प्रस्तुति-- प्रवीण परिमल, प्यासा रुपक
भिखारी ठाकुर
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पूरा नाम
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भिखारी ठाकुर
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जन्म
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18 दिसम्बर 1887
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जन्म भूमि
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कुतुबपुर (दियारा) गाँव, सारन ज़िला बिहार
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मृत्यु
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10 जुलाई, 1971
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अविभावक
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श्री दल सिंगार ठाकुर और श्रीमती शिवकली देवी
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कर्म भूमि
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बिहार
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कर्म-क्षेत्र
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कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता
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मुख्य रचनाएँ
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बिदेसिया, गबरधिचोर, बेटी-वियोग, भाई विरोध, गंगा स्नान आदि
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नागरिकता
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भारतीय
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भाषा
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भोजपुरी
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अन्य जानकारी
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राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें 'अनगढ़ हीरा' कहा था तो जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। इन्हें 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' भी कहा गया।
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अद्यतन
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17:30, 4 जुलाई 2014 (IST)
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भिखारी ठाकुर (अंग्रेज़ी: Bhikhari Thakur, जन्म: 18 दिसम्बर 1887 बिहार - मृत्यु: 10 जुलाई, 1971) भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन
के अनन्य साधक थे। भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक ही
साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। राहुल सांकृत्यायन ने उनको 'अनगढ़ हीरा' कहा था तो जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। उनको 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' भी कहा गया।
जीवन परिचय
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को बिहार के सारन ज़िले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था।
साहित्यिक परिचय
भिखारी ठाकुर का रचनात्मक संसार बेहद सरल है- देशज और सरल। इसमें
विषमताएँ, सामंती हिंसा, मनुष्य के छल-प्रपंच- ये सब कुछ भरे हुए हैं और वे
अपनी कलम की नोंक से और प्रदर्शन की युक्तियों से इन फोड़ों में नश्चर
चुभोते हैं। उनकी भाषा में चुहल है, व्यंग्य है, पर वे अपनी भाषा
की जादूगरी से ऐसी तमाम गांठों को खोलते हैं, जिन्हें खोलते हुए मनुष्य
डरता है। भिखारी ठाकुर की रचनाओं का ऊपरी स्वरूप जितना सरल दिखाई देता है,
भीतर से वह उतना ही जटिल है और हाहाकार से भरा हुआ है। इसमें प्रवेश पाना
तो आसान है, पर एक बार प्रवेश पाने के बाद निकलना मुश्किल काम है। वे अपने
पाठक और दर्शक पर जो प्रभाव डालते हैं, वह इतना गहरा होता है कि इससे पाठक
और दर्शक का अंतरजगत उलट-पलट जाता है। यह उलट-पलट दैनदिन जीवन में मनुष्य
के साथ यात्रा पर निकल पड़ता है। इससे मुक्ति पाना कठिन है। उनकी रचनाओं के
भीतर मनुष्य की चीख भरी हुई है। उनमें ऐसा दर्द है, जो आजीवन आपको बेचैन
करता रहे। इसके साथ-साथ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गहन संकट के काल
में वे आपको विश्वास देते हैं, अपने दुखों से, प्रपंचों से लड़ने की शक्ति
देते हैं।
रचनाएँ
प्रमुख नाटक
- बिदेशिया
- भाई-विरोध
- बेटी-वियोग
- कलियुग-प्रेम
- राधेश्याम-बहार
- बिरहा-बहार
- नक़ल भांड अ नेटुआ के
- गबरघिचोर
- गंगा स्नान (अस्नान)
- विधवा-विलाप
- पुत्रवध
- ननद-भौजाई
अन्य
शिव विवाह, भजन कीर्तन: राम, रामलीला गान, भजन कीर्तन: कृष्ण, माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाइ बहार, शंका समाधान, विविध।
एक अनोखा कलाकार
भिखारी ठाकुर का पूरा रचनात्मक संसार लोकोन्मुख है। उनकी यह लोकोन्मुखता
हमारी भाव-संपदा को और जीवन के संघर्ष और दुख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन
के साथ प्रस्तुत करती है। वे दुख का भी उत्सव मनाते हुए दिखते हैं। वे
ट्रेजेडी को कॉमेडी बनाए बिना कॉमेडी के स्तर पर जाकर प्रस्तुत करते हैं।
नाटक को दृश्य-काव्य कहा गया है। अपने नाटकों में कविताई करते हुए वे कविता
में दृश्यों को भरते हैं। उनके कथानक बहुत पेचदार हैं- वे साधारण और
सामान्य हैं, पर अपने रचनात्मक स्पर्शों से वे साधारण और बहुत हद तक
सरलीकृत कथानक में साधारण और विशिष्ट कथ्य भर देते हैं। वह यह सब जीवनानुभव
के बल पर करते हैं। वे इतने सिद्धहस्त हैं कि अपने जीवनानुभवों के बल पर
रची गई कविताओं से हमारे अंतरजगत में निरंतर संवाद की स्थिति बनाते हैं।
दर्शक या पाठक के अंतरजगत में चल रही ध्वनियां-प्रतिध्वनियां, एक गहन
भावलोक की रचना करती हैं। यह सब करते हुए वे संगीत
का उपयोग करते हैं। उनका संगीत भी जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से उपजता है
और यह संगीत अपने प्रवाह में श्रोता और दर्शक को बहाकर नहीं ले जाता,
बल्कि उसे सजग बनाता है।
बिदेसिया
अपने प्रसिद्ध नाटक 'बिदेसिया' में भिखारी ठाकुर ने स्त्री जीवन के ऐसे
प्रसंगों को अभिव्यक्ति के लिए चुना, जिन प्रसंगों से उपजने वाली पीड़ा आज
भी हमारे समाज में जीवित है। देश जिस समय स्वतंत्रता की एक बड़ी राजनीतिक
लड़ाई लड़ रहा था, उस समय वे इस राजनीतिक लड़ाई से अलग स्त्रियों की मुक्ति
की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वतंत्रता की लड़ाई समाप्त हो गई, देश राजनीतिक रूप
से आजाद हो गया, पर स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई आज भी जारी है। अपने
नाटक बिदेसिया में वे एक देसी स्त्री की अकथ पीड़ा का बयान करते हैं, जो
पति के परदेस जाने के बाद गांव में अकेले छूट गई है। वे इस अकेले छूट गई
स्त्री की पीड़ा को तमाम छूट गए लोगों की पीड़ा में बदल देते हैं।
देश ने 1947 में विभाजन और विस्थापन देखा, पर भिखारी ठाकुर ने 1940 के
आसपास अपने नाटक बिदेसिया के माध्यम से बिहार से गांवों से रोजी-रोज़गार के
लिए विस्थापित होने वाले लोगों की पीड़ा और संघर्षों को स्वर दिया। उनके
नाटक का स्वर स्त्री जीवन के संघर्ष का स्वर है। बिदेसिया के अतिरिक्त उनके
अन्य नाटकों के केंद्र में भी स्त्री ही है।
गबरघिचोर
'गबरघिचोर' नाटक लिखते हुए वह गर्भ पर स्त्री के मौलिक अधिकार का प्रश्न
खड़ा करते हैं। बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक 'काकेशियन चॉक सर्किल' (हिन्दी
में 'खड़िया का घेरा') के कथ्य से मिलता-जुलता है गबरघिचोर का कथ्य, जिसको
लिखकर ब्रेख्त अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाते है। वही कथ्य बमुश्किल साक्षर
भिखारी ठाकुर अपने समाज से चुनते हैं और असंख्य स्त्रियों की वाणी बन जाते
हैं। भिखारी की रचनात्मक संवेदना चकित करती है कि जिस कथ्य को ब्रेख्त
चुनते हैं ठीक उसी कथ्य को वे भी स्वीकार करते हैं।
भिखारी ठाकुर ने जिस काल में स्त्री गर्भ पर स्त्री के अधिकार के प्रश्न
उठाए उस समय भारत के किसी ग्रामीण इलाके में सार्वजनिक प्रदर्शन तो दूर, यह
बात सोची भी नहीं जा सकती थी। वह सोच के स्तर पर ग्रामीण समाज की
स्त्रियों में एक व्यापक परिवर्तन के जयंत अभियान पर निकलते हैं। यह एक ऐसा
सांस्कृतिक अभियान था, जिसकी कल्पना आज की राजनीति की दुनिया में संभव
नहीं है।
रंगमंच
उन्होंने दूसरा महत्त्वपूर्ण काम अपने रंगमंच की कलात्मकता के स्तर पर किया। उन्होंने जीवन से ही अपने लिए कला
के रूप चुने। वहीं से नाटक की युक्तियों को उठाया। बिहार के तत्कालीन
सामंती समाज ने जिस कला को अपनी विकृत रुचियों का शिकार बना लिया था और
अश्लील कर दिया था, उसे उन्होंने नया और प्रभावशाली रूप दिया। आज भिखारी
ठाकुर हमारे लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे सिखाते हैं कि जीवन के
अंतर्द्वंद्व ही रचनात्मकता को दीर्घजीवी बनाते हैं। उनका पूरा रचनात्मक
संसार अंतर्द्वंद्वों से भरा हुआ है। वे स्वयं गोस्वामी तुलसीदास की तरह भक्त कवि बनना चाहते थे और खड़गपुर (बंगाल) में रामलीला ने उनके भीतर कविताई का बीज डाला, पर उनके समय और समाज के दुखों ने उन्हें मनुष्य की पीड़ा का रचनाकार बनाया।
निधन
भिखारी ठाकुर का निधन 10 जुलाई, सन 1971 को 84 वर्ष की आयु में हो गया। भिखारी ठाकुर को साहित्य और संस्कृति
की दुनिया के पहलुओं ने प्रसिद्ध नहीं किया और न ही जीवित रखा। उनकी
प्रसिद्ध और व्यापक स्वीकार्यता के कारण उनकी रचनाओं के गर्भ में छिपे हैं।
वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि नाटक कभी पुराना नहीं होता। उसे हर
क्षण नया रहना पड़ता है और यह तभी संभव है, जब उसके भीतर मनुष्य समग्रता के
साथ जीवित हो। उन्होंने जीवन से जो अर्जित किया उसी की पुनर्रचना की। आज
भारतीय ग्रामीण समाज उन तमाम दुखों से जूझ रहा है, जिनकी ओर वे अपनी रचनाओं
से संकेत करते हैं। 'भाई-विरोध', 'बेटी-वियोग', या 'पुत्रवध' – उनके इन
तमाम नाटकों में मनुष्य के आपसी संबंधों के छीजते जाने की पीड़ा है।
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