अपने पिता की 18वीं पुण्यतिथि पर , उनकी यादों को समर्पित मेरी यह काव्यांजलि............
************** धुंध में पहाड़ ***************
पिता ,
धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
************** धुंध में पहाड़ ***************
पिता ,
धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
दिन की तरह ठिठुरते
उन्हें कभी देखा नहीं मैंने
न ही कभी
धूप का गर्म ओवरकोट पहनते...
कवच की तरह !
विचारों की यह कैसी आंतरिक ऊष्मा थी उनमें
कि कष्ट की बड़ी - सी - बड़ी बूँद भी
गर्म तवे की तरह
उनकी देह को छूते ही
भष्म हो जाती थी !!
पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
इसी पहाड़ की गुफ़ाओं में
हमनें खेले हैं बचपन के दिन
इसी पहाड़ की कन्दराओं में
हमने फाड़ी हैं रातों की चादरें !
हमें , मासूम शावकों की तरह...
अपने में उछलता - कूदता देख
कितना ख़ुश होता होगा पहाड़
कितना सुख महसूस करता होगा
हमारे नर्म - मुलायम बालों पर
स्पर्श की उंगलियाँ फेरते हुए !?
बिजलियों की कड़कड़ाहट से
हमें , कभी दहशतज़दा नहीं होने दिया पहाड़ ने
न ही हम
उसकी गोद की गर्माहट में सिकुड़े - दुबके
आज तक यह जान पाये
कि आख़िर कैसे झेल लेता था पहाड़
एक ही साथ ---
ठंढ , लू , बारिश तथा आंधी और तूफ़ानों को
कैसे झटक देता था
कटीली झाड़ियों की तरह
चेहरे की झुर्रियाँ और उम्र की थकानों को ?!
उसकी मृतप्राय आँखों में
दुख और असंतोष की
कितनी - कितनी गिलहरियाँ छटपटायी होंगी ,
हम आजतक नहीं जान सके !
उसके सामर्थ्य
और सहनशीलता से अनभिज्ञ हम ,
अंत तक अपनी ज़रूरतों के ' डायनामाइट ' लगाते रहे
और पहाड़ को
क्रमश: जर्जर बनाते रहे !!
अब ,
जबकि उस पहाड़ की
महज स्मृति भर शेष है ,
हम अपनी - अपनी छतों के नीचे--
( जिसमें पिता की देह के टुकड़े शामिल हैं )
.... हर तरह से सुरक्षित खड़े हैं
और ठंढ , लू बारिश
तथा आंधी और तूफ़ानों के फीते हमें नाप रहे हैं
कि धुंध में खड़े उस पहाड़ से
हम कितने छोटे
अथवा कितने बड़े हैं !!!!!!!!
............... प्रवीण परिमल ...............
उन्हें कभी देखा नहीं मैंने
न ही कभी
धूप का गर्म ओवरकोट पहनते...
कवच की तरह !
विचारों की यह कैसी आंतरिक ऊष्मा थी उनमें
कि कष्ट की बड़ी - सी - बड़ी बूँद भी
गर्म तवे की तरह
उनकी देह को छूते ही
भष्म हो जाती थी !!
पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
इसी पहाड़ की गुफ़ाओं में
हमनें खेले हैं बचपन के दिन
इसी पहाड़ की कन्दराओं में
हमने फाड़ी हैं रातों की चादरें !
हमें , मासूम शावकों की तरह...
अपने में उछलता - कूदता देख
कितना ख़ुश होता होगा पहाड़
कितना सुख महसूस करता होगा
हमारे नर्म - मुलायम बालों पर
स्पर्श की उंगलियाँ फेरते हुए !?
बिजलियों की कड़कड़ाहट से
हमें , कभी दहशतज़दा नहीं होने दिया पहाड़ ने
न ही हम
उसकी गोद की गर्माहट में सिकुड़े - दुबके
आज तक यह जान पाये
कि आख़िर कैसे झेल लेता था पहाड़
एक ही साथ ---
ठंढ , लू , बारिश तथा आंधी और तूफ़ानों को
कैसे झटक देता था
कटीली झाड़ियों की तरह
चेहरे की झुर्रियाँ और उम्र की थकानों को ?!
उसकी मृतप्राय आँखों में
दुख और असंतोष की
कितनी - कितनी गिलहरियाँ छटपटायी होंगी ,
हम आजतक नहीं जान सके !
उसके सामर्थ्य
और सहनशीलता से अनभिज्ञ हम ,
अंत तक अपनी ज़रूरतों के ' डायनामाइट ' लगाते रहे
और पहाड़ को
क्रमश: जर्जर बनाते रहे !!
अब ,
जबकि उस पहाड़ की
महज स्मृति भर शेष है ,
हम अपनी - अपनी छतों के नीचे--
( जिसमें पिता की देह के टुकड़े शामिल हैं )
.... हर तरह से सुरक्षित खड़े हैं
और ठंढ , लू बारिश
तथा आंधी और तूफ़ानों के फीते हमें नाप रहे हैं
कि धुंध में खड़े उस पहाड़ से
हम कितने छोटे
अथवा कितने बड़े हैं !!!!!!!!
............... प्रवीण परिमल ...............
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