रविवार, 7 अगस्त 2016

मीर तक़ी मीर की बेहतरीन गजलें




Editor Choiceचुनिंदा Popular Choiceलोकप्रिय
ग़ज़लश्रेणी
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
अब नहीं सीने में मेरे जा-ए-दाग़
अमीरों तक रसाई हो चुकी बस
अश्क आँखों में कब नहीं आता
आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से
आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ
आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं
आह जिस वक़्त सर उठाती है
इश्क़ क्या क्या आफ़तें लाता रहा
इश्क़ में कुछ नहीं दवा से नफ़ा
इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ
उम्र भर हम रहे शराबी से
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया
कल शब-ए-हिज्राँ थी लब पर नाला बीमाराना था
कहते हैं बहार आई गुल फूल निकलते हैं
कहते हो इत्तिहाद है हम को
काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
काश उठें हम भी गुनहगारों के बीच
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
कुछ तो कह वस्ल की फिर रात चली जाती है
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
कोफ़्त से जान लब पे आई है
क्या कहिए क्या रक्खें हैं हम तुझ से यार ख़्वाहिश
क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
क्या कहें आतिश-ए-हिज्राँ से गले जाते हैं
क्या मुआफ़िक़ हो दवा इश्क़ के बीमार के साथ
क्या मैं भी परेशानी-ए-ख़ातिर से क़रीं था
क्या लड़के दिल्ली के हैं अय्यार और नट-खट
क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़
ख़ातिर करे है जमा वो हर बार एक तरह
ग़ज़ल 'मीर' की कब पढ़ाई नहीं
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
गुल को महबूब हम-क़्यास किया
चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
छाती जला करे है सोज़-ए-दरूँ बला है
छुटता ही नहीं हो जिसे आज़ार-ए-मोहब्बत
ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं
जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे
जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है
जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर
जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
जिस जगह दौर-ए-जाम होता है
जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
जो कहो तुम सो है बजा साहब
जो तू ही सनम हम से बे-ज़ार होगा
जोशिश-ए-अश्क से हूँ आठ पहर पानी में
ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया
ताब-ए-दिल सर्फ़-ए-जुदाई हो चुकी
तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा
था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
दामन वसीअ था तो काहे को चश्म तरसा
दिल गए आफ़त आई जानों पर
दिल बहम पहुँचा बदन में तब से सारा तन जला
दिल से शौक़-ए-रुख़ नकू न गया
दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
फ़क़ीराना आए सदा कर चले
फ़लक करने के क़ाबिल आसमाँ है
फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में सैर जो की हम ने जा-ए-गुल
बनी थी कुछ इक उस से मुद्दत के बाद
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते
बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
बे-यार शहर दिल का वीरान हो रहा है
मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
मर मर गए नज़र कर उस के बरहना तन में
मर रहते जो गुल बिन तो सारा ये ख़लल जाता
मानिंद-ए-शम्मा-मजलिस शब अश्क-बार पाया
'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की
मुँह तका ही करे है जिस तिस का
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो
यार ने हम से बे-अदाई की
यार मेरा बहुत है यार-फ़रेब
यारो मुझे मुआफ़ रखो मैं नशे में हूँ
ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था
रंज खींचे थे दाग़ खाए थे
रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं
रात गुज़रे है मुझे नज़अ में रोते रोते
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना
लड़ के फिर आए डर गए शायद
वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक
वाँ वो तो घर से अपने पी कर शराब निकला
वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया
शहर से यार सवार हुआ जो सवाद में ख़ूब ग़ुबार है आज
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