कविता भाषा में बसती है. किसी भी
भाषा की कविता हो, वह उस भाषा के रचना संसार, उसके ध्वनि सौंदर्य और नाद
सौंदर्य आदि को प्रतिबिंबित करती है. इस दृष्टि से अगर आप वैद्यनाथ मिश्र
यात्री यानी बाबा नागार्जुन की कविता को देखें तो आप पाएँगे कि उनकी कविता
भाषा के साथ बहुत खिलवाड़ करती हैं.
भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था. घनघोर
संस्कृतनिष्ठ पदावलि से लेकर निहायत बोलचाल की और जगह-जगह की हिंदी आप उनकी
कविता में पा सकते हैं. फिर वह हिंदी बंगाल की भी हो सकती है, उत्तराखंड,
मध्यप्रदेश, मिथिलांचल या पंजाब की भी.कविता समाचार की तरह भी नहीं पढ़ी जाती. कविता पढ़ने में सबसे बड़ा आनंद तो उसकी भाषा का होता है. नागार्जुन की कविता में जो समसामयिक टिप्पणियाँ दिखाई देती हैं, उसके पीछे जो बुनियादी मुद्दे हैं वो बहुत गहरे हैं. वो तो आज भी समाज में उसी तरह मौजूद है जिस तरह से नागार्जुन देख रहे थे. चाहे वह भूख हो, अकाल हो, कुशासन हो, भ्रष्टाचार हो, पुलिस की गोली हो या फिर समाज में अनैतिकता के प्रश्न हों.
आज भी अगर कोई अपने समाज को तिरछी नज़र से देखना चाहेगा, उस पर व्यंग्य से कुछ कहना चाहेगा या किसी चीज़ को विडंबना की तरह देखेगा तो वह पाएगा कि अरे, इस पर तो बाबा पहले ही कलम चला चुके हैं. तो जो कुछ नागार्जुन ने रचा उसकी एक ऐतिहासिक महत्ता तो है ही. दूसरी महत्ता कविता के रुप में इस नाते है कि भाषा का अद्भुत रचाव नागार्जुन की कविता में मिलता है.
उन्होंने बहुत सारी कविताएँ, आप कह सकते हैं, कि बाएँ हाथ से लिख दी हैं. वे इस तरह लिख भी देते थे. उन्हें लिखना कठिन नहीं लगता था. लेकिन उन अनायास लिखी कविताओं को भी आप जीवन भर की साधना के फल के रुप में देखा जा सकता है.
किसी भी नए कवि को भाषा सीखने के लिए बहुत से कवियों के पास जाना पड़ेगा. उनमें शमशेर हैं, अज्ञेय हैं, त्रिलोचन हैं और बेशक नागार्जुन भी हैं. उनके पास निहायत मार्मिक कविताएँ हैं, जो एकदम समसामयिक प्रसंगों पर लिखी गई हैं. जैसे 'अकाल के बाद' लिखी गई कविता है.
प्रासंगिकता का सवाल
लेकिन लोकतंत्र के परिपक्व होने के साथ परिस्थितियों में बदलाव का सवाल दिलचस्प है, अगर परिस्थितियाँ बदलीं तो क्या नागार्जुन की कविता अप्रासंगिक दिखने लगेंगीं?अगर समय बदल भी गया तो नागार्जुन की कविताएँ लोगों को प्रभावित करती रहेंगीं और प्रासंगिक बनी रहेंगीं
हो सकता है कि लोकतंत्र पर भरोसा करने वाली शक्तियाँ अगर मज़बूत हों तो बहुत सी कमियाँ दूर हो जाएँगी लेकिन तब भी कोई निर्दोष प्रणाली तैयार हो जाएगी यह कहना मुश्किल है.
आदिम काल से आज तक का इतिहास बहुत उम्मीद तो नहीं जगाता. उतनी ही प्रताड़नाएँ, उतना ही रक्तपात, उतनी ही वीभत्स विभिषिकाएँ मनुष्य द्वारा मनुष्य पर होती रही हैं. वह आगे भी होती रहेंगी. पूरी तरह ख़त्म तो नहीं किया जा सकेगा.
पता नहीं लोकतंत्र आने वाले समय में कैसा रहेगा क्योंकि इस समय तो लोकतंत्र ख़तरे में दिखाई दे रहा है. उसे उन्हीं लोगों से ख़तरा है जो उसे चला रहे हैं. कुल मिलाकर ऐसा दिखता है कि मानवीय त्रासदियाँ तो बची ही रहेंगी.
उदाहरण के तौर पर देखें तो बौद्ध भिक्षुणियों की कविताएं हैं. राधावल्लभ त्रिपाठी ने वे कविताएँ प्रकाशित करवाईं थीं.
उनमें भी वही ग़रीबी है, बारिश हो रही है, झोपड़ी में पानी टपक रहा है और कपड़े नहीं है वगैरह-वगैरह. तो कविता में मौजूद डेढ़-दो हज़ार साल पुरानी परिस्थितियाँ आज भी हमें उद्वेलित करती हैं. इसी तरह चीनी कविताओं को देख लीजिए. हज़ार साल पुरानी उन कविताओं में भी वही मौसम है, चांद का निकलना है, कविता लिखी है लेकिन दोस्त पास नहीं है किसे कविता सुनाऊँ.
तो रोज़मर्रा के जीवन पर लिखी कविताएँ अगर दो हज़ार साल बाद भी हमें प्रभावित कर रही हैं.
इसी तरह अगर समय बदल भी गया तो नागार्जुन की कविताएँ लोगों को प्रभावित करती रहेंगीं और प्रासंगिक बनी रहेंगीं. यह चिंता या अवधारणा व्यर्थ है कि समय-काल बदलने के साथ बाबा की कविताएँ अप्रासंगिक हो जाएँगीं.
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