बुधवार, 19 नवंबर 2014

मगही भाषा का साहित्यिक विकास / पूनम मिश्र







मगही का भाषिक स्वरुप और उसका साहित्यिक विकास
पूनम मिश्र

 
"सा मागधी मूलभाषा' इस वाक्य से यह बोध होता है कि भगवान गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा के रुप में जन सामान्य के बीच बोली जाती थी। कहते हैं कि भाषा समय पाकर अपना स्वरुप बदलती है और विभिन्न रुपों में विकसित होती है। मगही का विकास "मागधी' शब्द से हुआ है। ध्वनि परिवर्तन के कारण "मागधी > मागही > मगही।' आद्य अक्षर में स्वर संकोच होने के कारण मा > म के रुप में विकसित हुआ है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मगही भाषा का विकास मागधी (पालि) अथवा नाटकों में प्रयुक्त मागधी प्राकृत से हुआ अथवा मगध जनपद में बोली जाने वाली किसी अन्य भाषा से। जहां तक नाटकों में प्रयुक्त होने वाली मागधी प्राकृत का सम्बन्ध है उससे मगही का विकास नहीं माना जा सकता है क्योंकि मागधी में र का ल और स का श हो जाता है। जबकि मगही में र औऱ ल तथा स आदि ध्वनियों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। मगही में श का प्रयोग ही नहीं होता है। मागधी में ज का य हो जाता है, किन्तु मगही में यह ज के रुप में ही मिलता है, यथा - जन्म > जनम, जल > जल। मागधी में अन्वर्वती च्छ का श्च हो जाता है जबकि मगही में छ का छ ही रहता है, यथा - गच्छ > गाछ, पुच्छ > पूंछ, गुच्छक > गुच्छा। मागधी में क्ष का श्क हो जाता है जबकि मगही में क्ष का ख हो जाता है, यथा - पक्ष > पक्ख > पख, पंख, क्षेत्र > खेत्त > खेत। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है मागधी प्राकृत से मगही का विकास नहीं माना जा सकता है। पालि जिसे मागधी कहते हैं, उसमें मगही के अनेक शब्द मिलते हैं, यथा - निस्सेनी > निसेनी, गच्छ > गाछ, रुक्ख > रुख, जंखणे > जखने, तंखणे > तखने, कंखणे > कखने, कुहि, कहं > कहां, जहि, जहीं > जहां आदि।
किन्तु पालि और मगही की तुलनात्मक विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि पालि (मागधी) से भी मगही विकसित नहीं हुई है। सुनीति कुमार चटर्जी ने पश्चिमी मागधी अपभ्रंश से बिहारी बोलियों को विकसति माना है। दोहों की भाषा और मगही भाषा की तुलना से यह तथ्य सुनिश्चित होता है कि मगही सिद्धों की भाषा से विकसित हुई है। सर्वनाम में सरहपाद की भाषा में जहां को, जे का प्रयोग होता है, वही मगही के, जे का प्रयोग प्रचलित है। चार, चउदह, दस (दह) आदि संख्यावाचक शब्दों का प्रयोग मगही के समान है। सामयिक परिवर्तन के कारण प्रयोग मगही तथा सिद्धों की मगही में सामयिक परिवर्तन दृष्टिगत होता है किन्तु दोनों की प्रवृति एवं प्रकृति में एकरुपता है।
सिद्धों की शब्दावलियां कुछ परिवर्तन के साथ मगही में प्रयुक्त होती है। यथा - अइसन, अप्पन, कइसे, लेली-लेली, लेलकइ, आइल > आयल, अइलइ, अन्धारि > अंधार, फटिला > फटिलइ, अधराति, अधरतिया, भइली, भेली भइली, आदि। सिद्ध साहित्य की पंक्तियां भी मगही के अत्यन्त निकट मालूम पड़ती है :
भाव न होइ अभाव ण जागइ।
अइस संवाहै को पतिआइ।।
आजि भूसु बंगाली भइली
णिअधरणी चण्डाली लली (चर्यापद २९)।
सिद्धों की भाषाकार गठनात्मक रुप मगही से पूर्णत: एकनिष्ठ है। किसी भाषा की गठनात्मक स्वरुप का निरुपण, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, उपसर्ग तथा प्रत्यय आदि से होता है। सिद्धों की भाषा की संज्ञा, सर्वनाम, मगही के समान ही हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि सिद्धों की भाषा से ही मगही का भाषिक रुप विकसित है।
सिद्धों की भाषा और मगही में पर्याप्त समरुपता है। उदाहरण के लिये यर्यापद की कुछ पंक्तियां देखी जा सकती है:
सरह भषइ जप उजु भइला
(सरहपा चर्यापद)
नाना तरुवर माउलिल ते गअणत लालेगि डालि।
(सरहपा चर्यापद)
आइल गराहक अपने बहिआ।
(बिरुआ, चर्यापद)
उपर्युक्त पंक्तियों में सिद्धों ने वर्तमान भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय "इल' का प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोग आधुनिक मगही में भी मिलते हैं। मागधी अपभ्रन्श से आधुनिक मगही पूर्णत: सम्बद्ध है। अपभ्रन्श में प्रयुक्त विभक्तियुक्त संज्ञापदों के रुप मगही में पाये जाते हैं, यथा - घरे में दिनरात बइठल ही। बाबू जी घरे न हथुन । अपभ्रन्श काल में विभक्तिबोधक पर सर्गों का प्रयोग होने लगा था, जिनका विकास अन्य भाषाओं के साथ मगही में भी हुआ। इसी प्रकार संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया आदि का विकास मागधी (पश्चिमी) अपभ्रन्श से हुआ। अपभ्रन्श में तत्सम शब्दों के बहिष्कार की प्रकृति दृष्टिगत होती है, आधुनिक मगही में भी यह प्रवृति वर्तमान है। मगही के तद्भव और देशी शब्द-तन्त्र मुख्यत: प्राकृत और अपभ्रन्श के शब्द-तन्त्र के ही विकसित रुप हैं। यहां यह बता देना समीचीन है कि सिद्ध साहित्य के रुप में प्राप्त मगही के प्राचीनकालिक स्वरुप के अनन्तर उसके आधुनिक रुप ही मिलते हैं, मधयकालीन स्वरुप अप्राप्त है।
मगही का स्वतन्त्र भाषात्व है किन्तु मैथिली भाषा वैज्ञानिकों अर्थात् जयकान्त मिश्र ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मगही का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जयकान्त मिश्र ने मगही को मैथिली की एक उपबोली के रुप में सिद्ध किया है किन्तु मैथिली और मगही को एक दूसरे से पृथक करने वाली विशिष्टता दोनों की औच्चारणिक एवं ध्वन्यात्मक परिवर्तन की प्रकिया है। अत: मगही को मैथिली की उपबोली के रुप में स्वीकीर नहीं किया जा सकता है। इसका स्वतन्त्र भाषात्व है।
मगही तथा भोजपुरी में भी कुछ भाषिक एवं व्याकरणिक एकरुपता दृष्टिगत होती है, किन्तु दोनों भाषाओं का पृथक-पृथक अस्तित्व है। बिहारी बोलियों में पाची जानेवाली आन्तरिक एकरुपता अवश्य मिलती है। किन्तु आन्तरिक विषमता भी प्रभूत रुप में मिलती है। मगही तथा भोजपुरी में व्याकरणिक भिन्नता भी है। मगही क्रियाओं में जहां कर्ता के अनुरुप लिंगभेद नहीं होता वहां भोजपुरी में होता हा। संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि मगही की स्वतन्त्र भाषिक सत्ता है।
मगही भाषा की सीमा का विवेचन करने पर पता चलता है कि यह केवल पटना और गया जिले में ही नहीं अपितु झारखण्ड प्रदेश के हजारीबाग, गिरिडीह आदि जिलमें भी बोली जाती है। मगध के पश्चिमी सीमा पर झारखण्ड राज्य के पलामू जिले के कुछ भागों में तथा पूर्व में बिहार राज्य के ही मुंगेर तथा भागलपुर के क्षेत्रों में भी मगही बोली जाती है।
मगही क्षेत्र के उत्तर में गंगापार तिरहुत क्षेत्र में मैथिली बोली का क्षेत्र है। पश्चिम में शाहाबाद तथा पलामू का भोजपुरी क्षेत्र है। उत्तर पूर्वी सीमा पर मुंगेर, भागपुर और संथाल परगना (झारखण्ड) में अंगिका (छिकाछिकी) बोली जाती है। मगही की दक्षिण सीमा पर रांची में सदानी भोजपुरी का क्षेत्र है।
ग्रियर्सन महोदय ने मगही के दो रुपों को स्वीकार किया है:
(क) पूर्वी मगही; तथा
(ख) शुद्ध मगही।
पूर्वी मगही का कोई श्रृंखलाबद्ध रुप नहीं है। यह मगही हजारीबाग के दक्षिणपूर्व भाग, मानभूम एवं रांची के दक्षिण पूर्व भाग खारासावां तथा दक्षिण में मयुरभंज एवं बामरा तक बोली जाती है। मालदा जिले के पश्चिमी भाग में भी पूर्वी मगही का क्षेत्र है।
शुद्ध मगही अपने क्षेत्र में बोली जाती है। यह पश्चिमी क्षेत्र में पटना, गया, हजारीबाग, मुंगेर और भागलपुर जिले में ही नहीं अपितु पूर्व क्षेत्र में रांची के दक्षिण भाग में, सिंहभूम के उत्तरी क्षेत्र में तथा सरायकेला एवं कारसावां के कुछ क्षेत्रों में मगही बोली जाती है।
पूर्वी मगही तथा शुद्ध मगही के साथ ही मिश्रित मगही की भी एक व्यापक संज्ञा हो सकती है। मिश्रित मगही का रुप वहां दिखाई पड़ता है जहां आदर्श मगही अपनी सीमा पर अन्य सहोदर भाषाओं, जैसे मैथिली और भोजपुरी से एक से एक होकर एवं अपने अस्तित्व को क्षीरोदकीभूत कर सीमावर्ती बोलियों के रुप में व्यक्त होती है।
आधुनिक काल में ही मगही के अनेक रुप दृष्टिगत होते हैं। मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार अतीव व्यापक है, परिणामत: स्थान भेद के कारण इसके रुप भेद भी प्रचलित हैं। प्रत्येक बोली या भाषा कुछ दूरी पर बदल जाती है। मगही भाषा के निम्नलिखित भेदों का संकेत कृष्णदेव प्रसाद ने किया है :
(क) आदर्श-मगही;
(ख) शुद्ध-मगही;
(ग) टलहा मगही;
(घ) सोनतरिया मगही;
(च) जंगली मगही।
अब क्रमवार ढ़ंग से इनका विवरण दिया जा रहा है :
आदर्श- मगही
यह मुख्यत: गया जिले में बोली जाती है।
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शुद्ध -मगही
इस प्रकार की मगही राजगृह से लेकर बिहारशरीफ के उत्तर चार कोस बयना स्टेशन (रेलवे) पटना जिले के अन्य क्षेत्रों में बोली जाती है
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टलहा -मगही
टलहा मगही मुख्य रुप से मोकामा, बड़हिया, बाढ़ अनुमण्डल के इस पार के कुछ पूर्वी भाग और लक्खीसराय थाना के कुछ उत्तरी भाग गिद्धौर और पूर्व में फतुहां में बोली जाती है।
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सोन नदी के तटवर्ती भू-भाग में पट्ना और गया जिले में सोनतरिया मगही बोली जाती है।
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जंगली मगही
राजगृह, गया, झारखण्ड प्रदेश के छोटानागपु (उत्तरी छोटानागपुर मूलत:) और विशेषतौर से हजारीबाग के वन्य या जंगली क्षेत्रों में जंगली मगही बोली जाती है।
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श्री कृष्णदेव प्रसाद ने पूर्वी मगही का उल्लेख नहीं किया है। ग्रियर्सन महोदय के अनुसार पूर्वी मगही का क्षेत्र हजारीबाग, मानभूम, दक्षिणभूम, दक्षिणपूर्व रांची तथा उड़ीसा में स्थित खारसावां एवं मयुरभंज के कुछ भाग तथा छत्तीसगढ़ के वामड़ा में है। मालदा जिले के दक्षिण में भी ग्रियर्सन पूर्वी-मगही की स्थिति स्वीकार करते हैं। भोलानाथ तिवारी ने मगही के चार रुपों का निर्धारण हिन्दी भाषा नामक पुस्तक में किया है :
(क) आदर्श-मगही;
(ख) पूर्वी-मगही;
(ग) जंगली-मगही; और
(घ) सोनतरी मगही।
भोलानाथ तिवारी की मान्यता है कि मगही का परिनिष्ठित रुप गया जिले में बोला जाता है। ग्रियर्सन ने भी गया जिले में बोली जाने वाली मगही को विशुद्धतम की संज्ञा (भारत की भाषा का सर्वेक्षण, खण्ड ५ भाग २, पृ. १२३) दी है। प्राचीन गया जनपद में मगही भाषा के तीन स्पष्ट भेद प्रचलित थे। नवादा अनुमण्डल, औरंगाबाद अनुमण्डल तथा गया के शेष क्षेत्र की मगही में स्पष्ट अन्तर है। किन्तु जिले के पुनर्गठन के पश्चात गया जिले में एक ही प्रकार की मगही प्रचलित है। पटना जिले के दक्षिणी भाग और प्राय: सम्पूर्ण गया जिले में विशेष रुप से एकरुपता पायी जाती है। पटना और गया जिले की भाषा को ही परिनिष्ठित मगही मानना युक्तिसंगत एवं समीचीन है। अत: ब्रजमोहन पाण्डेय "नलिन' जो कि पालि भाषा के मगध विश्वविद्यालय में विबागाध्यक्ष हैं मगही साहित्यकारों से निवेदन करते हुऐ लिखते हैं; ""मगही साहित्याकारों से अत: मेरा निवेदन है कि वे गया की मगही को ही परिनिष्ठित मानकर अपने रचनात्मक कार्यों का सम्पादन करें।''
मगही भाषा के प्राचीन साहित्येतिहास का प्रारम्भ आठवीं शताब्दी के सिद्ध कवियों की रचनाओं से होता है। सरहपा की रचनाओं का सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक संस्करण दोहाकोष के नाम से प्रकाशित है जिसके सम्पादक महापणिडत राहुल सांकृत्यायन हैं।
सिद्धों की परम्परा में मध्यकाल के अनेक संतकवियों ने मगधी भाषा में रचनायें की। इन कवियों में बाबा करमदास, बाबा सोहंगदास, बाबा हेमनाथ दास आदि अनेक कवियों के नाम उल्लेख हैं।
आधुनिक काल में लोकभाषा और लोकसाहित्य सम्बन्धी अध्ययन के परिणामस्वरुप मगही के प्राचीन परम्परागत लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों, मुहावरों, कहावतों तथा पहेलियों का संग्रह कार्य बड़ी तीव्रता के साथ किया जा रहा है। साथ ही मगही भाषा में युगोचित साहित्य, अर्थात् कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, एकांकी, ललित निबन्ध आदि की रचनाएं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं भाषा और साहित्य पर अनुसंधान भी हो रहे हैं।
आधुनिक काल में मगही भाषा में साहित्य प्रणयन की परम्परा आगे तीव्र गति से बढ़ी है। श्रीकान्त शास्री आधुनिक मगही साहित्य की चेतना का आरम्भ श्रीकृष्णदेव प्रसाद की रचनाओं से मानते हैं। आधुनिक मगही साहित्य की श्रीवृद्धि करने वालों में श्रीकान्त शास्री, श्रीकृष्णदेव प्रसाद, रामनरेश, पाठक, जयराम सिंह, रामनन्दन, मृत्युञ्जय मिश्र "करुणेश', योगेश्वर सिंह "योगेश', राम नरेश मिश्र "हंस', बाबूलाल "मधुकर', सतीश मिश्र, रामकृष्ण मिश्र, रामप्रसाद सिंह, रामनरेश प्रसाद वर्मा, रामपुकार सिंह राठौर, गोवर्धन प्रसाद सदय, सूर्यनारायण शर्मा, मथुरा प्रसाद "नवीन', श्रीनन्दन शास्री, सुरेश दूबे "सरस', शेषानन्द मधुकर, रामप्रसाद पुण्डरीक, अनिक विभाकर, मिथिलेश जैतपुरिया, राजेश पाठक, सुरेश आनन्द पाठक, देवनन्दन विकल, रामसिंहासन सिंह विद्यार्थी, श्रीधर प्रसाद शर्मा, कपिलदेव प्रसाद त्रिवेदी, "देव मगहिया', हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, हरिनन्दन मिश्र "किसलय', रामगोपाल शर्मा "रुद्र', रामसनेही सिंह "सनेही', सिध्देश्वर पाण्डेय "नलिन', राधाकृष्ण राय आदि के नाम प्रमुक है। जिन कवियों, लेखकों, नाटककारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं निबन्धकारों ने साहित्य की विविध विधाओं में रचनाधर्मिता को जिवन्त रखते हुए कलम चलाई है, उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है :
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प्रबन्ध काव्य एवं महाकाव्य
(क) हरिनाथ मिश्र - ललित रामायन।
(ख) हरिनाथ मिश्र - ललित भागवत।
(ग) रामप्रसाद सिंह - लोहा मरद।
(घ) योगेश्वर प्रसाद सिंह "योगेश' - गौतम।
(च) योगेश पाठक - जरासंध।
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खण्ड काव्य
(क) मिथिलेश प्रसाद मिथिलेश - रधिया।
(ख) रामप्रसाद सिंह - सरहपाद।
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मुक्तक काव्य
(क) रामनरेश प्रसाद वर्मा - च्यवन।
(ख) स्वर्णकिरण - जीवक, सुजाता।
(ग) सुरेश दूवे ""सरस'' - निहोरा।
(घ) प्रसाद सिंह - परसपल्लव।
(च) रामविलास रजकण - वासंती।
(छ) रामविलास रजकण - दूज के चाँद।
(ज) रामविलास रजकण - पनसोखा रजनीगंधा।
(झ) रामपुकार सिंह राठौर - औजन।
(ट) रामसिंहासन सिंह - जगरना।
(ठ) योगेश्वर प्रसाद ""योगेश'' - लोटचुट्टी।
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गीतिकाव्य और कविता
रामकृष्ण मिश्र - गीत के जुड़छाँट।
रामकृष्ण मिश्र - बेलपत्तर।
रामदास आर्य - गीत आदमी के।
स्वर्णकिरण - धरती फट गेलई।
श्रीनन्दन शास्री - अप्पनगीत।
महेन्द्र प्रसाद देहाती - पपिहरा।
जय प्रकाश - माटी के दीया।
रामाधार सिंह ""आधार'' - मगही कवितावली।
सतीश कुमार मिश्र - टूसा।
स्वर्णकिरण - धरती के पाती।
जयनाथ कवि - पनघट।
रामनगीना सिंह ""मगहिया'' - हलफा।
राजेनेद्र सिंह - लुआठी।
योगेश्वर प्रसाद सिंह "योगेश' - तुलसीदास।
रंजन कुमार मिश्र - ढ़रकित लोर।
मथुरा प्रसाद नवीन - बड़हिया गोली कांड।
राजकुमार प्रसाद - लुत्ती।
मृत्युञ्जय मिश्र ""करुणेश'' - गजल हे नाम।
दीनबन्धु - तीत-मीठ-गजलगीत।
सुरेश दत्त मिश्र - उगेन।
रामगोपाल शर्मा ""रुद्र'' - उपदेस - गाथा।
श्यामप्यारी कुँअर - वंदना।
रामनगीना सिंह ""मगहिया'' - भोर।
स्वर्णकिरण - मुआर।
ब्रजमोहन पाण्डेय ""नलिन'' (सं) - अतीत - गाथा।
रामप्रसाद सिंह (सं.) - झरोखा।
रामप्रसाद सिंह (सं.) - मुस्कान।
बाबूलाल मधुकर - लहरा।
रामनगीना सिंह ""महरिया'' - विक्रमपुकार।
रामनगीना सिंह ""महरिया'' - धरड़या गीत।
रामनगीना सिंह ""महरिया'' - विक्रम प्रतिज्ञा।
रामनगीना सिंह ""महरिया'' -  गवई गीत।
रामनगीना सिंह ""महरिया'' - जय मगही।
योगेश्वर प्रसाद सिंह ""योगेश'' - इँजोर।
बाबूलाल मधुकर - अंगुरी के दाग।
महेन्द्र प्रसाद शुभांसु - तरस उठल जियरा।
गोविन्द प्यासा - बधवा में भेलड़ बिहान।
गोविन्द प्यासा - सँझउती।
राजेन्द्र पाण्डेय - ढिबरी।
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कहानी संग्रह
(क) जितेन्द्र वत्स - किरिया करम।
(ख) श्रीकान्त शास्री - मगही कहानी सेंगरन।
(ग) राजेश्वर पाठक ""राजेश'' - नगरबहू।
(घ) लक्ष्मण प्रसाद - कथा थउद।
(च) रामनरेश प्रसाद वर्मा - सेजियादान।
(छ) अभिमन्यु प्रसाद मौर्य - कथा सरोवर।
(ज) अलखदेव प्रसाद अचल - कथाकली।
(झ) सुरेश प्रदास निर्द्वेन्द्ध - मुरगा बोल देलक।
(ट) तारकेश्वर भारती - नैना काजर।
(ठ) राधाकृष्ण - ए नेउर तू गंगा जा।
(ड) रामनन्दन - लुट गेलिया।
(ढ़) ब्रजमोहन पाण्डेय ""नलिन'' - एक पर एक।
(त) रामचन्द्र अदीप - गमला में गाछ।
(थ) रामचन्द्र अदीप - बिखरइत गुलपासा।
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(क) बाबूलाल मधुकर - नयका भोर।
(ख) हरिनन्दन किसलय - अप्पन गाँव।
(ग) बाबूराम सिंह ""लमगोड़ा'' - गन्धारी के सराप।
(घ) बाबूराम सिंह ""लमगोड़ा'' - बुज्झल दीया क मट्टी।
(च) अलखदेव प्रसाद अचल - बदलाव।
(छ) अभिमन्यु प्रसाद मौर्य - प्रेम अइसन होवड हे।
(ज) सत्येन्द्र प्रसाद सिंह - अँचरवा के लाज।
(झ) केशव प्रसाद वर्मा - कनहइया क दरद।
(ट) रानन्दन - कौमुदी महोत्सव
(ठ) रामनरेश मिस्त्र ""हंस'' - सुजाता।
(ड) रघुवीर प्रसाद समदर्शी - भस्मासुर।
(ढ़) गोपाल रावत पिपासा - आधी रात के बाद।
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एकांकी संग्रह
(क) छोटू नारायण शर्मा - मगही के दू फूल।
(ख) केशव प्रसाद वर्मा - सोना के सीता।
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(क) जयनाथ पति - सुनीता।
(ख) जयनाथ पति - फूलबहादुर।
(ग) जयनाथ पति - गदहनीत।
(घ) राजेन्द्र प्रसाद चौधेय - बिसेसरा।
(च) राम नन्दन - आदमी आउ देवता।
(छ) श्रीकान्त शास्री - गोदना।
(ज) चक्रधर शर्मा - हाय रे उ दिन।
(झ) चक्रधर शर्मा - साकल्य।
(ट) बाबूलाल मधुकर - रमरतिया।
(ठ) द्वारिका प्रसाद - मोनाभिन्या।
(ढ़) उपमा दत्त - पियक्कड़।
(त) रामप्रसाद सिंह - नरक-सरग-धरती।
(थ) रामविलास रजकण - धूमैल धोती।
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मगही पत्र-पत्रिकाएँ
क्रंम सं.
पत्र/पत्रिका का नाम
सम्पादक
प्रकाशन वर्ष
(क)
तरुण तपस्वी
श्रीकान्त शास्री
१९४६
(ख)
मागधी
श्रीकान्त शास्री
१९५२
(ग)
मगही
श्रीकान्त शास्री
१९५५-१९५८८
(घ)
महामगध
गोपाल मिश्र केसरी
१९५६
(च)
बिहान
श्रीकान्त शास्री
१९५८-१९७८
(छ)
मगही सनेस
रामलखन शर्मा
१९६५
(ज)
मगही हुंकार
योगेन्द्र
१९६६
(झ)
सुजाता
बाबूलाल मधुकर
१९६७
(ट)
माँ
बांके बिहारी ""वियोगी''
१९८०
(ठ)
सारथी
मथुरा प्रसाद नवीन
-
(ड)
मगही लोक
रामप्रसाद सिंह
१९७७-१९७९
(ढ़)
मगही समाज
रामप्रसाद सिंह
१९७९-१९८१
(त)
भोर
पुण्डरीक
-
(थ)
कोपल
जयधारी मिश्र
१९७९-१९८०
(द)
मागधी
योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश
१९८०
(ध)
गौतम
श्यामनन्दन शास्री हंसराज
-
(म)
पाटलि
केशव प्रसाद वर्मा
१९९०
(प)
अखरा
ब्रजमोहन पाण्डेय ""नलिन''
१९९८
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मगही व्याकरण ग्रंथ
(क) युगेश्वर - मगही भाषा।
(ख) क्रिश्चियन मिशन प्रेस कोलकता - मगही व्याकरण।
(ग) राजेन्द्र कुमार चौधेय - मगही व्याकरण।
(घ) राजेश्वरी प्रसाद अंशुल - मगही व्याकरण।
(च) सम्पत्ति अर्याणी - मगही व्याकरम कोश।
(छ) सम्पत्ति अर्याणी - मगही व्याकरण।
(ज) सरयू प्रसाद - मगही वर्तनी तथा ध्वनि।
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मगही चम्पू
(क) बाबूराम सिंह लमगोड़ा - बनत-बनत बनजाय।
(ख) रामदास आर्या - शब्द चित्र।
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(क) राम प्रसाद सिंह - मगही संस्कृति आउ दोसर निबन्ध
(ख) राम प्रसाद सिंह - मगही के मानकरुप।
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अनुवाद कार्य
(क) इन्द्रदेव सिंह - मगही रामायण।
(ख) जनकनन्दन प्रसाद सिन्हा "रत्नाकर' - मगही तिनसइया।
(ग) जानकनन्दन प्रसाद सिन्हा "रत्नाकर'  - मगही सतसई।
(घ) स्वर्णकिरण - इन्दिरोयाख्यान
(च) रामनरेश प्रसाद वर्मा - मगही मेघदूत
(छ) रामप्रसाद पुण्डरीक - गीता।
मगही साहित्य की सूची को देखने से यह पता चलता है कि आधुनिक काल में मगही के साहित्कारों ने मगही की सभी विधाओं में अपनी समर्थ लेखनी चलायी है और उन्हें अपूर्व सफलात भी मिली है। अनुवाद कार्य सर्वथा कठिन होता है क्योंकि मूल का अनुवाद यथावत नहीं हो पाता है। अनुवाद या तो शब्दानुवाद अथवा भावानुवाद की श्रेणी में चला जाता है। कभी-कभी मूल से अनुवाद ही उत्कृष्ट बन जाता है।
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शोधकार्य में प्रगति
मगही भाषा में शोधकार्य भी प्रगति के पथ पुरासृत है। सम्पति अर्याणी ने मगही भाषा और साहित्य पर डी. लिट् की उपाधि १९६४ में प्राप्त की है। यह बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, पटना से प्रकाशित है। इसमें साहित्य के अतिरिक्त भाषा पक्ष पर विचार हुआ है। डॉ. युगेश्वर पाण्डेय हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में मगही भाषा और साहित्य पर अपना लघु शोध प्रबन्ध उपस्थापित किया। भाषा सम्बध अंश का प्रकाशन मगही भाषा के नाम से १९६९ में हुआ। सरयु प्रसाद ने पटना विश्वविद्यालय से मगही ध्वनि विज्ञान से सम्बद्ध शोधकार्य किया है। इनके शोध का विषय है - ए डिस्क्रप्टिव स्टडी आॅफ फोनोलॉजी । उन्होंने १९६७ में अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया है। मगही ध्वनि विज्ञान तथा व्याकरण निर्माण की दृष्टि से यह शोध प्रबन्ध अतिशय महत्वपूर्ण है। रमा कान्त शास्री, श्रीकान्त शास्री ने मगही भाषा के वयकरण के ऐतिहासिक एवं वर्णनात्मक भाषा विज्ञान विषय पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया है। १९६४ में श्रीकान्त शास्री ने पटना विश्वविद्यालय में ए हिस्टोरिकल एण्ड एनालिटिकल स्टडी आॅफ मगही स्पोकन इन पटना एण्ड गया नामक शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया है। रुप विज्ञान की दृष्टि से मगही और भोजपुरी का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोध प्रबन्ध पर पी.एच.डी. उपाधि केलिए इन्होंने १९६८ में पटना विश्वविद्यालय में उपस्थापित किया। इस महत्वपूर्ण शोध पत्र का प्रकाशन १९८४ में हुआ। मगही अर्थ विज्ञान का विश्लेषनात्मक निर्वचन नाम शोध प्रबन्ध का उपस्थापन ब्रजमोहन पाण्डेय ""नलिन'' ने पटना विश्वविद्यालय से १९६९ में किया। इसका प्रकाशन १९८२ में अभिनव भारती प्रकाशन इलाहाबाद से हुआ। यह शोध प्रबन्ध भाषा विज्ञान की दृष्टि से हुआ। यह सोध प्रबन्ध भाषा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपादेय है। त्रिभुवन ओझा का प्रमुख बिहारी बोलियों का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोध प्रबन्ध का प्रकाशन विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से १९८७ में हुआ है। यह शोध प्रबन्ध बिहारी बोलियां (मगली, मैथिली तथा भोजपुरी) की आन्तरिक एकरुपता को विवेचनात्मक ढ़ंग से प्रस्तुत करता है। सरोज कुमार त्रिपाठी ने हिन्दी और मगही की व्याकरणिक संरचना नामक विषय पर पी.एच.डी. का शोध प्रबन्ध मगह विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया है। इसका प्रकाशन १९९३ में चन्द्र प्रकाशन, बौरी, पटना से १९९३ में हुआ। यह ग्रन्थ सर्वथा उपादेय है।
(मूलरुप से डॉ. ब्रजमोहन पाण्डेय "नलिन' द्वारा दिया गया लेख एवं पूनम मिश्र द्वारा संशोधित एवं परिवर्धित)

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