बुधवार, 13 जुलाई 2011

पीछे हूं कहां आपसे रफ्तार में देखें--फ़ातिमा हसन



पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़ातिमा हसन एक अखिल भारतीय मुशायरे में हिस्सा लेने के लिए पिछले दिनों भारत में थीं. इस दौरान चौथी दुनिया (उर्दू) की संपादक वसीम राशिद ने उनसे एक लंबी बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश:
मैं बहुत मज़बूत क़दमों से चली हूं, मैंने कोई शॉर्टकट इस्तेमाल नहीं किया. मैं कभी रिएक्शन में नहीं पड़ी कि लोग मुझे क्या समझते हैं या क्या कहते हैं. मैंने शुरू में ही लिख दिया था कि जैसी भी हूं, अच्छी या बुरी, अपने लिए हूं. मैं ख़ुद को दूसरों की नज़र से नहीं देखती. यह समझती हूं कि जो ताक़त मैं इस तरह की बातों में लगाऊंगी, अगर उसे किसी सकारात्मक काम में लगाऊंगी तो उसका सकारात्मक परिणाम ही आएगा.

मूल रूप से आप कहां से संबंध रखती हैं?
मेरा जन्म तो कराची में हुआ, लेकिन मेरे माता-पिता का संबंध उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले से है, जहां से वे पाकिस्तान चले गए थे. वहां आज भी मेरे मौसेरे भाई-बहन रहते हैं.
आप जब भी भारत आती हैं तो अपने रिश्तेदारों से मिलने ज़रूर जाती होंगी?
मेरे कई रिश्तेदार यहां दिल्ली में भी हैं. जितने मिलने वाले हैं, मैं तो सबको अपना रिश्तेदार समझती हूं. जगन्नाथ आज़ाद साहब जब भी पाकिस्तान जाते थे, मेरे घर ठहरते थे. मुशायरा ख़त्म होने पर लोग पूछते कि कहां जाना है तो वह कहते कि यहां मेरी बेटी फ़ातिमा रहती है. हमारा क़लम का रिश्ता भी ख़ून के रिश्तों की तरह स्थिर और पवित्र है.
आपकी शायरी की शुरुआत कहां से हुई?
मैं 1973 से निरंतर लिख रही हूं. 1973 में मेरा पहला संग्रह-बहते हुए फूल प्रकाशित हुआ. इसके बाद दूसरा संग्रह दस्तक से दर का फ़ासला आया और फिर तीसरा संग्रह यादें भी अब ख्वाब हुईं प्रकाशित हुआ. फिर इन तीनों संग्रहों को एक साथ प्रकाशित किया गया याद की बारिशें नाम से. एक संग्रह जल्द ही प्रकाशित होने वाला है. इसके अलावा कहानियों का एक संग्रह है-कहानियां गुम हो जाती हैं. फिर मैंने पीएचडी की. ज़ाहिदा ख़ातून शरवानिया अलीगढ़ में 1894 से 1922 तक थीं. वह पहली ऐसी शायरा थीं, जो पत्रिकाओं में छपती थीं. उन पर काम नहीं हुआ था, मैंने उन पर काम किया. वजह, उर्दू अदब के इतिहास में इतनी बड़ी महिला साहित्यकार का नाम नहीं आ रहा था. मैंने अलीगढ़ जाकर उनके खानदान से मिलकर सामग्री एकत्र की और उन पर कराची यूनिवर्सिटी से पीएचडी की, जिसे अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू पाकिस्तान ने प्रकाशित किया. मेरे परीक्षक ख़लीक अंजुम थे. उनके अलावा मैंने स्त्री आलोचना पर तीन किताबें संपादित की हैं, ख़ामोशी की आवाज़, दूसरी फेमिनिज़्म और हम, तीसरी ब्लूचिस्तान का अदब और ख्वातीन. चौथी नसाई रद तश्कील है, जिसमें हमने यह देखा है कि मर्दों ने महिलाओं को किस तरह लिखा है. इसमें फ़हमीदा रियाज़ ने नून मीम राशिद, मैंने राजेंद्र सिंह बेदी, आसिफ़ फारुख़ी ने अली अब्बास हुसैनी और तनवीर अंजुम ने अज़ीज़ अहमद की तहरीरों का जायज़ा लिया. मेरी जो किताब इस वक़्त छपने को है, वह है किताब दोस्तां, जिसमें 25 लेख हैं. इनमें डॉक्टर असलम फ़ारुख़ी, ख़ालिदा हुसैन, फ़हमीदा रियाज़, किश्वर नाहीद, मुनीर नियाज़ी, अहमद फ़राज़ और कई साहित्यकारों एवं शायरों के लेखों को पढ़ा गया है.
जब आपने शेर कहना शुरू किया तो क्या माहौल साज़गार था?
माहौल तो साज़गार होने लगा था. अदा जाफ़री आईं और उन्होंने एक औरत की हैसियत से अपनी निजी पहचान के साथ लिखा और सामने आईं. उनकी शायरी की सराहना हुई और उन्हें हाथोंहाथ लिया गया. इसके बाद ज़हरा निगाह, किश्वर नाहीद, फ़हमीदा रियाज़ और परवीन शाकिर आईं. लेकिन मेरे साथ 1970 के दशक में जो नस्ल आई, उसने इस बात पर विरोध किया कि उनके लेखों के वे अर्थ नहीं निकाले जा रहे हैं, जो वह लिख रही है. स्त्री आलोचना स्त्री चेतना पर ज़ोर देती है. हमने बाक़ायदा स्त्री आलोचना पर काम किया और बताया कि हमारे लेखों को किस तरह पढ़ा जाए. हमने कहा, आप जो समझ रहे हैं, हमने वह नहीं लिखा है और हम जो लिख रहे हैं, आप समझ नहीं रहे हैं. आप सदियों से बने-बनाए सामाजिक मूल्यों के तहत हमारे किरदार को देखना चाहते हैं, उसी को मद्देनज़र रखकर हमारे लेखों को पढ़ते हैं, औरत या तो आपको फ़रिश्ता नज़र आती है या बदमाश.
अगर औरत किसी मुक़ाम पर पहुंचती है तो उसे तरह-तरह की बातों का सामना करना पड़ता है. क्या आपको भी उन्हीं हालात से लड़ना पड़ा?
मैं बहुत मज़बूत क़दमों से चली हूं, मैंने कोई शॉर्टकट इस्तेमाल नहीं किया. मैं कभी रिएक्शन में नहीं पड़ी कि लोग मुझे क्या समझते हैं या क्या कहते हैं. मैंने शुरू में ही लिख दिया था कि जैसी भी हूं, अच्छी या बुरी, अपने लिए हूं. मैं ख़ुद को दूसरों की नज़र से नहीं देखती. यह समझती हूं कि जो ताक़त मैं इस तरह की बातों में लगाऊंगी, अगर उसे किसी सकारात्मक काम में लगाऊंगी तो उसका सकारात्मक परिणाम ही आएगा. आपको आगे बढ़ने के लिए मज़बूत क़दमों के साथ आगे की सोचकर चलना होगा. रुकावटें तो आती हैं, हर कामयाब आदमी को रुकावटें झेलनी पड़ती हैं. मैंने जो लिखा, वह छपवाती रही. इससे मेरा कोई वास्ता नहीं रहा कि कौन मुझे मुशायरे में बुला रहा है और कौन टीवी पर. काम पब्लिसिटी से ज़्यादा होना चाहिए. कुछ चीज़ें अपने ज़हन में बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए. एक तो यह कि हम शो बिज़ लिखने वाले नहीं हैं कि हम अपना स्कैंडल बनवाएं और फिर उससे मशहूर हों. तो फिर हमारा काम पीछे रह जाएगा. हम राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं, हम बुद्धिजीवी हैं. हमें बुद्धिजीवी का किरदार अदा करना चाहिए. राजनीतिज्ञ हमसे इशारे लें, हम उनके इशारों पर न चलें.
महिला साहित्यकारों के बारे में आपका क्या कहना है?
यह महिलाओं का संकल्प है. जहां कहीं भी ग़लत व्यवहार हो रहा है, वहां अगर प्रतिरोध करें तो महिलाएं करें. पाकिस्तान के साथ भारत में भी महिलाएं गंभीर लिख रही हैं. जब वे हमसे मिलती हैं तो ऐसा लगता है कि हम सब एक ही विषय पर सोच रहे हैं.
हमारे पाठकों के लिए कुछ सुनाइए?
आंखों में नज़ुल़्फों में न रुख़सार में देखें, मुझे मेरी दानिश मेरी उफ़कार में देखें.
सौरंग मज़ामीन हैं जब लिखने पर आऊं, गुलदस्ता-ए-माना मेरे अश्आर में देखें.
पूरी न अधूरी हों न कमतर हों न बरतर, इंसान हूं इंसान के मियार में देखें.
रखे हैं क़दम मैंने भी तारों की ज़मीं पर, पीछे हूं कहां आपसे, रफ़्तार में देखें.
जब आप भारत आती हैं तो आपको कैसा महसूस होता है?
बिल्कुल अजनबीपन महसूस नहीं होता. यहां आकर महसूस ही नहीं होता कि हम अपने देश से बाहर हैं. बाहर निकलने में सबसे बड़ी परेशानी ज़ुबान की आती है या फिर खाने-पीने की, लेकिन यहां तो ज़ुबान एक है, लिबास एक है और रिवायतें भी एक हैं.
इस समय पाकिस्तान में जो शायरी हो रही है, उसका ख़ास विषय क्या है?
शायरी के लिए कोई ख़ास विषय तो होता नहीं है. शायरी तो इंसान का ऐसा इज़हार है, जिसमें हर विषय समां जाता है. इसीलिए शायरी में बड़ी गुंजाइश होती है. आंतरिक घटनाएं हों, बाहरी हालात हों, सियासत हो, मौसम, हुस्न, इश्क या प्राकृतिक दृश्य, सब कुछ इसमें आ जाता है. शायरी न नारेबाज़ी है और न ही पत्रकारिता. शायरी में सबसे बड़ी चीज़ शायरी होना चाहिए. शायर और साहित्यकार इतना संवेदनशील होता है कि वह जो कुछ लिखता है, उस पर आंतरिक घटनाओं के प्रभाव ज़रूर पड़ते हैं. इसलिए उसका लिखा हुआ आगे चलकर इतिहास का हिस्सा बन जाता है.
आप भारत-पाक के मुशायरों में क्या बुनियादी फ़र्क़ महसूस करती हैं?
मैं बहुत ज़्यादा मुशायरों में शरीक नहीं होती, उन्हीं मुशायरों में जाती हूं, जो कांफ्रेंस के साथ होते हैं. हर ज़माने में दो तरह का अदब लिखा जाता है, एक पॉपुलर अदब कहलाता है, जो सभी को अपील करता है और पसंद आता है. दूसरे अदब में एक सतह होती है, उसमें फ़िक्र होती है, उसे अदब-ए-आलिया कहते हैं. इस तरह पाकिस्तान में भी दो तरह के मुशायरे हो रहे हैं.
भारतीय मुशायरे में आपकी पसंद कौन-कौन हैं?
अभी मुझे कुछ नाम याद आते हैं, मसलन दाराबानो वफ़ा, साजिदा ज़ैदी, ज़ाहिदा ज़ैदी, शफ़ीक़ फ़ातिमा शेरा, मलिका नसीम, शहनाज़ नबी और शबनम ईशाई आदि.

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