बुधवार, 18 अप्रैल 2012

भारतीय लोककथाएं



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Friday, June 26, 2009


११/ईश्वर की खो

इब्राहीम आधी रात में अपने महल में सो रहा था। सिपही कोठे पर पहरा दे रहे थे। बादशाह का यह उद्देश्य नहीं था कि सिपाहियों की सहायता से चोरों और दुष्ट मनुष्यों से बचा रहे, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि जो बादशाह न्यायप्रिय है, उसपर कोई विपत्ति नहीं आ सकती, वह तो ईश्वर से साक्षात्कार करना चाहता था।
एक दिन उसने सिंहासन पर सोते हुए किसके कुछ शब्द और धमाधम होने की आवाज सुनी।
वह अपने दिल में विचारने लगा कि यह किसीकी हिम्मत है, जो महल के ऊपर चढ़कर इस तरह धामाके से पैरे रक्खे! उसने झरोखों से डांटकर कहा, ‘कौन है?’’
ऊपर से लोगों ने सिर झुकाकर कहा, ‘‘रात में हम यहां कुछ ढूंढ़ने निकले हैं।’’
बादशाह ने पूछा, ‘‘क्या ढूंढ़ने निकले हैं?’’
लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘हमारा ऊंट खो गया है उसे।’’
बादशाह ने कहा, ‘‘ऊपर कैसे आ सकता है?’’
उन लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘यदि इस सिंहासन पर बैठकर, ईश्वर से मिलने की इच्छा की जा सकती है तो महल के ऊपर ऊंट भी मिल सकता हैं।’’
इस घटना के बाद बादशाह को किसीने महल में नहीं देखा। वह लोगों की नजर से गायब हो गया।

[इब्राहीम का आन्तरिक गुण गुप्त था और उसकी सूरत लोगों के सामने थी। लोग दाढ़ी और गुदड़ी के अलावा और क्या देखते हैं?]1





१०/ मूसा और चरवाहा

एक दिन हजरत मूसा ने रास्ता चलते एक चरवाहे को यह कहते सुना, ‘‘ऐ प्यारे खुदा तू कहां है? बता, जिससे मैं तेरी खिदमत करुं। तेरे मोजे सीऊं और सिर में कंघी करुं। मैं तेरी सेवा में जाऊं। तेरे कपड़ों में थेगली लगाऊं। तेरे कपड़े धोऊं और ऐ प्यारे, तेरे और तेरे आगे दूध रक्खूं और अगर तू बीमार हो जाये तो संबंधियों से अधिक तेरी सेवा-टहल करुं। तेरे हाथ चूमूं, पैरों की मालिश करुं और जब सोने का वक्त हो तो तेरे बिछौने को झाड़कर साफ करुं और तेरे लिए रोज घी और दूध पहुंचाया करुं। चुपड़ी हुई रोटियां और पीने के लिए बढ़िया दही और मठा तैयार करके सांझ-सवेरे लाता रहूं। मतलब यह है कि मेरा काम मेरा काम लाना हो और तेरा काम खना हो। तेरे दर्शनों के लिए मेरी उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गयी है।’’
यह चरवाह इस तरह की बेबुनियाद बातें कर रहा था। मूसा ने पूछा, ‘‘अरे भाई,
तू ये बातें किससे कह रहा है?’’
उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘उसने, जिससे, हमको पैदा किया है, यह पृथ्वी और आकाश बनाये हैं।’’
हजरत मूसा ने कहा, ‘‘अरे आभागे! तू धर्म-शील होने के बजाय काफिर हो गया है क्या? काफिरों जैसी बेकार की बातें कर रहा है। अपने मुंह में रुई ठूंस। तेरे कुफ्र की दुर्गंध सारे ससार में फैल रही है। तेरे धर्म-रूपी कमख्वाब में थेगली लगा दी। मोजे और कपड़े तुझे ही शोभा देते हैं। भला सूर्य को इन चीजों की क्या आवश्यकता है? अगर तू ऐसी बातें करने से नहीं रुकेगा तो शर्म के कारण सारी सृष्टि जलकर राख हो जायेगी। अगर तू खुदा को न्यायकारी और सर्वशक्तिमान मानता है तो इस बेहूदी बकवास से क्या लाभ? खुदा को ऐसी सेवा की आवश्यकता नहीं । अरे गंवार! ऐसी




बातें तू किससे कर रहा है? वह ज्योतिस्वरुप (परमेश्वर) तो शरीर और आवश्यकताओं से रहित है। दूध तो वह पिये, जिसका शरीर और आयु घटे-बढ़े और मोजे वह पहने, जो पैरों के अधीन हो।’’
चरवाहे ने कहा, ‘‘ऐ मूसा! तूने मेरा मुंह बन्द कर दिया। पछतावे के कारण मेरा शरीर भुनने लगा है।’’
यह कहकर उस चरवाहे ने कपड़े फाड़ डाले, एक ठंडी सांस ली और जंगल में घुसकर गायब हो गया। इधर मूसा को आकाशावाणी सुनायी दी, ‘‘ऐ मूसा! तूने हमारे बन्देको हमसे क्यों जुदा कर दिया? तू संसार में मनुष्यों को मिलाने आया है या अलग करने? जहां तक सम्भव हो, जुदा करने का इरादा न कर। हमने हर एक आदमी का स्वभाव अलग-अलग बनाया है और प्रत्येक मनुष्य को भिन्न-भिन्न की बोलियां दी हैं। जों बात इसके लिए अच्छी है, वह तेर लिए बुरी है। एक बात इसके हक में शहद का असर रखती है और वही तेरे लिए विष का। जो इसके लिए प्रकाश है, वह तेरे लिए आग है। इसके हक में गुलाब का फूल और तेरे लिए कांटा हैं। हम पवित्रता, अपवित्रता, कठोरता और कोमलता सबसे अलग हैं। मैंने इस सृष्टि की रचना इसलिए नहीं की कि कोई लाभ उठाऊं, बल्कि मेरा उद्देश्य तो केवल यह है कि संसार के लोगों पर अपनी शक्ति और उपकार प्रकट करुगं। इनके जाप और भजन से मैं कुछ पवित्र नहीं हो जाता, बल्कि जो मोती इनके मुंह से झड़ते हैं, उनसे स्वयं ही इनकी आत्मा शुद्ध होती है। हम किसीके वचन या प्रकट आचरणों को नहीं देखते। हम तो ह्दय के

आन्तरिक भावों को देखते हैं। ऐ मूसा, बुद्धिमान मनुष्यों की प्रार्थनाएं और हैं और दिलजलों की इबादत दूसरी है। इनका ढंग ही निराला है।’’
जब मूसा ने अदृष्ट से ये शब्द सुने तो व्याकुल होकर जंगल की तरफ चरवाहे की तलाश में निकले। उसके पद-चिह्नों को देखते हुए सारे जंगल की खाक छान डाली। आखिर उसे तलाश कर लिया। मिलन पर कहा, ‘‘तू बड़ा भाग्यवान है। तुझे आज्ञा मिल गयी। तुझे किसा शिष्टाचार या नियम की आवश्यकता नहीं। जो तेरे जी में आये, कहा। तेरा कुफ्र धर्म और तेरा धर्म ईश्वर-प्रेम है। इसलिए तेरे लिए सबकुछ माफ है बल्कि तेरे दम से ही सृष्टि कायम है। ऐ मनुष्य! खुदा की मर्जी से माफी मिल गयी। अब तू निस्संकोच होकर जो मुंह आये, कह दे।’’
चरवाहे ने जवाब दिया, ‘‘ऐ मूसा! अब मैं इस तरह की बातें मुंह से नहीं निकालूंगा। तूने जो मेरे बुद्धि-रुपी घोड़े को कोड़ा लगाया तो वह एक छलांग में सातवे आसमान पर जा पहुंचा। अब मेरी दशा बयान से बाहर है, बल्कि मेरे ये शब्द भी मरे हार्दिक दशा को प्रकट नहीं करते।’’

[ऐ मनुष्य! तो जो ईश्वर की प्रशंसा और स्तुति करता है, तेरी दशा भी इस चरवाहे से अच्छी नहीं है। मू महा अधर्मी और संसार में लिप्त है। तेरे कर्म और वचन भी निकृष्ट हैं। यह केवल उस दयालु परामात्मा की कृपा है कि वह तेरे अपवित्र उपहार को भी स्वीकार कर लेता है।]1





९/ मूर्खों से भागो

हजरत ईसा एक बार पहाड़ की तरफ इस तरह दौड़े जा रहे थे कि जैसे कोई शेर उनपर हमला करने के लिए पीछे से आ रहा हो। एक आदमी उनके पीछे दौड़ा और पूछा, ‘‘खैर तो है? हजरत, आपके पीछे तो कोई भी नहीं, फिर परिन्दे की तरह क्यों उड़े चले जा रहे हो?’’ परन्तु ईसा ऐसी जल्दी में थे कि कोई जवाब नहीं दिया। कुछ दुर तक वह आदमी उनके पीछे-पीछे दौड़ा और आखिर बड़े जोर की आवाज देकर उनको पुकार, ‘‘खुदा के वास्ते जरा तो ठहरिये। मुझे आपकी इस भाग-दौड़ से बड़ी परेशानी हो रही है। आप इधर से क्यों भागे जा रहे हैं? आपके पीछे न शेर है, दुश्मन!’’
हजरत ईसा बोलो, ‘‘तेरा कहना सच है। परन्तु मैं एक मूर्ख मनुष्य से भाग रहा हूं।’’
उसने कहा, ‘‘क्या तुम मसीहा नहीं हो, जिनके चमत्कार से अन्धे देखने लगते हैं और बहरों को सुनायी देने लगता है?’’
वह बोले, ‘‘हां।’’
उसने पूछा, ‘‘क्या तुम वह बादशाह नहीं कि जिनमें ऐसी शक्ति है कि यदि मुर्दे पर मन्त्र फंक दे तो वह मुर्दा भी जिंदा पकड़ें गए शेर की तरह उठा खड़ा होता है।’’
ईसा ने कहा, ‘‘हां, मैं वही हूं।’’
फिर उसने पूछा, ‘‘क्या आप वह नहीं कि मिट्टी को पक्षी बनाकर जरा मन्त्र पढ़े तो जान पड़ जाये और उसी वक्त हव में उड़ने लगे?’’
ईसा ने जवाब दिया, ‘‘बेशक, वही हूं।’’
फिर उसने निवदन किया। ‘‘ऐ पवित्र आत्मा! आप जो चाहें कर सकते हैं, फिर आपको किसका डर है?’’
हजरत ईसा ने कहा, ‘‘ईश्वर की कसम, जो और जीव का पैदा करनेवाला है,
और जिसकी महान् शक्ति के मुकाबले में आकाश भी तुच्छ हैं, जब उसके पवित्र नाम को मैंने बहारों और अन्धों पर पढ़ा तो वे अच्छे हो गये, पहाड़ों पर चढ़ा तो उनके टुकड़े-टुकड़े हो गये, मृत शरीरों पर पढ़ा तो जीवित हो गये, परन्तु मैंने बड़ी श्रद्धा से वही पवित्र नाम जब मूर्ख पर पढ़ा और लाखों बार पढ़ा तो अफसोस कि कोई लाभ नहीं हुआ!’’


उस आदमी ने आश्चर्य से पूछा कि हजरत, यह क्या बात है कि ईश्वर का नाम वहां फायदा करता है और यहां कोई असर नहीं करता? हालांकि यह भी एक बीमारी है और वह भी। फिर क्या कारण है कि उस सृष्टि-कर्ता का पवित्र नाम दोनों पर समान असर नहीं करता?
हजरत ईसा ने कहा, ‘‘मूर्खता का रोग ईश्वर की ओर से दिया हुआ दंड है और अन्धेपन की बीमारी दंड नहीं, बल्कि परीक्षा के तौर पर जो बीमारी है, उसपर दया आती है, और मूर्खता वह रोग है, जिससे दिल में जलन होती है।’’
[हजरत ईसा की तरह मूर्खों से दूर भागना चाहिए। मूर्खों के संग ने बड़े-बड़े झगड़े पैदा किये है। जिस तरह हवा आहिस्ता-आहिस्ता पानी को खुश्क कर देती हैं, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी धीरे-धीरे प्रभाव डालते है और इसका अनुभव नहीं होता।]1

८/स्वच्छ ह्रदय

चीनियों को अपनी चित्रकला पर घमंड था और रुमियों को अपने हुनर पर गर्व था। सुलतान ने आज्ञा दी कि मैं तुम दोनों की परीक्षा करुंगा। चीनियों ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, हम अपना हुनर दिखायेंगे।’’ रुमियों ने कहा, ‘‘हम अपना कमाल दिखायेंगे।’’ मतलब यह कि चीनी और रुमियों में अपनी-अपनी कला दिखाने के लिए होड़ लग गई।
चीनियों ने रुमियों से कहा, ‘‘अच्छा, एक कमरा हम ले लें और एक तुम ले लो।’’ दो कमरे आमने-सामने थे। इनमें एक चीनियों को मिला और दूसरा रुमियों कों चीनियों ने सैकड़ों तरह के रंग मांगें बादशाह ने खजाने का दरवाज खोल दिया। चीनियों को मुंह मांगे रंग मिलने लगे। रुमियों ने कहा, ‘‘हम न तो कोई चित्र बनाएंगे और न रंग लगायेगे, बल्कि अपना हुनर इस तरह दिखायेंगे कि पिछला रंग भी बाकी न रहें।’’
उन्हों दरवाजे बन्द करके दीवारों को रगड़ना शुरु किया और आकाश की तरह बिल्कुल और साफ सादा घाटा कर डाला। उधर चीनी अपना काम पूरा करके खुशी के कारण उछलने लगे।
बादशाह ने आकर चीनियों का काम देखा और उनकी अदभुत चित्रकारी को देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। इसके पश्चात वह रुमियों की तरफ आया। उन्होंने अपने काम पर से पर्दा उठाया। चीनियों के चित्रों का प्रतिबिम्ब इन घुटी हुई दीवार इतनी सुन्दर मालूम हुई कि देखनेवालों कि आंखें चौंधिसयाने लगीं।


[रूमियां की उपमा उन ईश्वर-भक्त सूफियों की-सी है, जिन्होंने न तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ी और न किसी अन्य विद्या या कला में योग्यता प्राप्त की है। लेकिन लोभ, द्वेष, दुर्गुणों को दूर करके अपने हृदय को रगड़कर, इस तरह साफ कर लिया है कि उसके दिल स्वच्छ शीशें की तरह उज्जवल हो गये है।, जिनमें निराकार ईश्चरीय ज्योति का प्रतिबिम्ब स्पष्ट झलकता है।]1

७/खारे पानी का उपहार

पुराने जमाने में एक खलीफा था, जो हातिम से भी बढ़कर उदार और दानी था। उसने अपनी दानशीलता तथा परोपकार के कारण निर्धनता याचना का अंत कर दिया था। पूरब से पच्छिम तक इसकी दानशीलता की चर्चा फैल गयी।
एक दिन अरब की स्त्री ने अपने पति से कहा, ‘‘गरबी के कारण हम हर तरह के कष्ट सहन कर रहे हैं। सारा संसार सुखी है, लेकिन हमीं दुखी हैं। खाने के लिए रोटी तक मयस्सर नहीं। आजकल हमारा भोजन गम है या आंसू। दिन की धूप हमारे वस्त्र हैं, रात सोने का बिस्तर हैं, और चांदनी लिहाफ है। चन्द्रमा के गोल चक्कर को चपाती समझकर हमारा हाथ आसमान की तरफ उठ जाता है। हमारी भूख और कंगाली से फकीरों को भी शर्म आती है और अपने-पराये सभी दूर भागते हैं।’’
पति ने जवाब दिया, ‘‘कबतक ये शिकायतें किये जायेगी? हमारी उम्र ही क्या ऐसी ज्यादा रह गयी है! बहुत बड़ा हिस्सा बीत चुका है। बुद्धिमान आदमी की निगाह में अमीर और गरीब में कोई फर्क नहीं है। ये दोनों दशाएं तो पानी की लहरें हैं। आयीं और चली गयीं। नदी की तरेंग हल्की हो या तेज, जब किसी समय भी इनको स्थिरता नहीं तो फिर इसक जिक्र ही क्या? जो आराम से जीवन बिताता है, वह बड़े दु:खों से मरता है। तू तो मेरी स्त्री है। स्त्री को अपने पति के विचारो से सहमत होना चाहिए, जिससे एकता से सब काम ठीक चलते रहें। मैं तो सन्तोष कियो बैठा हूं। तू ईर्ष्या के कारण क्यों जली जा रही है?’’
पुरुष बड़ी हमदर्दी से इस तरह के उपदेश अपनी औरत को देता रहा। स्त्री ने झुंझलाकर डांटा, ‘‘निर्लज्ज! मैं अब तेरी बातों में नही आऊंगी। खाली नसीहत की बातें न कर। तूने कब से सन्तोष करना सीखा है? तूने तो केवल सन्तोष का नाम ही नाम सुना है, जिससे जब मैं रोटी-कपड़े की शिकायत करुं तो तू अशिष्टता और गुस्ताखी का नाम लेकर मेरा मुंह बन्द कर सके। तेरी नसीहत ने मुझे निरुत्तर नहीं किया। हां, ईश्वर की दुहाई सुनने से मैं चुप हो गयी। लेकिन अफसोस है तुझपर कि तूने ईश्चर के नाम को चिड़ीमार का फंदा बना लिया। मैंने तो अपना मन ईश्वर को सौंपा दिया है, ताकि मेरे घावों की जलन से तेरा शरीर अछूता न बचे या तुझको भी मेरी तरह बन्दी (स्त्री) बना दे।’’ स्त्री ने अपने पति पर इसी तरह के अनेक ताने कसे। मर्द औरत के ताने चुपचाप सुनता रहा।

मर्द ने कहा, ‘‘तू मेरी स्त्री है या बिजका? लड़ाई-झगड़े और दर्वचनों को छोड़। इन्हें नहीं छोड़ती तो मुझे ही छोड़। मेरे कच्चे फोड़ों पर डंक न मार। अगर तू जीभ बन्द करे तो ठीक, नहीं तो याद रख, में अभी घरबार छोड़ दूंगा। तंग जूता पहनने से नंगे पैर फिरना अच्छा है। हर समय के घरेलू झगड़ों से यात्रा के कष्ट सहना बेहतर है।’’
स्त्री ने जब देखा कि उसका पति नाराज हो गया है तो झट रोने लगी। फिर गिड़गिड़ाकर कहने लगी, ‘‘मैं सिर्फ पत्नी ही नहीं बल्कि पांव की धूल हूं। मैंने तुम्हें ऐसा नहीं समझा था, बल्कि मुझे तो तुमसे और ही आशा थी। मेरे शरीर के तुम्हीं मालिक हो और तुम्हीं मेरे शासक हो। यदि मैंने धैर्य और सन्तोष को छोड़ा तो यह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए। तुम मेरी सब मुसीबतों और बीमारियों की दवा करते हो, इसलिए मैं तुम्हारी दुर्दशा को नहीं देख सकती। तुम्हारे शरीर की सौगन्ध, यह शिकायत अपने लिए नहीं, बल्कि यह सब रोना-धोना तुम्हारे लिए है। तुम मुझे छोड़ने का जिक्र करते हो, यह ठीक नहीं हैं।’’
इस तरह की बातें कहती रही और फिर रोते-रोते औंधे मुंह गिर पड़ी। इस वर्षा से एक बिजली चमकी और मर्द के दिल पर इसकी एक चिनगारी झड़ी। वह अपने शब्दों पर पछतावा करने लगा, जैसे मरते समय कोतवाल अपने पिछले अत्याचारों और पापों को याद कर रोता है। मन में कहने लगा, जब मैं इसका स्वामी हूं तो मैंने इसको कष्ट क्यों दिया? फिर उससे बोला, ‘‘मैं अपनी इन बातों के लिए लज्जित हूं। मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर। अब मैं तेरा विरोध नहीं करुगा। जो कुछ तू कहेगी, उसके अनुसार काम करुंगा।’’
औरत ने कहा, ‘‘तुम यह प्रतिज्ञा सच्चे दिल से कर रहे हो या चालाकी से मेरे दिल का भेद ले रहे हो?’’
वह बोला, ‘‘उस ईश्वर की सौगन्ध, जो सबके दिलों का भेद जानेवाले हैं, जिसने आदम के समान पवित्र नबी को पैदा किया। अगर मेरे ये शब्द केवल तेरा भेद लेने के लिए हैं तो तू इनकी भी एक बार परीक्षा करके देख ले।’’
औरत ने कहा, ‘‘देख, सूरज चमक रहा है और संसार इससे जगमगा रहा है। खुदा के खलीफा का नायाब जिसके प्रताप से शहर बगदाद इंद्रपुरी बना हुआ है, अगर तू उस बादशाह से मिले तो खुद भी बादशाह हो जायेगा, क्योंकि भाग्यवानों की मित्रता पारस के समान है, बल्कि पारस भी इसके सामने छोटा है। हजरत रसूल की निगाह अबू बकर पर पड़ी तो वह उनकी जरा-सी कृपा से इस महान पद को पहुंच गये।’’

मर्द ने कहा, ‘‘भला, बादशाह तक मेरी पहुंच कैस हो सकती है? बिना किसी जरिये के वहां तक कैसे पहुंच सकता हूं?’’
औरत ने कहा, ‘‘हमारी मशक में बरसाती पानी भरा रक्खा है। तुम्हारे पास यही सम्पत्ति है। इस पानी की मशक को उठाकर ले जाओ और इसी उपहार के साथ बादशाह की सेवा में हाजिर हो जाओ और प्रार्थना करो कि हमारी जमा-पूंजी इसके सिवा कुछ है नहीं। रेगिस्तान में इससे उत्तम जल प्राप्त होना असम्भव है। चाहे उसके खजाने में मोती और हीरे भरे हुए हैं, लेकिन ऐसे बढ़िया जल का वहां मिलना भी दुश्वार है।’’
मर्द ने कहा, ‘‘अच्छी बात है। मशक का मुंह बन्द कर। देखें, तो यह सौगात हमें क्या फायदा पहुंचाती है? तू इसे नमदे में सी दे, जिससे सुरक्षित रहे और बादशाह हमारी इस भेंट से रोज़ खोले। ऐसा पानी संसार भर में कहीं नहीं। पानी क्या, यह तो निथरी हुई शराब है।’’
उसने पानी की मशक उठायी और चल दिया। सफर में दिन को रात और रात को दिन कर दिया। उसको यात्रा के कष्टों के समय भी मशक की हिफाजत का ही ख्याल रहता था।
इधर औरत ने खुदा से दुआ मांगनी शुरु की कि ऐ परवरदिगार, रक्षा कर, ऐ खदा! हिफाजत कर।
स्त्री की प्रार्थना तथा अपने परिश्रम और प्रयत्न से वह अरब हर विपत्ति से बचता हुआ राजी-खुशी राजधानी तक पानी की मशक को ले पहुंचा। वहां जाकर देखा, बड़ा सुन्दर महल बना हुआ है और सामने याचकों का जमघट लागा हुआ है। हर तरफ के दरवाजों से लोग अपनी प्रार्थना लेकर जाते हैं और सफल मनोरथ लौटते हैं।
जब यह अरब महल के द्वारा तक पहुंचा ता चोबदार आये। उन्होंने इसके साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। चोबदारों ने पूछा, ‘‘ऐ भद्र पुरुष! तू कहां से आ रहा है? कष्ट और विपत्तियों के कारण तेरी क्या दशा हो गयी है?’’
उसने कहा, ‘‘यदि तुम मेरा सत्कार करो तो मैं भद्र पुरुष हूं और मुंह फेर लो तो बिल्कुल छोटा हूं। ऐ अमीरो! तुम्हारे चेहरों पर एश्चर्य टपक रहा है। तुम्हारे चेहरों का रंग शुद्ध सोने से भी अधिक उजला है। मैं मुसाफिर हूं। रेगिस्तान से बादशाह की सेवा में भिखारी बनकर हाजिर हुआ हूं। बादशाह के गुणों की सुगन्धित रेगिस्तान तक पहुंच चुकी है। रेत के बेजान कणों तक में जान आ गयी है। यहां तक तो मै अशर्फियों के

लोभ से आया था, परन्तु जब यहां पहुंचा तो इसके दर्शनों के लिए उत्कण्ठित हो गया।’’ फिर पानी की मशक देकर कहा, ‘‘इस नजराने को सुलतान की सेवा में पहुंचाओ और निवेदन करो कि मेरी यह तुच्छ भेंट किसी मतलब के लिए नहीं है। यह भी अर्ज करना कि यह मीठा पानी सौंधी मिट्टी के घड़े का है, जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा किया गया था।’’
चोबदारों को पानी की प्रशंसा सुनकर हंसी आने लगी। लेकिन उन्होंने प्राणों की तरह मशक को उठा लिया, क्योंकि बुद्धिमान बादशाह के सदगुण सभी राज-कर्मचारियों में आ गये थे।
जब खलीफा ने देखा और इसका हाल सुना तो मशक को अशर्फियों से भर दिया। इतने बहुमल्य उपहार दिये कि वह अरब भूख-प्यास भूल गया। फिर एक चोबदार को दयालु बादशाह ने संकेत किया, ‘‘यह अशर्फी-भरी मशक अरब के हाथ में दे दी जाये और लौटते समय इसे दजला नदी के रास्ते रवाना किया जाये। वह बड़े लम्बे रास्ते से यहां तक पहुंचा है। और दजला का मार्ग उसके घर से बहुत पास है। नाव में बैठेगा तो सारी पिछली थकान भूल जायेगा।’’
चोबदारों ने ऐसा ही किया। उसको अशर्फियां से भरी हुई मशक दे दी और दजला पर ले गये। जब वह अरब नौका में सवार हुआ और दजला नदी को देखा तो लज्जा के कारण उसका सिर झुक गया, फिर सिर झुक गया, फिर सिर झुकाकर कहने लगा कि दाता की देन भी निराली है और इससे भी बढ़कर ताज्जुब की बात यह है कि उसने मेरे कड़वे पानी तक को कबूल कर लिया।

६/ फूट बुरी बला

एक माली ने देखा कि उसके बाग में तीन आदमी चोरों की तरह बिना पूछे घुस आये हैं। उनमें से एक सैयद है, एक सूफी है और एक मौलवी है, और एक से बढ़कर एक उद्दंड और गुस्ताख है। उसने अपने मन में कहा कि ऐसे धूर्तों को दंड देना ही चाहिए, परन्तु उनमें परस्पर बड़ा मेल है और एका ही सबसे बड़ी शक्ति है। मैं अकेला इन तीनों को नहीं जीत सकता। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि पहले इनको एक-दूसरे से अलग कर दूं। यह सोचकर उसने पहले सूफी से कहा, ‘‘हजरात, आप मेरे घर जाइए और इन साथियां के लिए कम्बल ले आइए।’’ जब सूफी कुछ दूर गया, तो कहने लगा, ‘‘क्यों श्रीमान! आप तो धर्म-शास्त्र के विद्वान हैं और ये सैयद हैं। हम तुम-जैसे सज्जनों के प्रताप से ही रोटी खाते हैं और तुम्हारी समझ के परों पर उड़ते हैं। दूसरे पुरुष हमारे बादशाह हैं, क्योंकि सैयद हैं और हमारे रसूल के वंश के हैं। लेकिन इस पेटू सूफी में कौन-सा गुण है, जो तुम-जैसे बादशाहों के संग रहे? अगर वह वापस आये तो उसे रुई की तरह धुन डालूं। तुम लोग एक हफ्ते तक मेरे बाग में निवास करो। बाग ही क्या, मेरी जान भी तुम्हारे लिए हाजिर हैं, बल्कि तुम तो मेरी दाहिनी आंख हो।’’
ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों से इनको रिझाया और खुद डंडा लेकर सूफी के पीछे चला और उसे पकड़कर कहा, ‘‘क्यों रे सूफी, तू निर्लल्जता से बिना आज्ञा लिये लोगों के बाग में घुस आता है! यह तरीका तुझको किसने सिखाया है? बता, सिक शेख और किस पीर ने आज्ञा दी?’’ यह कहकर सूफी को मारते-मारते अधमर कर दिया।
सूफी ने जी में कहा, ‘‘जो कुछ मेरे साथ होनी थी, वह तो हो चुकी; परन्तु मेरे साथियो! जरा अपनी खबर लो। तुमने मुझको पराया समझा, हालांकि मैं इस दुष्ट माली से ज्यादा पराया न था। जो कुछ मैंने खाया है, वही तुम्हें भी खाना है और सच बात तो यह है कि धूर्तों को ऐसा दण्ड मिलना चाहिए।’’
जब माली ने सूफी को ठीक कर दिया तो वैसा ही एक बहाना और ढूंढा और कहा, ‘‘ऐ मेरे प्यारे सैयद, आप मेरे घर पर तशरीफ ले जायें। मैंने आपके लिए बढ़िया खाना बनवाया है। मेरे दरवाजे पर जाकर दासी को आवाज देना। वह आपके लिए पूरियां और तरकारियां ला देगी।’’
जब उसकी विदा कर चुका तो मौलवी से कहने लगा, ‘‘ऐ महापुरुष! यह तो जाहिर और मुझे भी विश्वास है कि तू धर्म-शास्त्रों का ज्ञात है: परन्तु तेरे साथी को सैयदपने का दावा निराधार है। तुझे क्या मालूम, इसकी मां ने क्या-क्या किया?’’ इस प्रकार सैयद को जाने क्या-क्या बुरा भला कहा। मौलवी चुपचाप सुनता रहा, तब उस दुष्ट ने सैयद का भी पीछा किया और रास्ते में रोककर कहा, ‘‘अरे मूर्ख! इस बाग में तुझे किसने बुलाया? अगर तू नबी सन्तान होता तो यह कुकर्म न करता।’’
फिर उसने सैयद को पीटना शुरु किया और जब वह इस ज़ालिम की मार से बेहाल हो गया तो आंखों में आसूं भरकर मौलवी से बोला, ‘‘मियां, अब तुम्हारी बारी है। अकेले रह गये हो। तुम्हारी तोंद पर वह चोटी पड़गी कि नक्करा बन जायेगी। अगर मैं सैयद नहीं हूं और तेरे साथ रहने योग्य नहीं हूं तो ऐसे ज़ालिम से तो बुरा नहीं हूं।’’
इधर जब वह माली सैयद से भी निबटन चुका तो मौलवी की ओर मुड़ा और कहा, ‘‘ऐ मौलवी,! तू सारे धूर्तों का सरदार है। खुदा तुझे लुंजा करे। क्या तेरा यह फतवा है कि किसी के बाग में घुस आये और आज्ञा भी न ले? अरे मूर्ख, ऐसा करने की तुझे किसने आज्ञा दी है? या किसी धार्मिक ग्रन्थ में तूने ऐसा पढ़ा है?’’ इतना कहकर वह उस पर टूट पड़ा और उसे इतना मारा कि उसका कचूमर निकाल दिया।
मौलवी ने कहा, ‘‘तुझे निस्सन्देह मारने का अधिकार है। कोई कसर उठा न रखा। जो अपनों से अलग हो जाये, उसकी यही सजा है। इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी सौगुना दण्ड मिलना चाहिए। मैं अपने निजी बचाव के लिए अपने साथियों से क्यों अलग हुआ?’’
[जो अपने साथियों से अलग होकर अकेला रह जाता है, उसे ऐसी ही मुसीबतें उठानी पड़ती हैं। फूट बला है।]

५/ साधु की कथा

एक साधु पहाड़ों पर रहा करता था। न उसके स्त्री थी और न बच्चे। वह एकान्तवास में ही मगन रहा करता था।
इस पहाड़ की घाटियों में सेव, अमरुद, अनार इत्यादि फलदार वृक्ष बहुत थे। साधु का भोजन यही मेवे थे। इनके छोड़ और कुछ नहीं खाता था। एक बार इस साधु ने प्रतिज्ञा की कि ऐ मेरे पालनकर्त्ता मैं इन वृक्षों से स्वयं मेवे नहीं तोडूगा और न किसी दूसरे से तोड़ने के लिए कहूंगा। मैं पेड़ पर लगे हुए मेवे नहीं खाऊंगा, जो हवा के झोंके से सड़कर गिर गये हों।
दैवयोग से पांच दिन तक कोई फल हवा से नहीं झड़ा। भूख की आग ने साधु को बेचैन कर दिया। उसने एक डाली की फुनगी पर अमरुद लगे हुए देखे। परन्तु सन्तोष से काम लिया और अपने मन को वश में किये रहा। इतने में हवा का एक ऐसा झोंका आया कि शाख की फुनगी नीचे झुक आयी, अब तो उसका मन वश में नहीं रहा और भूख ने उसे प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए विवश कर दिया। बस फिर क्या था, वृक्ष से फल तोड़ते ही इसकी प्रतिज्ञा टूट गयी। साथ ही ईश्वर का कोप प्रकट हुआ, क्योंकि उसकी आज्ञा है कि जो प्रतिज्ञा करो, उसे अवश्य पूरा करो।
इसी पहाड़ में शायद पहले से ही चोरों का एक दल रहा करता था और यहीं वे लोग चोरी का माल आपस बांट करते थे। दैवयोग से उसी समय चोरो के यहां मौजूद होने की खबर पाकर कोतवाली के सिपाहियों ने इस पहाड़ी को घेर लिया और चोरों के साथ साधु को भी पकड़कर हथकड़ी-बेड़ी डाल दी। इसके बाद कोतवाल ने जल्लाद को आज्ञा दी कि इनमें से हरएक के हाथ-पांव काट डालो। जल्लाद ने सबका बांया पांव और दायां हाथ काट डाला। चोरों के साथ साधु का हाथ भी काट डाला गया और पैर काटने की बारी आने-वाली थी कि अचानक एक सवार घोड़ा दौड़ाता हुआ आया और सिपाहियों को ललकार कर कहा, ‘‘अरे देखों, यह अमुक साधु है और ईश्चर-भक्त है। इसक हाथ क्यों काट डाला?’’ यह सुनकर सिपाही ने अपने कपड़े फाड़ डाले और जल्दी से कोतवाल की सेवा में उपस्थित होकर इस घटना की सूचना दी। कोतवाल यह सुनकर नंगे पांव माफी मांगता हुआ हाजिर हुआ।


बोला ‘‘महाराज! ईश्वर जानता है कि मुझे खबर नहीं थी। ऐ दयालु, मुझे
साधु बोला, ‘‘मैं इस विपत्ति का कारण जानता हूं और मुझे अपने पापों का ज्ञान है। मैंने बेईमानी से अपना मान घटाया और मेरी ही प्रतिज्ञा ने मुझे इसकी कचहरी में धकेल दिया। मैंने जान-बूझकर प्रतिज्ञा भंग की। इसलिए इसकी सजा में हाथ पर आफत आयी। हमारा हाथ हमारा पांव, हमारा शरीर तथा प्राण मित्र की आज्ञा पर निछावर हो जाये तो बड़े सौभाग्य की बात है। तुझसे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि तुझे इसका पता नहीं था।’’
संयोग से एक मनुष्य भेंट करने के अभिप्राय से उनकी झोंपड़ी में घुस आया। देखा कि साधु दोनों हाथों से अपनी झोली सी रहे हैं।
साधु ने कहा, ‘‘अरे भले आदमी! तू बिना सूचना दिये मेरी झोंपड़ी में कैसे आ गया।’’
उसने निवेदन किया कि प्रेम और दर्शनों की उत्कंठा के कारण यह अपराध हो गया।
साधु ने कहा, ‘‘अच्छा, तू चला आ। लेकिन खबरदार, मेरे जीवन-काल में यह भेद किसीसे मत कहना!’’
झोंपड़ी की बाहर मनुष्यों का एक समूह झांक रहा था। वह यह हाल जान गया। साधु ने कहा, ‘‘ऐ परमात्मा! तेरी माया तू ही जाने। मैं इस चमत्कार को छिपाता हूं और तू प्रकट करता है।
साधु ने आकाश-वाणी सुनी कि अभी थोड़ी ही दिन में लोग तुझपर अविश्वास करने लगते, और तुझे कपटी और प्रपंची बताने लगते। कहते कि इसीलिए ईश्वर ने इसकी यह दशा की है। वे लोग काफिर न हो जायें और अविश्वास और भ्रम में ग्रस्त न हो जायें, जन्म के अविश्वासी ईश्वर से विमुख न हो जायें, इसलिए हमने तेरा यह चमत्कार प्रकट कर दिया है कि आवश्यकता के समय हम तुझे हाथ प्रदान कर देते हैं। मैं तो इन करामातों से पहले भी तुझे अपनी सत्ता का अनुभव करा चुका हूं। ये चमत्कार प्रकट करने की शक्ति जो तुझको प्रदान कीह गयी है, वह अन्य लोगों में विश्चास पैदा करने के लिए है। इसीलिए इसे उजागर किया गया है।¬1

४/ चौपायों की बोली

एक युवक ने हजरत मूसा से चौपायों की भाषा सीखने की इच्छा प्रकट की, ताकि जंगली पशुओं की वाणी से ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करे, क्योंकि मनुष्य की सारी वाक्शक्ति तो छल-कपट में लगी रहती है। सम्भव है, पशु अपने पेट भरने का कोई ओंर उपाय करते हों।
मूसा ने कहां, ‘‘इस विचार को छोड़ दे, क्योंकि इसमें तरह-तहर के खतरे हैं। पुस्तकों और वाणियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के बजाय ईश्वर से ही प्रार्थना कर कि वह तेरे ज्ञान-चक्षु खोल दे।’’ परन्तु जितना हजरत मूसा ने उससे माना किया, उतनी ही उसकी इच्छा प्रबल होती गयी। इस आदमी ने निवेदन किया, ‘‘जबसे आपको दिव्य ज्योति प्राप्त हुई है, किसी वस्तु का भेद बिना प्रकट हुए नहीं रहा है। किसी को निराश करना आपके दयालु स्वाभाव के विपरीत है। आप ईश्चर के प्रतिनिधि हैं। यदि मुझे इस विद्या के प्राप्त करने से रोकते हैं तो मुझे बड़ा दु:ख होगा।’’
हजरत मूसा ने ईश्वर से प्रार्थना की, ‘‘ऐ प्रभु! मालू होता है कि यह बुद्धिमान मनुष्य शैतान के हाथ में खेल रहा है। यदि मैं इसे पशुओ की बोली सिखा दूं तो इसका अनिष्ट होता है और यदि न सिखऊं तो इसके हृदय को ठेस पहुंचती है।’’ ईश्चर की आज्ञा हुई, ‘‘ऐ मूसा! तुम इसे जरुर सिखाओ, क्योंकि हमने कभी किसी की प्रार्थना नहीं टाली।’’
हजरत मूसा ने बड़ी नरमी से उसे समझाया, ‘‘तेरी इच्छा पूरी हो जायेगी, परन्तु अच्छा यह है कि तू ईश्वर से डर और इस विचार को छोड़ दे, क्योंकि शैतान की प्रेरणा से तुझे यह ख्याल पैदा हुआ है। व्यर्थ की विपत्ति मोल न ले, क्योंकि पशुओं की बोली समझने से तुझपर बड़ी आफत आयेगी।’’
आदमी निवेदन किया, ‘‘अच्छा, सारे जानवरों की बोली न सही कुत्ते की, जो मेरे दरवाज़े पर रहता है और मुर्ग की, जो घर में पला हुआ है, बोलियां जान लूं तो यही काफी है।’’


हजरत मूसा बोला, ‘‘अच्छा, ले आज से इन दोनों की बोली समझने का ज्ञान तुझे प्राप्त हो गया।’’
अगले दिन प्रात:काल वह परीक्षा के लिए दरवाजे पर खड़ा हो गया। दासी ने भोजन लाकर सामने रखा। एक बासी रोटी का टुकड़ा, जो बच रहा था, नीचे गिर पड़ा। मुर्गा तो ताक में लगा हुआ था ही, तुरन्त उड़ा ले गया। कुत्ते ने शिकायत की, ‘‘तू कच्चे गेहूं भी चुग सकता है। मैं दाना नहीं चुग सकता। ऐ दोस्त! यह जरा-सा रोटी का टुकड़ा, जो वास्तव में हमारा हिस्सा है, वह भी तू उड़ा लेता है!’’
मुर्गे ने यह सुनकर कहा, ‘‘जरा सब्र कर और इसका अफसोस मत कर। ईश्वर तुझको इससे बढ़िया भोजन देगा। कल हमारे मालिक का घोड़ा मर जायेगा। खूब पेट भरकर खाना। घोड़ा की मौत कुत्तों का त्यौहार है और बिना परिश्रम और मेहनत के खूब भोजन मिलता है।’’
मालिक अब मुर्गें की बोली समझने लगा था। उसने यह सुनते ही घोड़ा बेच डाला और दूसरे दिन जब भोजन आया तो मुर्गा फिर रोटी का टुकड़ा ले गया। कुत्ते ने फिर शिकायत की, ‘‘ऐ बातूनी मुर्गे तू बड़ा झूठा है। और ज़ालिम तूने तो कहा था कि घोड़ा मर जायेगा। वह कहां मरा? तू अभागा है झूठ है।’’
मुर्गे ने जवाब दिया, ‘‘वह घोड़ा दूसरी जगह मर गया। मालिक घोड़ा बेचकर हानि उठाने से बच गया और अपना नुकसान दूसरों पर डाल दिया, लेकिन कल इसका ऊंट मर जायेगा। तो कुत्तों के पौबारह हैं।’’
यह सुनकर तुरन्त मालिक ने ऊंट को भी बेच दिया और उसकी मृत्यु के शोक और हानि से छुटकारा पा लिया। तीसरे दिन कुत्ते ने मुर्गें से कहा, ‘‘अरे झूठों के बादशाह! तू कबतक झूठ बोलता रहेगा? तू बड़ा कपटी है।’’
मुर्गे ने कहा, ‘‘मालिक ने जल्दी से ऊंट को बेच डाला। लेकिन इसका गुलाम मरेगा और इसके सम्बन्धी खैरात की रोटियां फकीरों को बांटेंगे और कुत्तों को भी खूब मिलेंगी।’’
यह सुनते ही मालिक ने गुलाम को भी बेच दिया और नुकसान से बचकर बहुत खुश हुआ।
वह खुशी से फूला नहीं समाता था और बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देता था

कि मैं लगातार तीन विपत्तियों से बच गया। जबसे मैं मुर्गां और कुत्तों की बोलियां समझने लगा हूं तबसे मैंने यमराज की आंखों में धूल झौंक दी है। चौथे दिन निराश कुत्ते ने कहा, ‘‘अरे, झेठे बकवादी मुर्गे तेरी भविष्यवाणियों का
क्या हुआ? यह तेरा कपट-जाल कब तक चलेगा? तेरी सूरत से ही झूठ टपकता है!’’
‘‘मुर्गे ने कहा, ‘‘तोबा! मेरी जाति कभी झूठ नहीं बोलती। भला यह कैसे सम्भव हो सकता है? असली बात यह है कि वह गुलाम खरीदार के पास जाकर मर गया और खरीदार को नुकसान हुआ। मालिक ने खरीदार को तो हानि पहुंचायी, लेकिन खूब समझ ले कि अब खुद उसकी जान पर आ बनी है। कल मालिक ही खुद मर जायेगा। तब इसके उत्तराधिकारी गाय की कुरबानी करेंगी। मांस और रोटियां फकीरो और कुत्तों को बांटी जायेगी। फिर खूब मौज से माल उड़ाना। घोड़े, ऊंट और गुलाम की मौत इस मूर्ख के प्राणों का बदला था। माल के नुकसान और रंज से तो बच गया। लेकिन अपनी जान गंवायी’’
मालिक मुर्गे की भविष्यवाणी को कान लगाकर सुन रहा था। दौड़ा-दौड़ा हजरत मूसा के दरवाजे पर पहुंचा और माथा टेककर फरियाद करने लगा, ‘‘ऐ खुदा के नायब, मुझ पर दया करो।’’
हजरत मूसा ने कहा, ‘‘जा, अब अपने को भी बेचकर नुकासन से बच जा। तू तो इस काम में खूब चालाक हो गया है। अब की बार भी अपनी हानि दूसरी लोगों के सिर डाल दे और अपनी थैलियों को दौलत से भर ले। भवितव्यता तुझे इस समय शीशे में दिखाई दे रही है, मैं उसको पहले ही ईंट में देख चुका था।’’
उसने रोना-धोना शुरु किया और कहा, ‘‘ऐ दयामूर्ति! मुझे निराश न कीजिए। मुझसे अनुचित व्यवहार हुआ है। परन्तु आप क्षमा करें।’’
हजरत मूसा बोले, ‘‘अब तो कमान से तीर निकल चुका है, लौट आना सम्भ्व नहीं है। अलबत्ता मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मरते समय तू ईमान सहित मरे। जो ईमानदार रहकर मरता है वह जिन्दा रहता है और जो ईमान साथ ले जाये, वह अमर हो जाता है।’’
उसी समय उसका जी मितलाने लगा। दिल उल-पुलट होने लगा। थोड़ी देर में वमन हुईं वह कै मौत की थी। उसे चार आदमी उठाकर ले गये। परन्तु उस समय उसे होश नहीं था। हजरत मूसा ने ईश्वर से प्रार्थना की, ‘‘हे प्रभु, इसे ईमान से वंचित न कर। यह गुस्ताखी इसने भूल में की थी। मैंने इसे बहुत समझाया कि वह विद्या तेरे योग्य नहीं। लेकिन वह मेरी नसीहत को टालने की बात समझा।’’
ईश्वर ने उस आदमी पर दया की और हजरत मूसा की दुआ कबूल हुई।1

३/ लाहौल वला कूवत

एक सूफी यात्रा करते हुए रात हो जाने पर किसी मठ में ठहरा। अपना खच्चर तो उसने अस्तबल में बांध दिया और आप मठ के भीतर एक मुख्य स्थान पर जा बैठा। मठ के लोग मेहमान के लिए भोजन लाये तो सूफी को अपने खच्चर की याद आयी। उसने मठ के नौकरो को अज्ञा दी अस्तबल में जा और खच्चर को घास और जौ खिला।
नौकर ने निवेदन किया, ‘‘आपके फरमाने की जरुरत नहीं। मैं हमेशा यही काम किया करता हूं।’’
सूफी बोला, ‘‘जौ पानी में भिगो कर देना, क्योंकि खच्चर बूढ़ा हो गया है और उसके दांत कमजोर हैं।’’
‘‘हरजत, आप मुझे सिखाते हैं लोग तो ऐसी-ऐसी युक्तियां मुझसे सीख कर जाते हैं।’’
‘‘पहले इसका तैरु उतारना। फिर इसकी पीठ के घाव पर मरहम लगा देना।’’
‘‘खुदा के लिए अपनी तदबीर किसी और मौके के लिए न रख लीजिए। मैं ऐसे सब काम जानता हूं। सारे मेहमान हमसे खुश होकर जाते है; क्योंकि हम अपने अतिथियों जान के बराबर प्यार समझते हैं।’’
‘‘और देख, इसको पानी भी पिलाना; परन्तु थोड़ा गर्म करके देना।’’
‘‘आपकी इन छोटी-छोटी बातों के समझाने से मुझे शर्म आती है।’’
‘‘जौ में जरा-सी घास भी मिला देना।’’
‘‘आप धीरज से बैठे रहिए। सबकुछ हो जायेगा।’’
‘‘उस जगह का कूड़ा-करकट साफ कर देना और अगर वहां सील हो तो सूखी घास बिछा देना।’’
‘‘ऐ बुजुर्गवार! एक योग्य सेवक से ऐसी बातें करने से क्या लाभ?’’
‘‘मियां, जरा खुरेरा भी फिर देना, और ठंड का मौसम है खच्चर की पीठ पर झूल भी डाल देना।’’

‘‘हजरत, आप चिन्ता न कीजिए। मेरा काम दूध की तरह स्वच्छ और बेलग होता है। मैं आपने काम में आपसे ज्यादा होशियार हो गया हूं। भले-बुरे मेहमानों से वास्ता पड़ा है। जिसे जैसा देखता हूं, वैसी ही उसकी सेवा करता हूं।’’
नौकर ने इतना कहकर कम कसी और चला गया। खच्चर का इन्तजाम तो उसे क्या करना था। अपने गुझ्टे मित्रों में बैठकर सूफि की हंसी उड़ाने लगा। सूफी रास्ते का हारा-थका ही, लेट गया और अर्द्धनिद्रा की अवस्था में सपना देखने लगा।
उसने सपने में देखा, उसके खच्चर को एक भेड़िये ने मार दिया है और उसकी पीठ और जांघ के मांस के लोथड़े को नोच-नोचकर खा रहा है। उसकी आंख खुल गयी। मन-ही-मन कहने लगा—यह कैसा पागलपन का सपना है। भला वह दयालू सेवक खच्चर को छोड़कर कहां जा सकता है! फिर सपने में देखा कि वह खच्चर रास्ते में चलते समय कभी कुंए में गिर पड़ता है, कभी गड्ढे में। ऐसी भयानक दुर्घटना सपने में वह बार-बार चौंक पड़ता और आंख खूलने पर कुरानशरीफ की आयतें पढ़ लेता।
अन्त में व्याकुल हो कर कहने लगा, ‘‘अब हो ही क्या सकता है। मठ के सब लोग पड़े सोते हैं और नौकर दरवाजे बन्द करके चले गये।’’
सूफी तो गफलत में पड़ा हुआ था और खच्चर पर वह मुसीबत आयी कि ईश्वर दुश्मन पर भी न डाले। उस बेचारे को तैरु वहां की धूल और पत्थरों में घिसटकर टेढ़ा हो गया और बागडोर टूट गयी। बेचारा दिन भर का हारा-थका, भूखा-प्यास मरणासन्न अवस्था में पड़ रहा। बार-बार अपने मन में कहता रहा कि ऐ धर्म-नेताओं! दया करो। मैं ऐसे कच्चे और विचारहीन सूफियों से बाज आया।
इस प्रकार इस खच्चर ने रात-भर जो कष्ट और जो यातनाएं झेलीं, वे ऐसी थीं, जैसे धरती के पक्षी को पानी में गिरने से झेलनी पड़ती हैं। वह एक ही करवट सुबह तक भूखा पड़ा रहा। घास और जौ की बाट में हिनहिनाते-हिनहिनाते सबेरा हो गया। जब अच्छी तरह उजाला हो गया, तो नौकर आया और तुरन्त तैरु को ठीक करके पीठ पर रखा और निर्दयी ने गधे बेचनेवालों की तरह दो-तीन आर लगायीं। खच्चर कील के चुभ से तरारे भरने लगा। उस गरीब के जीभ कहां थी, जो अपना हाल सुनाता।
लेकिन जब सूफी सवार होकर आगे बढ़ा तो खच्चर निर्बलता के कारण गिरने लगा। जहां। जहां कहीं गिरता था, लोगा उसे उठा देते थे और समझते थे कि खच्चर बीमार है। कोई खच्चर के कान मरोड़ता, कोई मुंह खोलकर देखता, कोई यह जांच करता कि खुर और नाल के बीच में कंकर तो नहीं आ गया है और लोग कहते कि ऐ शेख तुम्हारा खच्चर बार-बार गिर पड़ता है, इसका क्या कारण है?

शेख जवाब देता खुदा का शुक्र है


खच्चर तो मजबूत है। मगर वह खच्चर जिसने रात भर लाहौल खाई हो (अर्थात् चारा न मिलने के कारण रातभर ‘दूर ही शैतान’ की रट लगाता रहा), सिवा इस ढंग के रास्ता तय नहीं कर सकता और उसकी यह हरकत मुनासिब मालूम होती है, क्योंकि जब उसका चारा लाहौल था तो रात-भर इसने तसबीह (माला) फेरी अब दिन-भर सिज्दे करेगा (अर्थात् गिर-गिर पड़ेगा)

[जब किसी को तुम्हारे काम से हमदर्दी नहीं है तो अपना काम स्वयं ही करना चाहिए। बहुत से लोग मनष्य-भक्षक हैं। तुम उनके अभिवादन करने से (अर्थात् उनकी नम्रता के भम्र में पड़कर) लाभ की
आशा न रक्खो। जो मनुष्य शैतान के धोखे में फंसकर लाहौल खाता है, वह खच्चर की तरह मार्ग में सिर के बल गिरता है। किसी के धोखे में नहीं आना चाहिए। कुपात्रों की सेवा ऐसी होती है, जैसी इस सेवक ने की। ऐसे अनधिकारी लोगों के धोखे में आने से बिना नौकर के रहना ही अच्छा है।]1

२/ अंधा, बहरा और नंगा

किसी बड़े शहर में तीन आदमी ऐसे थे, जो अनुभवहीन होने पर भी अनुभवी थे। एक तो उसमें दूर की चीज देख सकता था, पर आंखों से अंधा था। हजरत सुलेमान के दर्शन करने में तो इसकी आंखें असमर्थ थीं, परन्तु चींटी के पांव देख लेता था। दूसरा बहुत तेज़ सुननेवाला, परन्तु बिल्कुल बहरा था। तीसरा ऐसा नंगा, जैसे चलता-फिरता मुर्दा। लेकिन इसके कपड़ों के पल्ले बहुत लम्बे-लम्बे थे। अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, एक दल आ रहा है। मैं देख रहा हूं कि वह किस जाति के लोगों का है और इसमें कितने आदमी हैं।’’ बहरे ने कहा, ‘‘मैंने भी इनकी बातों की आवाज सुनी।’’ नंगे ने कहा, ‘‘भाई, मुझे यह डर लग रहा है कि कहीं ये मेरे लम्बे-लम्बे कपड़े न कतर लें।’’ अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, वे लोग पास आ गये हैं। अरे! जल्दी उठो। मार-पीट या पकड़-धकड़ से पहले ही निकल भागें।’’ बहरे ने कहा, हां, इनके पैरों की आवाज निकट होती जाती है।’’ तीसरा बोला, ‘‘दोस्तो होशियार हो जाओ और भागो। कहीं ऐसा न हो वे मेरा पल्ला कतर लें। मैं तो बिल्कुल खतरे में हूं!’’
मललब यह कि तीनों शहर से भागकर बाहर निकले और दौड़कर एक गांव में पहुंचे। इस गांव में उन्हें एक मोटा-ताज़ा मुर्गा मिला। लेकिन वह बिल्कुल हड्डियों की माला बना हुआ था। जरा-सा भी मांस उसमें नहीं था। अन्धे ने उसे देखा, बहरे ने उसकी आवाज सुनी और नंगे ने पकड़कर उसे पल्ले में ले लिया। वह मुर्गा मरकर सूख गया था और कौव ने उसमें चोंच मारी थी। इन तीनों ने एक देगची मंगवायी, जिसमें न मुंह था, न पेंदा। उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया। इन तीनों ने वह मोटा ताजा मुर्गा देगची में डाला और पकाना शुरु किया और इतनी आंच दी कि सारी हड्डियां गलकर हलवा हो गयीं। फिर जिस तरह शेर अपना शिकार खाता है उसी तरह उन तीनों ने अपना मुर्गा खाया। तीनों ने हाथी की तरह तृप्त होकर खाया और फिर तीनों उस मुर्गें को खाकर बड़े डील-डौलवाले हाथी की तरह मोटे हो गये। इनका मुटापा इतना बढ़ा कि संसार में न समाते थे, परन्तु इस मोटेपन के बावजूद दरवाज़े के सूराख में से निकल जाते थे।

[इसी तरह संसार के मनुष्यों को तृष्णा को रोग हो गया है कि वे दुनिया की प्रत्येक वस्तु को,भले ही वह कितनी ही गन्दी हो, पर प्रत्यक्ष रुप में सुन्दर हो,

अपने पेट में उतारने की इच्छा रखते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह हाल है कि बिन मृत्यु के मार्ग पर चले इन्हें चारा नहीं और वह अजीब रास्ता है, जो इन्हें दिखाई नहीं देती। प्राणियों के दल-के-दल इसी सूराब से निकल जाते हैं और वह सूराख नजर नहीं आता। जीवों का यह समूह इसी द्वार के छिद्र में घुस जाता है और छिद्र तो क्या, दरवाजा तक भी दिखाई नहीं देता और इस कथा में बहरे का उदाहरण यह है कि अन्य प्राणियों की मृत्यु का समाचार तो वह सुनता है, परन्तु अपनी मौत से बेखबर है।
तृष्णा का उदाहरण उस अन्धे से दिया गया है, जो अन्य मनुष्यों के थोड़े-थोड़े दोष तो देखता है, लेकिन अपने दोष उसे नजर नहीं आते। नंगे की मिसाल यह है कि वह स्वयं नंगा ही आया है और नंगा ही जाता है। वास्तव में उसका अपना कुछ नहीं हैं। परन्तु सारी उम्र मिथ्या भ्रम में पड़कर समाज की चोरी के भय से डरता रहता है। मृत्यु के समय तो ऐसा मनुष्य और भी ज्यादा तड़पता है। परन्तु उसकी आत्मा खूब
हंसती है कि जीवनकाल में यह सदैव का नंगा मनुष्य कौनसी वस्तु के चुराये जाने के भय से डरता था। इसी समय धनी मनुष्य को तो यह मालूम होता है कि वास्तव में वह बिल्कुल निर्धन था। लोभी को यह पता चलता है कि सारा जीवन अज्ञानता में नष्ट हो गया।
इसलिए ए मनुष्य, तू अपने जीवन में इस बात को अच्छी तरह समझ जा कि परलोक में तेरा क्या परिणाम होगा और विद्याओं के जानने से अधिक तेरे लिए यह अच्छा है कि तू अपने स्वरुप को जाने]1

चोर बादशाह

बादशाह का नियम था कि रात को भेष बदलकर गज़नी की गलियों में घूमा करता था। एक रात उसे कुछ आदमी छिपछिप कर चलते दिखई दिये। वह भी उनकी तरफ बढ़ा। चोरों ने उसे देखा तो वे ठहर गये और उससे पूछने लगे, ‘‘भाई, तुम कौन हो? और रात के समय किसलिए घूम रहे हो?’’ बादशाह ने कहा, ‘‘मैं भी तुम्हारा भाई हूं और आजीविका की तलशा में निकला हूं।’’ चोर बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे, ‘‘तूने बड़ा अच्छा किया, जो हमारे साथ आ मिला। जितने आदमी हों, उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। चलो, किसी साहूकार के घर चोरी करें।’’ जब वे लोग चलने लगे तो उनमें से एक ने कहा, ‘‘पहले यह निश्चय होना चाहिए कि कौन आदमी किस काम को अच्छी तरह कर सकता है, जिससे हम एक-दूसरे के गुणों को जान जायं जो ज्यादा हुनरामन्द हो उसे नेता बनायें।’’
यह सुनकर हरएक ने आनी-अपनी खूबियां बतलायीं। एक बोला, ‘‘मैं कुत्तो की बोली पहचानता हूं। वे जो कुछ कहें, उसे मैं अच्छी तरह समझ लेता हूं। हमारे काम में कुत्तों से बड़ी अड़चन पड़ती है। हम यदि बोली जान लें तो हमारा ख़तरा कम हो सकता है और मैं इस काम को बड़ी अच्छी तरह कर सकता हूं।’’
दूसरा कहने लगा, ‘‘मेरी आंखों में ऐसी शक्ति है कि जिसे अंधेरे में देख लूं, उसे फिर कभी नहीं भूल सकता। और दिन के देखे को अंधेरी रात में पहचन सकता हूं। बहुत से लोग हमें पचानकर पकड़वा दिया हैं। मैं ऐसे लोगों को तुरन्त भांप लेता हूं और अपने साथियों को सावधान कर देता हूं। इस तरह हमारी रक्षा हो जाती है।’’
तीसरी बोला, ‘‘मुझमें ऐसी शक्ति है कि मज़बूत दीवार में सेंध लगा सकता हूं और यह काम मैं ऐसी फूर्ती और सफाई से करता हूं कि सोनेवालों की आंखें नहीं खुल

सकतीं और घण्टों का काम मिनटों में हो जाता है।’’
चौथा बोला, ‘‘मेरी सूंघने की शक्ति ऐसी विचित्र है कि ज़मीन में गड़े हुए धन को वहां की मिट्टी सूघकर ही बता सकता हूं। मैंने इस काम में इतनी योग्यता प्राप्त की है कि शत्रु भी सराहना करते हैं। लोग प्राय: धन को धरती में ही गाड़कर रखते हैं। इस वक्त यह हुनर बड़ा काम देता है। मैं इस विद्या का पूरा पंडित हूं। मेरे लिए यह काम बड़ा सरल हैं।’’
पांचवे ने कहा, ‘‘मेरे हाथों में ऐशी शक्ति है कि ऊंचे-ऊंचे महलों पर बिना सीढ़ी के चढ़ सकता हूं और ऊपर पहुंचकर अपने साथियों को भी चढ़ा सकता हूं। तुममें तो कोई ऐसा नहीं होगा, जो यह काम कर सके।’’
इस तरह जब सब लोग अपने-अपने गुण बता चुके तो नये चोर से बोले, ‘‘तुम भी अपना कमाल बताओ, जिससे हमें अन्दाज हो कि तुम हमारे काम में कितनी सहायता कर सकते है।’’ बादशाह ने जब यह सुना तो खुश हो कर कहने लगा, ‘‘मुझमें ऐसा गुण है, जो तुममें से किसी में भी नहीं है। और वह गुण यह है कि मैं अपराधों को क्षमा करा सकता हूं। अगर हम लोग चोरी करते पकड़े जायें तो अवश्य सजा पायेंगे। परन्तु मेरी दाढ़ी में यह खूबी है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं। तुम चोरी करके भी साफ बच सकते हो। देखो, कितनी बड़ी ताकत है मेरी दाढ़ी में!’’
बादशाह की यह बात सुनकर सबने एक स्वर में कहा, ‘‘भाई तू ही हमारा नेता है। हम सब तेरी ही अधीनता में काम करेंगे, ताकि अगर कहीं पकड़े जायें तो बख्शे जा सकें। हमारा बड़ा सौभाग्य है कि तुझ-जैसा शक्तिशाली साथी हमें मिला।’’
इस तरह सलाह करके ये लोग वहां से चले। जब बादशाह के महल के पास पहुंचे तो कुत्ता भूंका। चोर ने कुत्ते की बोली पहचानकर साथियों से कहा कि यह कह रहा है कि बादशाह हैं। इसलिए सावधान होकर चलना चाहिए। मगर उसकी बात किसीने नहीं मानी। जब नेता आगे बढ़ता चला गया तो दूसरों ने भी उसके संकेत की कोई परवा नहीं की। बादशाह के महल के नीचे पहुंचकर सब रुक गये और वहीं चोरी करने का इरादा किया। दूसरा चोर उछलकर महल पर चढ़ गया। और फिर उसने बाकी चोरों को भी खींच लिया। महल के भीतर घुसकर सेंध लगायी और खूब लूट हुई। जिसके जो हाथ लगा, समेटता गया। जब लूट चुके तो चलने की तैयारी हुई। जल्दी-जल्दी नीचे उतरे और अपना-अपना रास्ता लिया। बादशाह ने सबका नाम-धाम पूछ लिया था। चोर माल-असबाब लेकर चंपत हो गये।

बादशाह ने मन्त्री को आज्ञा दी कि तुम अमुक स्थान में तुरन्त सिपाही भेजो और फलां-फलां लोगों को गिरफ्तार करके मेरे सामने हाजिर करो। मन्त्री ने फौरन सिपाही भेज दिये। चोर पकड़े गये और बादशाह के सामने पेश किये गए। जब इन लोगों ने बादशाह को देखा तो दूसरे चोर ने कहा है कि ‘‘बड़ा गजब हो गया! रात चोरी में बादशाह हमारे साथ था
और यह वही नया चोर था, जिसने कहा था कि ‘‘मेरी दाढ़ी में वह शक्ति है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं।’’
सब लोग साहस करके आगे बढ़े और बादशाह का अभिवादन किया। बादशाह ने पूछा, ‘‘तुमने चोरी की है?’’ सबने एक स्वर में जवाब दिया, ‘‘हां, हूजर ! यह अपराध हमसे ही हुआ है।’’
बादशाह ने पूछा, ‘‘तुम लोग कितने थे?’’
चोरों ने कहा, ‘‘हम कुल छ: थे।’’
बादशाह ने पूछा, ‘‘छठा कहां है?’’
चोरों ने कहां, ‘‘अन्नदाता, गुस्ताखी माफ हो। छठे आप ही थे।’’
चारों की यह बात सुनकर सब दरबारी अचंभे में रह गये। इतने में बादशाह ने चोरों से फिर पूछा, ‘‘अच्छा, अब तुम क्या चाहते हो?’’
चोरों ने कहा, ‘‘अन्नदाता, हममें से हरएक ने अपना-अपना काम कर दिखाया। अब छठे की बारी है। अब आप अपना हुनर दिखायें, जिससे हम अपराधियों की जान बचे।’’
यह सुनकर बादशाह मुस्कराया और बोला, ‘‘अच्छा! तुमको माफ किया जाता है। आगे से ऐसा काम मत करना।’’

[संसार का बादशाह परमेश्वर तुम्हारे आचराणों को देखने के लिए सदैवा तुम्हारे साथ रहता है। उसके साथ समझकर तुम्हें हमेशा उससे डरते रहना चाहिए और बुरे कामों की ओर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए।]1

Thursday, June 25, 2009


चंदाभाई की चांदनी

एक थे राम सिंह भाई और दूसरे थे चन्दाभाई। दोनों जागीरदार। रामसिंह भाई गावं मुखिया, और पाच-सात गांवों के मालिक। चन्दाभाई के पास सिर्फ दो हल की ज़मीन। रामसिंह भाई का अपना राज-दरबार था। जो भी आता, चौपाल पर बैठता। हुक्का-पानी पीता। खाना खाता और घर जाता।
चन्दाभाई के घर मे तो कुछ भी नही था। घर के दरवाजें आया हुआ भूखा ही लौट जाता। लेकिन चन्दाभाई ज़बान के बहुत तेज-तर्रार थें। एक बढिया घोड़ी रखते थे। सफेद कपड़े पहनते थे, और गावं मे बैठकर गप्पे हांका करते थे। जहां भी पहुच जाते, मेहमान के ठाठ से रहते और मौज करते।
चन्दाभाई ने रामसिंह भाई के साथ दोस्ती कर ली। रामसिंह भाई को कमी किस बात की थी? चन्दाभाई रामसिंह भाई के घर साल मे दो-तीन महीने रहते। खाते-पीते और चैन की बंसी बजाते। लौटते समय बहुत आग्रह करके कहते, रामसिंह भाई! अब तो एक बार आप मेरे घर जरूर ही पधारिए!"
संयोग से एक बार रामसिंह भाई को कहीं रिश्तेदारी मे जाना हुआ। रास्तें मे चन्दाभाई का गांव पड़ा। रामसिंह भाई ने सोचा—चन्दाभाई बार-बार आग्रह करके कहे रहते है, पर हम कभी इनके घर जाते नहीं। चलूं, क्यों न इस बार मै इनका गढ़ भी देख लूं?"
रामसिंह भाई ने ओर उनके भतीजों ने अपनी घोडियां चन्दाभाई के गावं की ओर मोड़ दी। किसी ने चन्दाभाई को खबद दी। वह परेशान हो गये। सोचने लगे—रामसिंह भाई के घर तो मै खूब खाता-पीता रहा हूं लेकिन मै उनको खिलाऊंगा क्या? घर मे तो चूहे डण्ड पेल रहे थे।
इतने मे रामसिंह भाई की घोड़ी हिनहिनाई और रामसिंह भाई ने आवाज लगाई, "चन्दाभाई कहां है?" बेचारे चन्दाभाई क्या मुंह दिखाते? वे तो ठुकरानी की साड़ी ओढ़कर सो गए। ठाकुर रामसिंह गढ़ के अन्दर आ पहुचे। पूछा, "क्या ठाकुर चन्दाभाई घर मे है?"
एक बहन ने बाहर निकलकर कहा, "दरबार तो जूनागढ़ की जागीर के काम से की गए है। कल-परसों तक लोटेगें।"
रामसिंह भाई के मन मे शक पैदा हुआ। सोचा बात कुछ गलत लगती है। कल ही तो खबर मिली थी। कि चन्दाभाई गांव मे ही है।
ठाकुर रामसिंह ने कहा, "अच्छी बात है। लेकिन घर के अन्दर ये सोए कौन है? कोई बीमार तो नही है?"
बहन बोली, "ये तो जसोदा भुवा है। सिर दुख रहा है, इसलिए सोई है।"
ठाकुर रामसिंह ने सोचा—जसोदा भुवा के कुशल समाचार तो पूछ ही लें। घर मे पहुचकर उन्होने साड़ी ऊपर उठाई और पूछा, "क्यों भुवा जी! सिर क्यों दुख् रहा है?" तभी देखते क्या है कि भुवाजी की जगह वहां मूंछों वाले चन्दाभाई लेटे पड़े है!
देखकर रामसिंह भाई तो दंग रह गए। खिसिया भी गए। उनके साथ एक चारण था। उससे रहा नही गयां। उसकी जीभ कुलबुलाई वह बोला:
चन्दाभाई की चांदनी।
और रामजी भाई की रोटी।
जसोदा भुआ के मूंछे आई।
घड़ी कलजुग की खोटी।•

अल्लम-तल्लम करता हूं

एक था कौआ, और एक थी मैना। दोनो मे दोस्ती हो गई।
मैना भली ओर भोली थी, लेकिन कौआ बहुत चंट था।
मैना ने कौए से कहा, "कौए भैया! आओं, हम खेत जोतने चले। अनाज अच्छा पक जायेगा, तो हमको साल भर तक चुगने नही जाना पड़ेगा, और हम आराम के साथ खाते रहेगे।"
कौआ बोला, "अच्छी बात है। चलो चलें।"
मैना ओर कौआ अपनी-अपनी चोच से खेंत खोदने लगे।
कुछ देर बाद कौए की चोंच टूट गई। कौआ लुहार के घर पहुचा और वहां अपनी चोंच बनवाने लगा। जाते-जाते मैना से कहता गया, "मैना बहन! तुम खेत तैयार करो। मै चोंच बनावाकर अभी आता हूं।"
मैना बोली, "अच्छी बात है।"
फिर मैना ने सारा खेत खोद लिया, पर कौआ नही आया।
कौआ की नीयत खोटी थी। इसलए चोंच बनवा चुकने के बाद भी वह काम से जी चुराकर पेड़ पर बैठा-बैठा लुहार के साथ गपशप करता रहा। मैना कौए की बाट देखते-देखते थक गई। इसलिए वह कोए को बुलाने निकली। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया, चलो! खेत सारा खुद चुका है। अब हम खेत मे कुछ बो दें।"
कौआ बोला
अल्लम-टल्लम करता हूं।
चोंच अपनी बनवाता हूं।
मैना बहन, तुम जाओं, मै आता हूं।
मैन लौट गई ओर उसने बोना शुरू कर दिया। मैना ने बढ़िया बाजरा बोया। कुछ ही दिनो के मे वह खूब बढ़ गया।
इस बीच नींद ने निराने का समय आ पहुचा। इसलिए मैना बहन फिर कौए को बुलाने गई। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया! चलो, चलो बाजरा बहुत बढिया उगा हैं। अब जल्दी ह निरा लेना चाहिए, नही तो फसल को नुक़सान पहुंचेगा।"
पेड़ पर बैठे-बेठे ही आलसी कौआ बोला
अल्लम-टल्लम करता हूं। चोंच अपनी बनवाता हूं।
मैना बहन, तुम जाओं, मै आता हूं।
मैना वापस आ गई। उसने अकेले ही सारे खेत की निराई कर ली।
कुछ दिनों के बाद फसल काटने का समय आ लगा। इसलिए मैना फिर कौए को बुलाने गई। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया! अब तो चलो फसल काटने का समय हो चुका है! देर करके काटेंगें, तो नुकसान होगा।"
कौआ बोला
अल्लम-टल्लम करता हूं।
चोंच अपनी बनवाता हूं।
मैना बहन, तुम जाओं मै आता हूं।
मैना तो निराश होकर वापस आ गई। और गुस्से-ही-गुस्से मेंअकेली खेत की सारी फसल काट ली।
इसके बाद मैना ने बाजरे का के भुटटों मे से दाने निकाले। एक तरफ
बाजरे का ढेर लगा दिया और दूसरी तरफ भूसे का बड़ा-सा ढेर बनाकर उसके ऊपर थोड़ा बाजरा फैला दिया।
बाद मे वह कौए को बुलाने गई। जाकर बोली, "कौए भैया! अब तो तुम चलोगें? मैने बाजरे की ढेरियां तैयार कर ली है। तुमको जो ढेरी पसन्द हो, तुम रख लेना।"
कौआ यह सोचकर खुश हो गया कि बिना मेहनत के ही उसको बाजरे का अपना हिस्सा मिलेगा।
कौए ने मैना से कहा, "चलों बहन! मै तैयार हूं। अब मेरी चोंच अच्छी तरह ठीक हो गई है।"
कौआ और मैना दोनो खेत पर पहुंचे। मैना ने कहा, "भैया! जो ढेरी तुमको अच्छी लगे, वह तुम्हारी।"
बड़ी ढेरी लेने के विचार से कौआ भूसे वाले ढेर पर जाकरबैठ गया। लेकिन जैसे ही वह बैठा कि उसके पैर भूसे मे धंसने लगे, और भूसा उसकी आंखों, कानों और मुंह मे भर गया। देखते-देखते कौआ मर गया!
बाद मे मैना सारा बाजरा अपने घर ले गई।•

गिलहरीबाई

एक बुढ़िया थी। एक बार उसकी हथेली मे फोड़ा हुआ। जब फोड़ा फूटा, तो उसमें से एक गिलहरी निकली। बुढ़िया ने गिलहरी के लिए पेड़ पर एक झोली बांध दी और उसमें उसको सुला दिया। घर का काम करते-करते बुढ़िया कभी इधर जाती, कभी उधर जाती, और गिलहरी को झ़लाते-झुलाते लोर गाती:
हाथ के लूंगी हजार।
पैर के लूंगी पांस सौ।
नाक के लूंगी नौ सौ।
फिर भी अपनी गिलहरीबाई को धरम रीति से दूंगी।
सो जाओं, गिलहरीबाई, सो जाओं।
एक दिन पास के गांव का एक राजा शिकार के लिए निकला। बुढ़िया की कुटिया के पास से जाते-जाते उसने गिलहरीबाई की लोरी सुनी। राजा सोचने लगा—‘भला, यह गिलहरीबाई कैसी होगी? जब बुढ़िया इसके लिए इतने अधिक रूपए मांग रही है, तो जरूर ही गिलहरीबाई बहुत रूपवती होगी!’
राजा ने गिलहरीबाई से ब्याह करने का विचार। राजा बुढिया के पास गया, और उसने बुढ़िया से कहा, "मांजी, मांजी! आप यह क्या गा रही है? आपकी गिलहरी कहां है? मुझकों अपने बेटी दिखा दो। मै उससे ब्याह करना चाहता हूं।"
बुढिया बोली, "भैया! आप तो राजा हैं। भला आप गिलहरी से कैसे ब्याह करेंगे? वह तो जानवर की जान है। लोरी तो मै इस गिलहरीबाई के लिए गाती हूं। मेरी दूसरी बेटी नही है।"
राजा ने बुढ़िया की बात नही मानी। उसने कहा, "मांजी, भले ही आपकी गिलहरीबाई जानवर हो! मै तो उसी से ब्याह करूंगा।"
सुनकर बुढ़िया बोली, "तो जाइये, रूपए ले आइये। आप मुझे मेरा यह कुल्हड भरकर रूपये देगें, तो मै अपनी बेटी का ब्याह आपसे कर दूंगी।"
राजा रूपए लेने गया। बुढ़िया लोभिन थी। ढेर सारे रूपए लेने की एक तरकीब उसने सोच ली। एक बड़ा-सा गडढा खोदा। गडढे पर कोठी रख दी। कोठी पर एक मटका रखा। मटके पर गगरी रखी और गगरी और कुल्हड़ रख दिया। ऊपर से नीचे तक सबके पेंदों मे छेद बना दिया।
राजा आया। राजा के लोग कुल्हड़ मे रूपए डालने लगे, पर कुल्हड़ तो भरता ही न था। आखिर जब बहुत सारे रूपए डाल दिये गए तो कुल्हड़ भर गया। फिर बुढ़िया ने गिलहरीबाई का ब्याह राजाक के साथ कर दिया।
राजा गिलहरीबाई को ब्याहकर अपने घर ले आया। राजा ने गिलरीबाई के लिए सोने का एक बढ़िया पिंजर बनवाया, और उसे अपने महल की सांतवीं मंजिल पर टंगवा दिया। राजा का हुक्म हुआ कि वहां कोई जाया नही। सब सोचने लगे कि राजा किसे ब्याहकर लाये है? गिलहरीबाई को रोज बढ़िया-बढिया दाने डाले जाते थे। गिलहरीबाई दाने खाती और अपने पिंजरे मे कूदा करती। राजा रोज सुबह शाम गिलहरीबाई से मिलने जाता। एक बार राजा के दीवान ने जानना चाहा कि रानी कोन है? दीवान ने परीक्षा करने की बात सोची और राजा से पूछा, "राजा जी, राजा जी! क्या आपकी रानी कुछ काम करना जानती है?"
राजा ने कहा, "हां जानती है।"
दीवान ने पूछा, "क्या रानी धान मे से चावल तैयार कर देंगी?" राजा ने हां कह, और धान की वह टोकरी गिलहरीबाई के पास रख दी। गिलहरीबाई समझ गई। उसने अपने पैने दांतों से धान के छिलके इस खूबी क साथ निकाले कि एक भी दाना टूटा नही और एक ही रात मे सारी टोकरी चावलों से भर दी।
सवेरे राजा टोकरी दीवान के पास ले गए। चावल देखकर दीवान तो दंग रह गया! एक बार और रानी की परीक्षा लेने के विचार से दीवान ने पूछा, "राजा जी! क्या आपकी रानी गीली मिटटी पर चित्रकारी कर सकती है?"
राजा ने कहा, "हां, इसमें कोन बड़ी बात है?"
दीवान ने एक कमरे मे गीली मिटटी तैयार करवा दी ओर राजा से कहा, "रात को रानीजी इस पर अपनी चित्रकारी करें।"
गिलहरीबाई अपनी दूसरी सब सहेलियों का बुला लाई और फिर सब गिलहरियों ने कमरे मे इधर-से-उधर उधर-से-इधर दौड़ने की धूम मचा दी। सवेरा होते-होते तो मिटटी पर बढ़िया चित्रकारी तैयार हो गई। सबेरे सारी चित्रकारी देखकर दीवान तो गहरे विचार मे डूब गया। उसने कहा, "सचमुच रानी तो बहुत ही चतुर हैं।"
बाद मे एक बार राजा को दूसरे गांव जाना पड़ा। राजा ने पिजरे मे दाना-पानी रख दिया। राजा को लौटने मे देर हो गई और पिंजरे का दाना-पानी खत्म हो गया। गिलहरीबाई को बहुत प्यास लगी। गले मे कुल्हड़ बांध कर वह कुंए पर पानी भरनेगई। जब वह कुंए पर खड़ी-खड़ी पानी भर रही थी, उसी समय ऊपरसे शंकर-पार्वती का रथ निकला।
शंकर ने पूछा, "पार्वती जी! आप जानती है, यह गिलहरी कौन है?"
पार्वती ने कहा, "नही।"
शंकर बोले, "यह तो एक स्त्री है। इसे एक देव का शाप लगा है, इसलिए इसको गिलहरी क जन्म लेना पड़ा है।"
पार्वती को दया आ गई, और उन्होने शंकर से विनती की कि जैसे भी बने, वे गिलहरी को फिर से स्त्री बना दें। जैसे ही शंकर ने ऊपर सेपानी छिड़का, वैसे ही गिलहरी सोलह साल की सुन्दरी बन गई। सुन्दरी बनने के बाद गिलहरीबाई राजा के महल मे पहुची। जब राजा घर लौटे तो उनको सारा हाल मालूम हुआ। राजा बहुत खुश हुआ और वे आराम से रहने लगे।•

बनिया और चोर

एक था बनिया। उसे घी खरीदना था, इसलिए वह घी की कुप्पी और तेरह रूपए लेकर दूसरे गांव जानेके लिए रवाना हुआ। रास्ते मे शाम हो गई। जहां पहुचना था, वह गांव दूर था। थोड़ी ही देर मे अंधेरा छा गया।
बनिये ने अंधेरे मे दूर कुछ देखा। उसके मन मे शक पैदा हुआ कि कहीं कोई चोर तो नहीं है! बनिया डर गया पर आख़िर वह बनिया था।
वह खांसा-खंखारा, मूंछ पर ताव दिया और बोला:
अगर तू है खूटा खम्बा।
तो मै हूं मरद मुछन्दर।
अगर तू है चोर और डाकू।
तो ले ये तेरह रूपए और कुप्पी धर।
बनिया यूं बोलता जाता था, खासंता-खंखारता जाता था, और धीमे-धीमे आगे बढ़ता जाता था।
जब बिल्कुल पास पहुंच गया, तो देखा कि वहां तो पेड़ का एक ठंठ खड़ा था। बनिये ने चैन की सांस ली।•

राजा, मै तो बड़भागी

एक थी चिड़िया। एक दिन दाना चुग रही थी कि उसे एक मोती मिला। चिड़िया ने मोती नाक मे पहन लिया और इतराती-इतराती पेड़ की एक डाल पर जो बैठी। तभी उधर से एक राजा निकला। राजा को देखकर चिड़िया ने कहा:
राजा, मै तो हूं बड़भागी।
मेरी नाक मे निर्मल मोती।
राजा, मै तो हूं बड़भागी।
मेरी नाक मे निर्मल मोती।

राजा मन-ही-मन खीज उठा। लेकिन उस दिन बिना कुछ कहे-सुने वह अपनी कचहरी मे चला गया। दूसरे दिन जब राजा कचहरी मे जा रहा था। चिडिया ने फिर कहा:

राजा, मै तो हूं बड़भागी।
मेरी नाक मे निर्मल मोती।
राजा, मै तो हूं बड़भागी।
मेरी नाक मे निर्मल मोती।

इस बार राजा बहुत गुस्सा हो गया। राजा ने लौटकर चिड़िया को पकड़ लिया ओर उसकी नाक मे से मोती निकाल लिया। चिड़िया,भला राजा से क्यो डरने लगी? उसने कहना शुरू किया:

राजा भगत भिखारी।
मेरा मोती ले लिया।
राजा भगत भिखारी।
मेरा मोती ले लिया।
राजा और अधिक गुस्सा हुआ? उसने कहा, "क्या मै भिखारी हूं? मै तो राजा हूं। मुझे किस बात की कमी है? दे दो, चिड़िया का उसका मोती।"
राजा ने चिड़िया को मोती दे दिया।
इस पर चिड़िया ने कहना शुरू किया:
राजा मुझसे डर गया।
मेरा मोती मुझको दे दिया।
राजा मुझसे डर गया।
मेरा मोती मुझको दे दिया।
अब तो राजा को बहुत ही बुरा लगा। उसने कहा, "अरे, यह क्या कर रही है? यह अभागिन चिड़िया, छोटा मुंह इतनी बड़ी बात कैसे कह रही है!" राजा ने चिड़िया की पकड़वा लिया। उसका सिर मुंडवा दिया और उस पर चूना पुतवाकर उसे बाहर निकाल दिया।
चिड़िया नेकहा, "राजा को और राजा के पूरे घर का सिर न मुंडवाऊं, तो मेरा नाम चिड़िया नहीं।"
फिर चिड़िया शंकर के मंदिर मे जाकर बैठ गई। राजा रोज शंकर के दर्शन करने आते और कहते, "हे शंकर भगवान! भला किजीए!"
रोज की तरह राजा दर्शन करने आए और शंकर के आगे सिर झुकाकर बोले, "हे शंकर भगवान! भला कीजिए!"
तभी चिड़िया बोली, "नहीं करूगां।"
राजा तो सोच मे पड़ गए। उन्होने फिर सिर झुकाया और बोले, "हे भगवान! मुझसे कोई कसूर हुआ हो तो माफ कीजिए! आप जो कहेगें, मै करूंगा। हे भगवान! मेरा भला कीजिए!"
चिड़िया बोली, "राजा! तुम और तुम्हारा सारा घर सिर मुंडवाए, सिर पर चूना पुतवाए और मेरे पास आए, तो मै तुम्हारा भला करूंगा।"
दूसरे दिन राजा ने और उसके पूरे घर ने सिर मुंडवाया, सिर पर चूना पुतवाया और सब मंदिर मे आए। आकर सबने कहा, "हे शंकर भगवान! हमारा भला कीजिए!"
इसी बीच चिड़िया फुर…र…र करती हुई उड़ी और बाहर जाकर कहने लगी:
चिडिया एक मुंडाई।
राजा का घर मुंडाया।
चिड़िया एक मुंडाई।
राजा का घर मुंडाया।

सुनकर राजा खिसिया गया और नीचा मुंह करके अपने महल मे चला गया।.

टिड्डा जोशी

एक थे जोशी। वे ज्योतिष तो जानते नहीं थे, फिर भी दिखावा करके कमाते और खाते थे। एक दिन वे अपने गांव से दूसरे गांव जाने के लिए रवाना हुए। रास्ते में उन्होंने देखा कि दो सफेद बैल एक खेत में चर रहे हैं। उन्होंने यह बात अपने ध्यान में रख ली।
जोशीजी गांव में पहुंचे और एक पटेल के घर ठहरे। वहां उनसे मिलने एक किसान आया। उसके साथ ही उसकी घरवाली भी आई। किसान ने जाशीजी से कहा, "जोशी महाराज! हमारे दो सफ़ेद बैल खो गए हैं। क्या आप अपना पोथी-पत्रा देखकर हमको बता सकेंगे कि वे किस तरफ गए हैं?"
जोशीजी कुछ बुदबुदाए। फिर एक बहुत पुराना सड़ा-सा पंचांग निकालकर देखा और कहा, "पटेल! तुम्हारे बैल पश्चिमी सिवान वाले फलां खेत में हैं। वहां जाकर उनको ले आओ।" जब पटेल उस खेत में पहुंचा, तो वहां उसे अपने बैल मिल गए। पटेल बहुत खुश हुआ और उसने जोशीजी को भी खुश कर दिया।
दूसरे दिन जोशीजी की परीक्षा करने के लिए मकान-मालिक ने उनसे पूछा, "महाराज" अगर आपकी ज्योतिष विद्या सच्ची है, तो बजाइए कि आज हमारे घर में कितनी रोटियां बनी थीं? जोशीजी के पास कोई काम तो था नहीं, इसलिए तबे पर डाली जाने वाली रोटियों को वे गिनते रहे थे। गिनती तेरह तक पहुंची थी। इसलिए अपनी विद्या का थोड़ा दिखावा करने के बाद उन्होंने कहा, "पटेल! आज तो आपके घर में तेरह रोटियां बनी थीं।" सुनकर पटेल को बड़ा अचरज हुआ।
इन दो घटनाओं से जोशी महाराज को नाम सारे गांव में फैल गया, और गांव के लोग उनके पास ज्योतिष-संबंधी बातें पूछने के लिए आने लगे। उन्हीं दिनों राजा की रानी का नौलखा हार खो गया। जब राजा ने जोशीजी की कीर्ति सुनी,तो उन्होंने उनको बुलवाया।
राजा ने जोशी से कहा, "सुनो, टिड्डा महाराज! अपने पोथी-पत्र में देखकर बताओ कि रानी का हार कहां है या उसको कौन ले गया है? अगर हार मिल गया तो हम आपको निहाल कर देंगे।"
जोशीजी घबराए। गहरे सोच में पड़ गए। राजा ने कहा, "आज की रात आप यहां रहिए। और सारी रात सोच-समझकर सुबह बताइए। याद रखिए कि अगर आपकी बात गलत निकली, तो आपको कोल्हु में पेरकर आपका तेल निकलवा लूंगा।"
रात ब्यालू करने के बाद टिड्डा जोशी तो बिस्तर में लेट गए। लेकिन उन्हें नहीं आई। मन में डर था कि सबेरा होते ही राजा कोल्हु में पेराकर तेल निकालेगा। वह पड़े-पड़े नींद को बुला रहे थे। कह रहे थे, "ओ नींद रानी आओ! ओ, नींद रानी आओ!"
बात यह थी कि राजा की रानी के पास नींद रानी नाम की एक दासी रहती थी। और उसी ने रानी का हार चुराया था। जब उस दासी ने टिड्डा जोशी को नींद रानी आओ, नींद रानी आओ’ कहते सुना, तो वह एकदम घबरा गई। उसे लगा कि अपनी विघा कि बल से ही डिड्डा जोशी को उसका नाम मालूम हो गया है।
बच निकलने के विचार से नींदरानी ने हार टिड्डा जोशीजी को सौंप देने का निश्चय कर लिया। वह हार लेकर जोशीजी के पास पहुंची और बोली, "महाराज! यह चुराना हुआ हार आप संभालिए। अब मेरा नाम किसी को मत बताइए। हार का जो करना हो, कीजिए।"
टिड्डा जोशी मन-ही-मन खुश हो गए। और बोले, "यह अच्छा हुआ। फिर टिड्डा जोशी ने नींद रानी से कहा, "सुनो यह हार अपनी रानीजी के कमरे में पलंग के नीचे रख आओ।"
सबेरा होने पर राजा ने टिड्डा जोशी को बुला भेजा। जोशीजी ने अपनी विद्या का दिखावा करते हुए एक-दो सच्चे-झूठे श्लोक बोले और फिर अपनी अंगुलियों के पोर गिनकर और होंठ हिलाकर अपना लम्बा पत्रा निकाला और कहा, "राजाजी! मेरी विद्या कहती है कि रानी का हार कहीं गुम नहीं हुआ है। आप तलाश करवाइए। हार रानी के कमरे में ही उनके पलंग के नीचे मिलना चाहिए।"
तलाश करवाने पर हार पलंग के नीचे मिल गया।
राजा टिड्डा जोशी पर बहुत खुश हो गया और उसे खूब इनाम दिया।
टिड्डा जोशी की और परीक्षा लेने के लिए राजा ने एक तरकीब सोची।
एक दिन राजा टिड्डा जोशी को अपने साथ जंगल में ले गए। जोशीजी जब इधर-उधर देख रहे थे, तब उनकी निगाह बचाकर राजा ने अपनी मुट्ठी में एक टिड्डा पकड़ लिया। फिर मुट्ठी दिखाकर टिड्डा जोशी से पूछा, "टिड्डाजी, कहिए, मेरी इस मुट्ठी में क्या है? याद रखिए, गलत कहेंगे, तो जान जायग!"
टिड्डा जोशी घबरा गए। उनको लगा कि अब सारा भेद खुल जायगा और राजा मुझे डालेगा। घबराकर अपनी विद्या की सारी हकीक़त राजा से कह देने ओर उनसे माफी मांग लेने के इरादे से वे बोले:
टपटप पर से तेरह गिने।
राह चलते दिखे बैल।‘
नींद रानी ने सौंपा हार।
राजा, टिड्डे पर क्यों यह मार?
जैसे ही टिड्डा जोशी ने यह कहा वैसे ही राजा को भरोसा हो गया कि जोशी महाराज तो सममुच सच्चे जोशी ही हैं। राजा ने अपनी मुट्ठी में रखे टिड्डे को उड़ा दिया और कहा, "वाह जोशीजी, वाह! आपने तो कमाल कर दिया।"
टिड्डे जोशी मन-ही-मन समझ गए कि इधर मरते-मरते बचे, और उधर सच्चे जोशी बने!
फिर तो राजा ने जोशीजी को भारी इनाम दिया और उनको सम्मान के साथ बिदा किया।

मगर और सियार

एक थी नदी। उसमें एक मगर रहता था। एक बार गरमियों में नदी का पानी बिलकुल सूख गया। पानी की एक बूंद भी न बची। मगर की जान निकलने लगी। वह न हिल-डुल सकता था और न चल ही सकता था।
नदी से दूर एक पोखरा था। पोखरे में थोड़ा पानी था, लेकिन मगर वहां जाये कैसे? तभी उधर से एक किसान निकला। मगर ने कहा, "ओ, किसान भैया! मुझे कहीं पानी में पहुंचा दो। भगवान तुम्हारा भला करेगा।"
किसान बोला, "पहुंचा तो दूं, पर पानी में पहुंचा देने के बाद तुम मुझे पकड़ तो नहीं लोगे?"
मगर ने कहा, "नहीं, मैं तुमको कैसे पकड़ूगा?"
किसान ने मगर को उठा लिया। वह उसे पोखरे के पास ले गया,
और फिर उसको पानी में छोड़ दिया। पानी में पहुंचते ही मगर पानी पीने लगा। किसान खड़ा-खड़ा देखता रहा। तभी मगर ने मुड़कर किसान का पैर पकड़ लिया।
किसान बोला, "तुमने कहा था कि तुम मुझको नहीं खाओगे? अब तुमने तुझको क्यों पकड़ा है?"
मगर ने कहा, "सुनो, मैं तो तुमको नहीं पकड़ता, लेकिन मुझे इतनी जबरदस्त भूख लगी है कि अगर मैंने तुमको न खाया, तो मर जाऊंगा। इससे तो तुम्हारी सारी मेहनत ही बेमतलब हो जायगी? मैं तो आठ दिन का भूखा हूं।"
मगर ने किसान का पैर पानी में खींचना शुरू किया।
किसान बोला, "ज़रा ठहरो। हम किसी से इसका न्याय करा लें।"
मगर ने सोचा—‘अच्छी बात है, थोड़ी देर के लिए यह तमाशा भी देख लें। उसने किसान का पैर मजबूती के साथ पकड़ लिया और कहा, "हां, पूछ लो। जिससे भी चाहो, उससे पूछ लो।"
उधर से एक बूढ़ी गाय निकली। किसान ने उसकी सारी बात सुनाई और पूछा, "बहन! तुम्हीं कहा, यह मगर मुझको खाना चाहता है। क्या इसका यह काम ठीक कहा जायगा?"
गाय ने कहा, "मगर! खा लो तुम इस किसान को। इसकी तो जात ही बुरी है। जबतक हम दूध देते हैं, ये लोग हमें पालते हैं। जब हम बूढ़े हो जाते हैं, तो हमको बाहर निकाल देते हैं। क्यों भई किसान! मैं ठीक कह रही हूं न?" मगर किसान के पैर को ज़ोर से खींचने लगा।
किसान बोला, "ज़रा ठहरो। हम और किसी से पूछ देखें।" वहां एक लंगड़ा घोड़ा चर रहा था।
किसान ने घोड़े को सारी बात सुना दी और पूछा, "कहो, भैया,क्या यह अच्छा है?"
घोड़े ने कहा, "मेहरबान! अच्छा नहीं, तो क्या बुरा है? जरा मेरी तरफ देखिए। मेरे मालिक ने इतने सालों तक मुझसे काम लिया और जब मैं लंकड़ा हो गया, तो मुझे घर से बाहर निकाल दिया? आदमी की तो जात ही ऐसी है। मगर भैया! तुम इसे खुशी-खुशी खा जाओ!"
मगर किसान के पैर को जोर-जोर से खींचने लगा। किसान ने कहा, "ज़रा ठहरो। अब एक किसी और से पूछ लें। फिर तुम मुझको खा लेना।"
उसी समय उधर से एक सियार निकला। किसान ने कहा, "सियार भैया! ज़रा हमारे इस झगड़े का फैसला तो कर जाओ।"
सियारन ने दूर से ही पूछा, "क्या झगड़ा है भाई?"
किसान ने सारी बात कह दी। सियार फौरन समझ गया कि मगर किसान को खा जाना चाहता है। सियार ने पूछा, "तो किसान भैया, तुम वहां उस सूखी जगह में पड़े थे?"
मगर बोला, "नहीं, वहां तो मैं पड़ा था।"
सियार ने कहा, "समझा-समझा,तुम पड़े थे। मैं तो ठीक से समझ नहीं पाया था। अच्छा, तो फिर क्या हुआ?"
किसान ने बात आगे बढ़ाई। सियार बोला, "भैया, क्या करूं? मेरी अकल काम नहीं कर रही है। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। सारी बात एक बार फिर समझाकर कहा। हां, तो आगे क्या हुआ?"
मगर चिढ़कर बोला, "सुनो, मैं कहता हूं। यह देखो, मैं वहां पड़ा था।"
सियार अपना सिर खुजलाते-खुलजाते बोला, "कहां? किस तरह?" मगर ताव में आ गया। उसने किसान का पैर छोड़ दिया और वह दिखाने लगा कि वहां, किस तरह पड़ा हुआ था।
सियार ने फौरन ही किसान को इशारा किया कि भाग जाओ! किसान
भागा। भागते-भागते सियार ने कहा, "मगर भैया! अब मैं समझ गया कि तुम कहां, किस तरह पड़े थे। अब तुम बताओ कि बाद में क्या हुआ?"
मगर छटपटाता हुआ पड़ा रहा गया और सियार पर दांत पीसने लगा। वह मन-ही-मन बोला, "कभी मौका मिला, तो मैं इस सियार की चालबाजी को देख लूंगा। आज इसने मुझे ठग लिया है।
कुछ दिनों के बाद चौमासा शुरू हुआ। नदी में जोरों की बाढ़ आई। मगर नदी में जाकर रहने लगा। एक दिन सियार नदी पर पानी पीने आ रहा था। मगर ने उसे दूर से देख लिया। मगर किनारे पर पहुंचा और छिपकर दलदल में बैठ गया। न हिला, न डुला। सिर्फ अपनी दो आंखें खुली रखीं। सियार ने मगर की आंखें देख लीं। वह वहां से कुछ दूर जाकर खड़ा रहा और हंसकर बोला:
नदी-नाले के दल-दल को दो आंखें मिलीं।
नदी-नाले के दल-दल को दो आंखें मिलीं।
सुनकर मगर ने एक आंख मींच ली। आंखें मटकाते हुए सियार ने कहा:
नदी-नाले के दलदल की एक आंख वची।
नदी-नाले के दलदल की एक आंख बची।
सुनकर मगर ने दोनों आंखें मींच लीं। सियार बोला: ओह् हो!
नदी-नाले के दलदल की दोनों आंख भी गईं।
नदी नाले के दलदल की दोनों आंखें भी गईं।
मगर समझ गया कि सियार ने उसको पहचान लिया है।
उसने कहा, "कोई बात नहीं। आगे कभी देखेंगे।"
बहुत दिन बोत गए। सियार कहीं मिला नहीं।
एक बार बहुत पास पहुंचकर सियार नदी में पानी पी रहा था। तभी सपाटे के साथ मगर उसके पास पहुंचा और उसने सियार की टांग पकड़ ली।
सियार ने सोचा—‘अब तो बेमौत मर जाऊंगा। इस मगर के शिकंजे में फंस गया।’
लेकिन वह ज़रा भी घबराया नहीं। उलटे, ज़ोर से ठहाका मारकर हंसा और बोला, "अरे भैया! मेरा पैर पकड़ो न? पुल का यह खम्भा किसलिए पकड़ लिया है।? मेरा पैर तो यह रहा।" मगर न महसूस किया कि सचमूच उससे भूल हो गई। उसने फौरन ही सियार का पैर छोड़ दिया खम्भे को कचकचाकर पकड़ लिया।
पैर छूटते ही सियार भागा। भागते-भागते सियार ने कहा, "मगर भैया, वह मेरा पैर नहीं है। वह तो खम्भा है। देखो मेरा पैर तो यह रहा!"
फिर सियार ने उस नदी पर पानी पीना बन्द कर दिया। मगर ने बहुत राह देखी। दिन-रात पहरा दिया। पर सियार नदी पर क्यों आने लगा? अब क्या किया जाये?
नदी-किनारे एक अमराई थी। वहां सियार अपने साथियों को लेकर रोज आम खाने पहुंचता था। मगर ने सोचा कि अब मैं अमराई में जाकर छिपूं। एक दिन वह डाल पर पके आमों के बड़े-से ढेर में छिपकर बैठा। सियार को आता देखकर उसने अपनी दोनों आखें खुली रखीं।
हमेशा की तरह सियार अपने साथियों को लेकर अमराई में पहुंचा। फौरन ही उसकी निगाह दो आंखों पर पड़ीं उसने चिल्लाकर कहा, "भाईयों, सुना! यह बड़ा ढेर सरकार का है। इसके पास कोई जाना मत। सब इस दूसरे ढेर के आम खाना।"
इस बात भी सियार पकड़ में नहीं आया। मगर ने सोचा कि अब तो मैं इस सियार की गुफा में ही जाकर बैठ जाऊं। वहां तो यह पकड़ में आ ही जायगा।
एक बार सियार को बाहर जाते देखकर मगर उसकी गुफा में जा बैठा। सारी रात जंगल में घूमने-भटकने के बाद जब सबेरा होने को आया, तो सियार
अपनी गुफा में लौटा। गुफा में घुसते ही उसने वहां मगर की दो आंखें देखीं। सियार ने कहा, "वाह-वाह, आज तो मेरे घर में दो दीए जल रहे हैं।" मगर ने अपनी एक आंख बन्द कर ली। सियार बोला, "अरे रे, एक दीया बुझ गया।" मगर ने अपनी दोनों आंखें बन्द कर लीं।
सियार ने कहा, "वाह, अब तो दोनों ही दीये बुझ गए। अब इस अंधेरी गुफा में कौन जाय! किसी दूसरी गुफा में चला जाऊं।" सियार चला गया। आख़िर मगर उकताकर उठा और वापस नदी में पहुंच गया।
सियार फिर कभी मगर की पकड़ में नहीं आया।

लोभी दरजी

एक था दरजी, एक थी दरजिन। दोनों लोभी थे। उनके घर कोई मेहमान आता, तो उन्हें लगता कि कोई आफत आ गई। एक बार उनके घर दो मेहमान आए। दरजी के मन में फिकर पैदा हो गई। उसने सोचा कि ऐसी कोई तरकीब चाहिए कि ये मेहमान यहां से चले जायें।
दरजी ने घर के अन्दर जाकर दरजिन से कहा, "सुनो, जब मैं तुमको गालियां दूं, तो जवाब में तुम भी मुझे गालियां देना। और जब मैं अपना गज लेकर तुम्हें मारने दौड़ू तो तुम आटे वाली मटकी लेकर घर के बाहर निकल जाना। मैं तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ूगा। मेहमान समझ जायेंगे कि इस घर में झगड़ा है, और वे वापस चले जायंगे।"
दरजिन बोली, "अच्छी बात है।"
कुछ देर के बाद दरजी दुकान में बैठा-बैठा दरजिन को गालियां देने लगा। जवाब में दरजिन ने भी गालियां दीं। दरजी गज लेकर दौड़ा। दरजिन ने आटे वाली मटकी उठाई और भाग खड़ी हुई।

मेहमान सोचने लगे, "लगता है यह दरजी लोभी है। यह हमको खिलाना नहीं चाहता, इसलिए यह सारा नाटक कर रहा है। लेकिन हम इसे छोड़ेंगे नहीं। चलो, हम पहली मंजिल पर चलें और वहां जाकर-सो जाएं। मेहमान ऊपर जाकर सो गए। यह मानकर कि मेहमान चले गए होंगे, कुछ देर के बाद दरजी और दरजिन दोनों घर लौटे। मेहमानों को घर में न देखकर दरजी बहुत खुश हुआ और बोला, "अच्छा हुआ बला टली।"
फिर दरजी और दरजिन दोनों एक-दूसरे की तारीफ़ करने लगे।
दरजी बोला, "मैं कितना होशियार हूं कि गज लेकर दौड़ा!"
दरजिन बोली, "मैं कितनी फुरतीली हूं कि मटकी लेकर भागी।"
मेहमानों ने बात सुनी, तो वे ऊपर से ही बोले, "और हम कितने चतुर हैं कि ऊपर आराम से सोए हैं।"
सुनकर दरजी-दरजिन दोनों खिसिया गए। उन्होंने मेहमानों को नीचे बुला लिया और अच्छी तरह खिला-पिलाकर बिदा किया।

नानी के घर जाने दो

एक मेमना था। एक बार वह अपनी नानी के घर जाने के लिए निकला। रास्ते में उसे एक सियार मिला। सियार ने मेमने से कहा, "मैं तो तुझे खा लेता हूं।"
मेमना बोला:
नानी के घर जाने दो।
मोटा-ताजा बनने दो।
फिर खाना चाहो,खा लेना।
सियार ने कहा, "अच्छी बात है।"
मेमना कुछ ही दूर गया कि रास्ते में उसे एक गिद्ध मिला।
गिद्ध ने कहा, "मैं तो तुझे खा लेता हूं।"
मेमना बोला:
नानी के घर जाने दो।
मोटा-ताजा बनने दो।
फिर खाना चाहो,खा लेना।
गिद्ध ने कहा, "अच्छी बात है।"
मेमना आगे बढ़ा। रास्ते में उसे एक बाघ मिला।
बाघ ने कहा, "मैं तुझे खा लेता हूं।"
मेमना बोला:
नानी के घर जाने दो।
मोटा-ताजा बनने दो।
फिर खाना चाहो,खा लेना।
बाघ ने कहा, "अच्छी बात है।"
मेमना आगे बढ़ा, तो उसे रास्ते में भेड़िया, गरुड़, कुत्ता आदि कई जानवर मिले। मेमने ने सबको एक ही बात कही:
नानी के घर जाने दो।
मोटा-ताजा बनने दो।
फिर खाना चाहो,खा लेना।
इस तरह सबसे बचता हुआ वह अपनी नानी के पास पहुंचा, और उससे नानी से कहा, "नानीजी! मुझको खूब खिलाओ-पिलाओ। मैंने जानवरों को वचन दिया है, इसलिए वे सब मुझे खा जाने वाले हैं।"
मेमने ने खूब खाया, खूब पीया और वह मोटा-ताजा बन गया। फिर मेमने ने अपनी नानी से से कहा, "नानीजी! मेरे लिए चमड़े का एक ढोल बनवा दो। मैं उसमें बैठकर जाऊंगा,तो कोई मुझे पहचानेगा नहीं और इसलिए कोई मुझको खायेगा भी नहीं।"
नानी ने मेमने के लिए एक अच्छा-सा ढोल बनवा दिया। ढोल के अन्दर बढ़िया रूई बिछा दी। फिर मेमना ढोल के अन्दर बैठ गया। ढोल को एक जोर का धक्का मारा तो वह लुढ़कता-लुढ़कता चल पड़ा।
रास्ते में गरुड़ मिला। गरुड़ पूछा, "भैया! मेमने को देखा है?"
ढोल के अन्दर बैठा मेमना बोला:
कौन-सा मेमना? कौन हो तुम?
चल रे ढोल, ढमाक ढुम।
यों जवाब देता-देता मेमना बहुत दूर निकल गया। अन्त में सियार मिला। सियार ने पूछा, "कहीं मेमने को देखा है?"
अन्दर से मेमना बोला:
कौन-सा मेमना? कौन हो तुम?
चल रे ढोल, ढमाक ढुम।
सियार ने सोचा, "अरे, लगता है कि मेमना तो इसके अन्दर बैठा है। चलूं इस ढोल को फोड़ डालूं और मेमने को खा लूं।" लेकिन इसी बीच मेमने का घर आ गया, और मेमना अपने घर में घुस गया।
सियार दरवाजे के पास खड़ा-खड़ा देखता रह गया।

हंस और कौआ

एक सरोबर था, समन्दर जैसा बड़ा। उसके किनारे बरगद का एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पर एक कौआ रहता था।
कौआ तो काजल की तरह काला था, काना था और लंगड़ा था। कौआ कांव-कांव बोला करता था। जब वह उड़ता था, तो लगता था कि अब गिरा, अब गिरा। फिर भी उसके घमण्ड की तो कोई सीमा नहीं थी। वह मानता था कि उसकी तरह तो कोई उड़ही नहीं सकता, न कोई उसकी तरह बोल ही सकता है। कौआ लाल-बुझक्कड़ बनकर बैठता और सब कौओं को डराता रहता।
एक बार वहां कुछ हंस आए। आकर बरगद पर रात भर रहे। सबेरा होने पर कौए ने हंसों को देखा। कौआ गहरे सोच में पड़ गया—‘भला ये कौन होंगे? ये नए प्राणी कहां के हैं?" कौए ने अपनी जिन्दगी में हंस कभी देखे होते तो वह उनको पहचान पाता? उसने अपना एक पंख घुमाया, एक टांग उठाई और रौब-भरी आवाज़ में पूछा, "आप सब कौन हैं? यहां क्यों आए हैं? बिना पूछे यहां क्यों बैठे हैं?"
हंस ने कहा, "भैया! हम हंस हैं। घूमते-फिरते यहां आ गए हैं। थोड़ा आराम करने के बाद आगे बढ़ जायेंगे।"
कौआ बोला, "सो तो मैंने सब जान लिया, लेकिन अब यह बताओ कि आप कुछ उड़ना भी जानते हैं या नहीं? या अपना शरीर योंही इतना बड़ा बना लिया है।"
हंस ने कहा, "हां, हां उड़ना तो जानते हैं, और काफी उड़ भी लेते हैं।"
कौए ने पूछा, "आप कौन-कौन-सी उड़ानें जानते हैं? अपने राम को तो इक्कावन उड़ाने आती हैं।"
हंस ने कहा, "इक्कावन तो नहीं, लेकिन एकाध उड़ान हम भी उड़ लेते हैं।"
कौआ बोला, "ओहो, एक ही उड़ान! अरे, इसमें कौन-सी बड़ी बात है?"
हंस ने कहा, "हम तो बस इतना ही जानते हैं।"
कौआ बोला, "कौए की बराबरी कभी किसी ने की है? कहां इक्कावन, और कहां एक? कौआ तो कौआ है ही, और हंस हंस हैं!"
हंस सुनते रहे। वे मन-ही-मन हंसते भी रहे। लेकिन उन हंसों में एक नौजवान हंस भी था। उसके रहा नहीं गया। उसका खून उबल उठा। वह बोला, "कौए भैया! अब तो हद हो गई। बेकार की बकवास क्यों करते हो? आओ हम कुछ दूर उड़ लें। लेकिन पहले तुम हमें अपनी इक्कावन उड़ानें तो दिखा दो! फिर हम भी देखेंगे, और हमें पता चलेगा कि कैसे कौआ, कौआ है, और हंस, हंस हैं।"
हंस बोला, "लो देखो।"
हंस ने कहा, "दिखाओ।"
कौए ने अपनी उड़ाने दिखाना शुरू किया। एक मिनट के लिए वह ऊपर उड़ा और बोला, "यह हुई एक उड़ान।" फिर नीचे आया और बोला, "यह दूसरी उड़ान।" फिर पत्ते-पत्ते पर उड़कर बैठा और बोला , "यह तीसरी उड़ान।" बाद में एक पैर से दाहिनी तरफ उड़ा और बोला, "यह चौथी उड़ान।" फिर बाईं तरफ उड़ा और बोला, "यह पांचवीं उड़ान।"
कौआ अपनी ऐसी उड़ानें दिखाता गया। पांच, सात, पन्द्रह बीस, पच्चीस, पचास और इक्कावन उड़ानें उसने दिखा दीं। हंस तो टकटकी लगाकर देखते और मन-ही-मन हंसते रहे।
इक्कावन उड़ानें पूरी करने के बाद कौआ मस्कराते-मुस्कराते आया और बोला, "कहिए, कैसी रही ये उड़ानें!
हंसो ने कहा, "उड़ानें तो ग़जब की थीं! लेकिन अब आप हमारी भी एक उड़ान देखेंगे न ?"
कौआ बोला, "अरे, एक उड़ान को क्या देखना है! यों पंख फड़फड़ाए, और यों कुछ उड़ लिए, इसमें भला देखना क्या है?"
हंसों ने कहा, "बात तो ठीक है, लेकिन इस एक ही उड़ान में हमारे साथ कुछ दूर उड़ाना हो, तो चली। उड़कर देख लो। ज़रा। तुम्हें पता तो चलेगा कि यह एक उड़ाने भी कैसी होती है?"
कौआ बोला, "चलो, मैं तो तैयार हूं। इसमें कौन, कोई शेर मारना है।"
हंस ने कहा, "लेकिन आपको साथ ही में रहना होगा। आप साथ रहेंगे, तभी तो अच्छी तरह देख सकेंगे न?"
कौआ बोला, "साथ की क्या बात है? मैं तो आगे उड़ूंगा। आप और क्या चाहते हैं?"
इतना कहकर कौए ने फटाफट पंख फड़फड़ाए और उड़ना शुरू कर दिया। बिलकुल धीरे-धीरे पंख फड़फड़ाता हुआ हंस भी पीछे-पीछे उड़ता रहा। इस बीच कौआ पीछे को मुड़ा और बोला, "कहिए! आपकी यही एक उड़ान है न? या और कुछ दिखाना बाक़ी है?"
हंस ने कहा, "भैया, थोड़े उड़ते चलो, उड़ते चला, अभी आपको पता चल जायगा।"
कौआ बोला, "हंस भैया! आप पीछे-पीछे क्यों आ रहे हैं? इत्
धीमी चाल से क्यों उड़ रहे हैं? लगता है, आप उड़ने में बहुत ही कच्चे हैं!"
हंस ने कहा, "ज़रा उड़ते रहिए। धीरे-धीरे उड़ना ही ठीक है।"
कौए के पैरों में अभी जोर बाक़ी था। कौआ आगे-आगे और हंस पीछे-पीछे उड़ रहा था।
कौआ बोला, "कहो, भैया! यही उड़ान दिखानी थी न? चलो, अब हम लौट चलें। तुम चलें। तुम थक गए होगे। इस उड़ान में कोई दम नहीं है।"
हंस ने कहा, "ज़रा आगे तो उड़िए। अभी उड़ान दिखाना तो बाक़ी है।"
कौआ आगे उड़ने लगा। लेकिन अब वह थक चुका था। अब तक आगे था, पर अब पीछे रह गया।
हंस ने पूछा, "कौए भैया! पीछे क्यों रह गए! उड़ान तो अभी बाक़ी ही है।"
कौआ बोला, "तुम उड़ते चलो, मैं देखता आ रहा हूं और उड़ भी रहा हूं।" लेकिन कौए भैया अब ढीले पड़ते जा रहे थे। उनमें अब उड़ने की ताक़त नहीं रही थी। उसके पंख अब पानी छूने लगे थे।
हंस ने पूछा, "कौए भैया! कहिए, पानी को चोंच छूआकर उड़ने का यह कौन-सा तरीका है?"
कौआ क्या जवाब देता? हंस आगे उड़ता चला, ओर कौआ पीछे रहकर पानी में डूबकियां खाने लगा।
हंस ने कहा, "कौए भैया! अभी मेरी उड़ान तो देखनी बाकी है। आप थक कैसे गए?"
पानी पीते-पीते भी कौआ आगे उड़ने की कोशिश कर रहा था। कुछ दूर और उड़ने के बाद वह पानी में गिर पड़ा।
हंस ने पूछा, "कौए भैया! आपकी यह कौन-सी उड़ान है? बावनवीं या तिरपनवीं?"
लेकिन कौआ तो पानी में डुबकियां खाने लगा था और आखिरी सांस
लेने की तैयारी कर रहा था। हंस को दया आ गई। वह फुरती से कौए के पास पहुंचा और कौए को पानी में से निकालकर अपनी पीठ पर बैठा लिया। फिर उसे लेकर ऊपर आसमान की ओर उड़ चला।
कौआ बोला, "ओ भैया! यह तुम क्या कर रहे हो? मुझे तो चक्कर आ रहे हैं। तुम कहां जा रहे हो? नीचे उतरो, नीचे उतरो।"
कौआ थर-थर कांप रहा था।
हंस ने कहा, "अरे जरा देखो तो सही! मैं तुमको अपनी यह एक उड़ान दिखा रहा हूं।"
सुनकर कौआ खिसिया गया। उसको अपनी बेवकूफी का पता चल गया। वह गिड़गिड़ाने लगा। यह देखकर हंस नीचे उतरा औरा कौए को बरगद की डाल पर बैठ दिया। तब कौए को लगा कि हां, अब वह जी गया।
लेकिन उस दिन से कौआ समझ गया कि उसकी बिसात कितनी है।

खड़बड़-खड़बड़ खोदत है

एक ब्राह्मण था। बड़ा ही ग़रीब था। एक बार उसकी घरवाली ने उससे कहा, "अच्छा हो, आप कोई काम-धन्धा शुरू करें। अब तो बच्चों को कभी-कभी भूखे सोना पड़ता है।"
ब्राह्मण बोला, "लेकिन मैं करूं क्या? मुझे तो कुछ भी नहीं आता। कोई रास्ता सुझाओ।"
ब्राह्मणी पढ़ी-लिखी और समझदार थी। उसने कहा, "सुनिए, यह एक श्लोक में आपको रटवाये देती हूं। आप इसे किसी राजा को सुनायंगे, तो सुन सुनकर वह आपको कुछ पैसा जरूर देंगे। श्लोक भूलिए मत।" ब्राह्मणी ने ब्राह्मण को श्लोक याद करवा दिया।
ब्राह्मण श्लोक बोलता-बोलता दूर की यात्रा पर निकल पड़ा। रास्ते में नदी मिली। नहाने-धोने और खाने-पीने के लिए ब्राह्मण वहां रूक गया। जब उसका मन नहाने-धोने में लगा,तो वह अपनी घरवाली का सिखाया हुआ श्लोक भूल गया। वह श्लोक को याद करने लगा, पर कुछ भी याद नहीं आया। इसी बीच उसने देखा कि एक जल-मुर्गी नदी-किनारे कुछ खोद रही है। श्लोक को याद करते-करते जब उस जलमुर्गी को खोदते देखा, तो उसके मन में एक नया चरण उजागर हुआ। वह बोलने लगा:
खड़बड़-खड़बड़ खोदत है।
जब ब्राह्मण ‘खड़बड़-खड़बड़ खोदत है’ बोलने लगा, तो उसकी आवाज सुनकर जलमुर्गी अपनी गरदन लम्बी करके देखने लगी। यह देखकर ब्राह्मण के मन में दूसरा चरण उभरा। वह बोला:
लम्बी गरदन देखत है।
ब्राह्मण जब दूसरी बार बोला, तो जलमुर्गी मारे डर के चुपचाप छिप गई। यह देखकर ब्राह्मण के मन में तीसरा चरण जन्मा। उसने कहा:
उकड़ू मुकडू बैठत है।
ब्राह्मण की आवाज़ सुनकर जलमुर्गी तेजी से दौड़ी और पानी में कूद पड़ी। इस दूश्य को देखकर ब्राह्मण के मन में चौथा चरण उठा। वह बोला:
सरसर सरसर दौड़त है।
ब्राह्मण पहला श्लोक तो भूल चुका था, पर अब उसे यह नया श्लोक याद हो गया था। यह मानकर कि यही श्लोक उसे सिखाया गया है, इस श्लोक को दोहराता वह आगे बढ़ा:
खड़बड़-खड़बड़ खोदत है।
लम्बी गरदन देखत है।
उकड़ू मुकड़ू बैठत है।
सरसर सरसर दौड़त है।
चलते चलते वह एक नगर में पहुंचा। वह नगर के राजा के दरबार में गया और सभा में जाकर उसने अपना श्लोक सुना दिया।
राजा ने यह विचित्र और नया श्लोक लिख लिया। श्लोक का अर्थ न राजा की समझ में आया, और न दरबारियों में से ही किसी की समझ में आया। यह देखकर राजा ने ब्राह्मण राजा ने ब्राह्मण से कहा, "महाराज! दो-चार दिन के बाद आप फिर दरबार में आइए। अभी हमारे मेहमान-घर में खा-पीकर आराम से रहिए। अम आपको आपके इस श्लोक का जवाब देंगे।"
राजा ने ब्राह्मण का यह श्लोक अपने सोने के कमरे में लिखवा लिया। राजा श्लोक का अर्थ लगाने के लिए रोज रात बारह बजे जागता और रात के सुनसान में अकेला बैठकर श्लोक का एक-एक चरण बोलता और उसके अर्थ पर विचार करता रहता।
एक रात की बात है। चार चोर राजा के महल में चोरी करने आए। राजमहल के पास पहुंचकर वहां से खोदने लगे। रात के ठीक बारह बजे थे। उस समय राजा श्लोक के पहले चरण के बारे में सोच रहा था। उधर चोर खोदने के काम में लगे थे। राजा की बात उनके कानों तक पहुंची:
खड़बड़-खड़बड़ खोदत है।
चोरों ने सोचा कि राजा जाग रहा है और खोदने की आवाज सुन रहा है। इसलिए चोरों में से एक चोर राजमहल की खिड़की पर चढ़ा और उस बात का निश्चय करने के लिए कि राजा जाग रहा है या नहीं, वह लम्बी गरदन करके कमरे में देखने लगा। ठीक इसी समय राजा ने दूसरा चरण दोहराया:
लम्बी गरदन देखत है।
यह सुनकर खिड़की में से देखने वाले चोर को विश्वास हो गया कि राजा जाग रहा है। यही नहीं उसने उसकी लम्बी गरदन को भी देख लिया है। इसलिए वह तेजी से नीचे उतर गया और उसने अपने साथियों को इशारे से कहा कि सब चुपचाप बैठ जायं। सब सिमटकर चुपचाप बैठ गए। इसी बीच राजा ने तीसरा चरण दोहराया:
उकड़ू-मुकड़ू बैठत है।
सुनकर चोरों ने सोचा कि अब भागना चाहिए। राजा को पता चल गया है और वह हमें देख भी रहा है। अब हम जरूर पकड़े जायेंगे और मारे भी जायंगे। सब डरकर एक साथ दौड़े। इतने में राजा ने चौथा चरण दोहराया:


ये चोर तो राजा के दरबान ही थे। ये ही राजमहल के चौकीदार भी थे। इनकी नीयत खराब हो गई थी, इसलिए चोरी करने निकल पड़े। चोर तो भागकर अपने घर पहुंच गए। लेकिन जब दूसरे दिन दरबार गए तो वे सलामी के लिए राजा के सामने हाजिर हुए। उनको पक्का भरोसा हो गया था कि राजा सबकुछ जान गए हैं और उन्होंने उनको पहचान भी लिया है।
जब दरबान सलामी के लिए नहीं आए, तो राजा ने पूछा, "आज दरबान सलामी के लिए क्यों नहीं आए? उनके घर कोई बीमार तो नहीं है?" राजा ने दूसरे सिपाहियों से कहा कि वे दरबानों को बुला लाएं। दरबान आए तो राजा को सलाम करके खड़े हो गए।
राजा ने पूछा, "कहिए, आज आप लोग दरबार में हाजिर क्यों नहीं हुए?"
दरबान तो थरथर कांपने लगे। उनको भरोसा था ही कि राजा सारी बात जान चुके हैं। यह सोचकर कि अगर झूठ बोलेंगे, तो ज्यादा सजा भुगतनी होगी—उन्होंने रातवाली सारी बात सही-सही सुना दी।
बात सुनकर राजा को तो बहुत ही अचम्भा हुआ। उसने सोचा कि यह सारा प्रताप तो ब्राह्मण के उस श्लोक का ही है। श्लोक तो बड़ा ही चमत्कारी सिद्ध हुआ! राजा ब्राह्मण पर बहुत प्रसन्न हो गया। उसने ब्राह्मण को बुलाया और भरपूर इनाम देकर विदा किया।

कुत्ता और चीता

एक था कुत्ता। एक था चीता। दोनों में दोस्ती हो गई। कुत्ते का अपना घर नहीं था, इसलिए वह चीते के घर में रहता था। कुत्ता चीते के घर रहता था, इसलिए चीता उससे काम करवाता था और उसे नौकर की तरह रखता था, चौमासा आया। चीते ने कहा, "कुत्ते भैया! आओ हम बांबिया देखने चलें। देखें कि इस बार बांबियों में कितनी और कैसी-कैसी चीटियां उमड़ी हैं।"
दोनों बांबियों के पास पहुंचे। देखा कि वहां तो अनगिनत चीटियों और कीड़ों-मकोड़ों की कतारें लगी थीं। दोनों ने अंजली भर-भरकर चीटियां और कीड़े-मकोड़े इकट्ठा कर लिए और उनको घर ले आए। चीते की घरवाली ने इनकी बढ़िया मिठाई बनाई और सबने जी भर खाई। बची हुई मिठाई सुखा ली गई। खा-पीकर दोनों दोस्त आराम करने बैठे। चीते ने कहा, "कुत्ते भैया! यह सुखाई हुई मिठाई मुझे अपनी ससुराल पहुंचानी है। तुम इसकी चार छोटी-छोटी पोटलियां तैयार कर लो।"
कुत्ते ने चार छोटी-छोटी पोटलियां बांध लीं। ठाठ-बाट के साथ चीता तैयार हो गया। हाथ में सारंगी ले ली और वह गाता-बजाता ससुराल चल पड़ा। कुत्ते से कहा, "तुम ये पोटलियां उठा लो।"
आगे-आगे चीता और पीछे-पीछे कुत्ता। रास्ते में जो भी मिलता, सो पूछता, "चीते भैया, कहां जा रहे हो? कुत्ते भैया, कहां जा रहे हो?"
चीता कहता, "मैं अपनी ससुराल जा रहा हूं।"
कोई कहता, "चीते भैया! ज़रा अपनी यह सारंगी तो बजाओ।" और चीता सारंगी बजाकर गाने लगता:
कुत्ते भैया के सिर पर बहू की सिरनी।
कुत्ते भैया के सिर पर बहू की सिरनी।
चीता तो मस्त होकर गाता, और इधर कुत्ते का जी जलता रहता। आखिर कुत्ते भैया को गुस्सा आ गया। उसने कहा, "चीते भैया! मैं यहां थोड़ी देर के लिए रुकता हूं। आप आगे चलिए। मैं अभी आया।" चीते भैया आगे बढ़ गए।
कुत्ते ने पोटलियां खोलीं ओर सारी मिठाई खा डाली। फिर घास भरकर पोटलियां बना लीं और कदम बढ़ाते हुए चीते भैया के पास पहुंचकर उसके साथ-साथ चलने लगा। कुछ देरन के बाद कुत्ते ने कहा, "चीते भैया! अपनी यह सारंगी मुझे दे दो? मन होता है कि मैं भी थोड़ा-सा गा लूं और बजा लूं।" कुत्ते ने सारंगी हाथ में लेकर गाना शुरू किया:
अपने ससुर के लिए,
मैं घास-पान लाया हूं।
अपने ससुर के लिए, मैं घास-पान लाया हूं।
चीता बोला, "वाह कुत्ते भैया! आपका गाना तो बहुत बढ़िया रहा!"
कुत्ते ने कहा, "भैया, यह तो तुम्हारी ही मेहरबानी है कि मैं इतना अच्छा गा-बजा लेता हूं। मैंने यह सब तुम्हीं से तो सीखा है न?"
चीता गाते-बजाते अपनी ससुराल पहुंच। ससुराल वालों ने सबके कुशल समाचार पूछे। चीते ने भी अपनी तरफ से सबकी राज़ी-खुशी पूछी। चीता तो जमाई बनकर आया था। उसका अपना अलग ठाठ था। वहां कुत्ते को भला कौन पूछता? सास ने जमाई को बड़े प्रेम के साथ हुक्का दिया। चीता बैठा-बैठा हुक्का गुड़गुड़ाने लगा। कुत्ते को किसी ने पूछा तक नहीं। कुछ देर बाद सबकी नजर बचाकर कुत्ता बाहर निकल आया और दौड़ते हुए अपने घर की तरफ चल पड़ा।
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जमाई ने हंसते-हंसते कहा, "आप सबके लिए मैं यह मिठाई लाया हूं। बहुत बढ़िया है। सास ने खुशी-खुशी पोटली खोली। ससुर भी आंख गड़ाकर देखते रहे। जब पोटली खुली, तो देखा कि उसमें मिठाई के बदले घास भरी है।
घास देखकर चीता आग-बबूला हो उठा और कुत्ते को खोजने लगा। लेकिन कुत्ता तो बहुत पहले ही नौ-दो ग्यारह हो चुका था। चीते ने बाहर निकलकर एक सयाने आदमी से पूछा, "बाबा, कुत्ते को कैसे पकड़ा जाय?"
उसने कहा, "ढोल बजाकर नाचना शुरू करो, तो नाच देखने के लिए कुत्ता भी आ जायगा।" चीते ने ढोल बजाकर नाच शुरू किया। गाय, भैंस, भेड़ सारे जानवर इकट्ठा हो गए। लेकिन कुत्ते के मन में तो डर था। उसने सोचा-अगर मैं गया, तो चीता मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा।
दूसरा दिन हुआ। भेड़ ने कुत्ते से नाच की बात कही। कुत्ते के मन में नाच देखने की इच्छा बढ़ गयी। लेकिन नाच देखे कैसे ? भेड़ ने कहा, "मैं तुमको अपनी पूंछ में छिपाकर ले चलूंगी। चीता तुमको कैसे देख सकेगा?" तीसरे दिन फिर ढोल बजने लगे और नाच शुरू हुआ। भेड़ की पूंछ में छिपकर कुत्ता नाच देखने चला। चीता तो कुत्ते को चारों ओर खोजता ही रहता था, पर कुत्ता कहीं दिखायी नहीं पड़ता था। इससे चीता निराश हो गया।
अगली रात को फिर ढोल बजवाए और नाच शुरू करवाया। भेड़ की पूंछ में छिपकर कुत्ता फिर नाच देखने पहुंचा। ढोल जोर-जोर से बजने लगा। नाच का जोर भी खूब बढ़ गया। सब जानवर अपनी पूंछें हिला-हिलाकर नाचने लगे।
भेड़ की पूंछ में तो कुत्ता छिपा था। भेड़ भला कैसे नाचती, और कैसे आपनी पूंछ हिलाती? लेकिन नाच का जोर इतना बढ़ा और ढोल भी इतने जोर-जोर से बजने लगा कि भेड़ से रहा नहीं गया। वह भी अपनी पूंछ हिला-हिलाकर नाचने लगी। कुत्ता पूंछ में से निकलकर बाहर आ गिरा। कुत्ते ने सोचा, ‘अब मेरे!’ वह फौरन ही उठकर भागा और एक आदमी की आड़ में छिप गया। चीते ने गुस्से में भेड़ को मार डाला और एक आदमी फिर वह कुत्ते को मारने जो दौड़ा तो आदमी ने अपना लाठी तान ली।
चीते ने कहा, "अच्छी बात है, कुत्ते भैया! कभी कोई मौक़ा मिलने दो। किसी दिन तुमको अकेला देखूंगा, तो मारकर खा ही जाऊंगा।"
उस दिन से कुत्ते और चीते के बीच दुश्मनी चली आ रही है। कुत्ता चीते को देखकर भाग खड़ा होता है। कुत्तों ने जंगल में रहना छोड़ दिया है, और तबसे लेकर अब तक वह आदमी के ही साथ रहने लगा है।



आमने-सामने की खींचातानी

एक था बनिया। नाम था, वीरचन्द। गांव में रहता था। दुकान चलाता था और उससे अपना गुजर-बसर कर लेता था। गांव में काठियों और कोलियों के बीच झगड़े चलते रहते थे। पीढ़ियों पुराना बैर चला आ रहा था।
एक दिन काठियों के मन खींचकर बिगड़े और कोलियों को ताव आ गया। बीच बाजार में तलवारें खींचकर लोग आमने-सामने खड़े हो गए। काठी ने अपनी खुखड़ी निकाल ली और कोली पर हमला किया। कोली पीछे हट गया और काठी पर झपटा। एक बार में काठी का सिर धड़ से अलग हो गया। तलवार खून से नहा ली।
मार-काट देखकर बनिया बुरी तरह डर गया और अपनी दुकान बंद करके घर के अन्दर दुबककर बैठ गया। बैठा-बैठा सबकुछ देखता रहा और थर-थर कांपता रहा। लोग पुकार उठे—दौड़ो-दौड़ो, काठी मारा गया है।‘ चारों तरफ से सिपाही दौड़े आए। गांव के मुखिया और चौधरी भी आ गए। सबने कहा, "यह तो रघु कोली का ही वार है। दूसरे किसी की यह ताकत नहीं।" लेकिन अदालत में जाना हो, तो बिना गवाह के काम कैसे चले?
किसी ने कहा, "वीरचन्द सेठ दुकान में बैठे थे। ये ही हमारे गवाह हैं। देखा, न देखा, ये जानें। पर अपनी दुकान में बैठे तो थे।"
बनिया पकड़ा गया और उसे थानेदार के सामने हाजिर किया गया। थानेदार ने पूछा, "बोल बनिये! तू क्या जानता है?"
बनिये ने कहा, "हुजूर, मैं तो कुछ भी नहीं जानता। अपनी दुकान में बैठा मैं तो बही खाता लिखने में लगा था।"
थानेदार बोला, "तुझे गवाही देनी पड़ेगी। कहना पड़ेगा कि मैंने सबकुछ अपनी आंखों से देखा है।"
बनिया परेशान हो गया। सिर हिलाकर घर पहुंचा। रात हो चुकी थी। पर नींद आ रही थी। बनिया सोचने लगा—‘यह बात कहूंगा, तो कोलियों के साथ दुश्मनी हो जायगी, और यह कहूंगा, तो काठी मेरे पीछे पड़ जायगे। कुछ बनिये की अक्ल से काम लेना होगा।’ बनिये को एक बात सूझी ओर वह उठा। ढीली धोती, सिर पर पगड़ी और कंधे पर चादर डालकर वीरचन्द चल पड़ा। एक काठी के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया।
काठी ने पूछा, "सेठजी! क्या बात है? क्या बात है? इतनी रात बीते कैसे आना हुआ?"
बनिये ने कहा, "दादाजी! गांव के कोली पागल हो उठे हैं। कहां जाता है कि आज उन्होंने एक खून कर दिया! पता नहीं कल क्या कर बैठेंगे? कल का कलं देखा जायगा।" बनिये की बात सुनकर दादाजी खुश हो गए और उन्होंने बनिये के हाथ में सौ रुपये रख दिए।
कमर में रुपए बांधकर बनिया कोली के घर पहुंचा। कोली ने पूछा, "सेठजी! इस समय कैसे आना हुआ? क्या काम आ गया?"
बनिये ने कहा, "काम क्या बताऊं? अपने गांव के ये काठी बहुत बावले होउ ठेहैं। एक को खत्म करके ठीक ही किया है। धन्य है कोली, और धन्य है, कोली की मां!"
सुनकर कोली खुश हो गया। उसने बनिये को दस मन बाजरा तौल दिया। बनिया घर लौटा और रात आराम से सोया। सोते-सोते सोचने लगा- ‘आज कोली और काठी को तो लूट लिया, अब कल अदालत को भी ठगना है।’ दूसरे दिन मुकदमा शुरू हुआ।
न्यायाधीश ने कहा, "बनिये! बोल, जो झूठ बोल, उसे भगवान तौले।"
बनिये ने कहा, "जो झूठ बोले, उसे भगवान तौले।"
न्यायधीश ने पूछा, "बनिये! बोल, खून कैसे हुआ और किसने किया?"
बनिये ने कहा, "साहब, इधर से काठी झपटे और उधर से कोली कूदे।"
"फिर क्या हुआ?"
"फिर वही हुआ।"
"लेकिन वही क्या हुआ?"
"साहब! यही कि इधर से काठी झपटे और उधर से कोली कूदे।"
"लेकिन फिर क्या हुआ?"
"फिर तो आमने-सामने तलवारें खिंच गईं और मेरी आंखें मिच गईं।"
इतना कहकर बनिया तो भरी अदालत के बीच धम्म से गिर पड़ा और बोला, "साहब, बनिये न कभी खून की बूंद भी देखी है? जैसे ही तलवारें आमने-सामने खिंचीं, मुझे तो चक्कर आ गया और मेरी आंखें तभी खुलीं, जब सिपाही वहां आ पहुंचे।"
न्यायाधीश ने कहा, "सुन, एक बार फिर अपनी सब बातें दोहरा दे।"
बनिया बोला:
इधर से काठी झपटे।
उधर से कोली कूदे।
आमने-सामने तलवारें खिंच गईं।
और मेरी आंखें मिच गईं।
न्यायाधीश ने बनिये को तो विदा कर दिया, लेकिन समझ नहीं पाए कि काठी क्का खून किसने किया है। मुक़दमा खारिज हो गया।

सोनबाई और बगुला

एक थी सोनबाई। बड़ी सुन्दर थी। एक बार सोनबाई अपनी सहेलियों के साथ मिट्टी लेने गई। जहां सोनबाई खोदती, वहां सोना निकलता और जहां उसकी सहेलियां खोदतीं, वहां मिट्टी निकलती। यह देखकर सब सहेलियों के मन में सोनबाई के लिए ईर्ष्या पैदा हो गई। सब सहेलियों ने अपना-अपना टोकरा सिर पर उठाया और सोनबाई को अकेली ही छोड़कर चली गईं।
सोनबाई ने अकेले-अकेले अपना टोकरा अपने सिर पर रखने की बहुत कोशिश की, पर वह टोकरे को किसी भी तरह चढ़ा नहीं पाई। इसी बीच उधर से एक बगुला निकला।
सोनबाई ने कहा, "बगुला भाई, बगुला भाई! यह टोकरा मेरे सिर पर रखवा दो।"
बगुला बोला, "अगर तुम मुझसे ब्याह कर लो, तो मैं यह टोकरा सिर पर रखवा दूं।" सोनबाई ने "हां" कहा और बगुले ने टोकरा सिर पर रखवा दिया। टोकरा लेकर सोनबाई अपने घर की तरफ चली। बगुला उसके पीछे-पीछे चला। घर पहुंचकर सोनबाई ने अपनी मां से सारी बात कह दी।
मां ने कहा, "अब तुम घर के बाहर कहीं जाना ही मत। बाहर जाओगी, तो बगुला तुमको ले भागेगा।"
बाहर खड़े हुए बगुले ने यह बात सुन ली। उसको बहुत गुस्सा आया। उसने सब बगुलों को बुला लिया और उनसे कहा, "इस नदी का सारा पानी पी डालो।" इतना सुनते ही सारे बगुले पानी पीने लगे और थोड़ी ही देर में नदी सूख गई।
दूसरे दिन जब सोनबाई के पिता अपनी भैंसों को पानी पिलाने के लिए नदी पर पहुंचे, तो देखा कि नदी में तो कंकर-ही-कंकर रह गए हैं! उन्होंने नदी के किनारे खड़े हुए बगुले से कहा:
पानी छोड़ो बगुले भैया!
पानी छोड़ो बगुले भैया!
घुड़साल में घोड़े प्यासे हैं।
नोहरे में गायें प्यासी हैं।
बगुले ने कहा, "अपनी बेटी सोनबाई का ब्याह आप मुझसे कर देंगे तो मैं पानी छोड़ दूंगा।"
सोनबाई के पिता ने बगुले की बात मान ली, और बगुले ने नदी में पानी छोड़ दिया। नदी फिर पहले की तरह कल-कल, छल-छल करके बहने लगी।
सोनबाई का ब्याह बगुले के साथ हो गया। सोनबाई को अपने पंखों पर बैठाकर बगुला उसे अपने घर ले आया। फिर सोनबाई और बगुला दोनों एक साथ रहने लगे। बगुला स्वयं दाना चुग आता था और अपने साथ सोनबाई के लिए भी दाना ले आता था।
ऐसा होते-होते एक दिन सोनबाई के एक लड़का हुआ। सोनबाई की खुशी का कोई ठिकाना न रहा!
एक दिन सोनबाई के पिता ने सोचा—किसी को भेजकर पता तो लगवाऊं कि सोनबाई के भाई को भेजा। भाई सोनबाई के पास पहुंचा। भाई-बहन दोनों मिले खूब खुश हुए। इतने में बगुले के चुगकर वापस आने का समय हो गया।
सोनबाई ने कहा, "भैया! तुम रजाइयों वाली इस कोठरी में छिप जाओ। बगुला ऐसा खूंखार है कि तुमको देख लेगा, तो मार डालेगा।"
भाई कोठरी में छिप गया। सोनबाई ने दो पिल्ले पाल रखे थे। उनमें से एक को चक्की के नीचे छिपा दिया और दूसरे को झाड़ू से बांधकर घर में रखा। फिर वह दरवाजे के पास जाकर उसकी आड़ में बैठ गयी। इसी बीच बगुला आया और बोला, "दरवाज़ा खोलो।"
सोनबाई तो कुछ बोली नहीं, लेकिन सोनबाई का लड़का बोला:
बाबा, बाबा!
मामा छिपे हैं कोठरी में।
छोटा पिल्ला बैठा है चक्की के नीचे।
बड़ा पिल्ला बंधा है झाड़ू से।
बाहर खड़ा बगुला बोला, "सोनबाई! यह मुन्ना क्या कह रहा है?"
सोनबाई ने कहा, "यह तो योंही बड़-बड़ कर रहा है।"
इतने में लड़का फिर बोला:
बाबा, बाबा!
मामा छिपे हैं कोठरी में।
छोटा पिल्ला बैठा है चक्की के नीचे।
बड़ा पिल्ला बंधा है झाड़ू से।
बगुला बोला, "दरवाजा खोलो।" लेकिन सोनबाई ने दरवाजा नहीं खोला। बगुला फिर चुगने चला गया।
बाद में मामा मायके कोठरी से बाहर निकला और सोनबाई अपने लड़के को लेकर उसके मायके चली गयी। जब बगुला घर लौटा,तो उसने देखा, वहां कोई नहीं है।

सूप से कानवाला राजा

एक राजा था। एक दिन वह शिकार खेलने निकला। शिकार का पीछा करते-करते वह बहुत दूर निकल गया, पर शिकार हाथ लगा नहीं। शाम हो आई। भूख भी जोर की लगी। राजा रास्ता भूल गया था, इसलिए वापस अपने महल नहीं जा सकता था। भूख की बात सोचता-सोचता वह एक बरगद के नीचे जा बैठा। जहां बैठे-बैठे उसकी निगाह चिड़ा-चिड़ी के एक जोड़े पर पड़ी। उसे जोर की भूख लगी थी, इसलिए उसने चिड़ा-चिड़ी को मारकर खा जाने की बात सोची। बेचारे चिड़ा-चिड़ी चुपचाप अपने घोंसले में बैठे थे। राजा ने उन्हें पकड़ा, उनकी गरदन मरोड़ी, और उन्हें भूनकर खा गया। इससे राजा को बहुत पाप लगा, और तुरन्त राजा के कान सूप की तरह बड़े हो गये।
राजा गहरे सोच में पड़ गया। अब क्या किया जाय? वह रात ही में चुपचाप अपने राजमहल में पहुंच गया, और दीवान को बुलाकर सारी बात कह दी। फिर कहा, "सुनिए दीवानजी। आप यह बात किसी से कहिए मत। और किसी को यहां इस सातवीं मंज़िल पर आने भी मत दीजिए।"
दीवान बोला, "जी, ऐसा ही होगा।"
दीवान ने किसी से कुछ कहा नहीं। इसी बीच जब राजा की हजामत बनाने का दिन आया, तो राजा ने कहा, "सिर्फ नाई को ऊपर आने दीजिए।"
अकेला नाई सातवीं मंज़िल पर पहुंचा। नाई तो राजा के सूप-जैसे कान देखकर गहरे सोच में पड़ गया।
राजा ने कहा, "सुनो, धन्ना! अगर मेरे कान की बात तुमने किसी से कही, तो मैं तुमको कोल्हू में डालकर तुम्हारा तेल निकलवा लूंगा। समझ लो कि मैं तुमको जिन्दा नहीं छोड़ूंगा।"
नाई ने हाथ जोड़कर कहा, "जी, महाराज! भला, मैं क्यों किसी को कहने लगा!"
लेकिन नाई के पेट में बात कैसे पचती! वह इधर जाता और उधर जाता, और सोचता कि बात कहूं, तो किससे कहूं? आखिर वह शौच के लिए निकला। बात तो उसके पेट में उछल-कूद मचा रही थी—मुंह से बाहर निकलने को बेताब हो रही थी। आखिर नाई ने जंगल के रास्ते में पड़ी एक लकड़ी से कहा:
राजा के कान सूप-से, राजा के काम सूप-से।
लकड़ी ने बात सुन ली। वह बोली:
राजा के कान सूप से, राजा के कान सूप-से।
उसी समय वहां एक बढ़ई पहुंचा। लकड़ी को इस तरह बोलते देखकर बढ़ई गहरे सोच में पड़ गया। उसने विचार किया कि क्यों न मैं इस लकड़ी के बाजे बनाऊं और उन्हें अपने राजा को भेंट करूं? राजा तो खुश हो जायगा। बढ़ई ने उस लकड़ी से एक तबला बनाया, एक सारंगी बनाई और एक ढोलक बनाई। जब वह इन नए को लेकर राजमहल में पहुंचा, तो राजा ने कहलवाया--"महल के निचले भाग में बैठकर ही अपने बाजे बजाओ।"
बढ़ई ने बाजे निकालकर बाहर रखे। तभी तबला बजने लगा:
राजा के कान सूप-से, राजा के कान सूप-से।
इस बीच अपनी बारीके आवाज में सारंगी बजने लगी:
तुझको किसने कहा? तुझको किसने कहा।
तुरन्त ढोलक आगे बढ़ी और ढप-ढक करके बोलने लगी:
धन्ना नाई ने कहा, धन्ना नाई ने कहा।
राजा सबकुछ समझ गया। उसने बढ़ई को इनाम देकर रवाना किया और उसके बनाए सब बाजे रख लिए, जिससे किसी को इस भेद का पता न चले।
बाद में राजा ने धन्ना नाई को बुलाया और पूछा, "क्यों रे,धन्ना! सच-सच कह, तूने बात किसको कही थी?
नाई बोला, "महाराज, बात तो किसी से नहीं कही, पर मेरे पेट में बहुत किलबिलाती रही, इसलिए मैंने एक लकड़ी को कह दी थी।"
राजा ने नाई को राजमहल से निकलवा दिया और पछताने लगा कि उसने एक नाई को इस बात की जानकारी क्यों होने दी।

बावला-बावली

एक था बावला, एक थी बावली।
दिन भर लकड़ी काटने के बाद थका-मादा बावला शाम को घर पहुंचा और उसने बावली से कहा, "बावली! आज तो मैं थककर चूर-चूर हो गया हूं। अगर तुम मेरे लिए पानी गरम कर दो, तो मैं नहा लूं, गरम पानी से पैर सेक लूं और अपनी थकान उतार लूं।"
बावली बोली, "वाह, यह तो मैं खुशी-खुशी कर दूंगी। देखो, वह हंडा पड़ा है। उसे उठा लाओ।
बावले ने हंडा उठाया और पूछा, "अब क्या करूं?"
बावले बोली, "अब पास के कुंए से इसमें पानी भर लाओ।"
बावला पानी भरकर ले आया। फिर पूछा, "अब क्या करूं?"
बावली बोली, "अब हंडे को चूल्हे पर रख दो।"
बावले ने हंडा चूल्हे पर रख दिया और पूछा, "अब क्या करूं?"
बावली बोली, "अब लकड़ी सुलगा लो।"
बावले ने लकड़ी सुलगा ली और पूछा, "अब क्या कर1ं?"
बावली बोली, "बस, अब चूल्हा फूंकते रहो।
बावले ने फूंक-फूंककर चूल्हा जला लिया और पूछा, "अब क्या करूं?"
बावली बोली, "अब हंडा नीचे उतार लो।"
बावले ने हंडा नीचे उतार लिया और पूछा, "अब क्या करूं?"
बावली बोल, "अब हंडे को नाली के पास रख लो।"
बावली ने हंडा नाली के पास रख लिया और पूछा, "अब क्या करूं?"
बावली बोली,"अब जाओ और नहा लो।"
बावला नहा लिया। उसने पूछा, "अब क्या करूं?"
बावला बोली, "अब हंडा हंडे की जगह पर रख दो।"
बावले ने हंडा रख लिया और फिर अपने सारे बदन पर हाथ फेरता-फेरता वह बोला, "वाह, अब तो मेरा यह बदन फूल की तरह हल्का हो गया है। तुम रोज़ इस तरह पानी गरम कर दिया करो तो कितना अच्छा हो।"
बावली बोली, "मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। सोचो, इसमें आलस्य किसका है?"
बावली बोली, "बहुत अच्छा! तो अब तुम सो जाओ।"

तीन लोक का टीपना

एक था किसान। उसने एक खेत जोता। खेत में ज्वार बोई। ज्वार में बड़े-बड़े भुट्टे लगे। किसान ने कहा, "अब एक रखवाला रखना होगा। वह दिनभर पक्षियों को उड़ायगा और रात में रखवाली करेगा।
रखवाला रात में रखवाली करता और दिन में पक्षियों को उड़ाता रहता। इस तरह काम करते-करते कई दिन बीत गए। एक रात चोर रखवाला रखा। चोरों ने दूसरे रखवाले को भी मार डाला और भुट्टे चुरा लिये।
किसान सोचने लगा—‘अब मैं क्या करूं? यह तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। इसका कोई इलाज तो करना ही होगा।‘ सोचते-सोचते किसान को क्षेत्रफल की याद आ गई। क्षेत्रपाल तो बड़े ही चमत्कारी और प्रतापी देवता हैं। याद करते ही सामने आ गए। उन्होंने पूछा, "मेरे सेवक पर क्या संकट आया है?"
किसान ने कहा, "महाराज, आपकी कृपा से ज्वार में बड़े-बड़े भुट्टे लगे हैं, पर चोर इन्हें यहां रहने कहां दे रहे हैं! चोरों ने दो रखवालों को तो मार डाला है। महाराज, अब आप की इसका कोई इलाज कीजिए। कोई रास्ता दिखाइये।"
क्षेत्रपाल बोले, "भैया! आज से तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी है। खेत में एक मचान बंधवा लो और वहां एक बांस गाड़ दो। फिर देखते रहो।" क्षेत्रपाल ने जो कहा, सो किसान ने कर दिया।
शाम हुई। क्षेत्रफल तो एक चिड़िया का रूप रखकर बांस पर बैठ गए। आधी रात हुई चोर आए। चोर चारों ओर घूमने-फिरने लगे। इसी बीच चिड़िया बोली:
ओ, घूमते-फिरते चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोर चौंके। बोल, "अरे यह कौन बोल रहा है?" इधर-उधर देखा, तो कोई दिखाई नहीं पड़ा। चोरों ने भुट्टे काटना शुरू कर दिया। तभी चिड़िया फिर बोली:
ओ, काटने-वाटने वालों चोरा!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोरों ने चारों तरफ देखा, पर कोई दिखाई नहीं पड़ा। उन्होंने भुट्टों की गठरी बांध ली। चिड़िया फिर बोली
ओ, बांधने-वाधने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोर इधर-उधर देखने लगे। उन्होंन चिड़िया को बोलते देख लिया। पत्थर फेंक-फेंककर वे उसे मारने लगे। इस पर चिड़िया बोली:
ओ, मारने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोरों ने बांस पर बैठी चिड़िया को नीचे उतार लिया। नीचे उतरते-उतरते चिड़िया फिर बोली: ओ, उतारने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोर चिड़िया पर टूट-पड़े और उसे पीटने लगे। चिड़िया फिर बोली:
ओ पीटने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
इस पर चोर इतने गुस्सा हुए कि वे चिड़िया को काटने लगे। चिड़िया फिर भी बोली:
ओख् काटने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
चोरों ने आग जलाई और चिड़िया को भूनने लगे। चिड़िया बोली:
ओ, भुनने वाले चोरो!
तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
फिर सब चोर खाने बैठे। ज्यों ही उन्होंने चिड़िया के टुकड़े मुंह में रखे, चिड़िया फिर बोली:
ओ, खाने वाले चोरो!
तीन लोक को टीपना और तीसरा रखवाला।
चोर बोल, "बाप रे, यह तो बड़े अचम्भे की बात है! जरूर यह कोई भूत-प्रेत होगा।! चोर इतने डर गए कि अपना सबकुछ वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। उसके बाद फिर चोर कभी आए ही नहीं। किसान के खेत में ज्वार खूब पकी। अच्छी फसल हुई।

चार मित्र □ मुरलीधर जगताप

बहुत दिन पहले की बात है। एक छोटा-सा नगर था, पर उसमें रहने वाले लोग बड़े दिलवाले थे। ऐसे न्यारे नगर में चार मित्र रहते थे। वे छोटी उमर के थे, पर चारों में बड़ा मेल था। उनमें एक था। राजकुमार, दूसरा राजा के मंत्री का पुत्र, तीसरा सहूकार का लड़का और चौथा एक किसान का बेटा। चारों साथ-साथ खाते-पीते और खेलते-घूमते थे।
एक दिन किसान ने अपने पुत्र से कहा, “देखो बेटा, तुम्हारे तीनों साथी धनवान हैं और हम गरीब हैं। भला धरती और आसमान का क्या मेल !”
लड़का बोला, “नहीं पिताजी, मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता। बेशक यह घर छोड़ सकता हूं।”
बाप यह सुनकर आग-बबूला हो गया और लड़के को तुरंत घर छोड़ जाने की अज्ञा दी। लड़के ने भी राम की भांति अपने पिता की अज्ञा शिरोधार्य कर ली और सीधा अपने मित्रो के पास पहुंचा। उन्हें सारी बात बताई। सबने तय किया कि हम भी अपना-अपना घर छोड़कर मित्र के साथ जायंगे। इसके बाद सबने अपने घर और गांव से विदा ले ली और वन की ओर चल पड़े।
धीरे-धीरे सूरज पश्चिम के समुन्दर में डूबता गया और धरती पर अंधेरा छाने लगा। चारों वन से गुजर रहे थे। काली रात थी। वन में तरह-तरह की आवाजें सुनकर सब डरने लगे। उनके पेट में भूख के मारे चूहे दौड़ रहे थे। किसान के पुत्र ने देखा, एक पेड़ के नीचे बहुत-से जुगनू चमक रहे हैं।वह अपने साथियों को वहां ले गया और उन्हें पेड़ के नीचे सोने के लिए कहा। तीनों को थका-मांदा देखकर उसका दिल भर गया। बोला, “तुम लोगों ने मेरी खातिर नाहक यह मुसीबत मोल ली।”
सबने उसे धीरज बंधाया और कहा, “नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि हमारा एक साथी भूखा-प्यासा भटकता रहे और हम अपने-अपने घरों में मौज उड़ायें। जीयेंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ।”
थोड़ी देर बाद वे तीनों सो गये, पर किसान के लड़के की आंख में नींद कहां! उसने भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान ! अगर तू सचमुच कहीं है तो मेरी पुकार सुनकर आ जा और मेरी मदद कर।”
उसकी पुकार सुनकर भगवान एक बूढ़े के रूप में वहां आ गये। लड़के से कहा, “मांग ले, जो कुछ मांगना है। यह देख, इस थैली में हीरे-जवाहरात भरे हैं।”
लड़के ने कहा, “नहीं, मुझे हीरे नहीं चाहिए। मेरे मित्र भूखे हैं। उन्हें कुछ खाने को दे दो।”
भगवान ने कहा, “मैं तुम्हें भेद की एक बात बताता हूं। वह जो सामने पेड़ है न....आम का, उस पर चार आम लगे हैं-एक पूरा पका हुआ, दूसरा उससे कुछ कम पका हुआ, तीसरा उससे कम पका हुआ और चौथा कच्चा।”
“इसमें भेद की कौन-सी बात ?” लड़के ने पूछा।
भगवान ने कहा, “ये चारों आम तुम लोग खाओ। तुममें से जो पहला आम खायगा, वह राजा बन जायगा। दूसरा आम खाने वाला राजा का मंत्री बन जायगा। जो तीसरा आम खायगा, उसके मुंह से हीरे निकलेंगे और चौथा आम खानेवाले को उमर कैद की सजा भोगनी पड़ेगी।” इतना कहकर बूढ़ा आंख से ओझल हो गया।
तड़के सब उठे तो किसान के पुत्र ने कहा, “सब मुंह धो लो।” फिर उसने कच्चा आम अपने लिए रख लिया और बाकी आम उनको खाने के लिए दे दिये।
सबने आम खा लिये। पेट को कुछ आराम पहुंचा तो सब वहां से चल पड़े। रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। काफी देर तक चलते रहने से सबको फिर से भूख-प्यास लग आई। इसिलिए वे पानी पीने लगे। राजकुमार ने मुंह धोने के इरादे से पानी पिया और फिर थूक दिया तो उसके मुंह से तीन हीरे निकल आये। उसे हीरे की परख थी। उसने चुपचाप हीरे अपनी जेब में रख लिए।
दूसरे दिन सुबह एक राजधानी में पहुंचने के बाद उसने एक हीरा निकालकर मंत्री के पुत्र को दिया और खाने के लिए कुछ ले आने को कहा।
वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा ता देतखता क्या है कि रास्ते में बहुत-से लोग जमा हो गये हैं। कन्धे-से-कन्धा ठिल रहा है। गाजे-बाजे के साथ एक हाथी आ रहा है। उसने एक आदमी से पूछा, “क्यों भाई, यह शोर कैसा है ?”
“अरे, तुम्हें नहीं मालूम ?” उस आदमी ने विस्मय से कहा।
“नहीं तो।”
“यहां का राजा बिना संतान के मर गया है। राज के लिए राजा चाहिए। इसलिए इस हाथी को रास्ते में छोड़ा गया है। वही राजा चुनेगा।”
“सो कैसे ?”
“हाथी की सूंड में वह फल-माला देख रहे हो न ?”
“हां-हां।”
“हाथी जिसके गले में यह माला डालेगा, वही हमारा राजा बन जायगा। देखो, वह हाथी इसी ओर आ रहा है। एक तरफ हट जाओ।”
लड़का रास्ते के एक ओर हटकर खड़ा हो गया। हाथी ने उसके पास आकर अचानक उसी के गले में माला डाल दी। इसी प्रकार मंत्री का पुत्र राजा बन गया। उसने पूरा पका हुआ आम जो खाया था। वह राजवैभव में अपने सभी मित्रों को भूल गया।
बहुत समय बीतने पर भी वह नहीं लौटा, यह देखकर राजकुमार ने दूसरा हीरा निकाला और साहूकार के पुत्र को देकर कुछ लाने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा। राज को राजा मिल गया था, पर मंत्री के अभाव की पूर्ति करनी थी, इसलिए हाथी को माला देकर दुबारा भेजा गया। किस्मत की बात ! अब हाथी नेएक दुकान के पास खड़े साहूकार के पुत्र को ही माला पहनाई। वह मंत्री बन गया और दोस्तों को भूल गया।
इधर राजकुमार और किसान के लड़के का भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। अब क्या करें ? फिर किसान के पुत्र ने कहा, “अब मैं ही खाने की कोई चीज ले आता हूं।”
राजकुमार ने बचा हुआ तीसरा हीरा उसे सौंप दिया। वह एक दुकान में गया। खाने की चीजें लेकर उसने अपने पास वाला हीरा दुकानदार की हथेली पर रख दिया। फटेहाल लड़के केपास कीमती हीरा देखकर दुकानदार को शक हुआ कि, हो न हो, इस लड़के ने जरूर ही यह हीरा राजमहल से चुराया होगा। उसने तुरंत पुलिस के सिपाहियों को बुलाया। सिपाही आये। उन्होंने किसानके लड़के की एक न सुनी और उसे गिरफतार कर लिया। दूसरे दिनउेस उमर कैद की सजा सुनाई गई। यह प्रताप था कच्चे आम का।
बेचारा राजकुमार मारे चिंता के परेशान था। वह सोचने लगा, यह बड़ा विचित्र नगर है। मेरा एक भी मित्र वापस नहीं आया। ऐसे नगर में न रहना ही अच्छा। वह दौड़ता हुआ वहां से निकला और दूसरे गांव के पास पहुंचा। रास्ते में उसे एक किसान किला, जो सिर पर रोटी की पोटली रखे अपने घर लौट रहा था। किसाननेउसे अपने साथ ले लिया और भोजन के लिए अपने घर ले गया।
किसान के घर पहुंचने के बाद राजकुमार ने देखा कि किसान की हालत बड़ी खराब है। किसान ने उसे अच्छी तरह नहलाया और कहा, मैं गांव का मुखिया था। रोज तीन करोड़ लोगों को दान देता था, पर अब कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज हूं।
राजकुमार बड़ा भूखा था, उसने जो रूखी-सूखी रोटी मिली, वह खा ली। दूसरे दिन सुबह उठने के बाद जब उसने मुंह धोया तो फिर मुंह से तीन हीरे निकले। वे हीरे उसने किसान को दे दिये। किसान फिर धनवान बन गया और उसने तीन करोड़ का दान फिर से आरम्भ कर दिया। राजकुमार वहीं रहने लगा और किसान भी उससे पुत्रवत् प्रेम करने लगा।
किसान के खेत में काम करने वाली एक औरत से यह सुख नहीं देखा गया। उसने एक वेश्या को सारी बात सुनाकर कहा, “उस लड़के को भगाकर ले आओ तो तुम्हें इतना धन मिलेगा कि जिन्दगी भर चैन की बंसी बजाती रहोगी।” अब वेश्या ने एक किसान-औरत का रूप रख लिया और किसान के घर जाकर कहा, “मैं इसकी मां हूं। यह दुलारा मेरी आंखों का तारा है। मैं इसके बिना कैसे ज सकूंगी ? इसे मेरे साथ भेज दो।” किसान को उसकी बात जंच गई। राजकुमार भी भुलावे में आकर उसके पीछे-पीछे चल दिया।
घर आने पर वेश्या ने राजकुमार को खूब शराब पिलाई। उसने सोचा, लड़का उल्टी करेगा तो बहुत-से हीरे एक साथ निकल आयंगे। उसकी इच्छा के अनुसार लड़के को उल्टी हो गई। लेकिन हीरा एक भी नहीं निकला। क्रोधित होकर उसने राजकुमार को बहुत पीटा और उसे किसान के मकान के पीछे एक गडढे में डाल दिया।
राजकुमार बेहोश हो गया था। होश में आने पर उसने सोचा, अब किसानके घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए उसने बदन पर राख मल ली और संन्यासी बनकर वहां से चल दिया।
रास्ते में उसे सोने की एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई दी। जैसे ही उसने रस्सी उठाई, वह अचानक सुनहरे रंग का तोता बनगया। तभी आकाशवाणी हुई, “एक राजकुमारी नेप्रण किया है कि वह सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करेगी।”
अब तोता मुक्त रूप से आसमान में उड़ता हुआ देश-देश की सैर करने लगा। होते-होते एक दिन वहउसी राजमहल के पास पहुंचा, जहां की राजकुमारी दिन-रात सुनहरे तोते की राह देख रही थी और दिन-ब-दिन दुबली होती जा रही थी। उसने राजा से कहा, “मैं इस सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करूंगी।” राजा को बड़ा दु:ख हुआ कि ऐसी सुन्दर राजकुमारी एक तोते के साथ ब्याह करेगी! पर उसकी एक न चली। आखिर सुनहरे तोते के साथ राजकुमारी का ब्याह हो गया। ब्याह होत ही तोता सुन्दरराजकुमार बन गया। यह देखकर राजा खुशी से झूम उठा। उसने अपनी पुत्री को अपार सम्पत्ति, नौकर-चकर, घोड़े और हाथी भेंट-स्वरूप दिये। आधा राज्य भी दे दिया।
नये राजा-रानी अपने घर जाने निकले। राजा पहले गांव के मुखिया किसानसे मिलने गया, जो फिर गरीब बन गया था। राजा ने उसे काफी संपत्ति दी, जिससे उसका तीन करोड़ का दान-कार्य फिर से चालू हो गया।
अब राजकुमार को अपने मित्रों की याद आई। उसने पड़ोस के राज्य की राजधानी पर हमला करने की घोषणा की, पर लड़ाई आरंभ होने से पहले ही उस राज्य का राजा अपने सरदारों-मुसाहिबों सहित राजकुमार से मिलने आया। उसने अपना राज्य राजकुमार के हवाले करने की तैयारी बताई। राजा की आवाज से राजकुमार ने उसे पहचान लिया और उससे कहा, “क्यों मित्र, तुमने मुझे पहचाना नहीं?” दोनों ने एक-दूसरे को पहचना तो दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ने मिलकर अपने साथी, किसान केपुत्र को खोजना आरम्भ किया। राजकुमार को यह बात खलने लगी कि उसकी खातिर मित्र को कारावास भुगतना पड़ा। जब सब कैदियों को रिहा किया गया तो उनमें किसान का लड़का मिलगया। राजकुमार ने उसका आलिंगन किया और अपना परिचय दिया। किसान का लड़का खुशी से उछल पड़ा। सब फिर से इकट्ठे हो गए।
इसके बाद सबने अपनी-अपनी सम्पत्ति एकत्र की और उसके चार बराबर हिस्से किए। सबको एक-एक हिस्सा दे दिया गया। सब अपने गांव वापस आ गये। माता-पिता से मिले। गांव भर में खुशी की लहर दौड़ गई सबके दिन सुख से बीतने लगे।

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लक्ष्मण गायकवाद

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