बुधवार, 2 सितंबर 2015

नाट्य मंचन के लिए मशहूर है गांव

लगभग 100 वर्षों से नाटकों का मंचन करने वाला अनोखा गांव




प्रस्तुति-- रूपक सिन्हा,

पिछले साल की तरह इस बार भी दशहरे के अवसर पर होने वाले नाटक के आयोजन में पंडारक जाना हुआ। पिछले 90-95 वर्षों से लगातार इस गांव में दशहरे के अवसर पर नाटक लगातार हो रहा है। वैसे तो दशहरे के मौके पर गांवों-कस्बों में नाटक होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन इतने लंबे समय तक निरंतरता – उल्लेखनीय है।
पंडारक पटना से 80-85 किमी पूरब में बसा गांव है। बाढ़ के पास स्थित यह गंगा किनारे बसा यह गांव अपने प्रसिद्ध सूर्य मंदिर के साथ-साथ अपनी राजनैतिक सक्रियता के लिए भी जाना जाता है। अतः इस इलाके के सियासतदानों की भी नजर में भी ये गांव खास महत्व रखता है। इस इलाके में पंडारक अपेक्षाकृत संपन्न गांव माना जाता है। एक बार गांव में घूमने पर यहां की संपन्नता का अहसास हो जाता है। बाढ़ के पास एन.टी.पी.सी का चर्चित निमार्णाधीन बिजली घर भी पंडारक के पास ही है। पंडारक गांव के बैट (बिहार आर्ट थियेटर) से जुड़े रंगकर्मी  अविनाश ने बताया-‘‘यहां हर घर में केाई न कोई नौकरी में है। इसके साथ-साथ प्रतिदिन सिर्फ पंडारक से 80-90 हजार रुपये की सब्जी पटना के मार्केट में भेजी जाती है।’’
रेल एवं रोड मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा यह गांव अब अपने नाटकों के प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। वैसे दशहरे एवं ऐसे मौकों पर नाटक होना इस पूरे इलाके के लिए कोई नई बात नहीं है। यहां के चर्चित रंगकर्मी अजय के अनुसार इस अवसर पर सिर्फ बाढ़ ब्लाक में लगभग 300-350 नाटकों की प्रस्तुति होती है जो विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। संभवतः इतनी संख्या में नाटकांे के प्रदर्शन बिहार के किसी और इलाके में शायद ही होता हो।
पंडारक में नाटकों का मंचन 1922 से हो रहा है। वैसे कुछ लोगों के अनुसार नाटक के प्रारंभ का साल 1914 है। कई नाट्य मंडलियां एक साथ सक्रिय है। बिहार के कुछ शहरों में तो हो सकता है आपको एक भी नाट्य मंडली न मिले लेकिन 7-8 नाटक करने वाली संस्थाएं अभी भी हैं। जैसे हिंदी नाटक समाज, पुण्यार्क कला निकेतन, किरण कला निकेतन, कला मंदिर। मरहूम नूर फातिमा हमेशा इस संस्था द्वारा आयोजित नाटकों में हिस्सा लेती रहीं। नव आर्ट्स, आजाद कला, कला कुंज इत्यादि ‘हिंदी नाटक समाज’ सर्वाधिक पुरानी नाट्य संस्था मानी जाती है। यही संस्था 1914 से निरंतर काम करने वाली मानी जाती है। इस गांव के नाटक के क्षेत्र में प्रसिद्धि का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1956 में इस गांव में हिंदूस्तानी थियेटर के किंवदंती पुरूष मानेजाने वाले पृथ्वी राज कपूर यहां आए और अपनी टीम के साथ उन्होंने ‘कलिंग विजय’ नाटक का प्रदर्शन किया था। उनके साथ प्रख्यात साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी भी वहां मौजूद थे। पृथ्वी राज कपूर के आने की बात का जिक्र पंडारक का हर नाट्य प्रेमी बड़े गर्व से करता है।
‘पुण्यार्क कला निकेतन’ भी लगभग 35 वर्ष पुरानी है। पंडारक को जो बात बाकी गांव की नाट्य मंडलियों से अलग करती है वो है – नये एवं आधुनिक किस्म के नाटकों का मंचन। इस काम में सबसे ज्यादा पहलकदमी पुण्यार्क कला निकेतन से जुड़े अजय, विजय आनंद आदि ने किया है। बाकी गांवों में अभी भी पौराणिक  या ऐतिहासिक नाटक मंचित होते रहते हैं। लेकिन यहां नाटकों को लेकर नये प्रयोग किए गए। जैसे इस साल भिखारी ठाकुर का नाटक ‘गबर घिचोर एवं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का मशहूर नाटक ‘बकरी’ मंचित किया गया। इसके अलावा ‘अमली’, जांच पड़ताल, चरन दास चोर, धासीराम कोतवाल, सिंहासन खाली है, यहूदी की लड़की, बड़ा नटकिया कौन, कलिंग विजय, कंपनी उस्ताद, बिदेसिया जैसे चर्चित एवं मशहूर नाटकों को मंचन गांव के कलाकारों ने किया है। इसके अतिरिक्त पटना पुस्तक मेले में हर वर्ष होने वाले नुक्कड़ नाटकों में पंडारक की रंग संस्थाओं किरण कला निकेतन, पुण्यार्क कला निकेतन आदि का प्रदर्शन हर साल देखने का मौका मिलता रहा है। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय बात यह रही है कि बिहार के सौ साल के उपलक्ष्य में बिहार की जिन चुनिंदा 18 नुक्कड़ नाट्य टीमों का चयन हुआ उसमें पंडारक की ‘पुण्यार्क कला निकेतन’ भी शामिल थी।
शिवराम के सुप्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ का प्रदर्शन पंडारक की इस टीम ने विभिन्न नुक्कड़ स्थलों पर किया। दशहरे के अवसर पर कई गांवों में नाटकों का मंचन होता रहा है, किन्तु मेरी जानकारी में शायद पंडारक एकमात्र ऐसा गांव है – जिसका नुक्कड़ नाटक जैसे आधुनिक नाट्य विधा में भी दखल एवं भागीदारी रही है।  पटना रंगमंच से बढ़ती नजदीकियों का ये स्वाभाविक परिणाम है। पिछले कुछ वर्षों से ‘पुण्यार्क कला निकेतन’ की ओर से हर वर्ष किसी रंगकर्मी केा रंगमंच में उनके योगदान के लिए सम्मानित भी किया जाता है। इस वर्ष यह सम्मान पटना रंगमंच में पिछले 40-45 वर्षों से सक्रिय अभिनेता व रंगकर्मी सुमन कुमार को प्रदान किया गया। सुमन  कुमार 1966 से पटना रंगमंच पर सक्रिय हैं। उन्होंने मशहूर रंगकर्मी सतीश आनंद के साथ लंबे समय तक काम किया। रेडियो से जीवन पर्यंत जुड़े रहे सुमन कुमार अभी अपनी संस्था ‘कला जागरण’ से जुड़कर काम कर रहे हैं। पिछले साल दो दशक से बतौर अभिनेत्री सक्रिय शारदा सिंह को यह सम्मान प्रदान किया गया था।
मगध का ये हिस्सा वैसे तो अपेक्षाकृत संपन्न माना जाता है। उसका कारण यहां की बेहद उपजाउ टाल क्षेत्र है जहां दलहन-तिलहन बड़े पैमाने पर उगाया जाती है। इन दोनों फसलों में धान-गेहूं के मुकाबले कम परिश्रम एवं पूंजी लगती है। कई कृषि विशेषज्ञों को यह कहते भी पाया गया कि बाढ़-मोकामा का टाल क्षेत्र पूरे एशिया की दलहन की जरूरतों को पूरा करता है। वैसे काफी पुराने जमाने से दलहन आदि के व्यापार के लिए व्यापारी यहां रहते आते रहे हैं। संभवतः यही वजह है कि मारवाड़ी लोगों की भी बड़ी संख्या इस इलाके में रहती आयी है। 80 के दशक में इस इलाके की ताने-बाने में घुसपैठ शुरू हुई। इन मारवाड़ियों से रंगदारी वसूली जाने लगी। दलहन-तिलहन के व्यापार में, इस इलाके की दबंग मानी जाने वाली भूमिहार जाति के कुछ लोगों ने अपनी दावेदारी प्रस्तुत करनी शुरू की। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कई माफिया डान का अभ्युदय हुआ। दिलीप सिंह, अनंत सिंह, सूरजभान सिंह जैसे अपराधी चरित्र वाले कुख्यात लोगों ने राजनैतिक छत्रछाया में अपने सियासी पैर पसारे। पंडारक गांव दरअसल अभी यहां के वर्तमान विधायक अनंत सिंह एवं सूरभान सिंह जैसे पूर्व विधायक के आपसी राजनैतिक वर्चस्व का अखाड़ा बना हुआ है। अविनाश के अनुसार ‘‘गांव में दो गुट हैं – सूरजभान सिंह एवं अनंत सिंह। सूरजभान सिंह के लोग ज्यादातर ठेकेदारी आदि में  संलग्न हैं।’’ इन दोनों के तुलनात्मक चरित्र के बारे में बताते हुए अविनाश कहते हैं ‘‘सूरजभान के लोग गांव के मामले में उतना हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन अनंत सिंह का गिरोह ज्यादा उत्पाती है। अतः गांव के लोगों के लिए सूरजभान सिंह बेहतर विकल्प है।’’ पिछले साल पुण्यार्क कला निकेतन के नाटक का उद्घाटन सूरजभान  सिंह ने किया। पिछले साल मुझे यह भी स्मरण है कि शारदा सिंह को सम्मान स्वरूप जब कुख्यात माफिया एवं पूर्व सांसद सूरजभान सिंह ने शाल भेंट किया  था। बहरहाल अपराध की मौजूदगी ने इस इलाके में किसी किस्म के रैडिकल आंदोलन- चाहे वह समाजवादी आंदोलन, वामपंथी आंदोलन हो या फिर नक्सली आंदोलन- को स्पेस नहीं मिल पाया। इस बात की व्याख्या करते हुए काफी पहले वामपंथी राजनतिक कार्यकर्ता वागीश्री सिंह ने बताया था‘‘ इस इलाके के सामंत अपने खिलाफ उठने वाले असंतोष को कभी भी बाकी जगहों के मुकाबले कभी भी ब्वाएलिंग प्वांइट तक पहुंचने ही नहीं देते। जैसे मजदूरों, रैयतों को आम दिनों में ये जहां निर्ममतापूर्वक शोषण करते हैं वहीं उसकी बेटी की शादी या फिर बीमारी वगैरह में मदद कर देते हैं जिस कारण मजदूर कभी भी विद्रोह नहीं कर पाते’’। कई बार ये सवाल भी जेहन में उठता है कि जब मगध के इस हिस्से, बाढ़-मोकामा, में नाटकों आदि के मंचन इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद  रैडिकल ढ़ंग के किसी आंदोलन का अभाव क्यों रहा है जैसा कि मगध के दूसरे हिस्से जैसे गया, जहानाबाद, नवादा आदि में? नाटकों के मंचन का होना कहीं सामाजिक-राजनैतिक आंदोलनों के अभाव का स्थापन्न तो नहीं कर देता? कुछ-कुछ इसी से मिलती-जुलती ही बातें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता चंद्रशेखर, जिसकी हत्या 1997 में सीवान में माफिया डान शहाबुद्दीन द्वारा कर दी गयी गयी थी, ने भिखारी ठाकुर पर किए अपने शोध निबंध में करते हुए छपरा-गोपालगंज आदि के बारे किया है? बहरहाल इस विषय पर किसी नतीजे पर पहंुचने के पूर्व गहरे शोध की आवश्यकता होगी।
पटना से हर वर्ष अभिनेता खासकर अभिनेत्रियां पंडारक जाती हैं।पटना रंगमंच की कई अभिनेत्रियां पंडारक में जाकर अभिनय कर चुकी हैं। इसकी प्रमुख वजह गांव की लड़कियों कों अभी भी नाटक में भाग नहीं लेना है। स्त्री पात्रों के लिए पटना की अभिनेत्रियों केा आमंत्रित किया जाता है। वे वहां दो-चार दिन ठहरकर नाटकों का रिहर्सल कर नाटकों का मंचन करती हैं।
हालांकि यह तथ्य निराशाजनक है कि पंडारक जैसे अपेक्षाकृत संपन्न एवं  उंची साक्षरता दर वाले गांव में भी लड़कियां अभी भी नाटक में भाग लेने से कतराती रहीं हैं। हालांकि एकाध कोशिश वहां के रंगकर्मियों ने अपने परिवार की महिला सदस्यों को उतार कर करने की है। लेकिन यह काम पंडारक में अभी भी काफी पिछड़ा है। वहां के कलाकारों के साथ-साथ समाज को यह काम करने के लिए आगे आना होगा, खासकर एक ऐसे वक्त में जब बिहार में महिला साक्षरता दर देश भर में रिकार्ड बढ़ोतरी हुई है।
थियेटर के कई विद्वान मानते हैं कि थियेटर को यदि बचना है, अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करनी है तो उसे स्थानीयता का ख्याल रखना होगा, उसे गांवों की ओर मुड़ना होगा एवं अपनी बोली पर ध्यान देना होगा इत्यादि। मेरे ख्याल से थियेटर और समाज का रिश्ता एक दूसरे को कैसे प्रभावित करता है इस चीज को देखने-परखने के लिहाज से भी गांवों की ओर नाटक के शोधार्थियों का ध्यान जाना चाहिए। पंडारक इस लिहाज भी से एक उदाहरण हो सकता है।
थियेटर हमेशा अपने समय व स्थान को प्रस्तुत करता है। ऐसे में एक उम्मीद अवश्य हमें पंडारक के रंगकर्म से जुड़े साथियो से करनी चाहिए कि उनके नाटकों को देखने से एक यह पता चले कि पंडारक एवं बाढ़ के आसपास का इलाका कैसा है? समाज कैसे बदल रहा है। पंडारक की नाट्य टीमों को भी अपने से जुड़ी कोई कहानी अपने नाटक में प्रस्तुत चाहिए। मेरे ख्याल से पंडारक के रंगकर्मी इस काम केा करने में सक्षम भी हैं। बाढ़ एवं उसके आस-पास के इलाकों के बारे में कई कहानियां वहां के लोगों से सुनने को मिलती है। वहां के समाज, सत्ता एवं अपराध के बनते-बिगड़ते रिश्तों पर ही कोई नाटक यदि प्रस्तुत हो तो वह एक महत्वपूर्ण रंगमंचीय एवं सामाजिक हस्तक्षेप होगा। इस दिशा में भी पंडारक के रंगकर्मियों को अपनी तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ कोशिश करनी चाहिए।
अनीश अंकुर रंगकर्मी एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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