रविवार, 7 अगस्त 2016

शकील बदायुनी की 66 गजलें



शकील बदायुनी

  • 1916-1970
  • मुम्बई
Editor Choiceचुनिंदा Popular Choiceलोकप्रिय
ग़ज़लश्रेणी
अब तक शिकायतें हैं दिल-ए-बद-नसीब से
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
अभी जज़्बा-ए-शौक़ कामिल नहीं है
आँख से आँख मिलाता है कोई
आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
इक इक क़दम फ़रेब-ए-तमन्ना से बच के चल
इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
उन से उम्मीद-ए-रह-नुमाई है
उनके बग़ैर हम जो गुलिस्ताँ में आ गए
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
क़स्र वीरान हुआ जाता है
किसी को जब निगाहों के मुक़ाबिल देख लेता हूँ
कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
कोई आरज़ू नहीं है कोई मुद्दआ नहीं है
ख़ुश हूँ कि मिरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
ग़म से कहाँ ऐ इश्क़ मफ़र है
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
ग़म-ए-हयात भी आग़ोश-ए-हुस्न-ए-यार में है
चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
जज़्बात की रौ में बह गया हूँ
जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं
ज़मीं पर फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
जादा-ए-इश्क़ में गिर गिर के सँभलते रहना
ज़िंदगी उन की चाह में गुज़री
ज़िंदगी का दर्द ले कर इंक़िलाब आया तो क्या
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है
ज़ौक़-ए-गुनाह ओ अज़म-ए-पशेमां लिए हुए
तक़दीर की गर्दिश क्या कम थी इस पर ये क़यामत कर बैठे
तम्हीद-ए-सितम और है तकमील-ए-जफ़ा और
तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
तुम ने ये क्या सितम किया ज़ब्त से काम ले लिया
दिल के बहलाने की तदबीर तो है
दिल मरकज़-ए-हिजाब बनाया न जाएगा
दुनिया की रिवायात से बेगाना नहीं हूँ
न पैमाने खनकते हैं न दौर-ए-जाम चलता है
नज़र से क़ैद-ए-तअय्युन उठाई जाती है
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
निगाह-ए-नाज़ का इक वार कर के छोड़ दिया
नियाज़ ओ नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती
नुमायाँ दोनों जानिब शान-ए-फ़ितरत होती जाती है
पहलू में दर्द-ए-इश्क़ की दुनिया लिए हुए
पैहम तलाश-ए-दोस्त मैं करता चला गया
फिर उट्ठी दिल में इक मौज-ए-शबाब आहिस्ता आहिस्ता
बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी अगर उन्हें पेश-ओ-पस नहीं है
बहार आई किसी का सामना करने का वक़्त आया
बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की
मिरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
मिरी ज़िंदगी है ज़ालिम तिरे ग़म से आश्कारा
मुझ को साक़ी ने जो रुख़्सत किया मय-ख़ाने से
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मौसम-ए-गुल साथ ले कर बर्क़ ओ दाम आ ही गया
ये ऐश-ओ-तरब के मतवाले बे-कार की बातें करते हैं
रौशनी साया-ए-ज़ुल्मात से आगे न बढ़ी
लम्हा लम्हा बार है तेरे बग़ैर
ला रहा है मय कोई शीशे में भर के सामने
वजह-ए-क़द्र-ओ-क़ीमत-ए-दिल हुस्न की तनवीर है
वो हम से दूर होते जा रहे हैं
शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़्साने का
शिकवा-ए-इज़्तिराब कौन करे
शिकवे तिरे हुज़ूर किए जा रहा हूँ मैं
सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं
हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त छुपा रहा हूँ मैं
हम उन की अंजुमन का समाँ बन के रह गए
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