गुरुवार, 25 मई 2023

गुरु देव के आस पास / बिनोद कुमार राज विद्रोही

 

 



उफ्फ! कोलकाता की गर्मी, तेज धूप, पसीने से तरबतर, बस से उतर कर कई गलियों-चौराहों को लांघते हुए, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के रचयिता कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का पुस्तैनी घर पहुंचा। जहां उनका जन्म इसी महीने में 7 या 8 मई 1861 को हुआ था। जहां वे पले-बढ़े और आखिरी समय में अंतिम सांसे ली। कई वर्षों से मेरी इच्छा थी कि उनका घर जाकर देखूं। लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था। इस बार पहुंच ही गया। उनके घर को संग्रहालय के रूप में तब्दील कर दिया गया है। जहां उनसे जुड़ी तमाम चीजों को संभाल कर रखा गया है।

       इस जगह का नाम है-  जोरासाँको ठाकुर बाड़ी। बंगाली में 'बाड़ी' घर को कहते हैं शायद। लेकिन यह उस जमाने की हवेली है। लगभग पैंतीस हजार वर्ग मीटर में फैला है, और गार्ड के अनुसार तीन सौ से ऊपर कमरे हैं, जिसमें बहुत बंद रहता है। बाड़ी का अधिकतर कमरा, रेलिंग, कुर्सियां, फर्श, सीढ़ियां आज भी अपने मौलिक स्वरूप में है। बाड़ी के अंदर के किसी भी कमरे और उनसे जुड़ी चीजों की तस्वीरें खींचने-छूने की सख्त मनाही है। बहुत सुकून मिला यहां आकर, आत्मविभोर हुआ। सीढ़ी से ऊपर चढ़कर जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो कई तस्वीरें, कूर्सियां, उनका कप-प्याली वगैरह शीशे में सजा कर रखा हुआ है। इसी तरह हर कमरे में कुछ-न-कुछ सजा कर रखा गया है। एक कमरे में उनके सभी मानपत्र रखें हुए हैं। एक दूसरे कमरे में सिगार पीने का स्टैंड रखा हुआ है। हो सकता है यह उनके पुरखों का हो। सभी कमरों की छतों में बेशकीमती लकड़ी का प्रयोग हुआ है। जो आज भी सुरक्षित है। उनका जो शयनकक्ष था, उसमें उस समय की कुछ कुर्सियां, तस्वीरें हैं। बीचोबीच में बेड लगा हुआ है। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि इस एक कमरे में कुल सात दरवाजे हैं। तीन बड़े हालों को आर्ट गैलरी के रूप में तब्दील किया गया है। जिसमें टैगोर सहित उनके परिवार के सदस्यों द्वारा बनाए गए पेंटिंग्स को सजाया गया है। साथ ही उनका एक ऊपरी गाउन एवं शॉल, जिसे हमलोग अधिकतर तस्वीरों में पहने हुए देखते हैं, को शीशे में सजाकर रखा गया है। इस तरह का गाउन और अन्य वस्त्र एक और कमरे में देखा। बहरहाल दर्जनों कमरों में उनसे जुड़ी सैकड़ों चीजों को आज भी संभाल कर रखा गया है। इसके लिए बंगाल सरकार और यहां की जनता बधाई के पात्र हैं। लेकिन इतनी ही श्रद्धा अगर बंगाल सरकार, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के लिए दिखाती, तो शायद उनके पैतृक घर और गांव का कायाकल्प हो जाता। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का घर देखकर आंखों में आंसू आ जाते हैं। कितना वीरान है। कोई देखने वाला नहीं। सहेजने वाला नहीं। तब भी शरतचंद्र जी का सही मूल्यांकन नहीं किया गया था। आज भी नहीं किया जा रहा है। यह दुखद है। 

          खैर, टैगोर जी के इस बाड़ी के विभिन्न कमरों का अवलोकन करते हुए मन प्रफुल्लित होता जा रहा है। यह देखकर कि बहुत ही संभाल कर रखा गया है उनकी विरासत को। महसूस करता हूं कि बचपन के दिनों में वे इस बाड़ी के एक कमरे से दूसरे कमरे में, बरामदे में, सीढ़ियों से होते हुए कितनी अठखेलियां-नादानियां करते होंगे, अपने तेरह भाई-बहनों के साथ खेलते-कूदते होंगे। बड़े होने पर पता नहीं कब, किस कमरे में लिखे होंगे अपनी पहली रचना। कितना प्यार मिलता होगा आपने सभी भाई बहनों से उन्हें। वे घर में सबसे छोटे थे।

           शिक्षा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में इनका और इनके परिवार का योगदान अतुलनीय है। इनके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ और मां शारदा देवी शिक्षा के विकास के प्रति समर्पित थे, तो उनकी बहन भी प्रसिद्ध उपन्यासकार थीं। वही बड़े भाई भी एक प्रसिद्ध कवि थे।

         कहीं पढ़ा था कि एक संपन्न और शिक्षित परिवार में जन्म लेने के बावजूद टैगोर ने स्कूल में पढ़ाई नहीं की। फलस्वरुप घर पर ही उन्हें शिक्षित करने का प्रबंध किया गया। हालांकि बाद में 1878 ई. में उन्हें इंग्लैंड भेजा गया, ताकि वे औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सके। लेकिन वहां से भी उन्होंने बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत लौट गए। 1883 में मृणालिनी देवी से शादी के बाद उनके पांच बच्चे हुए। इस बाड़ी के एक अन्दर के बरामदे में कई सौ सालों का वंशावली तसवीर सहित टंगी हुई है। सन् 1900 से 1910 के बीच इनका जीवन काफी दुख और पीड़ा में गुजरा। क्योंकि इस बीच पत्नी सहित दो संतान रेणुका और समंद्रनाथ का निधन हो गया। पिता का भी 1905 ई. में निधन हो गया था।

         मैं जिस शहर, हजारीबाग से यहां आया हूं। उस शहर से भी इनका बेहद लगाव था। साथ ही झारखंड के मधुपुर और गिरिडीह में भी उन्होंने काफी समय गुजारा है। उनके भाई का भी झारखंड से प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने एक लम्बा समय रांची में बिताया है। जिसका चश्मदीद गवाह टैगोर हिल है। रांची की चर्चा फिर कभी करूंगा। रवींद्रनाथ टैगोर की पुत्री रेणुका का जब 1903 में निधन हुआ था और उसके पहले कई वर्षों से वह बीमार थी तो अपनी पुत्री के स्वास्थ्य लाभ के लिए वे हजारीबाग में भी आकर कुछ दिन रहे थे। 9 मई 2015 को दैनिक प्रभात खबर में प्रकाशित टैगोर पर शोध करने वाले अमल सेनगुप्ता से बातचीत के आधार पर तैयार रिपोर्ट के अनुसार - रवींद्रनाथ टैगोर ने हजारीबाग की पहली यात्रा 1885 में और दूसरी यात्रा 1903 में की थी। अप्रैल 1885 ई. में कोलकाता से मधुपुर, गिरिडीह होते हुए हजारीबाग आए थे। फुसफुस गाड़ी (चार चक्का वाला रथ, दो आदमी आगे से खींचता था, दो आदमी पीछे से धक्का देता था) में सवार होकर आए थे। हजारीबाग आने के संबंध में 'दस दिनेर छुट्टी' लेख से स्पष्ट होता है कि भतीजी इंदिरा देवी लोरेटो कॉन्वेंट, कोलकाता में पढ़ती थी। वहीं की शिक्षिका सिस्टर एलोसिया, इंदिरा देवी को बहुत प्यार करती थी। सिस्टर एलोसिया का स्थानांतरण हजारीबाग कान्वेंट (वर्तमान में पीटीसी प्राचार्य भवन) स्कूल हो गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर को सिस्टर एलोसिया से इंदिरा को मिलाया था। इसलिए हजारीबाग में आकर उस समय जुलू पार्क, पीडब्ल्यूडी डाक बंगला (वर्तमान में पीटीसी मैदान के बगल में) आकर ठहरे थे। यहां से हजारीबाग कान्वेंट स्कूल भी सामने था। उस समय में छह से दस दिन यहां रुके थे। हजारीबाग से कोलकाता जाने के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने दस दिनेर छुट्टी लेख में पूरे हजारीबाग का जीवन्त चित्रण किया है। वहीं इनकी दूसरी यात्रा सन् 1903 ई. में लगभग एक माह की हुई थी। वे अपनी दूसरी बेटी रेणुका जो टीवी रोग (क्षय रोग) से पीड़ित थी। उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए हजारीबाग आए थे। उन्होंने अपनी बीमार बेटी को सबसे पहले कोलकाता से मधुपुर ले गए। लेकिन वहां स्वास्थ्य लाभ में कोई सुधार नहीं होने पर हजारीबाग की ओर रुख किया।

         रवीन्द्रनाथ टैगोर हजारीबाग में आकर अपने गोतिया कालीकृष्ण टैगोर के हजारीबाग जुलू पार्क की स्थित बंगला में ठहरे (वर्तमान में जुलू पार्क पूरा मोहल्ला बसा हुआ है) टैगोर को भाई का यह बगानबाड़ी पसंद नहीं आया। इस बाड़ी के कमरे में अंधेरा हो जा रहा था। टैगोर के साथ बीमार बेटी रेणुका, छोटी बेटी मीरा, पत्नी मृणालिनी के फूफा, साला नागेंद्रनाथ राय चौधरी, उनकी पत्नी व कई सगे-संबंधी उनके साथ आए थे। जुलू पार्क बागान बाड़ी को छोड़कर रवींद्रनाथ पूरे परिवार के सदस्यों के साथ गिरेंद्रनाथ गुप्ता के मकान में आकर रुके। उस समय गिरेंद्रनाथ गुप्ता जीपी कम पीपी थे। यह मकान (वर्तमान में पैगोडा चौक अक्षय पेट्रोल पंप के पीछे) खप्परपोश बांगला है। इसी बंगले में रहे थे। यहां टैगोर ने पांच कविताएं लिखी। नौक डूबी की शुरुआत की।

       खैर ये तो रही अपने शहर हजारीबाग से रवींद्रनाथ टैगोर के लगाव की बात। मैं अपनी अगली यायावरी में शांतिनिकेतन जाऊंगा। वही शांतिनिकेतन-विश्वभारती, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1863 में सात एकड़ जमीन पर एक आश्रम की स्थापना की थी। वहीं आज विश्वभारती है। गूगल बाबा के अनुसार - "रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1901 में सिर्फ पांच छात्रों को लेकर यहां एक स्कूल खोला। इन पांच लोगों में उनका अपना पुत्र भी शामिल था। 1921 में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले विश्व भारती में इस समय लगभग छह हजार छात्र पढ़ते हैं। इसी के इर्द-गिर्द शांति निकेतन बसा है।"


BKR  VIDROHI 

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