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♦️ सुप्रतिष्ठित कथा लेखिका उषा किरण खान की अंतरंगता
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🔷 आज की शाम उषाकिरण खान के नाम !🔶🔷♦️
ठीक ही कहते हैं लोग कि जिनका व्यक्तित्व बहुआयामी होता है, अनुकरणीय होता है, वे उस विशाल पेड़ की तरह नम्र होते हैं, जिसमें लदा हुआ फल, आमजन की हाथों तक पहुंचने के लिए, झुक जाता है l एक जीवंत इंसान ही नम्र और सामाजिक हो सकता है l प्रेरणादायक भी l
किंतु ऐसे वरिष्ठ साहित्यकारों में गिने-चुने लोगों के ही व्यक्तित्व इंसानियत की कसौटी पर खरे उतर पातें हैं । ऐसे ही व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी कुछ लोगों में हैं, हमारे देश की विख्यात कथा लेखिका उषा किरण खान , जो हमारे शहर पटना की है, यह हमारे लिए भी गर्व का विषय है l
आज की शाम मेरे लिए विशेष महत्व का रहा l वह इसलिए भी कि कोरोना काल की एक लंबी अवधि के पश्चात, उनके आवास पर जाने का एक बहाना मिल गया मुझे l वैसे तो अक्सर साहित्यिक गोष्ठियों में उनसे मुलाकात हो जाती थी l राम - सलाम, दुआ -खोज -खबर सब कुछ l किन्तु घर जाकर मिलना एक अलग आत्मीयता का परिचय देता है l वह भी तब,जब अतीत की स्मृतियों को संजोए हम वर्तमान के दहलीज पर एक सार्थक कदम रखते हैं l
वातायन पब्लिकेशन से प्रकाशित हमारी लघुकथा पुस्तक " भीतर का सच " का लोकार्पण उन्हीं के हाथों हुआ था l उसके बाद आज उनके आवास पर मैं उनके सामने था, बिल्कुल एक पारिवारिक सदस्य की तरह l व्यवहार में बिल्कुल नहीं लगा कि हमारे बीच इतने समय का अंतराल भी था l उनकी बातें हमें अतीत में ले गयीं।
अक्सर लोग प्रसिद्धि पाने के बाद, अपने जड़ से कट जाते हैं अतीत को भूल जाते हैं जबकि मैं अतीत को बहुत महत्व देता हूं l किंतु बहुत कम ऐसे लोग हैं, जो अतीत को वर्तमान के दहलीज पर जीवंत रख पाते हैं l ऐसे कुछ लोग ही मेरे सामने उदाहरण के रूप में है, जिनमें एक है उषा किरण खान l
1979 में जब मैंने साहित्यिक संस्था भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की स्थापना की थी, नई प्रतिभाओं यानि युवा प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करने के लिए, तब लगभग हर वर्ष आयोजित हमारी लघु पत्रिका प्रदर्शनी और युवा सम्मेलन में उनकी भागीदारी रहती थी यानि उपस्थिति रहती थी l शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ उन्होंने कई बार हमारी हौसला अफजाई की थी l और हमने इस मंच के माध्यम से कम से कम एक सौ साहित्य के ऐसे नक्षत्र साहित्य आकाश को दिए, जो आज भी जगमग सितारे की तरह चमक रहे हैं l वे भले हमें भूल गए हों, किंतु उनकी चमक देख, आज भी हमारी आंखें चमक उठती है l
क्योंकि हमने जिस उद्देश्य से संस्था की स्थापना की थी, उसकी यही तो सार्थकता थी l और आज भी किसी न किसी रूप में वह जीवंत है भी, चाहे वह ऑनलाइन के माध्यम से ही क्यों ना हो ?
किंतु कुछ लोग हैं जो हमारी राह का रोड़ा बनते हैं l मुझे भ्रमित करते हैं और मुझे अपने उद्देश्य से भटकाने की कोशिश करते हैं l तब थोड़ी तकलीफ जरूर होती है किंतु मैं फिर पुनः सब कुछ भुला कर दोबारा अपने जुनून में आगे बढ़ जाता हूं l
मैं उनसे मिलने गया था, लोकप्रिय मासिक पत्रिका सोच विचार के संपादक के आग्रह पर उनसे एक भेंटवार्ता लेने l भेंटवार्ता के दौरान ही हमने उनसे एक सवाल किया - " हमारे एक प्रिय मित्र कहते हैं मुझसे, जितना श्रम तुम नई प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने के लिए करते हो, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए करते हो, उसे छोड़कर सिर्फ अपने साहित्य कर्म के प्रति शक्ति क्यों नहीं झोंकते ? क्यों उनके पीछे अपना श्रम बर्बाद कर रहे हो ? मैं तुम्हें इसलिए सलाह दे रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम उनसे काफी आगे निकल जाओ l............तो उषा किरण दीदी,आप ही बतलाइए कि सामाजिक सेवा के रूप में नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना, क्या अपने श्रम की बर्बादी है ? "
जवाब में उन्होंने कहा कि - " बिल्कुल नही l ऐसा सवाल करने वाले बहुत संकीर्ण विचार के होते हैं l आत्म केंद्रित होते हैं, सामाजिक नहीं होते l जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं, निश्चित तौर पर उनका जीवन अधूरा होता है l....
...... कोई भी साहित्यकार पहले नया ही होता है l और फिर वह नया हो या पुराना, उसे सीखने और सीखलाने की आवश्यकता तो जीवनपर्यंत बनी रहती है l आप ही सोचिए जब आप नये थे, छोटी मोटी लकीरें खींच लिया करते थे,चित्र बनाने के लिए l और कविता लघुकथा सब कुछ लिखने का प्रयास करते थे आप l यहां तक कि लघु पत्रिका की प्रदर्शनी भी लगाना शुरू कर दिया था आपने, मुझे वह सब कुछ याद है l
आप जब भी हमें, रामधारी सिंह दिवाकर, काशीनाथ पांडे या शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ याद करते थे , तब हमलोग अवश्य उपस्थित होते थे l आप लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए, समय निकालकर हमलोग, आपके पास जाते थे l
आज आप और आपके मित्रों की सफलता और आप लोगों की यह ऊंचाई देखकर मुझे लगता है कि मैंने आप लोगों के सर पर हाथ रख कर कोई गलत काम नहीं किया था l आप किसी को कलम पकड़ना सीखा रहे हैं, शब्दों का इमारत खड़ा करना सीखा रहे हैँ, खुद सीख रहे हैं और सीखा रहे हैं , आप साहित्य की सेवा कर रहे हैं, नई प्रतिभाओं के भीतर उत्साह पैदा कर रहे हैं, इसमें समय की बर्बादी कैसी ? यह तो अपने समय का सदुपयोग है l इससे बड़ा और सामाजिक सेवा क्या हो सकता है ?
आप किसी को बंदूक चलाना तो नहीं सीखा रहे हैं, आतंकवादी बनना तो नहीं सीखा रहे हैं ? फिर यह अपने श्रम की बर्बादी कैसे हो सकता है ? दुर्भाग्य है कि ऐसा विचार रखने वाले आज हमारे साहित्य समाज में अधिक लोग हो गए हैं, जबकि पहले के साहित्यकार ऐसी भावना अपने हृदय में नहीं रखते थे! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे संपादक भी थे, जो नई प्रतिभाओं की रचनाओं को संशोधित कर अपनी पत्रिका में छापने का श्रम करते थे l आप ही बताइए आज कितने ऐसे प्रकाशक संपादक हैं ?
हमारे एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि खेमे बाजी और गुटबंदी के घेरे में रहने वाले साहित्यकार, अपने आप को ही छल रहे होते हैं l साहित्य के इतिहास में उनका कोई अस्तित्व नहीं होता और न ही उनकी रचनाएं समाज में कोई बदलाव लाने की दिशा में सकारात्मक पहल कर पाती है l स्त्री विमर्श, नारी विमर्श,नारी सशक्तिकरण आदि नाम देकर रचना लिखने वाले, अपनी सृजनशीलता पर विश्वास नहीं रखते l
आज की शाम मेरे लिए बहुत संतुष्टिपूर्ण रहा l उषा किरण खान से भेंटवार्ता के बहाने ढेर सारी साहित्य पर चर्चा हुई, और मन को बड़ा सुकून मिला l साथ ही साथ चाय पानी का सिलसिला भी चलता रहा l इतनी उम्र में, तमाम बीमारियों से जूझते हुए रहने के बावजूद, ऐसा अपनत्तव हमने बहुत कम साहित्यकारों में देखा है l समकालीन साहित्यकारों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से अवश्य प्रेरणा लेनी चाहिए l
🔷♦️[] सिद्धेश्वर []
{ मोबाइल: 92347 60365 }
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एक लंबी भेंट वार्ता वार्ता के कुछ अंश ::
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🔮 सिद्धेश्वर : महादेवी वर्मा के बाद आप दूसरी महिला हैं जिन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत भारती सम्मान मिला l क्या इसे आप अपना सौभाग्य समझती हैं?
♦️ उषा किरण खान : जी l महादेवी वर्मा के बाद कई लेखकों को यह सम्मान मिला l लेकिन महिला लेखिकाओं मेंयह सम्मान को पाने वाली पहली महिला होने का सौभाग्य मुझे जो प्राप्त हुआ है l
🔮 सिद्धेश्वर : किस उम्र से आप लिख रही हैं ? और आपकी किस रचना ने आपको सर्वाधिक प्रसिद्धि दी !
♦️ उषा किरण खान: मैं करीबन 8 साल की उम्र से लिख रही हूं l लेकिन पहली बार मेरी रचना का प्रकाशन 1977 में हुआ l आंखें तरल रही मेरी पहली रचना थी, इस रचना को मुंशी प्रेमचंद के बेटे श्रीपत राय की मासिक पत्रिका कहानी में जगह मिली थीl इसके बाद धर्मयुग में मेरी रचना प्रकाशित हुई l हसीना मंजिल उपन्यास में मुझे काफी प्रसिद्ध दी, इस बात में कोई दो मत नहींl जब पहला उपन्यास है जो पूर्वी पाकिस्तान के बंटवारे पर आधारित हैl दूरदर्शन ने मेरी इस रचना पर सीरियल भी बनाया है l कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है इस रचना की l
🔮 सिद्धेश्वर : भामती उपन्यास के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं l क्या मैथिली भाषा में होने के कारण यह पुरस्कार आपको मिले?
♦️ उषा किरण खान : मेरी भामती उपन्यास मैथिली भाषा में है, इसलिए इसे मैथिली भाषा के घेरे में रखी गई l क्योंकि साहित्य अकादमी पुरस्कार किसी एक भाषा के लिए नहीं दी जाती l यह एक ऐसी स्त्री पुरुष की कहानी है जिससे स्त्री के मान मर्यादा और उसकी खेती के बारे में पता चलता है lयह पति-पत्नी के संवेदना और सौभाग्य की अनूठी कहानी है l
🔮 सिद्धेश्वर : इतिहास की छात्रा रहते हुए भी हिंदी साहित्य के प्रति आपकी रूचि कैसे जागी?
♦️ उषा किरण खान : दरअसल में इतिहास की छात्रा जरूरत थी, इतिहास कि मैं प्रोफेसर भी रही लेकिन कॉलेज में इतिहास की पाठ्य सामग्री कम होती थी l तो वह दूसरी भाषा के साथी प्रोफ़ेसर भी मुझे लिखने को प्रेरित करते थेl अंततः मैंने हिंदी साहित्य को ही चुन लिया l
🔮 सिद्धेश्वर: साहित्य में इतने सारे मान सम्मान पाने के बाद आपका अगला पड़ाव क्या है?
♦️ उषा किरण खान : मैं तो अपनी धुन में लिखती हूंl पुरस्कार देने वाले जाने की उन्हें क्या करने हैं l लोग पुरस्कार के लिए रिकमेंड करते हैं l मैं तो अब वहां पर हूं, जहां पर मैं रिकमेंड कर सकती हूं l इसके बावजूद मैं सबसे पहले लेखक हूं l अगला पुरस्कार क्या मिलता है यह तो वही जाने l मैं इस उद्देश्य से लेखन नहीं करती l
🔮 सिद्धेश्वर: आपको लेखन सृजन की प्रेरणा किस लेखक से मिली ?
♦️ उषा किरण खान : प्रेरणा तो हमेशा वरिष्ठ लेखकों से ही मिलती है l बाबा नागार्जुन जैसे कवि की प्रेरणा तो मुझे मिलती ही थी, वे कहा करते थे तुम अच्छा लिखती हो लिखती रहो l उषा प्रियंवदा, फणीश्वर नाथ रेणु जैसे रचनाकारों ने मुझे काफी प्रेरित किया है l यदि मैं बात करूं समकालीन लेखकों की तो मिथिलेश्वर,सूर्यबाला से कई बार साहित्य पर बातें होती नहीं है l मिथिलेश्वर से तो अक्सर इन सारी विषयों पर बातें होती रहती है l
🔮 सिद्धेश्वर : मैथिली साहित्य के बारे में आप क्या कहना चाहिएगा ?
मैथिली का परिवेश अब बदल रहा है lमैथिली में भी लिखने पढ़ने और समझने वाले कई हो गए हैं l हां मैथिली में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हो रहा इसलिए इसके बारे में बहुत सारे लोगों को पता नहीं है l हिंदी का क्षेत्र जरूर बड़ा है l लेखकों की यह कमी नहीं हैl लोग पढ़ रहे हैं लिख रहे हैं l गुणवत्ता में जरूर कमी आई है l
जब हम स्कूलों में पढ़ते थे तो साहित्य के लिए अलग कक्षा हुआ करती थी l यदि स्कूल में आरंभ सहित साहित्य के प्रति रुचि जगाई जाए, तो लोगों को साहित्य के प्रति झुकाव बढ़ेगा
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