कहानी
समय
की चिंता करते हुए मैं सुबह काफ़ी जल्दी उस घर से निकल गई थी, जहाँ रात
में ठहरी थी. मुझे अपने ज़िला मुख्यालय लौटने के लिए पहली सवारी बस पकड़ने
की फिकर थी. उन इलाकों में सवारी गाड़ी का कोई भरोसा नहीं रहता, सुबह कै
बजे निकल जाए या कितने घंटों तक उसकी कहीं गूंज तक सुनाई न दे. पहाड़ की
घाटियों में वाहनों के चलने की आवाज़ें काफ़ी दूर-दूर तक सुनाई दे जाती हैं
और उनकी गूंज बहुत देर तक कायम रहती हैं. चढ़ाई पर पाँच किलोमीटर दूर,
किसी ऊँची चोटी से भी साफ़-साफ़ दिखाई दे जाती है नीचे घाटी में
खिसकती-रेंगती हुई गाड़ियाँ.
आपके साथ कोई और नहीं था दीदी?
नहीं, सरिता मैं अकेली थी.
रीजनल
इंस्पेक्टर ऑफ गर्ल्स स्कूल्स. वह अध्यापक, जिसके घर पर मैं रात में ठहराई
गई थी, मेरे साथ सड़क तक आना चाहता था. बहुत ज़ोर कर रहा था, साहब, आप
अकेली कैसे जा सकती हैं, सड़क तक मैं चलूँगा आपके साथ. उसकी नज़रों में तो
मैं ना जाने कितनी बड़ी अफ़सर थी. पर मैंने उसे साफ़ मना कर दिया.
वह मान गया आपकी बात?
मान
नहीं गया, मैंने उसे जबर्दस्ती स्कूल जाने को मजबूर कर दिया. दरअसल सरिता,
मैं उस घर में मेहमान न बनी होती तो सुबह रात खुलते ही वहाँ से निकल लेती.
लेकिन जब तुम किसी दूसरे के घर पर ठहरे हो तो अपनी मर्ज़ी से नहीं खिसक
सकते. चलने से पहले परिवार के सभी सदस्यों से विदाई लेने की रस्म निभानी ही
पड़ती है. नाश्ता नहीं तो कम से कम एक बार की चाय तो लेनी ही पड़ेगी.
परिवार के लोग ज़िद कर रहे हैं कि नाश्ता करके जाइए, अभी तैयार हो जाता है
और तुम उस घर से एक कप चाय तक लिए बगैर निकल जाओ, यह भी अशिष्टता ही होती
है.
ठीक कह रही हैं दीदी.
उस
घर से गाँव के मुख्य रास्ते पर आ जाने के बाद मैं तेज़-तेज़ कदमों से चलने
लगी. मेरी नज़रें उतना ही अपने पाँव तले की टेढ़ी-मेढ़ी, पथरीली, बेढब,
बेहद संकरी, पगडंडीनुमा राह को देख रही थीं और उतना ही नीचे घाटी में फैली
सर्पाकार फैली हुई मोटर सड़क को. मैं किसी गाड़ी के चलने की आवाज़ को बहुत
ध्यान से सुनते रहने की कोशिश भी करती रही. लेकिन न मुझे कोई बस रेंगती
दिखाई दी, न ही उसकी कोई आवाज़ सुनाई दी. डेढ़ घंटे तक मैं कभी अपने पाँव
की ओर ताकती, कभी दूर घाटी की ओर देखने लगती. चलते-चलते. मेरी नज़रें और
कान उस बस पर केंद्रित थीं जिसका तब तक नहीं अता-पता नहीं लग रहा था. और
उसकी आवाज़ न सुनाई देने पर मन में ख़ुश भी होती जा रही थी कि अभी ज़्यादा
देर नहीं हुई, अभी मैं पहली बस को पकड़ सकती हूँ. लेकिन मेरे दिमाग की
भीतरी तहों में सुबह-सुबह कुछ दूसरी किस्म की चिंताएं भी उभरने लगी थीं.
मुझे
जल्दी से जल्दी अपने दफ्तर में पहुँच कर वहाँ कई काम निपटाने को थे. और
फाइलों के अलावा, कुछ फाइलें ऐसी थीं जिनका संबंध विधानसभा से था. वहाँ
पूछे गए उल्टे-सीधे, ऊल-जलूल प्रश्नों के ढेर थे, जिनके तत्काल उत्तर देने
को थे. उसके अलावा ज़िले के आख़िरी, दूरस्थ छोर पर बसे एक ग्राम प्रधान की
अपने विद्यालय की एकमात्र अध्यापिका के महीनों से गायब रहने की शिकायत,
जिसपर ज़िलाधिकारी ने तुरंत आख्या भेजने को कहा था. उसे पढ़ने के बाद मेरे
मन में यह आशंका भी उभरने लगी थी कि कहीं वह शिकायत भी विधासभा के प्रश्न
का रूप धारण न कर ले. तेज़ कदमों से चलती हुई उस वक़्त मैं सिर्फ इतनी
कामना करने लगी थी कि वह बस मेरे सड़क पर पहुँचने से पहले कहीं निकल न जाय.
कि सड़क पर मैं पहले पहुचूँ और बस बाद में पहुँचे.
बस
के और आदमी के चलने में सरिता! बहुत अंतर होता है. उतराई की राह पर मैं बस
की तरह कोई दौड़ नहीं लगा सकती थी. बस का ड्राइवर सड़क के किनारे खड़ी
सवारी को देखता है और उसे देखकर अपनी गाड़ी को रोकता है. वह सड़क से ध्यान
हटा कर पहाड़ी से नीचे की ओर दौड़ लगाती किसी सवारी को तो नहीं देख सकता.
दीदी,
कभी-कभी आगे की सीटों पर बैठी सवारियों की नज़रें पड़ जाती हैं ऐसे लोगों
पर जो बस को पकड़ने के लिए पहाड़ी ढलानों पर दौड़ लगाने लगते हैं.
हाँ
सरिता, ऐसी भी होता है. लेकिन उस तरह सवारियों की नज़रों के घेरे में आ
जाने के लिए भी तो यात्री को रोड के इतना क़रीब तो होना ही चाहिए कि आसानी
से दिखाई दे जाए. पहाड़ की चोटी पर से नीचे उतर रहे आदमी को कोई नहीं देख
सकता?
हाँ दीदी, सौ-पचास क़दम की दूरी पर दौड़ रहे
यात्री को देख कर कई बार बस के भीतर बैठे यात्री, ड्राइवर से कह कर, गाड़ी
रूकवा लेते हैं.
आख़िर लगातार चलते रहने के बाद
मैं सड़क पर पहुँच गई. मुझे संतोष हो गया कि अब मैं सड़क पर पहुँच गई हूँ,
मुझे बस ज़रूर मिल जाएगी. वह जगह जहाँ पर लोग बस का इंतज़ार करते थे, एक
नाले के पास थी. वहाँ सड़क पर रपटा था. पहाड़ी ढलान से आ रहा पानी सिमेंटेड
रपटे के ऊपर से बहता हुआ नीचे की ओर निकल जाता था. वहां पर रपटा ही था,
कोई पुल या पुलिया नहीं थी, जो पार जाने के इच्छुक लोगों को कुछ राहत दे
सके. लोगों को दूसरी ओर जाने के लिए जूते उतार कर पानी को पैदल पार करना
होता था. मुझे उस नाले को पार करने की ज़रूरत नहीं थी. नाले के इसी ओर सड़क
के किनारे एक ऊँचे पत्थर के ऊपर मैंने अपना बैग घर दिया और ख़ुद भी वहीं
पर बैठ गई.
"कोई और लोग भी थे वहाँ पर?"
नहीं,
और कोई नहीं था. उतनी सुबह-सुबह उस वीराने में सिर्फ वे ही लोग आ सकते थे,
जिन्हें कहीं जाने के लिए गाड़ी पकड़नी हो. किसी ओर के आने का सवाल ही
नहीं था.
सूरज उग गया था दीदी?
मेरे
वहाँ पहुँचने के कुछ देर के बाद सूर्योदय हुआ था सरिता. और सूर्य की
किरणों के साथ वहां पर मेरी गाड़ी नहीं आई. लेकिन कहीं से एक छोटा सा
परिवार आ लगा. उन्होंने उस रपटे के पास अपनी-अपनी पीठ पर लदे सामान नीचे धर
दिए. कहीं बहुत दूर से आ लग रहे थे वे लोग.
कितने लोग थे दीदी, उस परिवार में?
एक युवती माँ, उसकी एक बारह-तेरह बरस की बेटी, आठ-नौ साल का उसका छोटा भाई. कुल मिलाकर सिर्फ तीन लोगों की गृहस्थी.
उन बच्चों का बाप नहीं था दीदी, उनके साथ?
नहीं
सरिता, उस वक़्त उनका बाप उनके साथ नहीं था. लेकिन वह औरत सधवा थी और
सूरत-शक्ल से वे नेपाली लग रहे थे. मेरी बस के उस जगह पर पहुँचने का समय
निकल गया था. उसके आने में पर्याप्त विलम्ब हो चुका था. अब मुझे एक दूसरी
चिंता सताने लगी थी.
उस परिवार को देख कर दीदी?
नहीं
सरिता, निजी स्वार्थ की चिंता. मैं इस चिंता में डूब गई कि सुबह की जो
पहली बस आनी थी वह नहीं आई. इससे दो अर्थ निकाले जा सकते थे. पहला कि वह बस
किसी कारण से अपने गंतव्य स्थल से नहीं चल पाई और दूसरा यह कि चलने के बाद
अध-रास्ते में कहीं उसमें कोई ख़राबी आ गई. दोनों स्थितियों में अब दोपहर
बाद मूल स्टेशन से जो गाड़ी चलेगी, उसमें पहले से ही इतनी भीड़ होगी कि
रास्ते की सवारियों को उसमें जगह नहीं मिल सकेगी. ऐसे में मेरा क्या होगा?
मैं अपनी फिकर में डूबी थी और उस परिवार को ताकते रहना अब मेरी मज़बूरी थी.
उसके आस-पास कोई चाय-पानी की दुकान नहीं थी दीदी?
मीलों
तक नहीं थी सरिता. उन लोगों ने अपना सामान उतार कर सड़क के किनारे रखा.
माँ सामान खोलने की तैयारी करने लगी. तब तक मेरी वहाँ से हटकर थोड़ी पीछे
की ओर गई. लौट कर उसने ज़मीन पर रखा एक बोझा उठाया और फिर वहीं चली गई.
दोनों
माँ-बेटा भी अपने बोझे उठाए उसके पीछे-पीछे चले गए. वह एक समतल जगह थी.
माँ वहाँ पर अपना सामान खोलकर ज़मीन पर रखने लगी. तब तक बेटी कहीं से कुछ
सूखी टहनियाँ व लकड़ी के टुकड़े बटोर लाई. बेटा थोड़ी दूर जाकर एक-एक कर
तो-तीन पत्थर उठा लाया. तब कुछ झाड़ियों की छोटी-छोटी शाखें तोड़ लाया.
उसने उन शाखों को जोड़कर एक झाड़ू तैयार कर लिया. बेटी ने उस झाड़ू से एक
छोटी-सी जगह को बुहार दिया. उस बुहारी गई जगह पर पत्थरों को कायदे से रखकर
बेटे ने चूल्हा जमा दिया. माँ एक पतीली में पानी लेकर पहुँची. बेटी ने
चूल्हे में लकड़ियाँ रखीं, फिर माचिस निकालकर वहाँ पर आग जला दी.
माँ
ने चाय की पत्तियाँ, दूध का पाउडर और चीनी ज़मीन पर रख दी. पानी के खौलते
ही बेटी ने चाय तैयार कर ली. माँ ने उसे तीन गिलासों में ढाल दिया. पहले
बेटे को फिर बेटी को गिलास थमाए. ख़ुद भी चाय पीने लगी. अपना गलास वहीं पर
रख कर बेटी पतीली को धो लाई. बेटे ने पतीली अपने पास ले ली और चाकू से आलू
छील कर उसमें डालने लगा. बेटी पतीली को उठाकर पानी के पास गई. वह आलू धोकर
लौटी तो माँ ने तब तक चूल्हे पर कड़ाही में तेल डाल दिया था. तेल में साबुत
धनिए के कुछ दाने भून लेने के बाद मसाले डाले और अंत में आलू और पानी.
बेटी एक थाली में आटा गूंथने लगी. बेटा वहाँ से निकल कर नाले के ऊपर पानी
में चला गया. वह नंगा होकर, पानी में डूबकियाँ लेता हुआ, बहाव के बीच जमे
हुए बड़े पत्थरों के नीचे हाथ डालकर कुछ टटोलता-सा लग रहा था.
उनके बीच कोई बातचीत भी तो हुई होगी दीदी?
नहीं
सरिता. वे तीनों बेहद खामोशी में अपने-अपने कामों में मशगूल थे. मुझे भी
उनके बोल सुन लेने की उत्सुकता होने लगी थी. लेकिन उनमें से किसी की ज़ुबान
से एक शब्द तक नहीं निकल रहा था. मुझे जिज्ञासा होने लगी थी कि कहीं यह
गूंगों का परिवार तो नहीं है.
लेकिन दीदी, गूंगे
एकदम खामोश कहां रहते हैं? उनकी बातें हम समझ नहीं सकते इसलिए तो अपनी बात
को समझाने के लिए वे हाथ के इशारों से काम लेते हैं. वे लोग आपस में कोई
इशारे कर रहे थे दीदी?
नहीं सरिता, उनके बीच कोई
इशारेबाज़ी भी नहीं हो रही थी. उन्हें उस तरह काम करते देख मैं ताज्जुब
करने लगी. वे तो ऐसे काम कर रहे थे जैसे वहाँ आने से पेश्तर, आपस में पहले
से सलाह करके, उन्होंने अपने-अपने कामों की तफ़सील निश्चित कर ली हो.
आपकी दूसरी बस आई दीदी?
नहीं
सरिता, मेरी क्या उस दिन कोई भी बस नहीं आई. दूसरी ओर से यानी मुख्यालय की
दिशा से भी सवारी गाड़ी तो दूर, कोई छोटे वाहन या ट्रक तक नहीं दिखाई दिए.
लेकिन उस परिवार की मशीन के मानिंद कार्यवाहियों व व्यवहार को देखती हुई
मैं अपनी मुख्यालय में पहुँचने और अपनी फाइलों पर काम करने की चिंता को
भूलने-सी लगी थी. बेटा नहा आया. वह एक बड़ी प्लेट लेकर फिर वहीं गया और
उसमें मछलियाँ लेकर लौटा. माँ ने कड़ाही से आलू का साग एक पतीली में औटा
दिया. खाली कड़ाही फिर चूल्हे पर चढ़ गई. फिर उसमें तेल डाल दिया गया. बेटी
मछलियों को काट कर उन्हें धो लाई. मछलियाँ माँ को थमा कर उसने एक थाली में
चावल निकाले और उसे अपनी माँ के पास रख दिया. फिर उसने एक बोझा खोल कर ढेर
सारे कपड़े निकाले और पानी के पास जाकर उन्हें धोने में जुट गई. बेटा उन
कपड़ों को सुखाने के लिए खुली धूप में फैलाता जा रहा था.
उन लोगों ने आपकी तरफ देखकर कोई संवाद करने की कोशिश की?
नहीं सरिता, उसके लिए उनके पास लगता था, कोई फुरसत ही नहीं है.
आपकी बस का क्या हुआ दीदी?
अचानक
मुख्यालय की दिशा में जाने वाले वाहनों का तांता लग गया था सरिता. पूरी
कानबाई चलती आ रही थी. मुझे एक सवारी गाड़ी में आसानी से जगह मिल गई थी.
मालूम हुआ कि उससे अगली रात पुलिस ने बस के तीन ड्राइवरों को बेवजह बुरी
तरह पीट कर जख़्मी कर डाला था. उसके विरोध में पूरे ज़िले में वाहनों की
हड़ताल हो गई थी.
मैं गाडी़ में बैठी तो मेरी
नज़रें उस नेपाली युवती पर जमी थीं, जो थाली में रखे चावल के दानों को
बीनने में व्यस्त हो गई थी. उस वक़्त मेरे दिमाग में एक प्रश्न कौंधने लगा
था-क्या हमारे विद्यालय कभी उस स्तर की शिक्षा प्रदान कर सकेंगे?
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विद्यासागर नौटियाल
डी-8,नेहरू कॉलोनी देहरादून, उत्तरांचल, 248001 |
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गुरुवार, 8 सितंबर 2016
कुदरत की गोद में / विद्यासागर नौटियाल
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