सोमवार, 30 जुलाई 2012

प्रेमग्रंथ -

  1. Photo: ३१.
"प्रेम-ग्रंथ"

"जब रोम-रोम मेरे,किशोर 
पुलकित होता,
जब श्वाँस-श्वाँस तन ताप 
उग्र किंचित होता,

तब शुष्क धरा पर यह 
कैसा मृदु ओस दिखा,
वह प्रेम बीज बोता 
उस पर संतोष दिखा,

वह महा शक्ति मेरे 
शिव में संलयित हुई,
तब महाकाल में ज्योति 
किरण प्रज्जवलित हुई,

वह कौन? पीसता मेरी 
शिलाएँ,चूर्ण करे,
वह उर्ध्व चिन्ह,क्षैतिज- 
रेखा को पूर्ण करे,

ऋण चिन्ह हुआ धन चिन्ह,
जागता काम लगे,
यह प्रेम-ग्रंथ संजय का 
चिर संग्राम लगे,

हरती पीड़ा हर महादेव की,
शक्ति पुंज वह,
धन-धान्य,स्वर्ग वैभव देती 
एक देव कुंज वह

यह पंचभूत और विकट शून्य 
मिलकर मनु जीव बनाते हैं,
रज-वीर्य,अंड और शुक्र,संत!
जप-ध्यान-जोग दर्शाते हैं,

तुम आदिशक्ति मैं आदि देव,
तुम आदि भूत मैं अंतहीन,
मैं क्रियाहीन तुम ध्यानमग्न,
तुम रजस्वला,मैं दैव दीन,

तुम खंड-खंड में व्याप्त मेरे,
मैं तेरे खंड से चिर प्रचंड,
तुम अंड-अंड,मैं शुक्र-शुक्र,
शिवशक्ति मिलन जीवन अखंड,

तब कौन मूर्ख कहता है, 
मेरे प्रेमग्रंथ को काम ग्रंथ,
संजय धृतराष्ट्र नहीं केशव, 
तब तो रचता निर्वाण पंथ,

क्या धरती पर हल चला रहा,
वह कृषक लगे रत योग नहीं,
लिखता है संजय प्रेमग्रंथ में 
प्रीत,मात्र समभोग नहीं,

यह प्रेमग्रंथ रसधार,मित्र! तुम 
सुधा बूँद, चख लो, पी लो,
यह आदि-अंत का आदिग्रंथ और 
अंतवेद, लख लो, जी लो।।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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