रविवार, 10 जुलाई 2011

पौराणिक आख्यान, नई व्याख्या




प्राचीन भारतीय ग्रंथों में महाभारत और रामायण दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिन्हें लेकर विद्वानों के बीच आज भी आकर्षण है. इन ग्रंथों को पिछले सैकड़ों सालों से नए-नए तरीक़े से व्याख्यायित करने और उसके  पुनर्पाठ की तमाम कोशिशें जारी हैं. निरंतर अनुसंधान के फलस्वरूप अनेक नए आधार स्रोतों का उद्घाटन भी होता रहा है. हिंदी के अलावा विश्व की अनेक भाषाओं में महाभारत पर अब भी शोध जारी है और देशी-विदेशी अध्येताओं के शोधपरक लेख लगातार प्रकाशित होते रहते हैं. महाभारत में तो इतनी कहानियां और घटनाएं समांतर रूप से घटित होती हैं कि उन्हें एक शोध लेख में समेटना नामुमकिन सा लगता है. देशी-विदेशी शोधार्थियों के बीच इस बात की होड़ सी रहती है कि महाभारत के नवीन शोध-परिणामों के आधार पर विकासशील साहित्य चेतना के आलोक में संपूर्ण परिदृश्य का पुनरावलोकन किया जाए. महाभारत के पात्र कृष्ण में पश्चिम के लेखकों की विशेष रुचि रही है और वे कृष्ण की नीतियों को समग्रता में समझे बग़ैर हल्के तौर पर रेखांकित कर उन्हें धूर्त और पाखंडी तक करार देते रहे हैं. जबकि अगर हम कृष्ण के चरित्र का समग्रता में आकलन करें तो धर्मस्थापन उसका प्रमुख और एकमात्र उद्देश्य है. लेकिन महाभारत को गीता से अलग करके देखने से कृष्ण के चरित्र के बारे में भ्रांतियां पैदा हुई हैं, जबकि उनके चरित्र के आकलन के लिए आलोचकों को महाभारत के साथ-साथ गीता को आधार बनाना चाहिए.
गुरुचरण दास की किताब समग्रता में महाभारत का न तो पुनर्पाठ है और न ही उसका पुनरावलोकन. डिफिक्लटी ऑफ बीइंग गुड में गुरुचरण दास अपनेअप्रोच में बेहद सतर्क और चुनिंदा हैं. इस किताब में उन्होंने महाभारत के पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को शोध का आधार बनाया है और उसे अपने अध्ययन एवं समझ के आधार पर परखने की कोशिश भी की है.
भारत में कम ही लोगों को पता होगा कि महाभारत को कई बार लिखा जा चुका है. इसे विद्वानों ने अपने-अपने तरीक़े से लिखा, लेकिन उसके पात्रों एवं पात्रों के चरित्र के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं की. लेकिन जितना बदलाव किया गया, उसे देखकर इसके मूल लेखक वेदव्यास भी आश्चर्यचकित रह जाते. वजह यह है कि अधिसंख्य जनता के दिल में महाभारत को धर्मग्रंथ का दर्ज़ा प्राप्त है, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित. हर कोई महाभारत के पात्रों से परिचित है, चाहे वह भीष्म हों, युधिष्ठिर हों, भीम हों, अर्जुन हों या फिर कृष्ण या द्रौपदी. इन पात्रों के नाम से भारत में कई किंवदंतियां एवं लोककथाएं भी प्रचलित हैं और जब धर्म एवं सच्चाई की बात होती है तो लोग आज भी युधिष्ठिर को याद करते हैं. देवी-देवताओं के बाद महाभारत के पात्रों को ही भारतीय जनमानस में वृहत्तर स्वीकार्यता है. इसी स्वीकार्यता और पात्रों के चरित्र की विविधताओं से वशीभूत होकर लेखक एवं शोधार्थी इसकी ओर आकर्षित होते हैं. कॉरपोरेट जगत में बेहतरीन करियर छोड़कर गुरुचरण दास पूर्णकालिक लेखक बने और अपनी किताब इंडिया अनबाउंड की सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने भारतीय धर्मग्रंथों को नए सिरे से व्याख्यायित करने का फैसला लिया. इस तरह से उनकी नई किताब द डिफिक्लटी ऑफ बीइंग गुड की नींव पड़ी. अपने इस फैसले के बारे में गुरुचरण दास ने बेहद दिलचस्प टिप्पणियां की हैं. जब उन्होंने अपनी मां को इस निर्णय के बारे में बताया तो वह बेहद ख़ुश हुईं और कहा कि जीवन के तीसरे पड़ाव वानप्रस्थ में धर्मग्रंथों की ओर झुकाव स्वाभाविक है. जब उन्होंने एक पूर्व आईएएस अधिकारी, जो इंदिरा गांधी के बेहद क़रीब रहे और खुद को घोर सेक्युलर मानते हैं, को अपने इस निर्णय की जानकारी दी तो उनकी प्रतिक्रिया बेहद दिलचस्प थी, हे भगवान! आप तो भगवा रंग में रंगना चाहते हैं. यह प्रतिक्रिया सुनकर गुरुचरण दास थोड़े विचलित हो गए और उनके मन में सवाल खड़ा हो गया कि यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है, जो संस्कृत के  ग्रंथों को पढ़ने वालों को राजनैतिक नज़रिए से देखता है. परेशान होना स्वाभाविक है, क्योंकि भारत के  छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों ने धर्मग्रंथों और हिंदू जीवन पद्धति को सांप्रदायिकता से जोड़ने का काम किया है. उन्होंने यह पोजिशनिंग कर दी है कि अगर कोई ज्ञान की अपनी समृद्ध विरासत की बात करे, संस्कृत में लिखे ग्रंथों को पढ़ने की ख्वाहिश ज़ाहिर करे, पौराणिक आख्यानों पर शोध या फिर वेद, पुराण एवं उपनिषद पर बहस करे तो वह भगवा ब्रिगेड का सदस्य है. दूसरा जो बड़ा सवाल इस किताब के बहाने से खड़ा होता है, वह यह है कि जब लेखक महाभारत का पुनर्पाठ और उसे नए सिरे से व्याख्यायित करने की योजना बनाता है तो इसके लिए उसने शिकागो विश्वविद्यालय को चुना. इस चुनाव के पीछे लेखक का अपना निर्णय हो सकता है, लेकिन जो संकेत उन्होंने दिए हैं, वे बेहद चिंतित और भारतीय शिक्षा प्रणाली को कठघरे में खड़ा करने वाले हैं. महाभारत को संस्कृत और अंग्रेजी में पढ़ने-समझने के लिए विदेशी विश्वविद्यालय में जाना इस बात की ओर भी संकेत करता है कि हमारे विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा का स्तर कैसा है. हमारी शिक्षा और शोध प्रणाली में विद्वानों का भरोसा क्यों नहीं जम पा रहा है? कोई ऐसी पद्धति क्यों नहीं विकसित हो पा रही है, जहां हम अपने धर्मग्रंथों को नए सिरे से उद्घाटित कर सकें. ये ऐसे सवाल हैं, जो आने वाले दिनों में शिक्षा के कर्ताधर्ताओं के सामने खड़े होकर उनसे जवाब तलब करेंगे.
गुरुचरण दास की किताब समग्रता में महाभारत का न तो पुनर्पाठ है और न ही उसका पुनरावलोकन. डिफिक्लटी ऑफ बीइंग गुड में गुरुचरण दास अपनेअप्रोच में बेहद सतर्क और चुनिंदा हैं. इस किताब में उन्होंने महाभारत के पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को शोध का आधार बनाया है और उसे अपने अध्ययन एवं समझ के आधार पर परखने की कोशिश भी की है. इसमें गुरुचरण दास ने दुर्योधन की ईर्ष्या, द्रोपदी के साहस, युधिष्ठिर के धर्मानुसार कर्म, अर्जुन की निराशा, भीष्म पितामह की निस्वार्थता, समाज में अपनी स्थिति को लेकर कर्ण की चिंता, कृष्ण का छल, अश्वत्थामा का बदला, युधिष्ठिर का पश्चाताप और महाभारत का धर्म आदि बिंदुओं पर अलग-अलग अध्याय लिखे हैं. इसके बाद डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड में इस अध्ययन के निचोड़ को अपने निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया है. लेकिन एक बात लगातार सालती है कि लेखक ने अनेक जगह देशी-विदेशी लेखकों को उद्धृत किया है. भारतीय लेखकों में आर के नारायण और जी वी नरसिम्हा को तो उन्होंने याद किया है, लेकिन चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भुला दिया. ऐसा अगर सायास किया गया है तो लेखक को इस बात का संकेत करना चाहिए था, लेकिन अगर असावधानीवश या अज्ञानता में ऐसा हुआ है तो यह एक बड़ी चूक है, क्योंकि महाभारत पर सी राजगोपालाचारी के काम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. अपने निष्कर्ष में गुरुचरण दास कहते हैं कि इस ग्रंथ में भगवान के अवतार के रूप में कृष्ण की धूर्तता और छल को जायज़ ठहराना मुश्किल है. हमें कृष्ण को उसी रूप में देखना होगा, जैसा इस ग्रंथ में उनके चरित्र को रचा गया है. उनके व्यक्तित्व के दोनों पहलुओं को सामने रखकर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है. ग्रंथ के मुताबिक़, कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं और इसके अन्य पात्र उन्हें उसी रूप में देखते और इज़्ज़त देते हैं. पिछले लगभग दो हज़ार साल से भारतीय जनमानस कृष्ण के इसी चरित्र को सुनता-पढ़ता रहा है और फिर भी उसकी पूजा करता रहा है. गुरुचरण दास स्वीकार करते हैं कि कृष्ण का चरित्र बेहद दिलचस्प है. यह किताब इस वजह से पठनीय है कि इसमें लेखक की शैली और तर्कक्षमता पाठकों को बांधती है. पर्याप्त शोध और सामग्री के आधार पर लिखी इस किताब में ऐसी कई स्थितियां हैं, जिनका चित्रण और उनके पीछे का तर्क अद्भुत है. जैसे-जब युद्ध के मैदान में विरक्त अर्जुन कृष्ण से पूछता है कि सही क्या है. यहां अर्जुन उनके  तर्कों से नहीं, बल्कि उनकी शैली से प्रभावित होता है और उसके मन की सारी शंकाएं दूर हो जाती हैं तथा वह गांडीव उठा लेता है. इस किताब के बारे में स़िर्फ यही कहा जा सकता है कि इसने महाभारत को एक बार फिर से नए तरीक़े से तर्कपूर्ण ढंग से सामने रखा है और भारतीय जीवन पद्धति के कुछ विचारणीय पक्ष को उसके केंद्र में स्थापित किया है.
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)

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