गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

संजीव शुक्ला का एक व्यंग्य

 अपना एक व्यंग्य निवाण टाइम्स में।/ संजीव शुक्ला 


जुझारूलाल प्रवक्ता बनना चाह रहे थे। यह उनकी दिली तमन्ना थी, बल्कि उनका तो खुला मानना था कि क्षेत्र की जनता और पार्टी का बहुमत भी उनको प्रवक्ता के रूप में देखना चाहता है। इस पद के लिए वह अपने को सर्वथा उपयुक्त व्यक्ति मानते थे, पर उनका दुर्भाग्य देखिये कि पार्टी के शीर्ष गुट में उनके सब विरोधी जमे थे। क्या जीवन व्यर्थ ही जायेगा यह चिंता उन्हें दिन-रात खाए डाल रही थी। प्रवक्ताई का आकर्षण उन्हें तबसे अपने में दबोचे हुए है जबसे उन्होंने मीडिया वालों को प्रवक्ता से महज एक बाइट के लिए माइक और कैमरे के साथ गिरते-पड़ते दौड़ते देखा है। पत्रकारों-मीडियाकर्मियों का प्रवक्ता से साक्षात्कार हेतु घण्टों राह तकना और फ़िर अचानक उनके कार्यालय से प्रकट होने का अंदाज़ उन्हें घायल कर जाता!! यह पद उन्हें पार्टी के शीर्ष-नेतृत्व से भी ज़्यादा आकर्षित करता। कारण वह किसी पचड़े में .....…...

 नेतृत्व की जिम्मेदारी सबको साथ लेकर के चलने की होती है। वह अपनी ऊर्जा सबको मनाकर साथ रखने में नहीं खर्च करना चाहते थे।  उनका स्पष्ट मानना था कि वह इसके लिए नहीं बने हैं। उनकी मेधा का सही उपयोग तो नीतियों के निर्माण और उनकी व्याख्या में हो सकता है। फ़िर जिस चीज के लिए उन्होंने बरसों से तपस्या की उसे क्या यूँ ही छोड़ दें? आख़िर इसके लिए उन्होंने क्या नहीं किया! वह अपने जीवन के तमाम बसन्त (ऐसा उनका अपना मानना था)  शीर्ष नेतृत्व की गणेश-परिक्रमा में गुजार चुके थे। अपने से दस साल छोटे नेताओं तक को उन्हें दद्दा कहना पड़ा। पान-पुड़िया का कोई शौक न रखने के बावजूद जेब मे तुलसी और रजनीगंधा का पैकेट रखना पड़ा!!

उनका बन्द कमरे में प्रवक्ताई अंदाज़ में घण्टों बोलने का अभ्यास प्रवक्ता बनने की साधना का ही एक भाग था।  हर बात पर पार्टी का खुलकर बचाव करना, आरोपों को विपक्षियों की साज़िश बताना, विपक्षी दल के सदस्य को बोलने न देना और अच्छी-भली बहस को दंगल में तब्दील कर देना उनका दलीय धर्म बन चुका था। वे विपक्षियों को अब देशद्रोही और चरित्रहीन तक कहने लगे। विपक्षियों को धिक्कारने में जीवंतता लाने के लिए अब वे घर में भी सबको धिक्कारने लगे थे। कई बार घर के सदस्यों को ही विपक्षी मान उन्हें बोलने न देते।

 कुलमिलाकर बिना पद के ही वह प्रवक्ता के चरित्र को जी रहे थे। पर इंतजार की भी कोई हद होती है। कल के लौंडे प्रवक्ता बनते जा रहे थे और जुझारूलाल अभी भी प्रवक्ताई के लिए जूझ रहे थे। वह तो कहिए कि राजनीति में रिटायरमेंट की कोई अवधि नहीं होती। आदमी मरते दम तक जनसेवा की शपथ ले सकता है। सो उम्मीदों पर वे पार्टी में जमे थे। पर इधर मार्गदर्शक मंडल की स्कीम ने उनको अंदर तक हिला दिया था। उनको डर था कि देर-सबेर हर पार्टी इस अच्छी स्कीम को लपकने की कोशिश करेगी, इसलिए अब वह निराश से हो गए थे। "नर हो न निराश करो मन को" का नियमित पारायण करने के बावजूद अब उन्हें इससे कोई ऊर्जा नहीं मिलती। उल्टे अब इसे नियमित पढ़ने से बची-खुची ऊर्जा के भी क्षय होने की आशंका होने लगी। उन्होंने पार्टी से इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया। उनके पुराने मित्र होने के नाते मैंने उनको यह कदम उठाने से रोका। 

कहा; आप तो ऐसे न थे ! आप तो कह रहे थे कि, 'अब यहाँ से हमारी लाश ही उठेगी, मैं दलबदल नही करता।'....  वह थोड़ी देर चुप रहे फ़िर उन्होंने अपने दर्द को आवाज दी और कहा कि आप हमें अब भी जिंदा मानते हैं। अरे भाई! हम तो इस पार्टी में जिंदा लाश हैं और ऐसा कहकर वे निढाल होकर सोफे पर एक तरफ संभलते हुए लुढ़क से गये !!! 

करीबी होने और आँखों के लिहाज के चलते मैंने उत्साह भरा। मैंने कहा दिल न छोटा करिये। पद ही सब कुछ नहीं होता और फिर आप तो राजनीति में सेवा के लिए आए थे न!!


 उन्होंने कहा काहे की सेवा.... हम सर्वहारा वर्ग के उत्थान के लिए राजनीति में आए थे, आज हमारी खुद की हालत सर्वहारा वर्ग जैसी हो गयी है। जो खुद का उत्थान न कर सका वह दूसरों का क्या करेगा?? दरवाजे पर एक सरकारी नल तक न लगवा सका। अब और ज्यादा न कहलवाइये अपने ऊपर घिन आने लगी है, कहते-कहते वह भावुक हो उठे। मैंने उनको समझाना चाहा कि पार्टी छोड़ने पर आपका पहला जैसा सम्मान न रहेगा। वह विमर्श की मुद्रा में आ गए और कहने लगे भाई! आप इतिहास उठा के देखिये। सुभाष, लोहिया, जेपी, चंद्रशेखर और वी.पी.सिंह आदि सबने अपनी-अपनी पार्टी छोड़ी और नई पार्टी बनाई। किसका सम्मान कम हुआ आप ही बताइए? बल्कि मेरा तो मानना है कि पार्टी छोड़ने के बाद ही उनकी इज्ज़त बढ़ी ही है। और आजकल तो थोक में लोग बदलते हैं। कई बार तो मूल पार्टी में संस्थापक ही बचता है, बाकी सब निकल लेते हैं। तर्क अकाट्य थे, सो मानना पड़ा। पर मैंने सवाल उठाया कि पार्टी छोड़ने की वजह भी तो बतानी पड़ेगी जनता को। 

उन्होंने कुशल राजनीतिज्ञ की भाँति मुस्कुराकर कहा कि मैं कल ही एक बयान जारी करूँगा की पार्टी में लोकतंत्र नहीं रह गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो अब पार्टी में बची ही नहीं। वह सिद्धांतों से भटक सिर्फ़ सत्तावादी राजनीति करने लगी है। पार्टी में अब व्यक्ति-पूजा का बोलबाला है। मेरे जैसे स्वाभिमानी, सिद्धांतवादी लोगों का यहाँ रुकना अब संभव नहीं। मैं जान दे सकता हूँ, पर अपने उसूलों से समझौता नहीं कर सकता। वह वसीम बरेलवी को गाने लगे, " उसूलों पे जहाँ आंच आए टकराना जरूरी है" वह अब पूरी तरह रौ में आ चुके थे।


 लेकिन मैंने उन्हें लगभग रोकते हुए कहा कि कुछ समय पहले तो आप शीर्ष नेतृत्व के बारे में कह रहे थे कि उनकी छवि हमारे हृदय में उसी तरह बसती है, जिस तरह हनुमान के हृदय में राम-सिया। यह भी तो व्यक्ति पूजा ही हुई।


वह फिर भावुक हो गए, कहने लगे कि अब जब वही राम न रहे तो हम हनुमान जी की पूँछ कहाँ तक पकड़े रहेंगे। 


'अब न रहे वो पीने वाले अब न रही वो मधुशाला' कहकर वह अपने समर्थन में बच्चन साहब को घसीट लाए.

उन्होंने कहा कि आपको पता है कि राम हनुमानजी से बगैर पूछे कोई काम नहीं करते थे। यह था जलवा उनका। 


लेकिन उनकी बात अलग थी, मैंने उन्हें टोकते हुए कहा..


"क्या अलग बात थी. वे लगभग खीजते हुए बोले। मेरे अंदर तो आपको कोई अच्छाई दिखती ही नहीं।"


नहीं मेरा मतलब यह नहीं था, मैंने बात घुमाई।

 मैंने कहा- "हनुमानजी के अंदर कोई पद की लालसा नहीं थी। बस सेवा-भाव से थे।"

जुझारूलाल ने समझाते हुए कहा कि वह वानर थे और तिस पर घर न घरवाली। उनको किस चीज की जरूरत। रहने के लिए पेड़ बहुत। भैय्या यहाँ परिवारदार आदमी तिस पर पापी पेट का सवाल! वे दीनता पर उतर आए। और रही बात सेवा की तो जितनी सेवा मैंने इनकी (पार्टी-प्रमुख) की' उतनी तो अपने बाप तक की नहीं की। मुझे उनसे सहानुभूति हो आई।


 मैंने बात बदलते हुए एक बड़े राष्ट्रीय दल का नाम लिया और बताया कि वहाँ जुगाड़ लगाइये। बात बन सकती है। वहाँ कुछ संभावनाएं हैं। पर वह मायूस हो गए उन्होंने बताया कि वहां हमारे लिए कुछ नहीं होगा और फ़िर वहां घुसना भी तो आसान नहीं। उन्होंने बताया- "आपको तो पता ही है कि अभी हाल ही में एक बहस के दौरान उनके नेता जो बार-बार अभिव्यक्ति की आजादी मुद्दा उठाकर हमको बोलने नहीं दे रहे थे, को हमने वहीं पटक के मारा था। हमने पूछा था और चाहिए आजादी ???"

ख़ैर, सो अब अपनी वहाँ कहाँ गुंजाइश ??


फ़िर उन्होंने खुद ही संभावनाओं को ख़त्म करते हुए कहा- "अब किसी के दरवाजे पर नहीं जाऊँगा, मैं खुद की पार्टी बनाऊंगा और खुद ही प्रवक्ता बनूँगा।" अब मेरे के पास उन्हें शुभकामनाएं देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था .......


        - संजीव शुक्ल

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