शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

प्रेमचंद की लघुकथ देवी









रात भीग चुकी थी। मैं बरामदे में खड़ा था। सामने अमीनुद्दौला पार्क नींद में डूबा खड़ा था । सिर्फ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुई थी । पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फ़कीर खड़ा राहगीरों को दुआयें दे रहा था - खुदा और रसूल का वास्ता... राम और भगवान का वास्ता - इस अन्धे पर रहम करो ।
सड़क पर मोटरों और सवारियों का तांता बन्द हो चुका था । इक्के-दुक्के आदमी नजर आ जाते थे । फ़कीर की आवाज जो पहले नक्कारखाने में तूती की आवाज थी, जब खुले मैदानों की बुलन्द पुकार हो रही थी । एकाएक वह औरत उठी और इधर-उधर चौकन्नी आंखों से देखकर फ़कीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ़ चली गई । फ़कीर के हाथ में कागज का एक टुकड़ा नजर आया जिसे वह बार-बार मल रहा था । क्या उस औरत ने यह कागज दिया है ?
यह क्या रहस्य है? उसको जानने के कुतूहल से अधीर होकर मैं नीचे आया और फ़कीर के पास जाकर खड़ा हो गया ।
मेरी आहट आते ही फ़कीर ने उस कागज के पुर्जे को उंगलियों से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा - बाबा, देखो यह क्या चीज है ?
मैंने देखा-दस रुपये का नोट था । बोला- दस रुपये का नोट है, कहाँ पाया ?
मैंने और कुछ न कहा । उस औरत की तरफ़ दौड़ा जो अब अन्धेरे में बस एक सपना बनकर रह गई थी । वह कई गलियों में होती हुई एक टूटे-फूटे मकान के दरवाजे पर रुकी, ताला खोला और अन्दर चली गई ।
रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया ।
रात भर जी उसी तरफ़ लगा रहा । एकदम तड़के फ़िर मैं उस गली में जा पहुंचा । मालूम हुआ, वह एक अनाथ विधवा है । मैंने दरवाजे पर जाकर पुकारा- देवी, मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ ।
औरत बाहर निकल आई - गरीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर ।
मैंने हिचकते हुए कहा- रात आपने फ़कीर.......
देवी ने बात काटते हुए कहा-" अजी, वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था ।
मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया ।
- प्रेमचंद
[ साभार - लघुकथा साहित्य ]


 

 

कितना अजीब सा लगता है उस पर सोचना याद करना मन ही मन में खुद से बातें करना। । तुम्हें सपना कहूं अपना कहूं या पराया यह समझ नहीं पा रहा हूं। तुमसे मेरा कोई नाता सा ना होकर भी हमेशा मन मे एक नाता सा लगा। कोई बात नहीं की आज तक इसके बाद भी लगता था कि कोई बात है। तुमको सीधे भले ही ना जान सका पर तुम्हारे परिजनों के बीच मैं चहेता सा रहा। संभवत दो ढाई साल की समय सीमा रही जब मैं किसी हवा के झोंके की तरह बिन बुलाए समय की तरह कभी भी आता और चार आठ पल रूक कर चला जाता रहा। इसी बीच तुमको देखा कई बार कभी गली में बाग में दरवाजें पर तो खिडकियों के पीछे। हां कॉलेज में भी देखा तो कभी रिक्शा में आते जाते उतरते कभी पीछे से तो दो तीन बार एकदम सामने से।



फिर तो मैं ही शहर से तुम्हारे परिवार से भी दूर बाहर चला गया। हालांकि फिर मिलना यानी देखना संभव नहीं हुआ और सब खो गए अपने अपने काम में नाम में। जीवन के इस कालचक्र में सबकुछ सबों का सबकुछ होता रहा समयानुसार। बात भले ही कभी ना हुई हो मगर याद तो बनी रही मन में । देखने की ना सही पर हो कहां कैसे किस तरह जानने की ललक रही मन में। कहीं ना कहीं से कुछ पता लग जाता था कि कहां पर हो , मगर आखिरी बार करीब 17 साल पहले देखा तुमको तुम्हारे ही घर में अपने प्यारे प्यारे बच्चों के साथ। शायद पास आकर भी तुमसे कोई बात यानी नमस्ते तक भी ना हुई हो हमारे बीच। समय का पहिया घूमता रहा और यह कहना एकदम झूठ होगा कि तुमको मैं भूल गया। मन में तो तुम हमेशा रही मगर मगर किस तरह यह आज भी मैं कह नहीं सकता। शायद मुझे बहुत कोमल और अच्छी लगी हो तो कह नहीं सकता।



यह बात फिर तुमको झूठ सी लगेगी मगर मेरे मन मंदिर में तुम सा सुदंर चेहरा कोई और दिखा नही। कभी उदास तो कभी गुमसुम सी। खुद में खोया एक गोरांग मुखमंडल। हो सकता है कि तुम शायद उतनी सुदंर कोमल आज भले ही ना हो  मगर मेरे मन में तो यही मोहक छवि आज भी है और कल भी रहेगी। हालांकि मैंने तो सामने से कभी और कभी भी तुमको देखा ही नहीं है कि चेहरे के भूगोल में कहां कहां पर दाग है या कुछ अनमना सा है,यह भी बता सकूं। ।


 खैर जिसको मन पसंद करे तो चेहरे के भूगोल में क्या है या नहीं है का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मैं पसंद भी कहां इतना करता था कि चाहत तूफान बन जाए और अपना जीना मुहाल सा लगे । नहीं पसंद को उसी श्रेणी में रखना ही ज्यादा न्याय संगत होगा जैसा कि सामान्यत होता है कि आम गांव देहात के लड़कों की तरह ही मेरे मन के मन में भी एक अनकहा और  बिना दर्द वाला चाहत सा था।

सामान्यत 30-32 साल एक लंबा अंतराल होता है। अधिकतर नाते रिश्ते और संबंध इतने समय में बेदम हो जाते हैं। मगर इतने समय के बाद एकाएक प्रकट होना संचारक्रांति के इस जमाने का यह आठवां विस्मय था। और सामने आए तो लगा मानो ईश्वर ने तुम्हें सौगात की तरह मेरे पास भेजा है। इस संचारी चमत्कारी जमाने में  सुखद समाचार था। आज मैं कह सकता हूं कि भले ही तुमको देखा ना हो या कभी बात नहीं की हो मगर मैं तुमको अब जान गया हूं। जितनी तुम तन से सुदंर हो मन से भी उतनी ही सुदंर हो । 
तुम्हारे प्यारे प्यारे बच्चों का संग और इतने बड़े अधिकारी और मन से तन से दिल से सुदंर पति का साथ भी तेरी कोमलता और सादगी का पुरस्कार है।
मैं तुमको एक दोस्त सा मान कर भी बहुत सुखद अनुभव करता हूं।  तुमसे कभी कभी बातें हो जाती है यह भी मेरे उपर भगवान की असीम अनुकंपा है कि कोई कॉलेजी दिनों का छात्र जीवन में कभी इस तरह सामने आ जाए।



जो कोई भी नाम से मैने तुम्हं कहा या स्नेहवश पुकारा । पत्ता नहीं तुम्हें कैसा लगा. यह जरूरी नहीं है जानना पर एक इतने लंबे अंतराल के बाद तुमसे बातें कर या दोस्ती की अनुभूति मन को बड़ा संतोष देता है। तुम सचमुच मेरी झोली में ईश्वर की प्रदत एक भेंट हो फूल हो सौगात हो एक अमर दान हो जिसे पाकर मैं सचमुच खुद को निहाल सा पाता हूं।  सचमुच कभी कभी तो खुद पर भी यकीन नहीं होता कि क्या तुम वहीं हो जिसको मैने केवल देखा भर था कई बार ।

मैं उस उपरवाले को धन्यबाद और उसके प्रति शुकराना अदा करता हूं कि तुमसे फिर बात करते हुए बिन मिले परिचय के एक साल होने वाले है। निसंदेह मैं उसकी ही सौगंध से यह प्रयास करूंगा कि तुम्हारा मेरे प्रति विश्वास भरोसा हमेशा बना रहे। मैं भी तुमको तुम्हारे प्यारे प्यारे बच्चों और पति की खुशी सेहत और तमाम मंगलकामनाएं कर रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में हमेशा बसंत रहे। मंगलाचरण रहे। खुशियों के दीप जलते और मंगल गीत बजते रहे। स्नेह के साथ यही मेरी कामना है। नमस्कार

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