होता है
अपना बनाकर अपनेपन का हरदम उल्लास होता है
लदे हुए फलदार पेड़ ही सबों को बुलाता है


नूरानी चांद सा चेहरा ...............




मन की सुदंरता से बढ़कर तेरा चेहरा
तन मन की खुश्बू से महकता तेरा चेहरा
चांद भी देख शरमा जाए तेरा चेहरा
खुद रौनक है बच्चों सा घर में तेरा चेहरा 


नूरानी चांद सा चेहरा ...............




नहीं कोई दीवानापन न कोई पागलपन
केवल मुखमंडल का है सोंधा सुहानापन
आंख से आंखे मिली तो केवल अपनापन
मनमोहक सा नयनों का एक मृदृल बंधन 
नूरानी चांद सा चेहरा ...............



आभासआभास 



मन है बड़ा खाली खाली

दिल उदास सा लगता है

पूरे तन मन बदन में
मीठे मीठे दर्द का अहसास / आभास लगता है।


सबकुछ तो है पहले जैसा ही
नहीं बदला है कुछ भी
फिर यह कैसा सूनापन
सबकुछ
खाली खाली सा
उत्साह नहीं लगता है।
चमक दमक भी है चारो तरफ
पर कहीं उल्लास नहीं लगता है ।।

सूरज चंदा तारे
भी नहीं लग रहे है लुभावन
मानो  
सब कुछ ले गया हो कोई संग अपने ।
मोहक मौन खुश्बू सा चेहरा  
हंसी ठिठोली
ख्याल से कभी बाहर नहीं
फिर भी यह सूनापन

शाम उदास तो
सुबह में कोई तरंग उमंग नहीं / हवाओं में सुंगध नहीं 
चिडियों की तान में भी उल्लास नहीं ।.
सबकुछ / कुछ अलग अलग सा अलग
मन  निराश सा लगता है

रोज सांझ दर्द उभर जाए
यही बेला
सूना आकाश और दूर दूर तक
किसी के नहीं होने का
केवल आभास 








मेरे मन मंदिर में



मेरे मन मंदिर में
महक रही है एक मोहक गंध
सच तेरी  सौगंध
मैं मृगतृष्णा सा बेकल
हर सांस में तेरी आस लिए
मन मंदिर में रास ...

दीपक सी है लौ
सुदंर सुहावन पावन उजास
आकुल व्याकुल मन में मन की है प्यास
मन मंदिर में रास ,,,,

घंटियों का मीठा मीठा सोंधा संगीत
चाहत की नफासत की शरारत की रीत
बांध सा लेता है मन को यही प्रीत
स्वप्नलोक के मेले की मिठास
मनमंदिर में रास ......






कह नहीं सकता


कह नहीं सकता, कैसा लगता है
मन की हर कली है खिली खिली
मीठी सी यादों में मन खोया रहता है  ,,,,


पागलपन ना दीवानापन फिर भी
गंध की तड़प है देखने की ललक है
चारो तरफ ,,चारो तरफ फूलों की महक है
स्वप्नलोक में मन डूबा रहता है ....
नाता न रिश्ता फिर भी कोई बंधन है
हर सांस मे मानों उसका ही स्पंदन हो
चाहत का खाली खारा सा स्मृतिवन है
मोह पाश यह कैसा अजूबा लगता है ...

कह नहीं सकता, .......................





अपना लगता है


कुछ भी ना होकर
सबकुछ अपना लगता है
सच में सपना लगता है .......

कब कहां कैसे मन में खिला फूल
धूप हवा पानी में एकला वनफूल
मन में रोमांचित है
आज भी एक उदास गंध
जिसे कहना पड़ता है ....,,,,,


कह नहीं सकता कैसे कह दूं कि दूर है
 नदी के किनारों सी मजबूर है
मन पास है इसका अहसास है  
अबूझ सपना होकर भी अपना लगता है.........




कभी नहीं सोचा था


कभी नहीं सोचा था
इस कदर मिल जाएंगे कभी
उस पड़ाव पर
जहां रिश्तों की गांठ खुलने लगती है
चाहत उखड़ने लगती है
लगाव ढीला और मन नयन गीला हो जाता है

हमने तो सुनी तक नहीं है
एक दूसरे की आवाज
हुए नहीं कभी आमने सामने
आंखे भी कभी नहीं टकरायी
फिर भी
आंखों में बसी सूरत नहीं बिसरी

रही ठहरी सी, मन में ही मन की सारी बातें

या कभी
इस कदर इस तरह मिलेंगे

मन का नाता है मन का मिलन है
तन से ज्यादा मोह का जीवन का आकर्षण है
कभी नहीं सोचा था
ऐसा भी होगा
समय रहते दिल ने मान लिया
चाहत की यादों ने स्वीकार किया
केवल मौन चाहत सा प्यार किया

कभी नहीं सोचा था
कभी नहीं और कभी नहीं कि
एक साथ हंसने का खिलखिलाने का
बिना थमें मुस्कुराने का

कभी नहीं सोचा था
सच में कभी नहीं
और कभी नहीं ।





जब मन ना करे



और जब मन ना करे
बातें खत्म करने की किताबें बंद करने की


हरपल हर दम लगे
मानो कोई संदेश हो
हर पल मन करे बावला इंतजार
और मन ना करे कभी दूर जाने का  ,

कोई गीत गाने का
हर पल मन करे
खिलखिलाने का , गुनगुनाने का
और मन ना करे कभी दूर जाने का


10 साल के बाद


कितना अजीब लगेगा
जब
समय के साथ साथ
उम्र की सीढियों पर मन थक जाएगा
समय के तापमान पर मन की मोहक बातें यादें
बिसर सी जाएगी
अपना मन भी
अतीत में जाने से कतराएगा

कितना अजीब लगेगा
जब पास में होंगे
अपने बच्चों के मोहक बच्चे
औक समय कर देगा
बेबस छोड़ने को अपनी कप्तानी
तब कितना बुरा लगेगा
इन कविताओं को याद करके
देखकर शब्दों की रास लीला पागलपन
खुमार
बेसाख्ता आएगी मुस्कान चेहरे पर
तो दूसरे हंसेंगे
शायद
यह जानकर कि
कुछ याद आ गयी होगी अतीत की बातें

जरा सोचों
क्या तुम देख पाओगी
हवा में उभरी शब्दों की
हवा में ही हवा हो जाएगी मोहलीला
 यादें रहे ना रहे
मगर तुम रहो
हर पल हप दम
अपनों के साथ सपनों के साथ
खिलखिलाती सी
चांद सी परी सी कली सी
महक चहक के साथ उम्र कोई भी हो
चांद सपने और परियां कभी नहीं रूकती नहीं ठहरती
हमेशा रहती है मोहक मुस्कान के साथ
हर पल जिंदादिल
जीवन में यही प्यास है  रास है
अपना होने का अहसासहै
मादक मोहक मधुमास है

उम्र तो एक सफर है


 
 
 


 



(इस क्रम कविता क्रम  में भी 3-4 कविताएं है, जिसे बाद में )




   



(कविताएं भावनाओं कल्पनाओं और मन के सपनों की ही उड़ान होती है जिसका जीवन में एक गरिमामय सामजिक महत्व और उल्लेखीय संदर्भ होता है।)
 

 

(फिलहाल समाप्त)

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...