भोजपुरी भाषा के लिए अनोखी पहल, बिहार का पंजवार गांव
प्रस्तुति- स्वामी शरण
निराला
सोशल मीडिया के जरिये ही दुबई में रहनेवाले एक साथी नबीन कुमार भोजपुरिया से परिचय इसी साल के आरंभ में हुआ था. फिर बीच में पटना में मुलाकात हुई थी. उन्होंने ही कहा था कि एक साधारण-सा आयोजन करते हैं हमलोग हर साल पंजवार में तीन दिसंबर को, इस साल आइए. फिर नबीन से हुई बात-मुलाकात से भी यह अहसास हुआ कि ये पेशे से इंजीनियर जरूर हैं लेकिन भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रति बेहद सजग लोगों में से हैं. तीन दिसंबर को पंजवार पहुंचा. शाम ढलने के बाद. रास्ता भूलते-भटकते. कुहासे के कारण एक-एक कदम गाड़ी का सरकना मुश्किल था. जहां आयोजन का पंडाल था, वहां पहुंच कर भी बत्ती तक न दिखे. पंडाल में जाते ही एक अलग किस्म की अनुभूति होने लगी. सामने मंच पर पांचवां भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मेलन का बैनर, और बड़े पंडाल में दोनों ओर बिछी हुई दरी.
उस पर एक ओर बैठे हजारों पुरु ष, दूसरी ओर उतनी ही संख्या में महिलाएं. भोजपुरी को लेकर खुद दर्जन भर आयोजन करा देने का अनुभव और दर्जनों आयोजनों में शिरकत करने का भी. बड़े-बड़े नामचीन लोगों के आयोजनों में जाने का लंबा अनुभव, लेकिन पंजवार में जाते ही पता नहीं क्यों आंखें नम हो गयीं. भोजपुरी ऐसा विशाल व व्यवस्थित आंदोलन कहीं, कभी देखा नहीं था. एक-एक कर आयोजकों से परिचय शुरू हुआ. बृजिकशोर तिवारी मिले, जो सोनभद्र से चल कर आये थे. तीन दिन से. सोनभद्र में नौकरी करते हैं, पलामू के रहनेवाले. वे हर साल पहुंचते हैं. अजीत तिवारी से मिले. वे दिल्ली में कारोबार करते हैं. पुराने परिचित व भाई सरीखे नितिन चंद्र मिले. भोजपुरी फिल्मों के चर्चित निर्देशक और देसवा जैसी फिल्म बना कर एक नयी शुरु आत करनेवाले युवा निर्देशक. नितिन भी मुंबई से आये थे. अबू धाबी से आये अनिमेष वर्मा से मुलाकात हुई. दिल्ली के पंडित राजीव से मिले. नबीन तो थे ही दुबई से आये हुए. एक-एक कर सबसे मुलाकात होती गयी. शेष पेज 07 पर
बिहार का पंजवार..
इनमें से कोई पंजवार गांव का नहीं. सब आन गांव के, आन प्रांत के भी और दूर-देस रहनेवाले, लेकिन सब हर साल यहां पहुंचते हैं, भोजपुरी के नाम पर होनेवाले उसी साधारण से आयोजन में भाग लेने. पूछा कि यहां का कोई नहीं तो आयोजन कैसे होता है इस गांव में. तब एकदम से शांत स्वभाव वाले संजय सिंह से मुलाकात हुई. बताया गया कि संजय सिंह ही कड़ी हैं. प्रमुख आयोजकों में वे ही इकलौते इस गांव से हैं. सब एक-दूसरे से फेसबुक पर जुड़े. आखर नाम से एक समूह बना कर. भोजपुरी का सबसे चर्चित व सरोकारी समूह, जिससे 17 हजार के करीब भोजपुरीभाषी देश-दुनिया के कोने-कोने से जुड़े हैं.
यह अपने आप में नया अनुभव था. एक भाषा के नाम पर होनेवाले आयोजन में इतनी दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं. गांववालों ने ही बताया कि सुबह प्रभात फेरी निकली थी. हजारों युवक-युवतियों का समूह गांव-जवार का फेरी लगाये थे. भोजपुरी में बोलने-बतियाने में नहीं शरमाने की अपील वाली तख्ती के साथ. मातृभाषा को सम्मान देनेवाले आग्रह के बैनरों के साथ. भोजपुरी को अश्लीलता मुक्त बनानेवाले नारे के साथ.
फिर भोजपुरी भाषा पर जौहर शफियाबादी जैसे मौलिक चिंतकों ने गंभीर विमर्श किया, व्याख्यान दिया. उसके बाद कवि सम्मेलन हुआ. शाम को सांस्कृतिक कार्यक्र म की शुरु आत हुई. बलिया से आये हुड़का नाच, स्थानीय कलाकारों की प्रस्तुति से लेकर देर रात तक लोकगायन का आयोजन और सबसे आखिर में राहुल सांकृत्यायन का चर्चित भोजपुरी नाटक मेहरारून की दुर्दशा की प्रस्तुति.
बेशक, ऐसे आयोजन बहुतेरे होते हैं और हर कुछ रोज पर होते हैं लेकिन पंजवार के आयोजन की खासियतें दूसरी थीं. सबसे बड़ी बात कि हर आयोजन में दर्शकों की उपस्थिति उसी तरह बनी रही. यानी की संकेत साफ था. अपनी भाषा के नाम पर होनेवाले आयोजन में भाग लेने के लिए सिर्फदूर-देस के लोग ही समय निकाल कर यहां नहीं पहुंचते, पंजवार समेत पूरे जवार के लोग एक दिन अपनी भाषा के नाम पर होनेवाले आयोजन के लिए खुद को खाली रखते हैं. लोगों ने कहा कि आपन भाषा खातिर एक दिन तो निकालहीं के चाहीं. रोज तो कमाये-धमाये के फेरा लागले बा. निपट, निठाह गांव पंजवार और आसपास के जवार में यह सब सुनने को मिला. यहां भी कह सकते हैं कि यह तो बिहार के मैथिली इलाके में भी देख सकते हैं. बिल्कुल सही, मैथिली इलाके में देखा जा सकता है. बेगुसराय के दीनकर के गांव सिमरिया घाट में जो आयोजन होता है, वहां भी देखा जा सकता है लेकिन हम पंजवार की बात कर रहे हैं और उसमें भी भोजपुरी भाषा के नाम पर होनेवाले आयोजन की बात.
और पंजवार का आयोजन महज बातों से खास नहीं बनता. शाम को जब पहुंचे तो उसी वक्त देखे कि ट्रैक्टर में, टेंपू में, गाड़ी में भर-भर के लोग पहुंच रहे हैं पंडाल में. लड़कियां-महिलाएं सब. हाड़ कंपा देनेवाली ठंड में. पूछने पर मालूम हुआ की जवार की लड़कियां और महिलाएं भी हैं. लगा कि इतनी संख्या महिलाओं-लड़कियांे की है, इन्हें बिठाने के लिए ऐरेंज तो करेंगे आयोजक. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. एक वालेंटियर नहीं व्यवस्था बनाने के लिए. बस, जो आ रहे थे, चुपचाप जमीन पर अपनी जगह लिये जा रहे थे. ना पंडाल में कोई वोलेंटियर, ना मंच पर कोई आयोजक उदघोषणा करने के लिए कि शांति बनाये रखें, व्यवस्था बनाये रखें. मंच बस, कलाकारों के हवाले था. दूर-देस से, दुबई से, मुंबई से, अबूधाबी से, सोनभद्र से, दिल्ली से, कोलकाता से, पटना से आये आयोजक मंच के सामने जमीन पर दर्शकों की जमात में बैठ कर आनंद ले रहे थे. छह घंटे तक. एक बार भी हो-हल्ला नहीं, हिल्ला-हवाला नहीं. ऐसा नहीं हुआ कि गीत-गवनई खत्म हो गया, तो दर्शक उठने लगे. जिस तन्मयता से हुड़का का नाच देख रहे थे, चंदन तिवारी, उदय नारायण सिंह, शैलेंद्र मिश्र का गायन सुन रहे थे, उसी तन्मयता से बलिया से आये आशीष त्रिवेदी की टीम की नाट्य प्रस्तुति भी. और खास यह भी इस आयोजन में पहुंचने वाले कई खास लोग थे, लेकिन यहां न तो कोई मुख्य अतिथि, था विशिष्ट अतिथि, न सम्मानित अतिथि ना खास अतिथि. सब एक समान. सबकी उतनी ही कद्र, उतना ही सम्मान.
पंजवार में आयोजन खत्म होने के बाद सोचा कि भोजपुरी इलाके में ऐसे गांव हैं भला. सवाल यह भी उठा कि बड़े शहरों के बड़े सभागारों में, बड़े लोगों की बौद्धिक जुगाली के साथ भाषा के नाम पर होनेवाले आयोजन को छोड़ दें तो महज भोजपुरी के लिए ही नहीं, हिंदी की दूसरी किसी बोलियों के लिए ऐसे आयोजन, किसी गांव में होते हैं क्या? कुछ आयोजन याद आये, लेकिन पंजवार फिर खास लगा. सवाल उठा कि भोजपुरी इलाके में रचा-बसा यह गांव इतना अनुशासित कैसे है. फिर क्या है खास पंजवार में जो दुबई से लेकर मुंबई तक वाले अपना हजारों रुपये किराया लगा कर भागे आते हैं हर साल. गांव के संजय सिंह ने एक बूढ़े व्यक्ति को दिखाते हुए कहा- यहां शुकुलमास्साब रहते हैं, यही मानिए कि यही बहुत खास है.
(लेखक तहलका से संबद्ध हैं.)
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