शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

अपनी गीतों में कबीरी छोड़ गए शैलेंद्र




E-mail Print PDF

जिन्दगी के मायने जिसने आखों से देख अपने जेहन और कलम से अपने गीतों में उकेरा एक ऐसा ही नाम शैलन्द्र का है। ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ 1950 में लिखे इस गीत में भविष्य की सम्भावनाओं और उसके संघर्ष को जो आवाज दी वह आजादी के बाद और आज के हालात का एक तुल्नात्मक अध्ययन है। और वे जब कहते हैं ‘ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन, ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन’ तो ऐसी सुबह की तलाश होती है, जिसे देखने का हक आने वाली नस्लों से कोई छीन नहीं सकता। और इसीलिए वे आगे कहते हैं कि बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये, न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये।
शंकरदास केशरीलाल ‘शैलेन्द्र’ का जन्म 30 अगस्त 1923 को ‘रावलपिंडी’ (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 1942 में वे रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने आए और अगस्त आंदोलन में जेल जाने के बाद उनकी सशक्त राजनीतिक यात्रा शुरु हुई जिसे भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) ने एक वैचारिक धार दी। और यहीं से शुरु हुआ शैलेन्द्र का भूख के विरुद्ध भात के लिए वर्ग संघर्ष। जो तत्कालीन समाज जिसे तत्कालीन कहना वर्तमान से बेमानी होगा पर वे लिखते हैं ‘छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ, बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ।’ ‘छोटी सी बात न मिर्च मसाला, कह के रहेगा कहने वाला’ जैसे गीतों में चित्रपट पर राजकपूर की आवारगी में शैलेन्द्र के जीवन का महत्वपूर्ण उनका कविता पक्ष कुछ छुप सा जाता है। उनकी 32 कविताओं का कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौतियां’ (1955) इसे समझने में हमारी मदद करता है। क्योंकि शैलेन्द्र खुद कहते थे कि वे फिल्मी दुनिया में नहीं आना चाहते थे। 1947 में तत्कालीन राजनीति पर तीखा प्रहार करती उनकी रचना ‘जलता है पंजाब’ को जब राजकपूर ने सुनकर उन्हें ‘आग’ फिल्म में लिखने के लिए कहा तो वे मुकर गए। पर 1948 में शादी के बाद मुफलिसी के दौर ने उनका रुख फिल्मी दुनिया की ओर किया और राजकपूर ने उन्हें बरसात में लिखने को कहा। यहीं से शुरु होती है शैलेन्द्र की फिल्मी यात्रा। शैलेन्द्र तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रुप में फिल्म फेयर से भी सम्मानित हुए।
भगतसिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की! (1948) यह रचना शैलेन्द्र के वर्गीय हित और वर्गीय संस्कृति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की बेमिशाल रचना है। जो उस दौर के नेहरुवाद पर तीखा प्रहार करती है तो वहीं तत्कालीन और वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे पर सवाल करती है कि आखिर आजादी, किसकी आजादी। जिसमें वे कहते हैं कि ‘यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे- बम्ब सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे! यह आज के कश्मीर, पूर्वोत्तर से लेकर छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश में लोकतांत्रिक ढ़ांचे की आड़ में चलाई जा रही जनविरोधी नीतियों को उजागर करता हैं। जहां काले कानूनों के चलते आम आवाम का सांस लेना भी दूभर हो गया है। इस बात को सोचने और समझने के लिए मजबूर करता है कि सन 47 से लेकर अब तक की जो नीतियां रही उनकी हर साजिश जनता के खिलाफ थी। जो आज हो रहा है वो 47 के दौर में भी हो रहा था, जिसे ‘न्यू माडल आजादी कहते हुए शैलेन्द्र कहते हैं ‘रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से’।
शैलेन्द्र एक प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार थे। जिनकी रचनाएं उनके राजनीतिक विचारों की वाहक थीं और इसीलिए वे कम्युनिस्ट राजनीति के नारों के रुप में आज भी सड़कों पर आम-आवाम की आवाज बनकर संघर्ष कर रही हैं। ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है! (1949) आज किसी भी मजदूर आंदोलन के दौरान एक ‘राष्ट्रगीत’ के रुप में गाया जाता है। शैलेन्द्र ट्रेड यूनियन से लंबे समय तक जुड़े थे, वे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और खांके के प्रति बहुत सजग थे। आम बोल-चाल की भाषा में गीत लिखना उनकी एक राजनीति थी। क्योंकि क्लिष्ट भाषा को जनता नहीं समझ पाती, भाषा का ‘जनभाषा’ के स्वरुप में जनता के बीच प्रसारित होना एक राजनीतिक रचनकार की जिम्मेवारी होती है, जिसे उन्होंने पूरा किया। आज वर्तमान दौर में जब सरकारें बार-बार मंदी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं, ऐसा उस दौर में भी था। तभी तो शैलेन्द्र लिखते हैं ‘मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है।’ बार-बार पूंजीवाद के हित में जनता पर दमन और जनता द्वारा हर वार का जवाब देने पर वे कहते हैं ‘समझौता? कैसा समझौता? हमला तो तुमने बोला है, मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें।
पर शैलेन्द्र के जाने के बाद आज हमारे फिल्मी गीतकारों का यह पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि क्योंकि वक्त जरुर पूछेगा कि जब विकिलिक्स के तामम खुलासे और पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे। बहरहाल शैलेन्द्र नेहरुवन समाजवाद की पोल खोल करते नजर आते हैं कि मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पण्डित जी महराज, देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज! (1953) शैलेन्द्र लोक अभिव्यक्ति के पारखी थे, बहुत सीधे साफ शब्दों में बिना लाग लपेट हर बात को कहने का उनका अंदाज उन्हें कबीर के समकक्ष खड़ा करता है। क्योंकि कबीर ने भी पाखंड के खिलाफ सीधे-सरल शब्दों में बात कहीं। भाषा का अपना आतंक होता है अगर सरल भाषा जनता को मिलती है तो वह उसे अपना हथियार बना लेती है। इसीलिए वे जब ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ (श्री 420, 1950) कहते हैं तो उस दौर की पूरी राजनीति और उसमें अपने स्टैन्ड को स्पष्ट करते हैं।
शैलेन्द्र ने फिल्मी कलापक्ष जो कि काल्पनिक अधिक वास्तविक कम होने का अहसास कराता है, के भ्रम को तोड़ डाला। भारतीय समाज की नब्ज को पकड़ते हुए गीत लिखे और जीवन के आखिरी वक्त तक वे अपने इस उत्साह को बनाए रखे। लोक अभिव्यक्तियों को जिस तरह उन्होंने खुद के प्रोडक्शन में बनी पहली और आखिरी फिल्म तीसरी कसम में ‘सजन रे झूठ मत बोलो में’ आवाज दी उससे भारतीय समाज अपने आप को जोड़ लेता है। हमारे घर परिवार में जिस तरह से हमें कहा जाता है कि किसी के साथ बुरा मत करो क्योंकि जैसा करोगे वैसा भुगतना पड़ेगा, रुपया पैसा सब यहीं रह जाएगा तो किस बात का लालच ऐसी छोटी-छोटी बातों को शैलेंन्द्र ने अपने गीतों के ट्रैक पर पूरे वैचारिक आधार पर रखा। वे स्वर्ग और नरक के कान्सेप्ट को खारिज करते हैं पर उसका आधार भी लोक जीवन ही होता है।
शैलेन्द्र का गीत ‘सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी’ (अनाड़ी) उनके जीवन पर भी सटीक बैठता हैं जीवन के अंतिम दिनों मे जब वे तीसरी कसम बना रहे थे तब वे ऐसे भवंर में फंसे कि उससे कभी निकल न सके। प्रोडक्शन में आने को लेकर शैलेन्द्र को राजकपूर ने काफी समझाया था कि बाजार अपनी शर्तों पर मजबूर कर देता है, जिसे शैलेन्द्र नहीं कर सकते थे। और हुआ भी तीसरी कसम का अंतिम दृष्य जब बैलगाड़ी के झरोखे में हीराबाई (वहीदा रहमान) ट्रेन में जाती रहती है, और हीरामन (राजकपूर) बैलों को हांकते हुए जब पैना (छड़ी) मारने की कोशिश करता है और पीछे से बैकग्राउंड में गीत बजता है ‘प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया, हंसना सिखाया, रोना सिखाया’ प्रेम के विरह का यह दृष्य उस वक्त के वितरकों ने हटाने को कहा। क्योंकि उस वक्त तक फिल्मों के सुखांत की रीति थी। पर लीक से हटकर जीवन के मूल्यों और वो भी प्रेम जैसे भावनात्मक रिश्ते जिसकी परिणति फणीश्वरनाथ रेणु ने भी विरह में की उसमें किसी परिवर्तन के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं हुए। और शराब ने जिन्दगी के मायनों को समझने वाले ‘गुलफाम’ को मार डाला। 13 दिसंबर 1966 को जब शैलेन्द्र की तबीयत काफी खराब थी तो उन्होंने राजकपूर को आरके काटेज मे मिलने के लिए बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत ‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ को पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। इसे महज एक संयोग हीं कहा जाएगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था।
लेखक राजीव यादव पीयूसीएल यूपी के प्रदेश संगठन सचिव हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...