सोमवार, 8 मई 2023

हार्डिंग पार्क से बिहारशरीफ / रत्नेश

 

-----------बिहार में बस यात्रा 

-------

उत्तर भारत में अगर सबसे बड़ा बारहमासा मजमा शहर में कहीं लगता है तो वह जगह है बस-स्टैंड। आपको सुबह चार बजे चाय की तलब है? बस स्टैंड आ जाइए। मौसमी फल या शहर की मशहूर मिठाई खरीदनी है? बस स्टैंड आपको बुला रहा है। तीन-पत्ती खेलकर लखपति बनने की ख्वाहिश है? बस स्टैंड से बढ़िया कोई जगह नहीं। स्वादिष्ट समोसे, बढ़िया पान, जीके की किताब, हाजमे का चूरन- आप नाम लीजिए, बस! ऐसे ऐसे काबिल बस कंडक्टर मिलेंगे जो बस की रूट में आने वाले अट्ठाईस पड़ावों के नाम एक साँस में सुना जाएँ। एक-एक फेरीवाला कोह-ए-नूर है जनाब! उसके बस्ते में छह प्रकार के कंघे, टूथब्रश, ताला-चाबी, सिंदूर की डिबिया, कजरौटा, ताश के पत्ते, इत्र की शीशी, नज़र का चश्मा, चूना-तंबाकू की चुनौटी, ठंडे तेल की शीशी, नेलकटर, छुरी, गुडनाइट की टिकिया से लेकर ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी जिनका नाम लेने के बाद मेरा फेसबुक पर बने रहना मुनासिब नहीं होगा। सिर्फ लेकर चलना एक बात है लेकिन इन फेरीवालों से किसी सामान की कीमत या क्वालिटी पर बहस कीजिए। एक कंघे की इतनी खास बातें होती हैं कि बताते-बताते वे आपको पाषाणयुग से घुमा लाएँगे। हर सामान में बला की मजबूती साबित करने के ऐसे ऐसे करतब दिखेंगे कि आप सोचने पर मजबूर हो जाएँगे कि इस सामान को इतना मजबूत होने की जरूरत ही क्या है? भजन गाने वाले सूरदास और तोते से भविष्य बताने वाले त्रिकालदर्शी ज्योतिषी से लेकर हृषीकेश पंचांग, संतोषीमाता व्रत कथा तक का पूरा जुगाड़ है जनाब! आप हैं किस फेर में?

खैर छोड़िए। आते हैं मुद्दे पर वरना हफ्तों तक लिखते रह जाएँ! बात शुरु होती है हार्डिंग पार्क बस स्टैंड से। हालाँकि अब इसे समय  की आँधी उड़ा ले गई है और अब पटना शहर का आधुनिक बस अड्डा पत्रकार नगर में बन गया है जो शहर के एक छोर पर बाईपास के साथ बना है। जो भी हो हमारी स्मृतियों का हार्डिंग पार्क अब भी आबाद है। हनुमान मंदिर चौराहे से आने वाली सड़क पर चलते हुए जैसे ही आप हार्डिंग पार्क पहुँचेंगे, आपका पहले गेट से ही अपहरण की कोशिश होने लगती है। आप सबको सख्त 'ना' कहते हुए निकलते चले जाते हैं। आप भले कलकत्ता जा रहे हों, बस का एजेंट आपको सीतामढ़ी होकर जाने के पचास फायदे गिना देगा। खैर, मुझे जाना है बिहारशरीफ! तो निर्धारित गेट पर पहुँचने पर एजेंट आपका स्वागत यह कहकर कहता है, "आइए आइए खुल रही है।" अनाड़ी लोग यह सुनकर लपककर चढ़ लेते हैं। इसमें ड्राइवर कौरवी ध्वनि वाला हाॅर्न बजाकर आपकी व्यग्रता में उद्दीपन का काम करेगा।  पचपन-छप्पन वाले तजुर्बेकार लोग इन चीजों पर गौर तक नहीं करते। वे बगल वाली पान की गुमटी से कलकतिया पान लगवाते हैं। कत्था-चूना का पूरा हिसाब लेते हैं। बिल्कुल तय वक्त पर वे गाड़ी में दाखिल होते हैं। उनके दाखिल होते ही गाड़ी में गति आने लगती है। अब गाड़ी धीरे से सरक कर मुख्य सड़क पर आ जाती है। खलासी हाँक लगाता है.....' आइए दनियावाँ, नग..नौसा, नू...सराय, सो... सराय.... बीहा .... सरीऽऽऽफ! एक अधेड़ मजदूर दंपति अपनी चार संतानों के साथ बस की ओर लपकते हैं। अपनी गठरी बगल में दबाए महिला एक नजर सीटों पर डालती है और समझ जाती है कि गुंजाइश नहीं। बच्चे भी बस की सीटें थामकर खड़े हो जाते हैं। कंडक्टर किराया उगाहना शुरु करता है और मजदूर परिवार के पुरुष से पूछता है- "कहाँ जायला हऊ?" "फतुहा....।"- जवाब मिलता है। कंडक्टर चिल्लाता है- "फतुहा के पसिंजर कौन बइठाया भाई?" फिर ड्राइवर से कहता है- "धीरे...एएएएएए:।" फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होता है- "अरे मूँह मत ताको... फटाफट उतरो...फतुहा रूट के गाड़ी नहीं है....समझ-बूझ के चढ़ल कर।" परिवार धीमी बस से जैसे-तैसे उतर लेता है। गाड़ी बढ़ जाती है। 

"तोरा कहाँ जाना हौ?"

"दनियावाँ..... आऊ का!"

"तीस रुपैया!"

यात्री बेतकल्लुफी से बीस का मैला-कुचैला नोट बढ़ाता है।

"इ का दे रहे हैं?"

"भाड़ा है... आऊ का!"

"तीस रुपैया.... तीइइइइइऽऽऽऽस!"

यात्री इस अपील से बेफिक्र बाहर खिड़की से नजारे देख रहा है।

"तीस रुपैया लावो आऊ न त उतरो।"

"धीरेएएएएएएए:।" मद्धम स्वर में कंडक्टर आवाज लगाता है। ड्राइवर इस हल्की आवाज़ का मतलब समझता है और गाड़ी की गति बनाए रखता है।

"दे रहा है कि उतारें?"- कंडक्टर डपटता है।

यात्री लापरवाही से कमीज की जेब में झाँकता है। दो रुपए के दो सिक्के निकालकर बढ़ाता है।

"इस गाड़ी पर आगे से मत चढ़ना"- कंडक्टर चेताने की आवाज में बोलते हुए दोनो सिक्के झटक लेता है।

पीछे से आवाज़ आती है- "भीडिओवा कब चलेगा जी? उतर जाएँगे तब?" इस सधी हुई पहल का तुरत असर होता है। वीडियो चालू कर दिया जाता है। वीडियो में एक बीस साल पुरानी एक मसाला फिल्म चलने लगती है। बिहार का  पराजित निम्नमध्यवर्ग फिल्म के नायकों में अपनी छवि देखता है। उसे इसी फैंटेसी का सहारा है। बिहार की राजनीतिक अस्मिता के पहरुए अपने मतदाताओं की यह कमजोरी जानते हैं। कंडक्टर आपको देखकर बेहद शालीनता से मुस्कुराता है- "आप सर?... बिहारेसरीफ न?"

आप मुस्कुराते हुए 'हाँ' में सिर हिलाते हैं।

"कितना?"

"पैंसठ सर!"

आप पाँच सौ का नोट बढ़ाते हैं।

वह फिर शालीनता से पूछता है- "चेंज दे देते सर!"

आप पैंसठ देकर पाँच सौ का नोट वापस लेते हैं।

कंडक्टर आभार प्रकट करता है-"थैंक यू सर!" और पान तंबाकू से रक्तिम दंतपंक्ति आपके सामने प्रस्तुत करता है। आप सोचते हैं कि यह वही आदमी है क्या जो दो मिनट पहले दस रुपए के मार्जिन को कवर करने के लिए बहस करने की सारी हदें लाँघ रहा था! बिहार की सड़कों पर दौड़ती बसों में सामंतवाद पूरी ठसक के साथ बरकरार है। बिहार न जाने क्यों इसी में जीने-मरने की कसमें खाता है। जो लोग शोषित हैं पीड़ित हैं वे भी एक दिन इस पिरामिड की नोंक पर पहुँचने का स्वप्न देखते हैं। अब क्या कहिए कि ये फिर भी और हर कीमत पर अपना बिहार है और हम इसे प्यार करते हैं। देखिएगा,एक दिन यही प्यार इस बिहार को जीत लेगा।

आपकी आँख लग जाती है और फिर 'गाड़ी खाली करिए' की गगनभेदी गर्जना से आपकी आँख खुल जाती है। अहा! गंतव्य आ गया है।


©️ -रत्नेश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...