उन्नीसवीं शती के
प्रारंभ में जो गद्यभाषा रूपायित हुई और औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति तथा
पत्र-पत्रिकाओं के प्रचलन से जो नवीन विचार-जगत् खुल गया उसी वातावरण में
मलयालम में उपन्यास साहित्य का बीजवपन हुआ था । 'इन्दुलेखा' (1889) नामक
वास्तविक उपन्यास का आविर्भाव उसके पूर्ववर्तीकाल में प्रचलित कथाख्यान
परंपरा से हुआ था । 1847 - 1887 की कालावधि में मलयालम में कोई बारह
कथाख्यान निर्मित हुए । 'परदेशी मोक्ष यात्रा' (1847) नाम से आर्च डीकन
कोशी ने जो रचना प्रस्तुत की वह जॉन बनियन द्वारा लिखित 'पिलग्रिंस
प्रोग्रस' का अनुवाद थी । परंतु इस काल में अनेक अनूदित गद्य कृतियों तथा
एकाध मौलिक गद्य कृतियों की रचना हुई जो उपन्यास की परिभाषा के अन्तर्गत
नहीं आतीं । यथा - 'पिलग्रिंस प्रोग्रस' का ही रवरेन्ट सी. मुळ्ळर द्वारा
अनूदित 'संचारियुडे प्रयाणं', 'भाषा शाकुन्तळम' नाम से तिरुवितांकूर
महाराजा आयिल्यं तिरुनाल रामवर्मा द्वारा किया गया कालिदास के 'अभिज्ञान
शाकुन्तलम' का गद्यानुवाद, 'मीनकेतनन' नाम से आयिल्यं तिरुनाल द्वारा एक
अरबी कहानी का अनुवाद, जॉन बनियन के ही 'होलीवार' का आर्च डीकन कोशी
द्वारा 'तिरुप्पोराट्टम' (1865) नाम से अनुवाद, शेक्सपियर के 'कोमडी ऑफ
एरेर्स' नाटक का कल्लूर उम्मन पीलिप्पोस द्वारा किया गया 'आल माराट्टम्'
(1866) नामक गद्यानुवाद, ब्रिटिश लेखिका श्रीमती कोलिंस की 'स्लेयर्स
स्लैन' रचना का 'घातकवधं' (1872) नामक मलयालम अनुवाद, आर्च डीकन कोशी की
मौलिक कृति 'पुल्लेलिक्कुंचु' (1882), चार्ल्स लैम्प की शेक्सपियर कथाओं को
आधार बनाकर के. चिदम्बरा वारियर द्वारा रचित 'कामाक्षीचरितं',
'वर्षोकालकथा', हन्ना कैथरिन म्युलिन्स की 'फूलमणि एण्ड करुणा' का अनुवाद,
अप्पु नेडुंगाडी की 'कुन्दलता' (1887) आदि ।
चन्तुमेनन का लगाया पौधा
ओ. चन्तुमेनन की 'इन्दुलेखा' (1889) से मलयालम उपन्यास का आविर्भाव हुआ ।
इन्दुलेखा के बाद वे 'शारदा' लिख रहे थे किन्तु उसके पूर्ण होने से पहले
चन्तुमेनन का निधन हो गया । 1891 में सी. वी. रामन पिळ्ळै ने मार्ताण्ड
वर्मा लिखा तो मलयालम उपन्यास साहित्य की नींव सुदृढ़ हो गई । 19 वीं
शताब्दी में रचित दूसरे उपन्यास हैं - पडिंजारे कोविलकत्त अम्मामन राजा का
'इन्दुमती स्वयंवरम्' (1890), चात्तुनायर का 'मीनाक्षी' (1890), पोत्तेरि
तोम्मन अप्पोत्तिक्किरी का 'परिष्कारप्पाति' (1892), किष़क्केप्पाट्टु रामन
मेनन का 'परंगोडी परिणयं' (1892), कोमाट्टिल पाडुमेनन का 'लक्ष्मी केशवं',
सी. अन्तप्पायि का 'नालुपेरिलोरुत्तन' (1893), केरल वर्मा वलियकोयितंपुरान
का 'अकबर' (1894), जोसफ मूलियिल का 'सुकुमारी' (1897) आदि ।
सी. वी. के. द्वारा लगाया वटवृक्ष
चन्तुमेनन ने 'इन्दुलेखा' नामक छायेदार पेड लगाया । बाद में सी. वी. रामन
पिळ्ळै ने वटवृक्ष ही लगाया था । तिरुवितांकूर के इतिहास को आधार बनाकर सी.
वी. रामन पिळ्ळै ने जो ऐतिहासिक उपन्यास रचे वे हैं 'मार्त्ताण्ड वर्मा'
(1891), 'धर्मराजा' (1913) और 'रामराजा बहदूर' (1921) । उनका सामाजिक
उपन्यास है - 'प्रेमामृत' (1917) । दर्शन तथा शिल्प सौन्दर्य से धर्मराजा
एवं 'रामराज बह्दूर' अप्रतिम उपन्यास हैं । सी. वी. से प्रेरणा लेकर बाद
में अनेक उपन्यास रचे गए । सी. वी. के परवर्ती उपन्यासकारों में प्रमुख हैं
- काराट्ट अच्युत मेनन (विरुतन शंकु 1913), के. नारायण कुरुक्कल
(पारप्पुरम् - 1960 - 1907, उदयभानु), अप्पन तंपुरान (भास्कर मेनन, 1924,
भूतरायर 1923), अंबाडि नारायण पोतुवाल (केरल पुत्रन, 1924), टी. रामन
नंपीशन (केरलेश्वरन 1929) आदि ।
साहित्येतिहास लेखकों के अनुसार नारायण कुरुक्कल का 'उदयभानु' और पारप्पुरम
मलयालम का प्रथम राजनीतिक उपन्यास है । प्रथम तिलस्मी उपन्यास है
'भास्करमेनन' । तदनन्तर इस विधा में कुछ और उपन्यास भी हुए । यथा केशवकुरुप
का 'माधवकुरुप' (1922), ओ. एम. चेरियान का 'कालन्टे कोलयरा' (1928),
अनन्तपद्मनाभ पिळ्ळै का 'वीरपालन' (1933), चेलनाट्टु अच्युत मेनन का
'अज्ञात सहायि' (1936) आदि । इसी युग में कतिपय ऐतिहासिक उपन्यास हुए । यथा
- कप्पना कृष्ण मेनन का 'चेरमान पेरुमाल', के. एम. पणिक्कर का
'केरलसिंहम्', पळ्ळत्तु रामन का 'अमृत पुळिनं', सी. कुञ्ञिराम मेनन का
'वेळुवक्कम्मारन' आदि । मुत्तिरिंगोड भवत्रातन नंपूतिरिप्पाड ने 'अफ्फन्टे
मकळ' नाम से जो उपन्यास लिखा गया वह नंपूतिरि समुदाय को केन्द्र बनाकर
लिखित सामाजिक उपन्यास था ।
यथार्थवाद
बीसवीं शती के तीसरे दशकों से मलयालम साहित्य में जो परिवर्तन हुआ उसके
मूलकारण थे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम, कम्यूनिस्ट आन्दोलन, वैज्ञानिक
क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर हुए विस्फोट, विश्व साहित्य में हुए
परिवर्तनों का परिचय आदि । साहित्य समालोचक केसरी बालकृष्ण पिळ्ळै ने विश्व
साहित्य, विज्ञान, दर्शन, साहित्य दर्शन आदि पर जो निबंध लिखे वे वैचारिक
स्तर पर नवीन दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सहायक बने । कहानी में परिवर्तन
की हवा प्रथमतः बह उठी । बीसवीं शती के चौथे दशक में लेखकों का एक दल सामने
आया जो यथार्थवाद (realism) को लेकर साहित्य सृजन में लगा था । इनमें
प्रमुख थे - पी. केशवदेव, तकष़ि, एस. के पोट्टेक्काड, उरूब (पी. सी.
कुट्टिकृष्णन) आदि ।
मलयालम में यथार्थवादी उपन्यास का प्रारंभ केशवदेव के 'ओडयिलनिन्नु' (नाली
से, 1944) और बषीर का 'बाल्यकालसखि' 1944 से हुआ । तकष़ि का 'तोट्टियुडे
मकन' (भंगी का बेटा, 1947) प्रकाशित हुआ तो यथार्थवादी परंपरा एक आन्दोलन
बन गई ।
यथार्थवादी लेखकों ने समाज के निम्नवर्ग के लोगों के दुखद जीवन का चित्रण
किया । उनके उपन्यासों के नायक थे गरीव किसान, भिखमँगे, भंगी, रिक्शा चालक
मज़दूर, भारवाही श्रमिक और दलित । इसके पहले कहानी साहित्य में ऐसे
उपेक्षित वर्ग को कोई स्थान नहीं था ।
केशवदेव के प्रमुख उपन्यास
ओडयिल निन्नु (नाली से), भ्रान्तालयं (पागलखाना), अयलक्कार (पड़ोसी),
मातृह्रदयं, ओरु रात्रि (एक रात), कुंचुकुरुप की आत्मकथा, नडि,
आर्क्कुवेण्डि (किसके लिए), उलक्का (ओखल), कण्णाडि (दर्पन), सखाव कारोट्टु
कारणवर, प्रेमविड्डि, एन्गोट्ट (कहाँ जाते हो), पंकलाक्षि की डायरी,
त्यागियाय द्रोही, अधिकारं और सुखिक्कान वेण्डि (सुख के लिए) ।
तकष़ि के प्रमुख उपन्यास
पतित पंकजम्, विल्पनक्कारि, रण्डिडंगष़ि (दो सेर धान), तोट्टियुडे मकन
(भंगी का बेटा), प्रतिफनं, परमार्थन्गल (वास्तविकताएँ), अवन्टे स्मरणकल
(उसकी स्मृतियाँ), तलयोड (खोपड़ी), पेरिल्ला कथा (कहानी जिसका कोई नाम
नहीं), चेम्मीन (मछुआरे), औसेप्पिन्टे मक्कल (औसेप की संतानें), अनुभवंगल
पाळिच्चकल, पाप्पियम्मयुम मक्कळुम, अंचु पेण्णुंगल, जीवितं सुन्दरमाणु
पक्षे, चुक्कु, धर्मनीतियो अल्ला जीवितं, एणिप्पडिकल (सीढियाँ), नुरयुम
पतयुम, कयर, अकत्तलम, कोडिप्पोया मुखंगल, पेण्णु, आकाशं बलूणुकल और ओरु
एरिञ्ञडंगल ।
बषीर के प्रमुख उपन्यास
बाल्यकालसखि, न्टुप्पाप्पाक्कोरानेंडार्न्नु (दादा का हाथी) मरणत्तिन्टे
निष़लिल, प्रेमलेखलनम, मतिलुकल (दीवारें), शब्दंगल, पात्तुम्मयुडे आडु,
जीवितनिष़लप्पाडुकल, मुच्चीट्टुकळिक्कारन्टे मकळ, तारास्पेशल्स, आनवारियुम
पोलकुरिशुम, मान्त्रिकप्पूच्चा, स्थलत्ते प्रधानदिव्यन और शिंकिटिमुंगन ।
पोट्टेक्काड के प्रमुख उपन्यास
विष कन्यका, नाडन प्रेमम्, करांबु, प्रेमशिक्षा, मूडुपडं, ओरु तेरुविन्टे कथा, ओरु देशत्तिन्टे कथा ।
उरूब के प्रमुख उपन्यास
आमिना, मिण्डाप्पेण्णु, कुञ्ञम्मयुं कूट्टुकारुम, मौलवियुम चंगातिमारुम, उम्माच्चु, सुन्दरिकळुम सुन्दरन्मारुम, अणियरा, अम्मिणि ।
यथार्थवादी परंपरा के अन्य प्रमुख उपन्यासकार
कैनिक्करा पद्मनाभ पिळ्ळै, जोसफ मुण्डश्शेरी, नागावळ्ळि आर. एस. कुरुप,
वेट्टूर रामन नायर, चेरुकाडु, एन. के. कृष्ण पिळ्ळै, के. दामोदरन आदि ।
यथार्थवाद तथा बीसवीं शती के साठ के दशकों में उद्भूत आधुनिकता के बीच के काल में कई प्रतिभासंपन्न लेखकों ने उपन्यास रचे ।
यथा - ई. एम. कोवूर - (काडु, मुळ्ळु, गुहाजीविकल, मलाकल),पोञ्ञिक्करा राफी -
(स्वर्गदूतन, पापिकळ, फुडरूल, आनियुडे चेच्ची, कानायिले कल्याणं), के.
सुरेन्द्रन - (ताळम, काट्टुकुरंगु, माया, ज्वाला, देवी, सीमा, मरणं
दुर्बलं, शक्ति, गुरु), कोविलन (यथार्थनाम वी. वी. अय्यप्पन - तोट्टंगल,
हिमालयम्, ए मैनस बी, भरतन, तट्टकम), पारप्पुरत्तु (यथार्थनाम के. ई.
मत्तायि - निणमणिञ्ञा काल्पाडुकल, अन्वेषिच्चु कण्डेत्तियिल्ला, अरनाष़िका
नेरं, आद्याकिरणंगल, तेनवरिक्का, मकने निनक्कुवेण्डि, ओमना, पणितीरात्ता
वीडु) । इस धारा के अन्य उपन्यासकार हैं - जी. विवेकानन्दन, जी. एन.
पणिक्कर, एस. के मारार, जनप्रिय उपन्यास के समुद् घाटक मुट्टत्तु वर्की,
नन्तनार, वैक्कम चन्द्रशेखरन नायर, जी. पी. ञेक्काडु, सी. ए. किट्टण्णि,
पम्मन, अय्यनेत्तु, आनि तटियल, कानं ई. जे आदि ।
आधुनिकता की ओर
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का दशक उपन्यासकारों के लिए प्रत्याशाशून्य लगा
। एक नवीन सामाजिक दृष्टिकोण, अन्तर्मुखता, विषाद भाव आदि उपन्यासों में
प्रकट होने लगे । आख्यान रीति भी बदल गई । व्यष्टि की आत्मनिष्ठ होने की
प्रवृत्ति, उसके संकट एवं समाज से व्यक्ति-मन का संघर्ष आदि उपन्यास के
विषय बने । एम. टी. वासुदेवन नायर ने नालुकेट्टु (हवेली) 1958 लिखकर
रूप-भाव परिवर्त्तन का उद्घाटन किया । अपने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन के
दौरान एम. टी. ने जितने उपन्यास लिखे वे सब के सब लोकप्रिय बने । वे
आलोचकों की मुक्तकंठ से प्रशंसा का पात्र बने । असुरवित्त, कालम्, मञ्ञु,
रण्डामूष़म, वाराणसी आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं । अधिकतर लेखकों ने
1960 से लिखना शुरू किया था । यथा - राजलक्ष्मी (ओरु वष़ियुम कुरे
निष़लकळुम, ञानेन्ना भावं, उच्चवेयिलुम इळं निलावुम), एन. पी. मुहम्मद
(हिरण्य कश्यपु, मरं, एण्णप्पाडम्, दैवत्तिन्टे कण्णु), विलासिनि (यथार्थ
नाम एम. के. मेनन - उपन्यास - चुण्डेलि, ऊञ्ञाल, इणंगत्ता कण्णिकल,
अवकाशिकल, यात्रामुखं), सी. राधाकृष्णन (कण्णि मांगकल, पुष़ा मुतल पुष़ा
वरे, स्पंदमापिनिकले नन्दि, पुळ्ळिप्पुलिकळुम वेळ्ळि नक्षत्रंगलुम, पिन
निलावु, ओट्टयडिप्पातकल, मुंपे परक्कुन्ना पक्षिकल, तीक्कडल कडञ्ञु
तिरुमधुरं), ई. वासु (चुवप्पुनाडा), मलयाट्टूर रामकृष्णन (यंत्रं,
अंचुसेन्ट, वेरुकल, यक्षि, पोन्नि, अमृतं तेडी, नेट्टूर मठं, आरामविरल),
वी. टी. नन्दकुमार (दैवत्तिन्टे मरणं, इरट्टा मुखंगल, रक्तमिल्लात्ता
मनुष्यन), पेरुंपडवं श्रीधरन (अभयं, अष्टपदि, ओरु संकीर्तनंपोले), पुत्तूर
उण्णिकृष्णन (आट्टुकट्टिल, आनप्पका, धर्मचक्रं), पी. वत्सला (नेल्लु,
आग्नेयं, कूमन कोल्लि, गौतमन, ललितांबिका अन्तर्जनम (अग्निसाक्षी), जॉर्ज
ओणक्कूर (उत्कडल, कामना), यू. ए. कादर, वी. ए. ए. अज़ीज़, सारा थॉमस, पी.
आर. श्यामळा, टी. वी. वर्की, पी. आर. नाथन आदि ।
आधुनिकता
1960 के दशक में जो नवीन आन्दोलन शुरू हुआ उसने जिस उपन्यास लेखन को बढावा
दिया वह विषय और आख्यान में रूढ़िविरुद्ध था । शिथिल समाज में प्रामाणिक
मूल्यों की तलाश, मानव अस्तित्व संबंधी संघर्ष, अस्तित्व-संकट, निषेधदर्शन
आदि ही आधुनिकता की पहचान हो गई थी । ओ. वी. विजयन का 'खज़ाक का इतिहास'
आधुनिक उपन्यासों में ऊँचा स्थान रखता है । आधुनिक उपन्यासकारों में प्रमुख
हैं - ओ. वी. विजयन, काक्कनाडन, एम. मुकुन्दन, आनन्द, वी. के. एन., माडंप
कुञ्ञुकुट्टन, सेतु, पुनत्तिल कुञ्ञब्दुल्ला, पी. पद्मराजन, मेतिल
राधाकृष्णन आदि ।
ओ. वी. विजयन के उपन्यास - खज़ाकिन्टे इतिहासं, धर्मपुराणं, गुरुसागरं, मधुरं गायति, प्रवाचकन्टे वष़ि, तलमुरकळ ।
काक्कनाडन के उपन्यास - अज्ञतयुडे ताष़वरा, परंकिमला, एष़ाम मुद्रा, उष्णमेखला, साक्षी, आरुडेयो ओरु नगरं, ओरोता ।
एम. मुकुन्दन के उपन्यास - देल्ही, मय्यष़िप्पुष़युडे तीरंगळिल, सीता,
आविलायिले सूर्योदयं, हरिद्वारिल मणिकल मुष़ंगुन्नु, ईलोकं अतिलोरु
मनुष्यन, दैवत्तिन्टे विकृतिकल, नृत्तं, केशवन्टे विलापंगल, पुलयप्पाट्टु ।
वी. के. एन. के उपन्यास - आरोहणं, पितामहन, जनरल चात्तन्स, नाण्वारु, कावि, कुटिनीरु, अधिकारं, अनंतरं ।
आनन्द के उपन्यास - आल्क्कूट्टम, मरणसर्टिपिकेट, अभयार्थिकल, मरुभूमिकल
उण्डाकुन्नतु, गोवर्धन्टे यात्रकल, व्यासनुम विघ्नेश्वरनुम,
अपहरिक्कघोट्टा, दैवंगल, विभजनंगल ।
सेतु के उपन्यास - पाण्डवपुरम, नियोगम, विळयाट्टम्, कैमुद्रकल, ननञ्ञा मण्णु, ताळियोला ।
पुनत्तिल कुञ्ञब्दुल्ला के उपन्यास - अलीगढिले ताडवुकारन, तेट्टुकल, सूर्यन, स्मारकाशिलकल, खलीफ़ा, मरुन्नु, कन्यावनंगल, परलोकम् ।
उत्तराधुनिक प्रवृत्ति
1980 के दशक के मध्य तक आधुनिकता से भिन्न भावुकता रूप लेने लगी । यह नव
भावुकता जो उत्तराधुनिक प्रवृत्ति के रूप में उभरी एक आन्दोलन नहीं बन सकी ।
इस पीढ़ी में उपन्यासकारों का ताँता-सा लगा है । यथा - टी. वी. कोच्चु
बावा (वृद्धसदनम्, पेरुंकळियाट्टम), सी. वी. बालकृष्णन (आयुस्सिन्टे
पुस्तकम, आत्माविनु शरियेन्नु तोन्नुन्ना कार्यंगल, दिशा), सी. आर.
परमेश्वरन (प्रकृति नियमम्), एन. प्रभाकरन (बहुवचनम, अदृश्यवनंगल,
तीयूररेखकल, जीवन्टे तेलिवुकल), एन. एस. माधवन (लन्तन बत्तेरियिले
लुत्तिनियकल), वी. जे. जैम्स (चोरशास्त्रम, दत्तापहारम), जी. आर. इन्दुगोपन
(मणल जीविकल, ऐस - १९८ डिग्री सेल्सियस), सारा जोसफ (आलाहयुडे पेण्मक्कल,
माट्टात्ति, ओतप्प), के. जे. बेबी (मावेली मन्रम), के. रघुनाथन (भूमियुडे
पोक्किल, शब्दाया मौनम, पातिरा वन्करा, समाधानत्तिनु वेण्डियुल्ल
युद्धंगल), के. पी. रामनुण्णि (सूफी परञ्ञ कथा, चरमवार्षिकम, जीवितत्तिन्टे
पुस्तकम) ।
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