कलम के जादूगर-मुंशी प्रेमचंद्र
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आजादी के पहले भारत की दशा दुर्दशा देखकर सबका कलेजा फट रहा था.दयनीय हालत हमारे देश के समाज की हो गई थी.पीड़ा दर्द से कराहता हमारा समाज दुर्दिन के दौर से गुजर रहा था.यह सब देख कर हमारा साहित्य भी कराह उठा.हिन्दी साहित्य की पीड़ा का जगना स्वाभाविक हो गया था.उसी दुर्दिन से हिन्दी साहित्य के महान कथाकार,उपन्यास सम्राट,कलम के सिपाही के नाम से प्रसिध्द मुँशी प्रेमचन्द्रजी का परिवार गुजर रहा था.देख समाज की हालात से मजबूर हो कर कलम उठ गया और मुंशी प्रेमचन्द्र एक से बढ़कर एक रचना देकर हिन्दी साहित्य का एक महान वृक्ष बन गये.सामाजिक गिरे हालात से गुजर रहे लोगों पर लेखनी चला कर समाज के स्वरूप व बिडम्बना को पूरे विश्व मंच पर रखा.गरीबी नजदीक से मुँशी जी ने देखा,झेला,अनुभव लिया और इस कटु अनुभव को अपनी लेखनी में उतारा.
31जुलाई सन1880 को बनारस शहर से करीब चार मील दूर लमही नामक एक छोटे से गाँव में मुंशी अजायबलाल के घर जन्म हुआ.मुंशी प्रेमचन्द्र का वास्तविक नाम धनपत राय था.मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक था.पिताजी डाकमुंशी के पद पर कार्यरत थे. इस प्रकार नौकरी पिताजी की होने के कारण शुरूआती समय में खाने पीने,पहनने ओढ़ने की तंगी नहीं थी लेकिन इतने उच्च स्तर के नहीं हो सके थे कि ठाठ बाट से रह सके.आर्थिक हालातों से जीवन भर जूझते रहने वाले मुँशी जी तंगी में ही 8 अक्टूबर सन 1936 को 56 वर्ष की अल्पआयु में जलोधर रोग से पीड़ित यह महान लेखक हम लोगों से जुदा हो गया.
पाँच छः साल के उम्र में शिक्षा के लिये लमही गाँव के करीब लालगंज नामक गाँव में एक मौलवी साहब के पास फारसी और उर्दू पढ़ने के लिये भेजा गया और उस पढ़ाई के दौरान पढ़ाई कम हुआ करता था लेकिन हुल्लडबाजी ज्यादा हुआ करता था.गाँव की जिन्दगी थी.गाँव की माटी से जुड़ा हृदय था,माँ व दादी के लाड़ प्यार में बचपन मजे से बीत रहा था लेकिन होनी कौन टाल सकता है.खुशी में पता नहीं कौन नजर लगी कि अचानक माँ की तबियत खराब हो गई और तबियत ऐसी खराब हुई की बालक धनपतराय को इस भरे संसार में अकेला छोड़ दी.उस समय बालक धनपतराय की अवस्था बहुत कम की थी.माँ के जाने के बाद बालक धनपयराय के चेहरे पर वह हँसी,ठिठोली,बदमाशियाँ सब छिन गई.बिन माँ का जीवन दुर्दिन का जीवन हो जाता है.
माँ के जाने के बाद प्रेमचन्द्र के जीवन में जो माँ का प्यार,दुलार,स्नेह,संग साथ में खेलना था,सब उजड़ गया.माँ से जो प्यार मिला फिर वह प्यार दुबारा कभी नहीं मिला,थोड़ा बहुत प्यार बहन से मिला लेकिन शादी के पश्चात वह अपने ससुराल चली गई.उस प्यार से भी वंचित हो जाना पड़ा.अब समझिये पूरी दुनिया बालक के लिये सूनी हो गई.यह सूनापन इतनी गहरी थी कि उनका मासूम हृदय तड़प उठा और वही तड़प व पीड़ा अपने कहानियों व उपन्यासों में दुःखित व पीड़ित व्यक्तियों को पात्र बनाया और उनके जीवन में उठे संत्रास को उकेरा और कामयाबी मिली.ऐसे पात्रों को लिया जिनके बचपन में माँ चल बसी थी या जिनके माँ बाप बचपन में बिछड़ गये या ऐसे पात्रों को समाहित किया जिनका जीवन दरिद्रता से परिपूर्ण रहा,दीन हीन जीवन जी रहा होता.विधवा,मजदूरों,शोषितों,पीड़ितों,कल्पितों और अनाथों के जीवन को सजीव चित्रण कर कथा साहित्य को अमर कर दिया.
मातृत्व स्नेह से वंचित यह बालक कुछ इस तरह का रास्ता चुना कि आगे चल महान कथाकार,उपन्यास सम्राट तथा कलम के सिपाही के नाम से पूरे विश्व साहित्य के लिये आदरणीय बन गये.तमाम विभूतियों से अलंकृत यह महान रचना कार साधारण सा ही जिन्दगी जिया.दिखावे के चीज से सदैव दूर रहे.स्वाभिमानी थे.सादा जीवन में पूर्ण भरोसा था और इसी तरह जीवन को आत्मसात किया.साधारण से जीवन में एक महान व्यक्तित्व का निर्माण किया.
विवाह छोटी सी अवस्था में हो गया जब लगभग पन्द्रह-सोलह बरस के रहे थे.यह विवाह इनके लिये कष्टकारी रहा यानी दुर्भाग्य से भरा रहा लेकिन विवाह के साथ एक संयोग जुड़ा.बनारस के पास चुनार में एक स्कूल में मास्टरी मिल गई.सन 1899 से सन1821 तक मास्टरी किया.नौकरी करते हुये अपनी शिक्षा भी ली.इंटर और बीए तक पढ़ाई नौकरी के दरम्यान पूरी कर ली.इसी नौकरी के समय तबादलों का सामना करना पड़ा.इस नौकरी के सिलसिले में घाट घाट का पानी पीना पड़ा.इन्हीं तबादलों के साथ साथ नये लोगों से मिलने का अवसर मिला.सामाजिक ताने बाने को और करीब से जानने का मौका मिला.सामाजिक समस्याओं से रूबरू भी हुये.ये सारी चीजें एक साहित्यकार के लिये सोने में सुहागा सिध्द हुआ और इन्हीं सब चीजों को देखकर अपनी आत्मा तक साहित्य के लिये समर्पित कर दिया.साहित्य में यह महान रचनाकार कूद पड़ा और जमकर साहित्य की रचना की. ऐसा लिखा की पूरे समाज की नब्ज को लिख दी.साहित्य को नई ऊँचाई दी.
साहित्य का महान पुरोधा प्रेमचन्द्र लगभग तीन सौ कहानिया और चौदह छोटे बड़े उपन्यास की रचना की.रचना इतनी सुंदर रही कि कोई अगर थोड़ा पढ़ना शुरू किया तो बिना पूरा पढ़े रहा नहीं.यही वजह रहा कि पाठकों की संख्या बहुत रही है.इसी प्रकार इस महान साहित्यकार की गिनती दुनिया के महान लेखकों में होती है.इनके साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में किया जा चुका है.
कानपुर में भी मारवाड़ी स्कूल में काम किया लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के कारण मैनेजर से नहीं बनी और वहाँ से तत्काल इस्तीफा दे दिया और बनारस चले आये.बनारस में 'मर्यादा' पत्रिका का संपादन किया.कुछ समय तक काशी विद्यापीठ में शिक्षक रहे.लखनऊ से बुलावा आने पर 'माधुरी' के संपादन के लिये गये.लगभग छः सात वर्ष तक रहे फिर हंस के संपादन के लिये पुनः बनारस चले गये.हंस मुंशी जी की पत्रिका रही.आजकल हंस का प्रकाशन दिल्ली से होता है.यह एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका है.मुंशी जी कुछ समय बाद 'जागरण' निकाला.
प्रेमचन्द्रजी अपने सशक्त लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों,रूढ़िवादियों एवं शोषणकर्ताओं के खिलाफ जमकर लिखा.तमाम सामाजिक विद्रुपताओं पर कुठाराघात करके अपने पाठकों को स्वस्थ मनोरंजन परोसने में कामयाब रहे.सामाजिक दुष्परिणाम को उजागर कर उनको जड़ से मिटाने का संदेश पूरे समाज को दिया.अमर कथाकार ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी रोशनी में साहित्यप्रेमियों को आम भारतीय जीवन का सच्चा दर्शन मिलता है.अपनी बेमिशाल लेखनी चलाकर गरीब,बेबस,दबे कुचले लोगों की आवाज को रखा.पाठकों के मन में बेबस लोगों को पढ़कर मन में टीस व भावुकता का भाव उमड़ने लगता है.कथानक के पात्र चलचित्र की तरह पाठकों का सजीव दर्शन कराती है.सच्चे भावों को रखा है.मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है.नपे तुलेे शब्दों के प्रयोग से रचना अंदर तक बेधती है.इसी खासियत के चलते आम जन में लोकप्रिय रहे.आज भी उतने प्रासंगिक हैं जितने उस समय रहे.आज भी इनकी रचनायें चाव से पढ़ी जाती है.प्रेमचन्द्र समाज के कुशल चितेरे थे.
प्रेमचन्द्र जी को सामाजिक लेखक भी कह सकते हैं.19वीं सदी के अंतिम दशक तथा 20वीं सदी के तीसरे दशक तक सामाजिक समस्याओं एव भारत की दुर्दशा पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई.
देशभक्ति की भावना भी कूट कूट कर भरी थी.चौरी चौरा काण्ड से दुःखी होकर चौथे दिन सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.यह लेखक की देश के प्रति अगाध प्रेम दर्शाता है.अंग्रेजों द्वारा महान क्रांतिकारी खुदीरामबोस की फांसी से उनका मन बहुत आहत हुआ.कई दिन तक दुःखी रहे.बाजार से खुदीरामबोस की तस्वीर लाकर अपने घर में टांग दी.
जिस समय प्रेमचन्द्र हिन्दी में उभर रहे थे.वह युग छायावाद का युग रहा लेकिन वे किसी वाद के चक्कर में नहीं पड़े .अलग रह कर हिन्दी साहित्य को समृध्य किये.जिस रूप में समाज को देखा वैसा ही अपने लेखनी में चित्रण किया.समाज में हो रहे अत्याचारों को पात्र का माध्यम बनाकर कहानिया व उपन्यास लिखे.समाज के हर बुराई को लिखा.संवेदनाओं को दिखाया.लोगों को जागृति करने का भरसक प्रयत्न किया.सामाजिक ढोंग पर सीधे प्रहार किये.सामाजिक भेदभाव को करारा तमाचा जड़ा.हिन्दु व मुस्लिम के दिखावे पर करारा प्रहार किया.स्त्रियों की दुर्दशा पर उनका रूह कांप गया.कहानियों व उपन्यास में स्त्री को केन्द्र बिन्दु मान कर रचना की.समस्याओं पर बेबाक लिखने वाले मुंशी जी सामाजिक समस्याओं का समाधान भी खोजते हैं.कैसे समस्याओं से निदान हो सकता है .इस पर भी प्रकाश डाला है.भारतीयों के ऊपर हो रहे अत्याचार से आहत मुंशीजी अंग्रेजों पर भी करारा प्रहार किये.हिम्मती थे जो इतने साहसी विषय पर लिखा.हार मानने वाले नहीं थे.
मुंशीजी दलितों के हालत पर समाज के उच्च वर्गों पर प्रहार करने से नहीं चूके.भेदभाव पर वे भरोसा नहीं करते थे.सामाजिक कलंक इसे मानते थे.दलित को भी समाज में हक है जीने का .तमाम चीजें लेकर वे खुद मुद्दा बनाते और दलितों के हक के लिये लड़ाई लड़ी.सामाजिक भेदभाव को हटाने का प्रयत्न किये.हिन्दु व मुश्लिम के बीच जो असमानता का भेदभाव था.उस पर करारा प्रहार किया.अगर हम आपस में लड़ेगें तो फिर हमारा देश कैसे आजाद होगा.इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता लाने में मुंशी जी का विशेष योगदान रहा है.
किसानों पर जमकर लिखा.किसानों की हालत दयनीय थी जो देश के लिये अन्न उपजा रहा है वही भूखा सोता है.वही नंगधडंग है.उसके बच्चे गरीबी में हैं.स्कूल नहीं जा पा रहें है.किसानों की दयनीय हालत पर लिखा और किसानों की समस्याओं को दिखाया और समाधान भी खोजा.गबन,गोदान,निर्मला प्रसिध्द कृतियां रहीं हैं.नमक का दारोगा,पूस की रात,ईद,काकी इत्यादि कई रचनाये पढ़ने से मन हर्षित हो जाता है.सामाजिक भावों को दिखाती रचना अतीव सुंदर है.
वैसे मुंशी जी की रचनायें आज भी प्रासंगिक है.समाज में हो रहे अत्याचार,सामाजिक भेदभाव,स्त्रियों के उपर हो रहे दुराचार,अमानवीय भाव से इनकी रचनाओं की यहाँ जरूरत है.अगर सामाजिक समरसता नहीं बनी तो वह दिन दूर नहीं फिर जब वही पुराने दौर से गुजरना पड़े.चिन्तन बहुत जरूरी है.भेदभाव खत्म करना है.स्त्रियों का सम्मान करना है.किसानों के बारे में सोंचना है.गरीबों के बारे कुछ करना होगा .बदलाव लाना ही पड़ेगा.तभी रामराज्य की कल्पना गांधी जी का साकार होगा.
लेखक
जयचन्द प्रजापति
प्रयागराज
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