छत्तीसगढ़ |
Chhattisgarh
|
बकरी और बाघिन
बहुत पुरानी बात है। एक
गाँव में एक बुढ़ा और बुढिया
रहते थे। वे दोनो बड़े दुखी थे
क्योंकि उनके बच्चे नहीं थे। दोनों
कभी-कभी बहुत उदास हो जाते थे और
सोचते थे हम ही हैं जो अकेले जिन्दगी गुजार
रहे हैं। एक बार बुढे से बुढिया से
कहा - "मुझे अकेले रहना अच्छा नहीं
लगता है। क्यों न हम एक बकरी को
घर ले आये? उसी दिन दोनो हाट में
गये और एक बकरी खरीदकर घर ले
आये। चार कौरी में वह बकरी
खरीद कर आये थे इसीलिये वे बकरी
को चारकौरी नाम से पुकारते थे।
बुढिया माई बहुत खुस
थी बकरी के साथ। उसे अपने हाथों से
खिलाती, पिलाती। जहाँ भी जाती
चारकौटि को साथ ले जाती।
पर थोड़े ही दिन में बकरी
बहुत ही मनमानी करने लगी।
किसी के भी घर में घुस जाती थी, और
जो भी मिलता खाने लगती। आस-पास
रहनेवाले बहुत तंग हो गये और
घर आकर बकरी के बारे में बोलने
लगे। बुढ़े बाबा को बहुत गुस्सा आने
लगा। बुढ़ी माई को कहने लगे
इस बकरी को जंगल में छोड़कर आए।
बुढिया ने कहा "ये क्या कह रहे
हो। ऐसा करते हैं राउत के साथ उसे
जंगल में चरने के लिए भेज देते
हैं।"
बकरी चराने वाले राउत के
साथ बकरी जंगल जाने लगी। लेकिन
थोड़े ही दिन में राउत भी बहुत
तंग हो गया - चारकोरि उसका कहा
जो नहीं मानती थी। उसने बकरी को
चराने ले जाने से इन्कार कर दिया।
बकरी फिर से घर में
रहने लगी और अब उसे बच्चे हो
गये और बच्चे भी सबको तंग
करने लग गये। अब बुढिया भी परेशान
हो गई। उसने कहा "मैं और इनकी
देखभाल नहीं कर सकती" -
बुढ़े बाबा ने बकरी और उसके
बच्चों को जंगल में छोड़ दिया।
बकरी और उसके बच्चे
खिरमिट और हिरमिट जंगल में
घूमने लगे, फूल, पत्ते सब खाने लगे।
एक दिन अचानक एक बाघिन से मुलाकात
हो गई। बाघिन खिरमिट और
हिरमिट को देख रही थी और सोच
रही थी कब इन दोनो को खाऊँगी।
बाघिन को देखकर बकरी
को समझ में आ गया कि बाघिन क्या सोच
रही है। बकरी को बहुत डर लगा पर
हिम्मत करके वह बाघिन के पास गई
और अपना सर झुकाकर उसने कहा -
"दीदी प्रणाम।"
अब बाघिन तो बहुत अचम्भे में
पड़ गई। ये बकरी तो मुझे दीदी
कहकर पुकार रही है। उसके बच्चों
को कैसे खाऊँ? बाघिन ने कहा - "तू
कहाँ रहती है?" बकरी ने कहा -
"क्या कहुँ दीदी। रहने के लिये
कोई जगह ही नहीं है हमारे पास"।
बाघिन ने कहा - "तो तेरे
पास रहने के लिये कोई जगह ही
नहीं है? ऐसा कर - मेरे साथ चल - मेरे
पास दो माँ है। एक में तू अपने बच्चों
के साथ रह जा"
बकरी बड़ी खुशी से बाघिन
के पीछे-पीछे चल दी। उसे पता था बाघिन
दीदी सम्बोधन से बड़ी खुश हुई
थी और अब वह उसके बच्चों को नहीं
खायेगी।
बाघिन के माँद के पास
दूसरे माँद में अपने बच्चों के साथ
बकरी खुसी से रहने लगी। बाघिन
भी उसे तंग नहीं करती थी।
लेकिन कुछ दिनों के बाद बाघिन
को जब बच्चे हुए, बाघिन फिर से बकरी
के बच्चों को खाने के लिए बेचैन
हो गई। बच्चे पैदा होने के बाद
वह शिकार करने के लिए नहीं जा पा
रही थी। भूख भी उसे और ज्यादा लगने
लगी थी।
बकरी बाघिन के आँखों की ओर
देखती और मन ही मन चिन्तित हो उठती
- वह बाघिन के पास जाकर "दीदी
दीदी" कहती और बातें करती
रहती ताकि उसकी आँखों के भाव बदल
जाये। बाघिन उससे कहती - "मेरे
बच्चों का कोई नाम रख दो" - बकरी
ने ही कहा - "एक का नाम एक काँरा,
दूसरे का नाम दू-काँरा"।
बाघिन के बच्चे एक काँटा और
दू काँटा और बकरी के बच्चे
खिरमिट और हिरमिट।
शाम होते ही बाघिन ने बकरी
से कहा - "तुम तीनों अगर हमारे
संग सोते तो बड़ा अच्छा होता। या
किसी एक को अगर भेज दो ..." अब बकरी
बहुत परेशान हो गई। क्या कहूँ
बाघिन से? खिरमिट ने अपनी माँ को
चिन्तित देखकर कहा - "माँ, तू
चिन्ता मत कर। मैं जाऊँगा वहाँ सोने"
बाघिन के माँद में जाकर
खिरमिट ने कहा - "मौसी मौसी,
मैं आ गया"। बाघिन बड़ी खुश
हुई। उसने खिरमिट से कहा - "तू
उस किनारे सो जा..."। खिरमिट लेट
गया लेकिन डर के कारण उसे नींद
नहीं आ रही थी। थोड़ी देर के बाद
वह उठकर बाघिन के पास जाकर उसे
देखने ला - हाँ, बाघिन गाढ़ी नींद में
सो रही थी। खिरमिट ने धीरे से
एक काँरा को उठाया और अपनी जगह उसे
लिटाकर खुद उसकी जगह में लेट
गया। जैसे ही आधी रात हुई, बाधिन
की नींद खुल गई - वह माँद के
किनारे धीरे-धीरे पहुँची और आँखों
तब भी नींद रहने के कारण ठीक से
नहीं देख पा रही थी, पर उसने
तुरन्त उसे खाकर सो गई।
जैसे ही सुबह हुई,
खिरमिट ने कहा - "मौसी, मै अब
जा रहा हूँ।"
बाघनि चौंक गई - खिरमिट
ज़िन्दा है - तो मैनें किसको खाया?
वह तुरन्त अपने बच्चों की ओर
देखने लगी - कहाँ गया मेरा एक
काँटा? बाघिन गुस्से से छटपटा
रही थी। उसने कहा - "आज रात को
आ जाना सोने के लिए"।
उस रात को जब खिरमिट
पहुँचा सोने के लिए, उसने देखा बाघिन
अपनी पूँछ से दू काँटा को अच्छे से लपेटकर
लेटी थी। अब खिरमिट सोच में पड़
गया।
बाघिन ने कहा, "जा, उस
किनारे जाकर सो जा" -
खिरमिट उस किनारे जाकर लेट
गया लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी।
वह धीरे से माँद से बाहर आ
गया और चारों ओर देखने लगा। उसे
एक बड़ा सा खीरा दिख गया, उसने उस
खीरे को उठाकर माँद के किनारे पर
रख दिया और खुद अपनी माँ के पास
चला आया।
सुबह होते ही खिरमिट
ने बाघिन के पास जाकर कहा - "मौसी,
अब मैं जा रहा हूँ।"
बाघिन उसकी ओर देखती रह
गयी, और फिर उसे डकार आया - यह
तो खीरे का डकार आया, तो इस बार
मैं खीरा खा गई। बाघिन बहुत
गुस्से से खिरमिट की ओर देखने लगी।
खिरमिट धीरे-धीरे माँद से
बाहर निकल आया और फिर तेज़ी से
अपनी माँ के पास पहुँचा -
"दाई, दाई अब बाघिन
हमें नहीं छोड़ेगी - चलो, जल्दी चोल,
यहाँ से निकल पड़ते हैं।" बकरी
खिरमिट और हिरमिट को लेकर भागने
लगी। भागते-भागते बहुत दूर
पहुँच गई। बकरी खिरमिट और
हिरमिट को देखती और बहुत
दुखी होती। ये नन्हें बच्चे कितने
थक गये हैं। उसने बच्चो से कहा - "थोड़ी
देर हम तीनों पेड़े के नीचे आराम
कर लेते हैं" - पर खिरमिट ने
कहा - "माँ बाघिन तो बहुत तेज
दौड़ती है, वह तो अभी पहुँच
जायेगी।"
हिरमिट ने कहा - "क्यों न
हम इस पेड़ पर चढ़ जायें?"
बकरी ने कहा - "हाँ, ये ठीक
है - चल हम तीनों इस पेड़ पर चढ़
जाते हैं"।
बकरी और खिरमिट,
हिरमिट पेड़ पर चढ़ गये और आराम
करने लगे।
उधर बाघिन बकरियों के माँद
में पहुँची। उसने इधर देखा, उधर
देखा, कहाँ गयी बकरियाँ? बाहर
आई और उसके बाद बकरियों के पैरों
के निशान देखकर समझ गई कि वे
तीनों किस दिशा में गये। उसीको
देखते हुए बाघिन चलती रही, फिर
दौड़ती रही। उसे ज्यादा समय नहीं लगा
उस पेड़ के पास पहुँचने में। पैरों
के निशान पेड़ तक ही थे और बकरियों
की गंध भी तेज हो गयी थी।
बाघिन ने ऊपर की ओर
देखा। अच्छा, तो यहाँ बैठे हो सब।
बाघिन ने कहा - "अभी तुम
तीनों को मैं खा जाऊँगी - अभी ऊपर
आती हूँ"।
खिरमिट और हिरमिट तो
डर गये। डरके माँ से लिपट गये। बकरी
ने कहा - "अरे डरते क्यों हो? जब
तक हम पेड़ के ऊपर बैठे हैं वह
बाघिन हमें खा नहीं सकती"- अब
खिरमिट के मन में हिम्मत हुआ उसने
कहा -
" दे तो दाई सोने का
डंडा" । बाधिन ने
सोचा पेड़ के ऊपर बकरी के पास सोने
का डंडा कहाँ से आयेगा? बाघिन ने
कहा - "सोने का डंडा तुझे कहाँ से
मिला?"
बकरी ने कहा " खिरमिट
हिरमिट, ये ले डंडा" ।
ये कहकर बकरी ने ऊपर से एक
डंडा फेका - बाघिन के पीठ पर वह लकड़ी
गिरी। बाघिन ने सोचा डंडा तो
डंडाही है - चोट तो लगती है -
वह वहाँ से हट गई। लेकिन पेड़
के आस पास ही रही।
अब बकरी कैसे अपने बच्चों
को लेकर नीचे उतरे? बकरी मन ही
मन बहुत परेशान हो रही थी।
उधर बाघिन परेशान थी ये सोचकर
की कब तक उसे बकरियों के इंतजार
में पेड़ के नीचे रहना पड़ेगा?
तभी बाघिन ने देखा वहाँ से
तीन चार बाघ जा रहे हैं। सबसे
जो बड़ा बाघ था उसका नाम था बंडवा।
बाघिन बंडवा के पास गई और उस पेड़
कि ओर संकेत किया जिस पर बैठी
थी बकरियाँ। बंडवा तो बहुत खुश
हो गया, वह अपने साथियों को साथ
लेकर पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो
गया।
बकरी अपने बच्चों से कह
रही थी - "डर किस बात का? ये
सब नीचे खड़े होकर ही हमें
देखते रहेंगे"। लेकिन तभी उसने
देखा कि बडंवा पेड़ के नीचे खड़ा
हो गया, उसके ऊपर बाघिन, बाघिन के ऊपर
और एक बाघ, उसके ऊपर......अब तो
चौथा बाघ पेड़ के ऊपर तक आ
जायेगा - बकरी अब डर गई थी,
कैसे बचाये बच्चों को - तभी
खिरमिट ने कहा -
ये सुनकर बडंवा, जो सबसे
नीचे था, भागने लगा, और जैसे ही
वह भागने लगा, बाकी सब बाघ
धड़ाम धड़ाम ज़मीन पर गिरने लगे।
गिरते ही सभी बाघ भागने लगे।
सबको भागते देख बाघिन भी भागने
लगी - बकरी ने कहा - "चल
खिरमिट चल हिरमिट, हम भी
यहाँ से भाग जाए। नहीं तो बाघिन
फिर से आ जायेगी।"
बकरी अपने बच्चों को साथ
लिए दौड़ने लगी। दौड़ते दौड़ते
जंगल से बाहर आ गये। तीनों सीधे
बुढ़ी माई के घर आ गये। और बुढ़ी
माई को चारों ओर से घेर लिया।
बुढ़ी माई और बुढ़ा बाबा उन
तीनोंको देखकर बड़े खुश हुये।
अब सब एक साथ खुशी-खुशी रहने लगे।
देही तो कपाल,
का करही गोपाल
बहुत पहले की बात है। एक ब्राह्मण
और एक भाट में गहरी दोस्ती थी। रोज़
शाम को दोनों मिलते थे और सुख-दुख
की बाते कहते थे। दोनों के पास पैसे
न होने के कारण दोनों सोचा
करते थे कि कैसे थोड़े बहुत पैसा
का जोगाड़ करे।
एक दिन भाट ने कहा - "चलो,
हम दोनों राजा गोपाल के दरबार
में चलते हैं। राजा गोपाल अगर खुश
हो जाये, तो हमारी हालत ठीक
हो जाये।"
ब्राह्मण ने कहा -
भाट ने कहा - "नहीं, ऐसा
नहीं।
दोनों में बहस हो गई। ब्राह्मण
बार-बार यही कहता रहा
भाट बार-बार कहता रहा -
"राजा गोपाल बड़ा ही दानी राजा
है। वे अवश्य ही हमें देगा, चलो, एक
बार तो चलते है उनके पास, कपाल
क्या कर सकता है - कुछ भी नहीं -
दोनों में बहस होने के बाद
दोनों ने निश्चय किया कि राजा
गोपाल के दरबार में जाकर अपनी-अपनी
बात कही जाए।
इस तरह भाट और ब्राह्मण एक
दिन राजा गोपाल के दरबार में
पहुँचे और अपनी-अपनी बात कहकर राजा
को निश्चित करने के लिए कहने लगे।
राजा गोपाल मन ही मन भाट
पर खुश हो उठे और ब्राह्मण के प्रति
नाराज़ हो उठे। दोनों को उन्होंने
दूसरे दिन दरबार में आने को लिये
कहा।
दूसरे दिन दोनों जैसे ही
राजा गोपाल के दरबार में फिर से
पहुँचे, राजा गोपाल ने अपने देह
रक्षक को इशारा किया। राजा के
देह रक्षक ब्राह्मण को चावल, दाल और
कुछ पैसे दिये। और उसके बाद भाट
को चावल, घी और एक कद्दुू दिया।
उस कद्दुू के भीतर सोना भर
दिया गया था।
राजा ने कहा - "अब दोनों
जाकर खाना बनाकर खा लो। शाम
होने के बाद फिर से दरबार में
हाजिर होना।"
भाट और ब्राह्मण साथ-साथ चल
दिए। नदी किनारे पहुँचकर दोनों
खाना बनाने लग गये।
भाट ब्राह्मण की ओर देख रहा
था और सोच रहा था - "राजा ने
इसे दाल भी दी। मुझे ये कद्दुू पकड़ा
दिया। इसे छीलना पड़ेगा, काटना पड़ेगा
और फिर इसकी सब्जी बनेगी। ब्राह्मण
के तो बड़े मजे हैं। दाल झट से बन
जायेगी। ऊपर से ये कद्दुू अगर मैं
खा लूँ, मेरा कमर का दर्द फिर से
उभर आयेगी।"
भाट ने ब्राह्मण से कहा - "दोस्त,
ये कद्दुू तुम लेकर अगर दाल मुझे
दे दोगे, तो बड़ा अच्छा होगा। कद्दुू
खाने से मेरे कमर में दर्द हो
जायेगा।"
ब्राह्मण ने भाट की बात मान ली।
दोनों अपना-अपना खाना बनाने में लग
गये।
ब्राह्मण ने जब कद्दुू काटा, तो
ढेर सारे सोना उसमें से नीचे
गीर गया। ब्राह्मण बहुत खुश हो
गया। उसने सोचा -
उसने सोना एक
कपड़े में बाँध लिया और कद्दुू की
तरकारी बनाकर खा लिया। लेकिन
कद्दुू का आधा भाग राजा को देने के
लिये रख दिया।
शाम के समय दोनों जब राजा
गोपाल के दरबार में पहुँचे, तो
राजा गोपाल भाट की ओर देख रहे
थे, पर भाट के चेहरे पर कोई रौनक
नहीं थी। इसीलिये राजा गोपाल बड़े
आश्चर्य में पड़े। फिर भी राजा ने
कहा - "देही तो गोपाल का करही
कपाल" - क्या ये ठीक बात नहीं?
तब ब्राह्मण ने कद्दुू का आधा
हिस्सा राजा गोपाल के सामने में
रख दिया।
राजा गोपाल ने एक बार भाट
की ओर देखा, एक बार ब्राह्मण की ओर
देखने लगे। फिर उन्होंने भाट से
कहा - "कद्दुू तो मैनें तुम्हें दिया
था?" भाट ने कहा - "हाँ, मैनें दाल
उससे ली। कद्दुू उसे दे दिया" -
राजा गोपाल ने ब्राह्मण की ओर
देखा -
ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा -
देही तो
कपाल,
का करही गोपाल।
महुआ का पेड़
बहुत पुरानी कहानी है। एक
गांव में एक मुखिया रहता था जो अपने
अतिथियों से बड़े आदर से बड़े प्रेम
से पेश आता था। वह मुखिया हमेशा
इन्तजार करता था कि उसके घर कोई
आये, और वह उसकी देखभाल बहुत
अच्छी तरह करे, और रोज़ सुबह मुखिया
यही सोचता था कि आज अतिथियों को
खिलाया जाये, क्या पिलाया जाये
ताकि अतिथि खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी
खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से
वहाँ से विदा लेते और जाने से
पहले मुखिया को हमेशा कहते
कि उन्हें इतने अच्छे से किसी ने नहीं रखा।
लेकिन मुखिया के मन में यही बात
खटकती कि अतिथि खुशी से झूम नहीं
रहे हैं।
रोज सुबह होते ही मुखिया
जंगल में घुमता रहता, फूल
कंदमूल इकट्ठे करते रहता था
ताकि कोई अतिथि अगर आये, तो उन्हें
अच्छी तरह से भोजन करा सके।
मुखिया का बेटा भी अपने
पिता की तरह अतिथि सत्कार में बड़ा
माहिर था। एक दिन जब उनके घर में
मेहमान आए जो पहले भी आ चुके थे,
मुखिया और मुखिया का बेटा
दोनो कंद-मूल और फलों से अच्छी
तरह से उनका सत्कार किया।
मेहमान भी बड़े प्यार से, खुशी से
खा रहे थे। खाते-खाते मेहमान ने
कहा - "इस जंगल में सिर्फ यही
फल मिलता है - हमारे उधर के जंगल
में बहुत कि के फल होते हैं। पर
मुझे तो ये फल बहुत ही अच्छा लगता
है।"
मुखिया का बेटा अपने पिता
की ओर देख रहा था। मुखिया ने
कहा - "हम जंगल में घुमते
रहते हैं ताकि हमें कुछ और किस्म
का फल मिल जाए। लेकिन इस जंगल में
सिर्फ ये ही पाई जाती है" -
अतिथि ने कहा - "मुझे तो
सबसे बेहतर आप का अतिथि सत्कार
लगता है। इतने आदर से तो हमें
कोई भी नहीं खिलाता।"
उस रात को मुखिया का बेटा
मुखिया से कहा - "मैं कुछ दिन के
लिए जंगल के भीतर और अच्छी तरह से
छानबीन करने के लिए जा रहा हूँ।
देखु-अगर मुझै कुछ और मिल जाये"
-
मुखिया को बड़ा अच्छी लगी ये
बात। उसने बेटे से कहा - "हाँ बेटा,
तू जा" -
कई दिन तक मुखिया का बेटा
जंगल में घूमता रहा पर उसे कोई
नई चीज़ दिखाई नहीं दी।
घूमते-घूमते वह बहुत ही थक
गया था, एक पेड़ के नीचे बैठ वह आराम
करने लगा। अचानक उसके सर पर एक
चिड़िया आकर बैठी। और फिर फुदकती
हुई चली गई।
अरे! ये चिड़िया तो बड़ी मस्ती
से झूम रही है। उसने चारों ओर
देखा - यहाँ की सारी चिड़िया तो बड़ी
खुश नज़र आ रही है। क्या बात है?
वह गौर से देखता रहा चिड़ियों
की ओर। उस पेड़ के नीचे एक गड्ढ़ा था
जिसमें पानी था। चिड़िया उड़ती हुई
उस गड्ढ़े के पास गई, उन्होंने पानी
पिया और झुमते हुये चहकनी लगी
और जिस चिड़िया ने अभी तक पानी
नहीं पिया था, वह उतने उत्साह से
झूम नहीं रही थी। इसका मतलब है
कि उस पानी में खुच है।
मुखिया का बेटा गड्ढ़े के पास
बैठ गया और उसने गड्ढ़े का पानी पी
लिया। अरे - ये पानी तो बड़ा अजीब
है। पीने से झूमने को मन करता
है। क्या है इस पानी में? अच्छा यह
तो महुए का पेड़ है।
इसके फल झड़-झड़ के उसी पानी
में गिर रहे थे। तो इसका मतलब
है कि महुए के फल में वह झूमने वाली
चीज़ है।
मुखिया का बेटा मन ही मन
झूम उठा। ये ही तो वह कितने
दिनों से तलाश कर रहा था। इतने
दिनों के बाद उसे वह चीज़ मिल गई।
उसने महुए का फल इकट्ठा
करना शुरु कर दिया। ढ़ेर सार फलों
को लेकर वह घर की ओर चल दिया।
उधर मुखिया बहुत ही
चिन्तित हो उठा था। कहाँ गया उसका बेटा?
उस दिन तीन अतिथि आए हुए थे। अतिथीयों
को मुखिया की पत्नी प्यार से खिला
रही थी पर साथ ही साथ उदास भी
थी। अपने पति की ओर बार-बार देख
रही थी।
अचानक मुखिया के चेहरे पर
रौनक आ गई। उसकी पत्नी समझ गई
कि बेटा वापस आ गया है।
अतिथी अब जाने ही वाले थे। पर
मुखिया के बेटे ने उनसे अनुरोध
किया कि वह थोड़ी देर के लिए रुक
जाये।
अपनी माँ को उसने सारी बात
बताई। माँ ने कहा - "पर बेटा, पानी
में कुछ समय वह फल रहने के बाद
ही असर होगा - तुम्हारी कहानी से
मुझे तो यही समझ आ रहा है।"
मुखिया का बेटा मान गया।
इसके बाद पानी में वह फल डालकर
कुछ दिन तक वे सब इन्तज़ार करने लगे।
अगली बार जब अतिथि आए उन्हें वह पानी
दिया गया पीने के लिए।
उस दिन मुखिया, मुखिया की
पत्नी और मुखिया का बेटा, तीनों
खुशी से झूम उठे। क्योंकि पहली बार
अतिथि जाते वक्त झूमते हुए चले जा
रहे थे।
एक बकरी थी। रोज़ सुबर
जंगल चली जाती थी - सारा दिन जंगल
में चरती और जैसे ही सूर्य विदा
लेते इस धरती से, बकरी जंगल से
निकल आती। रात के वक्त उस जंगल में
रहना पसन्द नहीं था। रात को वह
चैन की नींद सो जाना चाहती थी। जंगल
में जंगली जानवर क्या उसे सोने
देगें?
जंगल के पास उसने एक छोटा
सा घर बनाया हुआ था। घर आकर
वह आराम से सो जाती थी।
कुछ महीने बाद उसके चार बच्चे
हुए। बच्चों का नाम उसने रखा आले, बाले,
छुन्नु और मुन्नु। नन्हें-नन्हें बच्चे बकरी
की ओर प्यार भरी निगाहों से
देखते और माँ से लिपट कर सो
जाते।
बकरी कुछ दिनों तक जंगल
नहीं गई। आस-पास उसे जो पौधे
दिखते, उसी से भूख मिटाकर घर चली
जाती और बच्चों को प्यार करती।
एक दिन उसने देखा कि आसपास
और कुछ भी नहीं है। अब तो फिर से
जंगल में ही जाना पड़ेगा - क्या करे?
एक सियार आस-पास घूमता रहता
है। वह तो आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु
को नहीं छोड़ेगा। कैसे बच्चों की रक्षा
करे? बकरी बहुत चिन्तित थी। बहुत
सोचकर उसने एक टटिया बनाया और
बच्चों से कहा - "आले, बाले, छुन्नु
और मुन्नु, ये टटिया न खोलना, जब
मैं आऊँ, आवाज़ दूँ, तभी ये टटिया
खोलना" - सबने सर हिलाया और
कहा - "हम टटिया न खोले, जब तक
आप हमसे न बोले"।
बकरी अब निश्चिन्त होकर
जंगल चरने के लिए जाने लगी। शाम
को वापस आकर आवाज़ देती -
आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु
दौड़कर दरवाज़ा खोल देते और माँ
से लिपट जाते।
वह सियार तो आस-पास
घुमता रहता था। उसने एक दिन एक पेड़
के पीछे खड़े होकर सब कुछ सुन लिया।
तो ये बात है। बकरी जब बुलाती,
तब ही बच्चे टटिया खोलते।
एक दिन बकरी जब जंगल चली
गई, सियार ने इधर देखा और उधर
देखा, और फिर पहुँच गया बकरी
के घर के सामने। और फिर आवाज लगाई
-
आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु
ने एक दूसरे की ओर देखा -
"इतनी जल्दी आज माँ लौट
आई" - चारों बड़ी खुशी-खुसी टटिया
के पास आये और टटिया खोल दिये।
सियार को देखकर बच्चों
की खुशी गायब हो गई। चारों उछल-उछल
कर घर के और भीतर जाने
लगे। सियार कूद कर उनके बीच
आ गया और एक-एक करके पकड़ने लगा।
आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु रोते
रहे, मिमियाते रहे पर सियार
ने चारों को खा लिया।
शाम होते ही बकरी भागी-भागी
अपने घर पहुँची - उसने दूर से ही
देखा कि टटिया खुली है। डर के मारे
उसके पैर नहीं चल रहे थे। वह बच्चों
को बुलाती हुई आगे बढ़ी - आले, बाले,
छुन्नु, मुन्नु। पर ना आले आया ना बाले,
न छुन्नु न मुन्नु।
बकरी घर के भीतर जाकर
कुछ देर खूब रोई। उसके बाद वह
उछलकर खड़ी हो गई। ध्यान से दखने
लगी ज़मीन की ओर। ये तो सियार
के पैरों के निशान हैं। तो सियार
आया था। उसके पेट में मेरे आले, बाले,
छुन्नु, मुन्नु हैं।
बकरी उसी वक्त बढ़ई के पास
गई और बढ़ई से कहा - "मेरे सींग
को पैना कर दो" -
"क्या बात है? किसको मारने
के लिए सींग को पैने कर रहे
हो" -
बकरी ने जब पूरी बात बताई,
बढ़ई ने कहा - "तुम सियार से
कैसे लड़ाई करोगी? सियार
तुम्हें मार डालेगा। वह बहुत बलवान
है" -
बकरी ने कहा, "तुम मेरे
सींग को अच्छी तरह अगर पैने कर
दोगे, मैं सियार को हरा दूँगी"
-
बढ़ई ने बहुत अच्छे से बकरी
के सींग पैने कर दिए।
बकरी अब एक तेली के पास
पहुँची। तेली से बकरी ने कहा -
"मेरे सीगों पर तेल लगा दो और
उसे चिकना कर दो" -
तेली ने बकरी
के सीगों को चिकना करते करते पूछा
- "अपने सीगों को आज इतना चिकना
क्यों कर रहे हो?"
बकरी ने जब पूरी कहानी सुनाई,
तेली ने और तेल लगाकर उसके सीगों
को और भी चिकना कर दिया।
अब बकरी तैयार थी। वह उसी
वक्त चल पड़ी जंगल की ओर। जंगल में
जाकर सियार को ढ़ूढ़ने लगी। कहाँ
गया है सियार? जल्दी उसे ढ़ूड निकालना
है। आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु उसके पेट
में बंद हैं। अंधेरे में न जाने नन्हें
बच्चों को कितनी तकलीफ हो रही
होगी।
बकरी दौड़ने लगी - पूरे
जंगल में छान-बीन करने लगी।
बहुत ढूँढ़ने के बाद बकरी
पहुँच गई सियार के पास।
सियार का पेट इतना मोटा हो
गया था, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु जो
उसके भीतर थे।
बकरी ने कहा - "मेरे बच्चों
को लौटा दो", सियार ने कहा -
"तेरे बच्चों को मैनें खा लिया
है अब मैं तुझे खाऊँगा"।
बकरी ने कहा - मेरे सींगो
को देखो। कितना चिकना है "तुम्हारा पेट फट
जायेगा - जल्दी से बच्चे वापस करो"।
सियार ने कहा - "तू
यहाँ मरने के लिये आई है"।
बकरी
को बहुत गुस्सा आया। वह आगे
बहुत तेजी से बढ़ी और सियार के
पेट में अपने सींग घोंप दिए।
जैसे ही सियार का पेट फट
गया, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु पेट से
निकल आये। बकरी खुशी से अब
चारों को लेकर घर लौट कर आई।
तब से आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु
टटिया तब तक नहीं खोलते जब तक बकरी
दो बार तो कभी तीन बार
दरवाजा खोलने के लिए न कहती।
रोज सुबह जाने से पहले
बकरी उन चारों से फुसफुसाकर
कहकर जाती कि वह कितने बार टटिा
खोलने के लिए कहेगी।
बहुत दिनों पहले एक राजा
रहता था। उनकी दो रानियाँ थीं।
दोनों रानियाँ नि:सन्तान थी। राजा
सभी मन्दिरों में जा - जाकर पूजा-पाठ
करते, घर में पूजा-पाठ करवाते।
दो रानियाँ भगवान से विनती
करते रहने पर फिर भी दोनों रानियाँ
माँ नहीं बन पाई।
एक बार एक सन्यासी उस राज्य
से गु रहे थे। राजा के दरबार
में सभी लोग कहने लगे कि वे सन्यासी
बहुत ही महात्मा है। क्यों न उन्हें राज
दरबार में बुलाकर इस सम्स्या
को हल करने के लिये विन्ती किया
जाये? राजा ने कहा कि सन्यासी को आदर
से महल में बुलाया जाये।
वे महात्मा जब महल में
पहुँचे, राजा ने दोनों रानियों
को बुलाकर कहा "महात्मा का सत्कार
बड़े आदर के साथ होना
चाहिये।" बड़ी रानी उसी वक्त
तैयार हो गई और महात्मा को बड़े
आदर के साथ खिलाने लगी। छोटी रानी
महात्मा के फटे कपड़ो की ओर
देखती और उनकी सेवा करने से इन्कार
कर देती है। छोटी रानी को अपने रुप
और धन का बड़ा घमंड था।
कुछ दिनो बाद महात्मा
जाने के लिए तैयार हो गये। जाने से
पहले बड़ी रानी को उन्होंने खूब
आशीर्वाद दिया और कहा "बहुत
जल्द ही इस महल में बच्चों की आवाज़
सुनाई देगी" - बड़ी रानी तो
बहुत खुश थी। और सचमुच कुछ ही
दिनों के भीतर वह गर्भवती हो गई।
यह खबर राजा के पास
पहुँचते ही राजा बहुत ही खुश
हो गये। प्रजा तक उसी वक्त खबर
पहुँच गई कि राजा अब पिता बनने
वाले हैं। पूरे राज्य में लोक खुशियाँ
मनाने लगे। बड़ी रानी का सम्मान
बहुत बढ़ गया, और उनकी देखभाल
करने के लिए और भी लोग रखे
गये।
उधर छोटी रानी के मन में
बहुत ज्यादा ईर्ष्या हो रही थी। रात
दिन वह ईर्ष्या से जलने लगी थी। सोच
रही थी कि अभी से जलने लगी थी। सोच
रही थी कि अभी से बड़ी रानी का इतना
आदर - न जाने बच्चे पैदा होने के बाद
कितना ज्यादा आदर होगा, छटपटा
रही थी छोटी रानी। उसने
राजमहल की दाई को बुला भेजा और
उसे ढेर सारा धन देकर अपने साथ शामिल
कर लिया। और दोनों मिलकर इन्तज़ार
करने लगे।
समय पर रानी ने दो बच्चों
को जन्म दिया - एक बेटी, एक बेटा। दाई
ने तुरन्त बच्चों को एक झाँपी में रखकर
छोटी रानी के पास ले गई। और उसके
बाद बड़ी रानी के पास दो पत्थर रख
दिए।
बड़ी रानी ने जब पत्थरों
को देखा उसे बहुत हैरानी हुई।
ये कैसे हो सकता है। उधर राजा
खुशी से झूमते हुये बड़ी रानी के
पास पहुँचे और जब उन्होंने देखा बड़ी
रानी दो पत्थरों को आश्चर्य से ताक
रही है, राजा वहीं रुक गये और
दाई से पूछने लगे क्या बात है। दाई
ने कहा - "बच्चे नहीं, पत्थर निकले -
राजा को बहुत गुस्सा आया। बड़ी रानी
को उसी वक्त बंदी गृह में कैद कर
दिया, पूरे राजमहल में ये बात फैल
गई कि बड़ी रानी ने ईट पत्थर को
जन्म दिया है।
उधर छोटी रानी अपने दो
चौकिदारों को बुलाकर वह
झाँपी दे दी और उनसे कहने लगी -
"इस झाँपी में दो बच्चे हैं,
दोनों को ले जाओ और मार डालो"
- दोनों चौकिदार झाँपी लेकर जंगल
में गये। झाँपी खोलकर बच्चों को जब
देखा, तब दोनों ने निश्चय किया कि
बच्चों को वही छोड़ देगें। भगवान बच्चों
की रक्षा करेंगे। ये सोचकर वही
झाँपी रखकर दोनों महल वापस आ
गये। छोटी रानी ने जब पूछा -
"हो गया काम"- उन्होंने कहा -
"हाँ हो गया काम"।
इधर बड़ी रानी दिन रात पूजा
पाठ में लग गई। राजा ने बड़ी रानी
को फिर से महल में रहने दिया।
बड़ी रानी सुबह से शाम तक पूजा
करती रहती। पूजा करने के लिए फूल
लाने सिपाही को भेजती। एक दिन आसपास
कोई फूल नहीं मिले। सिपाही
जंगल से फूल लाने गया। जंगल में
सिपाही ने देखा बड़े सुन्दर चम्पा फूल
लगे हुए थे। चम्पा और बाँस का झाड़
पास-पास उगे हुए थे। सिपाही फूल
तोड़ने के लिए जैसे ही नज़दीक आया,
चम्पा के झाड़ ने कहा "ए भैया बाँस"
-
बाँस झाड़ ने कहा "काय बहिनी
चंपा?"
चंपा ने कहा - "राजा के
सिपाही फूलवा तोड़े बर आए दे",
बाँस ने कहा - "लग जा बहिनी आकाश"
- जैसे ही बाँस ने कहा, वैसे ही
चम्पा का झाड़ उपर की ओर बढ़ने लगा,
बढ़ते बढ़ते वह इतना बढ़ गया की सैनिक
फूल तक नहीं पहुँच पाए। सैनिक आश्चर्यचकित
होकर ताकते ही रहे।
सैनिक दौड़ते हुए सेनापति
के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात
बताई। सेनापति ने विश्वास ही
नहीं किया - "ये सब क्या कह रहे
हो?"
सैनिकों ने कहा - "आप एक बार
हमारे साथ जंगल चलिये, एक बार
खुद देख लीजिए" -
सेनापति चल पड़े सैनिको
के संग - जैसे ही सेनापति चम्पा और
बाँस के पास पहुँचे, चम्पा ने कहा
- "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा -
"काय बहिनी चंपा?" चम्पा ने
कहा - "राजा के सेनापति फूल
तोड़े बर आए हे"- बाँस ने कहा,
"लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का
झाड़ बढ़ते बढ़ते और भी ऊँचे तक
पहुँच गया।
सेनापति बहुत ही डर गए।
दौड़ते दौड़ते पहुँचे मन्त्री के पास
- अब मन्त्री चल पड़े देखने के लिए।
चम्पा को ऊपर से दूर तक दिखाई
दे रहा था, उसने दूर से ही देख लिया
कि मन्त्री जी आ रहे हैं।
"ए भैया बाँस" - बाँस
ने कहा - "काय बहिनी चम्पा",
चम्पा ने कहा - "राजा के मन्त्री फूल
तोड़े बर आए हे" - "लग जा
बहिनी आकाश"- मन्त्री जी जैसे ही पेड़
तक पहुँचे, पेड़ और ऊपर और भी
ऊपर तक
पहुँच गया।
मन्त्री जी सीधे पहुँचे राजा
के दरबार में। राजा ने कहा - "इतना
घबरा क्यों गये हो?"
मन्त्री ने कहा - "आप इसी वक्त
मेरे साथ चलिए राजा जी" -
सारी बात सुनकर राजा ने
कहा - "मेरी छोटी रानी भी मेरे
साथ चलेगी। ये तो उन्हें भी देखना
चाहिए।"
छोटी रानी को खबर देने
वही दो सिपाही पहुँचे, जिन्होंने
उन बच्चों को वहाँ फेंका था। दोनों
खूब डर गये थे। छोटी रानी भी डर
गई थी। वे जल्दी से तैयार होकर
राजा के साथ चल पड़ी।
उधर बड़ी रानी फूल के लिए
व्याकुल हो रही थी और सैनिकों
को बुला भेजी थी ये जानने के लिए
कि वे अब तक फूल क्यों नही लाये। बड़ी
रानी, छोटी रानी के महल के पास
से गुज़र रही थी, उन्हे छोटी रानी और
दो सिपाहियों की बात सुनाई दी।
राजा और छोटी रानी जब जाने लगे,
उनकी सवारी के पीछे-पीछे बड़ी रानी
पैदल ही चलने लगी - बहुत व्याकुल
होकर वह चली जा रही थी।
चम्पा के झाड़ को ऊपर से
सब कुछ दिखाई दे रहा था - जैसे
ही वे सब पास पहुँचे
"ए भैया बाँस" - बाँस
ने कहा - "काय बहिनी चम्पा",
चम्पा ने कहा - "छोटी रानी संग राजा
फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा
बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ और भी
ऊँचा हो गया।
राजा दोनों पेड़ो के पास
पहुँचकर पूछने लगे - "क्या बात
है - तुम दोनों भाई बहिन हो -
कैसे चम्पा और बाँस बन गए?" उसी
वक्त बड़ी रानी वहाँ तक पहुँची।
चम्पा ने जोर से कहा - "ए भैया बाँस"
- बाँस ने कहा - "काय बहिनी
चम्पा", चम्पा ने कहा - "हमर
महतारी, दुखियारी बड़े रानी ह फुलवा
तोड़े बर आवथे"- "परो
बहिनी पाँव" - चम्पा ज़मीन में
झुक गई और बड़ी रानी के पैरों
के पास झूमने लगी।
साथ-साथ बाँस का झाड़ भी
झुककर बड़ी रानी के पैरों को
छूने लगा।
इसके बाद चम्पा और बाँस
ने राजा को सारी बात बताई। राजा
ने उसी वक्त छोटी रानी को बन्द
करने को कह दिया अंधेरी कोठरी
में और बड़ी रानी से माफी मांगने
लगे।
बड़ी रानी बड़े दुख से चम्पा
और बाँस को देख रहे थे। ये
दोनों मनुष्य कैसे बनेंगे?
बड़ी रानी दोनों के करीब
पहुँचकर दोनों से लिपटकर रोने
लगी। जैसे ही उनके आँसूओं ने चम्पा
और बाँस को छुआ, चम्पा और बाँस
मनुष्य बन गये। बेटा, बेटी को बड़ी
रानी ने गले से लगा लिया और
जाकर रथा में बैठ गई।
राजा रानी दोनों बच्चों के
साथ राजमहल की ओर चल पड़े, साथ
में बाजा, गाजा बजने लगे। पूरे देश
में खुशियाँ फैल गई।
कौआ - अनोखा दोस्त
एक कौआ था। वह एक किसान के
घर के आँगन के पेड़ पर रहता था।
किसान रोज़ सुबह उसे खाने के लिए
पहले कुछ देकर बाद में खुद खाता
था। किसान खेत में चले जाने के बाद
कौआ रोज़ उड़ते-उड़ते ब्रह्माजी के दरबार
तक पहुँचता था और दरबार के
बाहर जो नीम का पेड़ था, उस पर बैठकर
ब्रह्माजी की सारी बातें सुना करता
था। शाम होते ही कौआ उड़ता हुआ
किसान के पास पहुँचता और ब्रह्माजी
के दरबार की सारी बातें उसे सुनाया
करता था।
एक दिन कौए ने सुना कि ब्रह्माजी
कह रहे हैं कि इस साल बारिश
नहीं होगी। अकाल पड़ जायेगा। उसके बाद
ब्रह्माजी ने कहा - "पर पहाड़ो में
खूब बारिश होगी।"
शाम होते ही कौआ किसान
के पास आया और उससे कहा - "बारिश
नहीं होगी, अभी से सोचो क्या
किया जाये"।
किसान ने खूब चिन्तित
होकर कहा - "तुम ही बताओ
दोस्त क्या किया जाये"।
कौए ने कहा - "ब्रह्माजी ने
कहा था पहाड़ों में जरुर बारिश
होगी। क्यों न तुम पहाड़ पर खेती
की तैयरी करना शुरु करो?"
किसान ने उसी वक्त पहाड़ पर
खेती की तैयारी की। आस-पास के लोग
जब उस पर हँसने लगे, उसे बेवकूफ
कहने लगे, उसने कहा - "तुम सब भी
यही करो। कौआ मेरा दोस्त है,
वह मुझे हमेशा सही रास्ता
दिखाता है" - पर लोगों ने उसकी बात
नहीं मानी। उस पर और ज्यादा
हँसने लगे।
उस साल बहुत ही भयंकर सूखा
पड़ा। वह किसान ही अकेला किसान था
जिसके पास ढेर सारा अनाज इकट्ठा
हो गया। देखते ही देखते साल बीत
गया इस बार कौए ने कहा -
"ब्रह्माजी का कहना था कि इस साल बारिश
होगी। खूब फसल होगी। पर फसल
के साथ-साथ ढेर सारे कीड़े पैदा
होगें। और कीड़े सारी फसल के
चौपट कर देंगे।"
इस बार कौए ने किसान से
कहा - "इस बार पहले से ही
तुम मैना पंछी और छछूंदों को ले
आना ताकि वे कीड़ों को खा जाये।"
किसान ने जब ढेर सारा
छछूंदों को ले आया, मैना और पंछी
को ले आया, आसपास के लोग उसे
ध्यान से देखने लगे - पर इस बार वे
किसान पर हंसे नहीं।
इस साल भी किसान ने अपने
घर में ढेर सारा अनाज इकट्ठा
किया।
इसके बाद कौआ फिर से ब्रह्माजी
के दरबार के बाहर नीम के पेड़ पर
बैठा हुआ था जब ब्रह्माजी कर रहे थे
- "फसल खूब होगी पर ढेर सारे
चूहे फसल पर टूट पड़ेगे।"
कौए ने किसान से कहा -
"इस बार तुम्हें बिल्लियों को
न्योता देना पड़ेगा - एक नहीं, दो
नहीं, ढेर
सारी बिल्लियाँ"।
इस बार आस-पास के लोग भी
बिल्लियों को ले आये।
इसी तरह पूरे गाँव में
ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया।
कौए ने सबकी जान बचाई।
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Copyright IGNCA© 2004
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