रेणु की यादों में नवल
नंदकिशोर नवल अगर हमारे बीच होते तो आज हम उनका 83 वां जन्मदिन मना रहे होते। बीती लगभग आधी सदी तक हिंदी साहित्य, खासकर कविता आलोचना के वे न केवल साक्षी रहे बल्कि उसके सक्रिय मार्ग-निर्धारक भी बने रहे। उन्होंने अपने आलोचकीय लेखन की शुरुआत छायावाद और उत्तर छायावाद से की। इसके बाद राजकमल चौधरी के प्रभाव में अकविता तथा अन्य प्रयोगवादी कविता धाराओं के वे प्रशंसक रहे और उनपर धाराप्रवाह लिखा। राजकमल चौधरी की लंबी कविता 'मुक्ति प्रसंग' की उनकी व्याख्या कविता आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। इसके जरिये वे 'मुक्ति प्रसंग' को 'अंधेरे में' के बाद हिंदी कविता की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में स्थापित करते हैं।
आगे चलकर नवलजी नक्सलवाद से भी प्रभावित हुए और उसके प्रभाव में आकर लिखी गई रचनाओं की व्याख्या और मीमांसा की। फिर वे मार्क्सवाद की ओर प्रवृत्त हुए और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर प्रगतिशील और मार्क्सवादी चिंतन से जुड़ी आलोचना की। इस दौरान प्रगतिशील चेतना वाले कवि मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर आदि उनके प्रिय रचनाकार बने रहे। सोवियत संघ के विघटन के बाद उन्होंने खुद को प्रगतिशील विचारधारा से अलग कर लिया। इस अलगाव के साथ ही उन्होंने खुद को प्रगतिशीलता और गैरप्रगतिशीलता, कथ्य और रूप आदि के विभाजन से भी अलग कर लिया। उसके बाद का नवलजी का आलोचकीय लेखन पाठ-केंद्रित है। आलोचकीय सैद्धांतिकी से अलग होकर उन्होंने अपनी पाठ-आधारित निजी सैद्धांतिकी विकसित की। इस दृष्टि से यदि उन्हें आलोचना का वैचारिक यात्री कहा जाए तो शायद गलत न होगा।
उनकी आलोचना दृष्टि में आए इस परिवर्तन को लेकर लेखक बिरादरी में तीखी प्रतिक्रिया हुई एक और जहाँ उनके मित्रों ने इसे 'आलोचना का नवल पक्ष' कह कर अभिहित किया वहीं दूसरी ओर इसे जनधर्मी वैचारिकता से पलायन और उनके कलावादी रुझान के रूप में भी देखा गया। इस वैचारिक दिशा परिवर्तन के बाद वे सभी कवि जो पहले उन्हें कलावादी और रूपवादी प्रतीत होते थे, उनके प्रिय बन गए। उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त से लेकर दिनकर, अज्ञेय और अशोक वाजपेयी की कविताओं की भी समालोचना की।
मैथिलीशरण गुप्त, निराला और मुक्तिबोध को वे आधुनिक हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि मानते थे। उनका मानना था कि इन्हीं को लेकर आधुनिक हिंदी कविता की बृहद्त्रयी बनती है। वे कहते थे कि ये तीनों तीन युग का प्रतिनिधित्व करने वाले और हिंदी कविता को नया मोड़ देने वाले कवि हैं।
अब कम लोग ही इस बात की चर्चा करते हैं कि कविता आलोचना का यह दिलचस्प यात्री स्वयं एक सुकवि था। उनके आलोचना कर्म ने इस सुकवि को पूरी तरह आच्छादित कर दिया। इसकी थोड़ी-बहुत कसक नवलजी को भी थी। अपने दूसरे कविता संग्रह ‘कहाँ मिलेगी पीली चिड़िया’ की अभियुक्ति में वे लिखते हैं कि ‘यह संग्रह अपने कवि जीवन की स्मृति स्वरूप प्रकाशित करा रहा हूँ।’ स्पष्टतः अपने कवि जीवन से उन्हें आत्मीय लगाव था और कविताई बार-बार अपनी ओर खींचती थी। हालाँकि वे कविता से बहुत दूर नहीं थे। आलोचना भी उन्होंने कविता की ही की।
नवलजी का पहला कविता संग्रह ‘मंजीर’ सन् 1954 में प्रकाशित हुआ था। मंजीर को कविता संग्रह कहने से बेहतर होगा कविता पुस्तिका कहना। 24 पृष्ठों की इस पुस्तिका में नवलजी की आरंभिक 25 कविताएँ संकलित थीं। नवलजी नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि की तरह आगे चलकर कविता कर्म से पूरी तरह विमुख नहीं हुए। आलोचना में तल्लीन हो जाने के बावजूद उनका कविता कर्म भी निरंतर जारी रहा। छठे दशक में हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित हुईं। उनका दूसरा कविता संग्रह चार दशकों के अंतराल पर सन् 1997 में ‘कहाँ मिलेगी पीली चिड़िया’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी 143 कविताएँ शामिल हैं। इसके बाद ‘जनपद’ में सन् 2006 और ‘द्वाभा’ में सन् 2010 में उनकी कुल 40 कविताएँ प्रकाशित हुईं। नवलजी के 75वें जन्मदिवस के मौके पर श्याम कश्यप के संपादन में 2012 में ‘नील जल कुछ और भी धुल गया’ का प्रकाशन हुआ जिसमें उनकी प्रतिनिधि कविताएँ संकलित की गई थीं। इस तरह हम देखते हैं कि नंदकिशोर नवल आलोचना के और संपादन से समय निकालकर बीच-बीच में कविताओं की रचना भी करते रहे। हालाँकि उन्होंने इन कविताओं को स्वांतः सुखाय ही माना।
उनके मित्र श्याम कश्यप का मानना है कि नवलजी की एक संवेदनशील समालोचक के रूप में ‘ख्याति के घनीभूत प्रकाश ने उनकी कविता को लगभग ढक लिया’ लेकिन साथ ही वे जोर देकर कहते हैं कि केवल ‘उनकी कविता को ही। आलोचक के भीतर छिपे सुकवि को नहीं। अंधकार ही नहीं, कभी-कभी तीव्र प्रकाश भी अपनी चकाचौंध से चीजों को ढककर छिपा देता है’।
अपने पहले कविता संग्रह में संकलित 25 कविताएँ नवलजी ने 15-16 वर्ष की अवस्था में लिखी थी। इस छोटे से संग्रह की कविताओं से उनकी समझ, संवेदन और सामर्थ्य की झलक मिल जाती है। संभवत यही वजह थी कि इसकी भूमिका में ब्रजकिशोर नारायण ने लिखा, ‘मंजीर की सभी रचनाओं को आद्योपांत अच्छी तरह पढ़ जाने के बाद मैं यह कहने का लोभ और साहस संवरण नहीं कर सकता कि पंद्रह-सोलह की यह अर्द्धस्फुटित प्रतिभा, निकट भविष्य में ही, अनेक प्रौढ़ों के समक्ष प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी होगी और उन्हें अपनी ओर आकर्षित होने को विवश करेगी।’ निश्चय ही विभिन्न संग्रहों और पत्रिकाओं के विशेष आयोजनों में प्रकाशित नवलजी की 200 से ऊपर कविताओं के अलावा उनकी अनेक कविताएँ अभी अप्रकाशित होंगी जिनका संकलन शीघ्र प्रकाश में आएगा।
जीवन के 80वें पड़ाव पर पहुँचने के अवसर पर ‘आजकल’ ने उनके आलोचना कर्म को रेखांकित करने वाली कुछ सामग्री प्रकाशित की थी। तब कहाँ पता था कि इतनी जल्दी, महज तीन साल बाद, अपने 83वें जन्मदिन पर वे भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं रहेंगे।
नवलजी के समग्र साहित्यिक अवदान की चर्चा किसी पत्रिका के एक अंक में समेट पाना कठिन है। यह जानते समझते हुए ‘आजकल’ ने अपना सितंबर 2020 का अंक नंदकिशोर नवल के समग्र आलोचकीय और रचनात्मक अवदान पर केंद्रित किया है।
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