रविवार, 7 अगस्त 2016

अल्लामा इक़बाल की 86 गजलें



प्रस्तुति-  अनिल कुमार चंचल / रजनीश सिन्हा

  • 1877-1938
  • लाहौर
महान उर्दू शायर एवं पाकिस्तान के राष्ट्र-क़वि जिन्होंने 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा ' के अतिरिक्त 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसे गीत की रचना की
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ग़ज़लश्रेणी
अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
अफ़्लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
इक दानिश-ए-नूरानी इक दानिश-ए-बुरहानी
इश्क़ से पैदा नवा-ए-ज़िंदगी में ज़ेर-ओ-बम
एजाज़ है किसी का या गर्दिश-ए-ज़माना
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कमाल-ए-जोश-ए-जुनूँ में रहा मैं गर्म-ए-तवाफ़
कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी
करेंगे अहल-ए-नज़र ताज़ा बस्तियाँ आबाद
की हक़ से फ़रिश्तों ने 'इक़बाल' की ग़म्माज़ी
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआर का
ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
ढूँड रहा है फ़रंग ऐश-ए-जहाँ का दवाम
ताज़ा फिर दानिश-ए-हाज़िर ने किया सेहर-ए-क़ादिम
तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र
तू ऐ असीर-ए-मकाँ ला-मकाँ से दूर नहीं
था जहाँ मदरसा-ए-शीरी-ओ-शाहंशाही
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
दिल-ए-बेदार फ़ारूक़ी दिल-ए-बेदार कर्रारी
न आते हमें इस में तकरार क्या थी
न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी
निगाह-ए-फ़क़्र में शान-ए-सिकंदरी क्या है
ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
फ़क़्र के हैं मोजज़ात ताज ओ सरीर ओ सिपाह
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है
मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे
मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
मीर-ए-सिपाह ना-सज़ा लश्करियाँ शिकस्ता सफ़
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन
यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
ये दैर-ए-कुहन क्या है अम्बार-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक
ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही
ये पीरान-ए-कलीसा-ओ-हरम ऐ वा-ए-मजबूरी
ये हूरयान-ए-फ़रंगी दिल ओ नज़र का हिजाब
रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी
ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब
सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं
समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
हर चीज़ है महव-ए-ख़ुद-नुमाई
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़्लाक में है
हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
है याद मुझे नुक्ता-ए-सलमान-ए-ख़ुश-आहंग
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1 टिप्पणी:

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...