रविवार, 10 जुलाई 2011

आलोचक का अकेलापन


हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है, माधुरी, कल्पना एवं रूपाभ से लेकर हंस, पहल एवं तद्‌भव तक. साठ के दशक में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसने कई दशकों तक साहित्यिक परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप किया. 86 के दशक में जब राजेंद्र यादव ने हंस पत्रिका का संपादन शुरू किया तो वह एक बेहद अहम साहित्यिक घटना साबित हुई. कालांतर में हरि नारायण के संपादन में कथादेश और प्रेम भारद्वाज के संपादन में पाखी का प्रकाशन शुरू हुआ. पाखी ने बहुत कम समय में साहित्यिक जगत में अपनी पहचान कायम कर ली. अभी मेरे सामने पाखी और कथादेश दोनों के विशेषांक हैं. पाखी ने वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह पर अपना अंक केंद्रित किया है. वहीं कथादेश ने कल्प गल्प का कल्प को केंद्र में रखकर भारी-भरकम अंक निकाला है. पहले बात पाखी की. नामवर सिंह हिंदी साहित्य के ऐसे लेखक हैं, जो अपने जीवनकाल में ही लीजेंड बन चुके हैं. उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी है कि उन्हें जानने में पाठकों की हमेशा से दिलचस्पी रही है. पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज ने श्रमपूर्वक नामवर जी पर सामग्री एकत्रित कर एक मुकम्मल विशेषांक निकाला है. भारद्वाज ने अपने संपादकीय में नामवर जी के अकेलेपन को बेहद मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है. एक जगह वह लिखते हैं, सचमुच नामवर जी में होरी की कर्मठता है..लेकिन किसान थकता भी है. खासकर बीमार पड़ने पर भावुकता घेर लेती है. यही वह क्षण होता है, जब शिखरत्व पिघलने लगता है. अकेलेपन का अवलंबन ढूंढा जाता है तुलसी बाबा में. बचपन में मां-बाप का प्यार छूटा, पत्नी छोड़ी, घर-दुआर छोड़ बनारस में दुरदुराए गए तो उसके बाद अस्सी पर बसे. यहां से वहां, वहां से यहां, रात-दिन दौड़ते-दौड़ते थक गया हूं… अब विश्राम चाहता हूं. बाबा (तुलसी) को तो विश्राम राम में मिला, मैं कहां जाऊं? तुलसी की पीड़ा बयां करते-करते वह अपना दर्द बयां करने लगते हैं. प्रेम भारद्वाज के संपादकीय से नामवर जी की जो एक छवि उभरती है, वह यह कि हिंदी का शिखर पुरुष उम्र के इस पड़ाव पर बेहद अकेला है. इसी अकेलेपन को दूर भगाने के लिए नामवर जी लगातार यात्राओं पर रहते हैं. संपादकीय के अलावा कई साहित्यिक लोगों के संस्मरण भी हैं. राजेंद्र यादव और नामवर जी में साहित्यिक अदावत जगज़ाहिर है. दोनों एक-दूसरे की टांग खिंचाई का कोई मौक़ा न तो सार्वजनिक मंचों पर गंवाते हैं और न किसी निजी पार्टियों में. दोनों जब एक साथ बैठे हों तो गोष्ठी में श्रोताओं के लिए आनंदवर्षा होती है. अगर दोनों एक साथ रसरंजन कर रहे हों तो फिर तो आनंद का समुद्र ही उमड़ पड़ता है. मैं दो-तीन रसरंजन की गोष्ठियों का गवाह रहा हूं. बातें इतनी दिलचस्प कि आप उठ ही नहीं सकते. नामवर पर लिखते हुए राजेंद्र यादव ने अपना खिलंदड़ापन नहीं छोड़ा और नामवर जी के गुणों के साथ उनके कुछ दुर्गुणों को भी उजागर कर दिया. यादव जी के अलावा भारत भारद्वाज, सुशील सिद्धार्थ के संस्मरण अच्छे हैं, लेकिन प्रभाष जी के सुपुत्र संदीप जोशी का संस्मरणनुमा लेख उनकी खुद की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है. इस अंक में नामवर जी की किताबों के बहाने भी कई लेख हैं, लेकिन सबसे सारगर्भित लेख हिंदी के एक और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का है. अगर हम कुछ भर्ती की रचनाओं को दरकिनार कर दें तो नामवर सिंह पर निकला पाखी का यह अंक अहम बन पड़ा है, जिसके लिए इसके संपादक को साधुवाद दिया जाना चाहिए.
आशुतोष ने भी बेहद श्रमपूर्वक पत्रिका को संयोजित किया है, लेकिन कथादेश के साथ जो एक दिक्कत है, वह है पत्रिका की छवि, जो उसकी ताक़त भी है, लेकिन साथ ही सबसे बड़ी कमज़ोरी और सीमा भी है. आशुतोष ने मेहनत से अंक निकाला तो है, लेकिन कई भर्ती की चीजों को छापने का मोह छोड़ पाते तो पत्रिका का अंक और अहम हो जाता. साठ रुपये मूल्य की इस पत्रिका में मनोहर जोशी, अशोक वाजपेयी से लेकर कई बड़े साहित्यिक नाम हैं.
बात आलोचक और आलोचना की हो रही है तो एक साहित्यिक पत्रिका की चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है. यह पत्रिका है पिछले तैंतालिस साल से निर्बाध रूप से निकल रही समीक्षा. इस पत्रिका का प्रकाशन जुलाई 1967 में पटना से शुरू हुआ, प्रधान संपादक थे आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा और संपादक थे गोपाल राय. गोपाल राय जब तक पटना में रहे, हिंदी में समीक्षा की यह पहली पत्रिका वहीं से निकलती रही. बाद में वह दिल्ली आ गए तो इस पत्रिका को भी साथ लेते आए. जिस लगन और मेहनत से पहले गोपाल जी और बाद में उनके सुपुत्र सत्यकाम ने पत्रिका का प्रकाशन किया, वह क़ाबिले तारी़फ है. इस पत्रिका का हिंदी साहित्य के लिए सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसने डॉ. नामवर सिंह के बाद हिंदी आलोचना संसार में उभरे बहुत सारे आलोचकों, जैसे मधुरेश, नंद किशोर नवल, हर दयाल एवं मूलचंद गौतम आदि को पहचान दिलाई. अब इस पत्रिका में एक और बदलाव हुआ है. अब समीक्षा का प्रबंधन सामयिक प्रकाशन के पास आ गया है और उसके मालिक महेश भारद्वाज इसके प्रबंध संपादक बन गए हैं. पत्रिका का रंग-रूप बदल गया है. आकर्षक गेटअप और बढ़िया छपाई की बदौलत पत्रिका में नई जान फूंक दी गई है. गोपाल राय ने हिंदी कहानी के एक संभावनाशील आलोचक सुरेंद्र चौधरी को शिद्दत से याद किया है. गोपाल जी के पास हिंदी साहित्य का विपुल अनुभव है और पत्रिका के प्रबंध संपादक अगर उस अनुभव का लाभ उठा सके तो पत्रिका में और जान आ जाएगी. साथ ही संस्थागत पूंजी के सहारे यह पत्रिका निर्बाध रूप से अपने प्रकाशन के पचास साल पूरे कर सकती है. अगर यह होता है तो हिंदी प्रकाशन के लिए यह बड़ी घटना होगी.
कथादेश के विषेशांक का संपादन कवि आशुतोष भारद्वाज ने किया है. आशुतोष ने भी बेहद श्रमपूर्वक पत्रिका को संयोजित किया है, लेकिन कथादेश के साथ जो एक दिक्कत है, वह है पत्रिका की छवि, जो उसकी ताक़त भी है, लेकिन साथ ही सबसे बड़ी कमज़ोरी और सीमा भी है. आशुतोष ने मेहनत से अंक निकाला तो है, लेकिन कई भर्ती की चीजों को छापने का मोह छोड़ पाते तो पत्रिका का अंक और अहम हो जाता. साठ रुपये मूल्य की इस पत्रिका में मनोहर जोशी, अशोक वाजपेयी से लेकर कई बड़े साहित्यिक नाम हैं. इस वजह से इसे हम अंग्रेजी के शब्द उधार लेते हुए कलेक्टर्स एडिशन कह सकते हैं. साथ ही यहां यह भी स्पष्ट रूप से सा़फ करने की ज़रूरत है कि कथादेश के अंक में कोई स्पार्क नहीं दिखाई देता. अशोक वाजपेयी को यह संग्रह बहुत पसंद आया है और उन्होंने जमकर इसके अतिथि संपादक की प्रशंसा की है, लेकिन देखना यह होगा कि हिंदी के पाठक अशोक वाजपेयी से कितना इत्ते़फाक़ रखते हैं.
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)

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