होली
प्रस्तुति--- कृति शरण /
होली
| |
अन्य नाम | डोल यात्रा या डोल पूर्णिमा (पश्चिम बंगाल), कामन पोडिगई (तमिलनाडु), होला मोहल्ला (पंजाब), कामना हब्बा (कर्नाटक), फगुआ (बिहार), रंगपंचमी (महाराष्ट्र), शिमगो (गोवा), धुलेंडी (हरियाणा), गोविंदा होली (गुजरात), योसांग होली (मणिपुर) आदि। |
अनुयायी | हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी |
उद्देश्य | धार्मिक निष्ठा, सामाजिक एकता, मनोरंजन |
प्रारम्भ | पौराणिक काल |
तिथि | फाल्गुन पूर्णिमा |
उत्सव | रंग खेलना, हुड़दंग, मौज-मस्ती |
अनुष्ठान | होलिका दहन |
प्रसिद्धि | लट्ठमार होली (बरसाना) |
संबंधित लेख | ब्रज में होली, होलिका, होलिका दहन, कृष्ण, राधा, गोपी, हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, गुलाल, दाऊजी का हुरंगा, फालेन की होली, रंगभरनी एकादशी आदि। |
वर्ष 2016 | 23 मार्च को होलिका दहन एवं 24 मार्च को होली (धुलेंडी) |
अद्यतन |
18:14, 17 मार्च 2016 (IST)
|
- इन्हें भी देखें: होली महोत्सव, ब्रज, होलाष्टक एवं होलिका दहन
इतिहास
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्नि स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।प्राचीन शब्दरूप
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था।[1] भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि 'होलाका' सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य[2] में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है- 'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका[3] देवता है।'[4] अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र[5] में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि[6] ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी[7] कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है।' वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी' [8] है। [9]शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव
जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से 'होलाका' का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण 'होलिका के दिन' ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं।[10] कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्टजनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख[11] में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट, मिस्र या ग्रीस, यूनान से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।होलिका
हेमाद्रि[12] ने भविष्योत्तर[13] से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है।कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदंती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'[14]
होलिका दहन
मुख्य लेख : होलिका दहन
होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा
को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया
जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया
जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा
के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी 'अलाव को होली' कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं।
होली और राधा-कृष्ण की कथा
भगवान श्रीकृष्ण तो सांवले थे, परंतु उनकी आत्मिक सखी राधा गौरवर्ण की थी। इसलिए बालकृष्ण प्रकृति के इस अन्याय की शिकायत अपनी माँ यशोदा से करते तथा इसका कारण जानने का प्रयत्न करते। एक दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को यह सुझाव दिया कि वे राधा के मुख पर वही रंग लगा दें, जिसकी उन्हें इच्छा हो। नटखट श्रीकृष्ण यही कार्य करने चल पड़े। आप चित्रों व अन्य भक्ति आकृतियों में श्रीकृष्ण के इसी कृत्य को जिसमें वे राधा व अन्य गोपियों पर रंग डाल रहे हैं, देख सकते हैं। यह प्रेममयी शरारत शीघ्र ही लोगों में प्रचलित हो गई तथा होली की परंपरा के रूप में स्थापित हुई। इसी ऋतु में लोग राधा व कृष्ण के चित्रों को सजाकर सड़कों पर घूमते हैं। मथुरा की होली का विशेष महत्त्व है, क्योंकि मथुरा में ही कृष्ण का जन्म हुआ था।होली और धुंधी की कथा
भविष्य पुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में राजा रघु के राज्य में माली नामक दैत्य की पुत्री ढोंढा या धुंधी थी। उसने शिव की उग्र तपस्या की। शिव ने वर माँगने को कहा। उसने वर माँगा- प्रभो! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे मार न सकें तथा अस्त्र-शस्त्र आदि से भी मेरा वध न हो। साथ ही दिन में, रात्रि में, शीतकाल में, उष्णकाल तथा वर्षाकाल में, भीतर-बाहर कहीं भी मुझे किसी से भय नहीं हो।' शिव ने तथास्तु कहा तथा यह भी चेतावनी दी कि तुम्हें उन्मत्त बालकों से भय होगा। वही ढोंढा नामक राक्षसी बालकों व प्रजा को पीड़ित करने लगी। 'अडाडा' मंत्र का उच्चारण करने पर वह शांत हो जाती थी। इसी से उसे 'अडाडा' भी कहते हैं। इस प्रकार भगवान शिव के अभिशाप वश वह ग्रामीण बालकों की शरारत, गालियों व चिल्लाने के आगे विवश थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि होली के दिन ही सभी बालकों ने अपनी एकता के बल पर आगे बढ़कर धुंधी को गाँव से बाहर धकेला था। वे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए तथा चालाकी से उसकी ओर बढ़ते ही गये। यही कारण है कि इस दिन नवयुवक कुछ अशिष्ट भाषा में हँसी मजाक कर लेते हैं, परंतु कोई उनकी बात का बुरा नहीं मानता।- इन्हें भी देखें: दाऊजी का हुरंगा
होली की प्राचीन कथाएँ
- एक कहानी यह भी है कि कंस के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए उनको विषपूर्ण दुग्धपान कराना शुरू किया लेकिन श्रीकृष्ण ने दूध पीते-पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर भी लुप्त हो गया तो गाँव वालों ने पूतना का पुतला बना कर दहन किया और ख़ुशियाँ मनाईं। तभी से मथुरा मे होली मनाने की परंपरा है।[15]
- एक अन्य मुख्य धारणा है कि हिमालय पुत्री पार्वती भगवान शिव से विवाह करना चाहती थीं। चूँकि शंकर जी तपस्या में लीन थे इसलिए कामदेव पार्वती की मदद के लिए आए। कामदेव ने अपना प्रेमबाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई। शिवशंकर ने क्रोध में आकर अपनी तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे भगवान शिव की क्रोधाग्नि में जलकर कामदेव भस्म हो गए। फिर शंकर जी की नज़र पार्वती जी पर गई। शिवजी ने पार्वती जी को अपनी पत्नी बना लिया और शिव जी को पति के रूप में पाने की पार्वती जी की आराधना सफल हो गई। होली के अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जलाकर सच्चे प्रेम के विजय के रूप में यह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है।[15]
- मनुस्मृति में इसी दिन मनु के जन्म का उल्लेख है। कहा जाता है मनु ही इस पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मानव थे। इसी दिन 'नर-नारायण' के जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है।[15]
- सतयुग में भविष्योतरापूरन नगर में छोटे से लेकर बड़ों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग इसे द्युँधा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्य तौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, जिसमें अग्नि राहत पहुँचाती है। ‘शामी’ का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सत्ययुगीन राजा रघु ने होली मनायी।[15]
साहित्य में होली की झलक
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंदबरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, मलिक मुहम्मद जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने बसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[16]सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं।संस्कृत शब्द 'होलक्का' से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में 'होलक्का' को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। बंगाल में होली को डोल यात्रा या झूलन पर्व, दक्षिण भारत में कामथनम, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ में ’गोल बढ़ेदो’ नाम से उत्सव मनाया जाता है और उत्तरांचल में लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है। 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' जैसे संस्कृत कवियों ने भी वसन्त और होली पर्व का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली को लेकर कई मस्ती भरे पद लिखे हैं जिनमें प्रकृति और धरती माता के होली खेलने के भावों को प्रकट किया गया है।[17]
उर्दू साहित्य में होली
होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा |
होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा |
कृष्ण होली लीला |
होली, रमण रेती, महावन |
- उर्दू के जाने माने शायर नज़ीर अकबराबादी की एक कविता
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।[18]
- अमीर खुसरो ने होली को अपने सूफ़ी अंदाज़ में कुछ ऐसे देखा है-
दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में
कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री।[19]
- अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के शब्दों में होली की मस्ती का रंग कुछ इस तरह दिखाई देता है
भक्ति काल में होली
प्रिय देह अछेह भरी दुति देह, दियै तरुनाई के तेह तुली।
अति ही गति धीर समीर लगै, मृदु हेमलता जिमि जाति डुली।
घनानंद खेल उलैल दतै, बिल सैं, खुल सैं लट भूमि झुली।
सुढि सुंदर भाल पै मौंहनि बीच, गुलाल की कैसी खुली टिकुली।[19]
- भक्ति काल के महाकवि पद्माकर ने कृष्ण और राधा की होली की मस्ती को कुछ यों बयान करते हैं-
फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी,
माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।
छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड कपोलन रोरी,
नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी।[19]
- भारतेंदुजी भी तो 'फगुनिया' जाते हैं और फिर गाते भी हैं-
ब्रज में फाग उत्सव
फाल्गुन के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को बल्देव (दाऊजी) में हुरंगा होता है। बरसाना, नन्दगांव, जाव, बठैन, जतीपुरा, आन्यौर आदि में भी होली खेली जाती है । यह ब्रज का विशेष त्योहार है। यों तो पुराणों के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराण कथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। प्रह्लाद की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन कोसी के निकट फालैन गांव में 'प्रह्लाद कुण्ड' के पास 'भक्त प्रह्लाद का मेला' लगता है। यहाँ तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।श्रीकृष्ण राधा और गोपियों–ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग, केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल नवमी बरसाना से होता है। वहां की लठामार होली विश्व प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके पहले हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है। होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। पश्चिम बंगाल को छोड़कर होलिका-दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर 'कृष्ण-प्रतिमा का झूला' प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने भी गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, जौ आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं।
दुलेंडी
यह त्योहार होली के अगले दिन, रंग दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व पर किशोर-किशोरियाँ, वयस्क व वृद्ध सभी एक-दूसरे पर गुलाल बरसाते हैं तथा पिचकारियों से गीले रंग लगाते हैं। पारंपरिक रूप से केवल प्राकृतिक व जड़ी-बूटियों से निर्मित रंगों का प्रयोग होता है, परंतु आज कल कृत्रिम रंगों ने इनका स्थान ले लिया है। आजकल तो लोग जिस-किसी के साथ भी शरारत या मजाक करना चाहते हैं। उसी पर रंगीले झाग व रंगों से भरे गुब्बारे मारते हैं। प्रेम से भरे यह - नारंगी, लाल, हरे, नीले, बैंगनी तथा काले रंग सभी के मन से कटुता व वैमनस्य को धो देते हैं तथा सामुदायिक मेल-जोल को बढ़ाते हैं। इस दिन सभी के घर पकवान व मिष्ठान बनते हैं। लोग एक- दूसरे के घर जाकर गले मिलते हैं और पकवान खाते हैं।स्वादिष्ट व्यंजन
मिष्ठान इस पर्व की विशेषता हैं। उत्तर भारत में आप 'गुझिया' का आनन्द ले सकते हैं व पश्चिम में, महाराष्ट्र में 'पूरनपोली' का। ठंडाई [20]भांग [21] परंतु इस मिश्रण से सावधान ही रहना चाहिए, क्योंकि यह पेय होली पर प्रायः सभी जगह बनाया व वितरित किया जाता है। इसका नशा शीघ्र उतरता नहीं और भूख बढ़ती ही जाती है, इसके पीने से दिमाग़ पर बुरा प्रभाव पड़ता है।फ़िल्मों में होली गीत
मुख्य लेख : बॉलीवुड की होली
होली रंगों, आनंद और उल्लास का त्योहार है। बॉलीवुड के होली गीत इसी आनंद और उल्लास से भरे होते हैं। 'होली आई रे कन्हाई'[22], 'अरे जा रे हट नटखट' [23], 'आज ना छोड़ेंगे बस हमजोली'[24], 'होली के दिन'[25], 'रंग बरसे' [26], 'मल दे गुलाल मोहे, आई होली आई रे'[27], 'अंग से अंग लगाना सजन'[28] और 'होली खेलें रघुवीरा'[29]
होली के कुछ लोकप्रिय गीत हैं। इसके अलावा 'होली के रंग में', 'रंग बरसे
भीगे चुनर वाली' और 'होली खेलें रघुवीरा...' हिन्दी फ़िल्मों के कुछ ऐसे
लोकप्रिय गीत हैं जो रंगों के त्योहार होली की भावना को बड़े पर्दे पर
जीवंत करते हैं, लेकिन आज होली के गीतों का अभाव देखा जा रहा है और ऐसे में
लोग पुराने गीतों में ही होली का मजा लेने को मजबूर हैं। हिन्दी फ़िल्मों
में आया होली का एक प्रसिद्ध गीत 'डू मी ए फेवर.. लेट्स प्ले होली' है।
फ़िल्म 'वक्त-रेस अंगेंस्ट टाइम', 2005 का यह गीत अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा पर फ़िल्माया गया है। इस गीत में होली के रंग, ऊर्जा सहित सब कुछ है।[30]हिन्दी
फ़िल्मों में आया अंतिम होली प्रसिद्ध गीत फ़िल्म 'ये जवानी है दिवानी' का
'बलम पिचकारी...' है जिसमें रनबीर कपूर और दीपिका पादुकोण ने अभिनय किया
है।
अन्य प्रान्तों में होली
आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं गान-नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब पश्चिम बंगाल में डोल यात्रा का उत्सव होता है।[31] यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है। पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को सन्ध्या के समय मण्डप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है। गोविन्द की प्रतिमा का निर्माण होता है। एक वेदिका पर 16 खम्भों से युक्त मण्डप में प्रतिमा रखी जाती है। इसे पंचामृत से नहलाया जाता है, कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं, मूर्ति या प्रतिमा को इधर-उधर सात बार डोलाया जाता है। प्रथम दिन की प्रज्वलित अग्नि उत्सव के अन्त तक रखी जाती है। अन्त में प्रतिमा 21 बार डोलाई या झुलाई जाती है। ऐसा आया है कि इन्द्रद्युम्न राजा ने वृन्दावन में इस झूले का उत्सव आरम्भ किया था। इस उत्सव के करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। शूलपाणि ने इसकी तिथि, प्रहर, नक्षत्र आदि के विषय में विवेचन कर निष्कर्ष निकाला है कि दोलयात्रा पूर्णिमा तिथि की उपस्थिति में ही होनी चाहिए, चाहे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो या न हो। देश के कई अलग-अलग प्रान्तों में होली को अलग अलग नामों से जाना जाता है और बड़े ही निराले अंदाज़ों में मनाया जाता है। होली भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के कोने कोने में मनाई जाती है, बस ढंग अलग है। भारत के प्रान्तों में होली के ढंग अलग-अलग हैं।[32]आंध्र प्रदेश की होली
तमिलनाडु की होली
मुख्य लेख : कामन पोडिगई
इसी प्रकार तमिलनाडु में होली को 'कमाविलास', 'कमान पंदिगाई' एवं 'काम-दहन' के नाम से जाना जाता है, यहाँ के लोगों का मानना है कि कामदेव के तीर के कारण ही शिव को पार्वती से प्रेम हुआ था और भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती से हुआ था, मगर तीर लगने से क्रोधित शिव जी ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब रति
के आग्रह पर देवी पार्वती ने उन्हें पुनर्जीवित किया और जिस दिन कामदेव
पुनर्जिवित हुए उस दिन को होली के रूप में मानते है। इसीलिए तमिलनाडु में
होली को काम पंदिगाई के नाम से जाना जाता है। यहाँ होली को प्रेम के पर्व के रूप में मनाया जाता है।[32]
उत्तर प्रदेश की होली
मुख्य लेख : लट्ठमार होली
उत्तर प्रदेश
में होली का त्योहार बड़े ही हर्ष और उल्लास से मनाया जाता है। उत्तर
प्रदेश के कोने कोने में होली की धूम देखते ही बनती है। होली के दिन क्या
बड़े और क्या छोटे सभी को हर प्रकार के मजाकबाज़ी की पूर्ण छूट होती है और
लोग इसका जमकर लुफ़्त भी उठाते हैं। छेड़-छाड़, चुहलबाज़ी, गीत संगीत यहाँ
तक कि गाली गलौज तक को भी जायज़ माना जाता है। यहाँ होली पर रंग और गुलाल के अलावा तरह तरह के व्यंजन का भी बोलबाला रहता है। गुझिया, दही वड़े, मठरी और इन सब से बढ़ कर ठंडाई और उसके साथ भांग, रंगों के सुरूर को दोगुना कर देती है। रात को होलिका दहन के बाद अगले दिन सुबह रंगों के साथ गीली होली खेली जाती है और शाम को अबीर और गुलाल से समां सराबोर होता है। उत्तर प्रदेश में वृन्दावन और मथुरा की होली का अपना ही महत्त्व है। इस त्योहार को किसानों द्वारा फसल काटने के उत्सव एक रूप में भी मनाया जाता है। गेहूँ
की बालियों को आग में रख कर भूना जाता है और फिर उसे खाते है। होली की
अग्नि जलने के पश्चात बची राख को रोग प्रतिरोधक भी माना जाता है। इन सब के
अलावा उत्तर प्रदेश के मथुरा, वृन्दावन क्षेत्रों की होली तो विश्वप्रसिद्ध है। मथुरा में बरसाने की होली प्रसिद्ध है। बरसाना राधा जी का गाँव है जो मथुरा शहर से क़रीब 42 किमी अन्दर है। यहाँ एक अनोखी होली खेली जाती है जिसका नाम है लट्ठमार होली। बरसाने में ऐसी परंपरा हैं कि श्री कृष्ण के गाँव नंदगाँव के पुरुष बरसाने में घुसने और राधा जी के मंदिर
में ध्वज फहराने की कोशिश करते है और बरसाने की महिलाएं उन्हें ऐसा करने
से रोकती हैं और डंडों से पीटती हैं और अगर कोई मर्द पकड़ जाये तो उसे
महिलाओं की तरह शृंगार करना होता है और सब के सम्मुख नृत्य
करना पड़ता है, फिर इसके अगले दिन बरसाने के पुरुष नंदगाँव जा कर वहाँ की
महिलाओं पर रंग डालने की कोशिश करते हैं। यह होली उत्सव क़रीब सात दिनों तक
चलता है। इसके अलावा एक और उल्लास भरी होली होती है, वो है वृन्दावन की होली यहाँ बाँके बिहारी मंदिर
की होली और 'गुलाल कुंद की होली' बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृन्दावन की होली
में पूरा समां प्यार की ख़ुशी से सुगन्धित हो उठता है क्योंकि ऐसी मान्यता
है कि होली पर रंग खेलने की परंपरा राधाजी व कृष्ण जी द्वारा ही शुरू की गई
थी।[32]
बंगाल और उड़ीसा की होली
मुख्य लेख : डोल पूर्णिमा
बंगाल
में होली को 'डोल यात्रा' व 'डोल पूर्णिमा' कहते हैं और होली के दिन राधा
और कृष्ण की प्रतिमाओं को डोली में बैठाकर पूरे शहर में घुमाते है और औरतें
उसके आगे नृत्य करती हैं। यह भी अपने आप में एक अनूठी होली है। बंगाल में
होली को 'बसंत पर्व' भी कहते है। इसकी शुरुआत रवीन्द्र नाथ टैगोर ने शान्ति निकेतन में की थी। उड़ीसा में भी होली को 'डोल पूर्णिमा' कहते हैं और भगवान जगन्नाथ जी की डोली निकाली जाती है।
राजस्थान की होली
मुख्य लेख : राजस्थान की होली
यहाँ मुख्यत: तीन प्रकार की होली होती है। माली होली- इसमें माली जात के मर्द, औरतों पर पानी डालते है और बदले में औरतें मर्दों की लाठियों से पिटाई करती है। इसके अलावा गोदाजी की गैर होली और बीकानेर की डोलची होली भी बेहद ख़ूबसूरत होती है। [32]
पंजाब की होली
मुख्य लेख : होला मोहल्ला
पंजाब में होली को 'होला मोहल्ला' कहते है और इसे निहंग सिख मानते है। इस मौके पर घुड़सवारी, तलवारबाज़ी आदि का आयोजन होता है।
हरियाणा की होली
मुख्य लेख : धुलेंडी
हरियाणा की होली भी बरसाने की लट्ठमार होली
जैसी ही होती है। बस फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि यहाँ देवर, भाभी को रंगने
की कोशिश करते है और बदले में भाभी देवर की लाठियों से पिटाई करती है। यहाँ
होली को 'दुल्हंदी' भी कहते हैं।
दिल्ली वालों की दिलवाली होली
दिल्ली की होली तो सबसे निराली है क्योंकि राजधानी होने की वजह से यहाँ पर सभी जगह के लोग अपने ढंग होली मानते है जो आपसी समरसता और सौहार्द का स्वरूप है। वैसे दिल्ली में नेताओं की होली की भी ख़ूब धूम होती है।[32]कर्नाटक में होली समारोह
मुख्य लेख : कामना हब्बा
कर्नाटक में यह त्योहार कामना हब्बा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव ने कामदेव
को अपने तीसरे नेत्र से जला दिया था। इस दिन कूड़ा-करकट फटे वस्त्र, एक
खुली जगह एकत्रित किए जाते हैं तथा इन्हें अग्नि को समर्पित किया जाता है।
आस-पास के सभी पड़ोसी इस उत्सव को देखने आते हैं। इसके अलावा बिहार की फगुआ होली, महाराष्ट्र की रंगपंचमी, गोवा की शिमगो[33], गुजरात की गोविंदा होली, और पश्चिमी पूर्व की 'बिही जनजाति की होली' की धूम भी निराली है।
प्रेम का त्योहार
होली बसंत व प्रेम-प्रणव का पर्व है तथा धर्म की अधर्म पर विजय का प्रतीक है। यह रंगों का, हास-परिहास का भी पर्व है। यह वह त्योहार है, जिसमें लोग 'क्या करना है, तथा क्या नहीं करना' के जाल से अलग होकर स्वयं को स्वतंत्र महसूस करते हैं। यह वह पर्व है, जिसमें आप पूर्ण रूप से स्वच्छंद हो, अपनी पसंद का कार्य करते हैं, चाहे यह किसी को छेड़ना हो या अज़नबी के साथ भी थोड़ी शरारत करनी हो। इन सबका सर्वोत्तम रूप यह है कि सभी कटुता, क्रोध व निरादर बुरा न मानो होली है की ऊँची ध्वनि में डूबकर घुल-मिल जाता है। बुरा न मानो होली है की करतल ध्वनि होली की लंबी परम्परा का अभिन्न अंग है।मदनोत्सव
दशकुमार चरित में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के नाम से किया गया है। वसंत काम का सहचर है, इसीलिए वसंत ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है। हमारे यहां काम को दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में 'काम' को भस्म करने के बाद उसे 'अनंग' रूप में फिर से क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि 'काम' का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है, उसे भगवान की विभूति माना जाता है। लेकिन जब वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है, शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार हमें यही समझाता है। त्योहार हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। वे आशा, आकांक्षा, उत्साह एवं उमंग के प्रदाता हैं तथा मनोरंजन, उल्लास एवं आनंद दे कर वे हमारे जीवन को सरस बनाते हैं। त्योहार युगों से चली आ रही हमारी सांस्कृतिक धरोहरों, परंपराओं, मान्यताओं एवं सामाजिक मूल्यों का मूर्त प्रतिबिंब हैं, जो हमारी संस्कृति का अंतरस्पर्शी दर्शन कराते हैं। त्योहारों की इस प्रथा ने ही भारत को मानवभूमि से देवभूमि बना दिया है। कालिदास ने मानव को उत्सव प्रेमी बताया है- उत्सवप्रिया खलु मनुष्या:! उत्सव मानव जीवन में उल्लास एवं आनंद की सृष्टि करते हैं। सत्, चित, आनंद रूपी त्रिगुणात्मक ब्रह्मा का एक तत्व है- आनंद। आनंद-उल्लास मानव के जीवन में मंगल एवं सौभाग्य को आमंत्रित करते हैं। होली वसंत ऋतु का यौवनकाल है, ग्रीष्म के आगमन का सूचक! यह 'नवान्नवेष्टि यज्ञ' भी कहलाता है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं और जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे। कर्मकांड परंपरा में इसे 'यव ग्रहण यज्ञ' का नाम दिया गया। अनाज की बालियों को संस्कृत में 'होलक' कहते हैं। देश के उत्तरी भाग में आज भी चने की भुनी बालियों को होला कहते हैं। वसंत में सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण में आ जाता है। फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी 'अमृत प्राण' हो जाती है। इसलिए होली के पर्व को 'मन्वन्तरांभ' भी कहा गया है। होली के साथ अनेक कथाएं जुड़ी हैं। पहली कथा प्रह्लाद एवं होलिका से संबंधित है। प्रह्लाद का पिता हिरण्यकशिपु नास्तिक था। उसने अपने राज्य में ईश्वर की पूजा करने पर प्रतिबंध लगा रखा था। किंतु उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। अनेक कष्ट सहकर भी उसने ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ी। महादेवी वर्मा ने इसकी व्याख्या इस तरह की है कि 'प्रह्लाद का अर्थ है परम आह्लाद अथवा परम आनंद। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंद और क्या हो सकता है ?' अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त हो कर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्नि देवता को नवान्न की आहुति देता है। दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार ढूण्डा नामक एक राक्षसी बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी और उन्हें मार डालती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्रोध में आकर उसे जीवित जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है। होली की अग्नि में बालकों की अलाय-बलाय का समर्पण कर उनकी सुख शांति की कामना की जाती है। यदि ढूण्डा को आप ठंड नामक राक्षसी मान लें तो बच्चों के कष्ट और राक्षसी के जाने की खुशी की बात बहुत अच्छी तरह समझ में आ जाती है। होली से अगले दिन धुलैण्डी होती है। रंग में सराबोर होकर फाग खेला जाता है। रंगभरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है। पारिवारिक होली के अपने ही रंग हैं। कृष्ण गोपियों की होली तो अद्भुत है। होली के शील और सौहार्द भरे रिवाजों में आज अनेक विकृतियों का समावेश हो गया है। होली के अवसर पर उच्चारित होने वाले वेदमंत्रों का स्थान अश्लील और असभ्य वचनों ने ले लिया है और रंग-बिरंगे गुलाल की जगह रासायनिक रंग आ गए हैं। इसने होली की धवल फाल्गुनी पूर्णिमा पर ग्रहण की काली छाया डाल दी है, जिसने पर्व की पवित्रता और अनुभूति को तिरोहित कर दिया है। वास्तव में आत्मा के मधुरतम और प्रियतम भावों का अनुभव किए बिना होली के अवसर पर प्रकट होने वाले अनुराग को अनुभव नहीं किया जा सकता।[34]- इन्हें भी देखें: मथुरा होली चित्र वीथिका, बरसाना होली चित्र वीथिका एवं बलदेव होली चित्र वीथिका
वीथिका
टीका टिप्पणी और संदर्भ
वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हेमाद्रि (काल, पृ. 642)।
इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'
- भूषण, ललित। उमंग और उल्लास से भरा यही तो है मदनोत्सव (हिन्दी) Speaking tree.in। अभिगमन तिथि: 1 जून, 2015।
it's an amazing article thanks for this article
जवाब देंहटाएंholi images
happy holi images 2020
happy holi images
holi images hd
holi images 2020
holi 2020 images
holi images download
best images of holi
holi festival images
radha krishna holi images
images of holi
holi hd images
holi wishes images