बुधवार, 2 सितंबर 2015

हिन्दी की नौटंकी

देश को 68 साल से अंग्रेजी का गुलाम बनाये रखने वाली भारत सरकार, विश्व हिन्दी सम्मेलन(हिंदी को श्रद्धांजलि) में घडियाली आंसू बहाने से पहले देश से माफी मांगे
हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को 68 सालों से अंग्रेजी का गुलाम बनाकर दफन करने के मुख्य गुनाहगार है भारत सरकार, राज्य सरकारें, नोकरशाह
एक तरफ भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन होने जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ संसद की चैखट, राष्ट्रीय धरना स्थल, जंतर मंतर दिल्ली में भारतीय भाषा आंदोलन के जांबाज देश को अंग्रेजी गुलामी से मुक्त कराने के लिए विगत 28 महीने से लगातार आंदोलन चला (धरना दे ) रहे है। परन्तु न मनमोहन व मोदी सरकार, नहीं हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के साहित्यकार/पत्रकारों को भारतीय भाषा आंदोलन की सुध लेने की सुध रही। भाषाओं के तथाकथित हितैषी, राजनेता, संस्थाओं के मठाधीश केवल अपने निहित स्वार्थ व अहं की पूर्ति तक सीमित है। ये व्यक्तिवादी व अहंकारी संकीर्ण सोच के केकड़ों के कारण भारतीय भाषा आंदोलन का समर्थन करने के बजाय इसका रास्ता रोकने का राश्ट्रद्रोही कृत्य करने में लगे हैं।
भारतीय भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत ने विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिंदी का सबसे बड़े हितैषी होने का दंभ भर रही भारत सरकार, राज्य सरकारों, नौकरशाहों, साहित्यकारों, फिल्मी कलाकारों व स्वयं सेवी संस्थाओं को अंग्रेजी की गुलामी पर शर्मनाक मौन रखने वाले जंतु बताते हुए इन्हें अंग्रेजी का कहार कहा। भारतीय भाषा आंदोलन विश्व हिंदी सम्मेलन में अंग्रेजी के कहारों को ही महिमामण्डित करने का कृत्य करके इसे एक प्रकार से हिंदी को श्रद्धांजलि देने के सम्मेलन में तब्दील कर दिया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को अधिकारिक भाषा बनाने तक ही हुंकार भरने वाली भारत सरकार की हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में भारतीय भाषाओं में दिये गये ज्ञापन की पावती भी अंग्रेजी में दी जाती। सबसे शर्मनाक हालत यह है कि इस देश का अपना ‘भारत’ नाम तक विश्व तक पंहुचाने के बजाय इंडिया नाम को थोपने का निकृश्ठ षडयंत्र सरकार ने किया है। देश में शासन प्रशासन, न्याय, शिक्षा, रोजगार व सम्मान सभी जगह अंग्रेजी का राज सरकार ने बेशर्मी से बलात थोपा है। पर विश्व हिन्दी सम्मेलन व हिंदी दिवस में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का सबसे बड़ा हितैषी खुद को स्थापित करके देश व देश की जनता को गुमराह किया जा रहा है।
भारतीय भाषा आंदोलन ने दो टूक शब्दों में कहा कि इन गुलामी के कहारों के कारण ही देश अंग्रेजों के जाने के 68 साल बाद भी अंग्रेजी का गुलाम बना हुआ है। ये तथाकथित हिन्दी के हितैषी विगत 28 महीनों से संसद की चैखट पर देश पर थोपी गयी अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिलाकर भारतीय भाषाओं को लागू करने के लिए आजादी की निर्णायक जंग लड़ रहे भारतीय भाषा आंदोलन में सहभागी बनना तो रहा दूर वे अपने पहले राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन तक नहीं कर पाये। सरकारों, भाषा के तथाकथित समर्थकों व पत्रकारों की घोर उपेक्षा के बाबजूद विगत 28 महीने से चल रहे भारतीय भाषा आंदोलन के जांबाज देशभक्त आंदोलनकारी कड़ाके की धूप,लू, आंधी, वर्षा व कडाके की सर्दी के साथ साथ भूख, सरकारी दमन, प्यास का बहादूरी से समाना करके भी देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने के लिए जुटे हुए है। भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत के नेतृत्व में चल रहे इस आंदोलन में भाषा आंदोलन के जांबाज आंदोलनकारी पत्रकार चंद्रवीरसिंह, अनंतकांत मिश्र, सच्चेन्द्र पाण्डे, सुनील कुमार सिंह, अभिराज शर्मा, स्वामी श्रीओम, चैधरी सहदेव पुनिया, महेन्द्र रावत, लक्ष्मण कुमार, कमल किशोर नौटियाल, सुशील खन्ना,सत्यपाल गुप्ता, आंनन्द जी, वेदानंद, नवीन सौलंकी, अखिलेश गौड़, सतीस मुखिया, राकेश बसवाल, मोहन जोशी, मनमोहन शाह, सुभाष चैहान आदि प्रमुख है। इसके साथ देश के अग्रणी साहित्यकार डा बलदेव वंशी, देवेन्द्र भगत, हरपाल राणा, डा नरेश, डा वीरेन्द्रनाथ वाजपेयी, रोशनलाल अग्रवाल, श्यामरूद्र पाठक, अमरनाथ झा,ताराचंद गौतम, वरिष्ठ पत्रकार बनारसी सिंह, राहुल देव, हबीब अख्तर व अभिनव कलूडा, मोहम्मद आजाद, मौहम्मद सैफी, श्याम जी भट्ट, ओमप्रकाष हाथपसारिया, विनोद गौतम,बाबा बिजेन्द्रा, महेश पाठक, त्रिपाठी, उमेश रावत, जोगा विर्क,गोपाल प्रसाद,रघुवीर बिष्ट, अश्वनी कुमार, मुरार कण्डारी, जगमोहन रावत, किशोर रावत व आशा शुक्ला सहित अनैक वरिष्ठ समाजसेवी समय समय पर मार्गदर्शन देते है।
स्थिति इतनी शर्मनाक है कि भारतीय भाषा आंदोलन से जुडे आंदोलनकारियों के अलावा न तो राष्ट्रवाद के झण्डाबरदार व भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ा हितैषी कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी व उनकी सरकार की कान में जूं तक रेंगी। संयुक्त राष्ट्र संघ व देश विदेश में हिंदी बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी के खुद के कार्यालय में भारतीय भाषाओं को लागू करने के लिए दिये गये ज्ञापन की पावती भी अंग्रेजी भाषा में भेजी जाती है। यही नहीं देश में संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं, उच्च व सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता रूपि गुलामी से मुक्त करके भारतीय भाषायें लागू करने की मांग करने वाले भारतीय भाषा आंदोलन का धरना वाजपेयी व कांग्रेसी सरकारों की तरह ही मोदी सरकार ने भी उजाड़ने का काम किया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत सरकार खुद को हिंदी भाषा का सबसे बड़ा हितैषी बता रही है। इस रस्म अदायगी वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस बार भी भारत को अंग्रेजी का गुलाम बनाने वाली भारत सरकार, देश विदेश के कई बड़े नेता, अंग्रेजी गुलामी पर मूक रहने वाले हिंदी के साहित्यकार, हिंदी फिल्मों से उदरपूर्ति करने वाले फिल्मी कलाकार जो प्राय अपने फिल्मी दुनिया के कार्यक्रम अंग्रेजी में करते हैं, हिंदी दिवस पर करोड़ों का बजट हर साल फूकने वाले नौकरशाह व हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार करने का हुंकार भरने के नाम पर करोड़ों बजट चपट एनजीओं टाइप संस्थायें, में हिंदी को आगे बढ़ाने के नाम पर इस श्रद्धांजलि सम्मेलन में हिंदी के विकास के नाम पर घडियाली आंसू बहाते हुए कई जुमले उछालेंगे।
इसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के जुमले उछाल रही है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस बात का रहस्य उजागर कर दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए देश को आर्थिक भार नहीं उठाना पड़ता। केवल 129 देशों का समर्थन चाहिए। जबकि इससे पूर्ववर्ती सरकारें देश को गुमराह करती रही कि अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनायी जाती है तो इसका करोड़ों रूपये का खर्च भारत का उठाना पडेगा। अब देखना यह है कि मोदी सरकार जो योग के लिए विष्व के 176 देशों का समर्थन जुटाती है वह हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की अधिकारिक भाषा बनाने में कहां तक ईमानदारी से काम करती है। परन्तु इससे जरूरी है मोदी सरकार देश को अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी से मुक्ति दिलाते हुए देश में भारतीय भाषाओं में शासन प्रशासन, शिक्षा, न्याय, रोजगार व सम्मान दिलाने के लिए अपने दायित्व का निर्वहन करे। हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का इस प्रकार का सम्मेलन तभी सार्थक हो सकता है जब इसके आयोजक व इसके ध्वजवाहक बनी सरकार, साहित्यकार व नौकरषाह ईमानदारी से देश से अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिला कर देश में भारतीय भाषाओं को पूरे तंत्र में स्थापित करें। देश में शासन प्रशासन, न्याय, शिक्षा, रोजगार व सम्मान आदि भारतीय भाषाओं में मिले। तभी देश आजाद होगा। अंग्रेजी गुलामी के रहते देष को लोकतांत्रिक देश या आजाद देश कहना लोकतंत्र व आजादी का घोर अपमान है। देश के हुक्मरानों को नौटंकीबाजी छोड़ कर ईमानदारी से राश्ट्रहित में अपने संवेधानिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। ऐसे सम्मेलन अंग्रेजी गुलामी के कहारों, बजट को चपट करने वाले कालनेमियों की उदरपूर्ति का अड्डा बन कर रह जायेगा। इन सम्मेलनों में चाहे इसका आयोजन सरकार कराये या अन्य संस्थायें इनमें ईमानदारी से काम करने वालों की उपेक्षा व नौटंकी करने वाले कहारों को सम्मानित व आमंत्रित किया जाता है। क्योंकि आयोजकों को लगता है ईमानदारी से काम करने वाले लोग उनके कृत्यों का भण्डाफोड कर देंगे। ऐसे सम्मेलन से क्या आशा की जा सकती जिसमें निमंत्रण ही फिरंगी भाषा में भेजे जा रहे हों। पर यह सच है देर सबेर हिंदी सहित भारतीय भाषायें अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त हो कर पूरे विष्व में अपना परचम फेहरायेगी। यह तभी संभव होगा जब देश के सपूतों को इस बात का अहसास होगा कि देश की आजादी देशद्रोही हुक्मरानों ने अंग्रेजी का गुलाम बना रखा है।
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1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - गूगल का नया रूप में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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