खतरनाक समय से जिरह करती कविताएँ----
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हम विडम्बनाओं से भरे खतरनाक समय से गुजर रहें हैं,यह समय बगीचे से फूल तोड़कर माला बनाने का नहीं है,न ही किसी सुंदर चित्र में कृत्रिम रंग भरने का समय है,यह समय है,समझने और समझाने का,
"रंजिता सिंह फ़लक" की कविताएं इसी खतरनाक समय से मनुष्य को बचाने की कोशिश करती हैं,इनकी यह कोशिश है कि विडम्बनाओं से भरे समय को लोग समझे औऱ अपने हक के लिए लड़ने के लिए जागरूक हों,अपने आसपास के लोगों को सतर्क औऱ सचेत करे.
कविता हर मनुष्य के भीतर रहती है और उसकी अनुभूतियों को भीतर ही भीतर बहाती रहती है जो इस बहती धारा को शब्दों में बांधकर कागज में उतार देता है वह कवि कहलाने लगता है.
"रंजिता सिंह" अपने भीतर बहती अनुभूतियों को आंदोलन की तरह लेती हैं और इसे प्रभावी तरह से शब्दों के माध्यम से व्यक्त करती हैं,वह चाहती हैं कि हर मनुष्य इस खतरनाक समय से बहस करे,
अपनी आवाज उठाये औऱ एक संवेदनशील समाज का निर्माण करें,औऱ अपने भीतर बह रही अनुभूतियों को रचनात्मक साहस के साथ व्यक्त करे,क्योंकि कविता में इसे सरलता से व्यक्त किया जा सकता है.
"रंजिता सिंह" की कविताएं आत्मकुंठा के दौर से गुजर रहे मनुष्य को बचाती हैं.
आज के दौर में जो हो रहा है और जो होने वाला है,इनकी कविताएं इसकी पड़ताल करती है औऱ
समाज,राजनीति और रुढ़िवादी मानसिकता की परतें खोलकर वास्तविक सच को उजागर करती हैं
इन कविताओं में विलाप नहीं है बल्कि मनुष्य की मानसिकता को सचेत औऱ जागरूक बनाने का सार्थक प्रयास हैं.
साहित्यकार "रंजिता सिंह"
ऐसे ही सच्ची और पारदर्शी विचारों को सलीके से व्यक्त की पक्षधर हैं,
इसीलिए इनकी कविताओं की भाषा सरल और सहज है जो
आम पाठक को प्रभावित करती हैं,
इनकी कविताओं को पढ़तें समय अपने होने और कुछ सोचने की अनुभूति होती है,
औऱ शून्य हो रहे सामाजिक जीवन को समझने की प्रेरणा देती हैं.
"रंजिता सिंह"की कविताएं लच्छेदार बातों और हवा हवाई नारों को सिरे से खारिज करती हैं औऱ मनुष्य की चेतना को जीवित रखने का हर संभव प्रयास करती हैं.
इनकी कविताओं में गहरापन है, औऱ जीवन के बहुत सारे अनुभव भी मौजूद हैं.
कविताएँ पठनीय औऱ प्रभावशाली हैं.
हार्दिक बधाई औऱ उज्जवल भविष्य की
शुभकामनाएं----
"ज्योति खरे"
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शर्मनाक हादसों के गवाह
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हम जो हमारे समय के
सबसे शर्मनाक हादसों के
चश्मदीद गवाह लोग हैं
हम जो हमारे समय की
गवाही से मुकरे
डरे ,सहमें मरे से लोग हैं
हमारे माथे
सीधे सीधे
इस सदी के साथ हुई
घोर नाइंसाफी
को चुपचाप देखने का
संगीन इल्जाम है
हमने अकीदत की जगह
किये हैं सिर्फ और सिर्फ
कुफर
हमने अपने समय के साथ
की है दोगली साज़िशें .
हमने अपने हिस्से की
जलालत
पोंछ ली है
पसीने की तरह
और घूम रहे हैं
बेशर्म मुस्कुराहटों के साथ
दोहरी नैतिकता लिए
हम सिल रहें हैं
चिथड़े हुए
यकीं के पैरहन और
उदासियों ,मायूसियों और
नाकामियों के लिहाफ
की ढ़क सकें
अधजले सपनों के चेहरे
हमने अपने होठों पर
जड़ ली है
एक बेगैरत चुप्पी
बड़ी हीं बेहय़ायी से
दफना दी है
ज़िन्दा सवालों की
पूरी फेहरिस्त
हमने अपनी तालू पर
चिपका लिए हैं
चापलूसी के गोंद
और सुखरू हो चले हैं
कि हमने सीखा दी है
आने वाली नस्लों को
एक शातिराना चुप्पी
हम ठोंक -पीट कर
आश्वस्त हो चले हैं कि
मर चुके सभी सवाल
पर हम भूल गए हैं कि
असमय मरे लोगों की तरह
असमय मरे सवाल भी
आ जाते हैं
प्रेत योनि में
और भूत -प्रेत की तरह हीं
निकल आते हैं
व्यवस्था के मकबरों से
और मंडराने लगते हैं
चमगादड़ों की तरह
हमारी चेतना के माथे पर
हम भूल जाते हैं कि
कितनी भी चिंदी- चिंदी कर
बिखेर दें
तमाम हादसों के दस्तावेज
वे तैरते रहते हैं
अंतरिक्ष में
शब्दों की तरह
हम भूल जाते है कि
शब्द नहीं मरते ..
वे दिख जाते हैं
जलावतन किये जाने के बाद भी
वे दिखते रहते हैं
हमारे समय के दर्पण में
जिन्हें हम अपनी
सहुलियत,महत्वकांक्षाओं ,
और लोलुपताओं
के षडयंत्र में
दृष्टि-दोष कह
खारिज कर देते हैं .
हम जो हमारे समय की
सबसे शर्मनाक हादसों के
चश्मदीद गवाह लोग हैं ---
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होना अपने साथ---
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पीले पत्तों से
बीमार दिन में भी
हरे सपने
आकर टंग जाते हैं
मन की सुखती सी
खुरदुरी डाल पर
और वहीं ख्वाहिशों की
छोटी सी गौरया
फुदकती है
चोंच मारती है ..
सपनों के अधपके फलों पर
वहीं नीले से दिन की
आसमानी कमीज पहने
निकलता है कोई
तेज धूप में
सच का आईना
एकदम से चमकता है
और चुभते हैं
कई अक्स माज़ी के
और नीला दिन
तब्दील हो जाता है
सुनहरी सुर्ख शाम में
कुछ रातरानी और
हरसिंगार
अंजुरी भर लिये
ठिठकता है
वक्त का एक छोटा सा
हसीं लम्हा
और एकदम उसी पल
खिल उठता है पूरा चाँद
किसी याद सा
देखती हूँ
दूर तक पसरती
स्याह रात
तुम्हारी बाँहों की तरह
बीमार पीले पत्तों से दिन
हो जाते हैं
दुधिया चाँदनी रात
सच हीं है
उम्मीदें बाँझ नहीँ होती
वे जन्मती रहती हैं
सपने
उम्मीद खत्म होने की
आखिरी मियाद तक
ठीक वैसे
जैसे जनती है
कोई स्त्री
अपना पहला बच्चा
रजोवृति के आखिरी सोपान पर----
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बिसराई गई बहनें और भुलाई गई बेटियां---
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बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
नहीं बिसार पातीं मायके की देहरी
हालांकि जानती हैं
इस गोधन में नहीं गाए जाएँगे
उनके नाम से भैया के गीत
फिर भी
अपने आँगन में
कूटती हैं गोधन
गाती हैं गीत
अशीषती हैं बाप भाई जिला-जवार को
और देती हैं
लंबी उम्र की दुआएँ
बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
हर साल लगन के मौसम में
जोहती हैं
न्योते का संदेश
जो वर्षों से नहीं आए
उनके दरवाज़े
फिर भी
मायके की किसी
पुरानी सखी से
चुपचाप बतिया कर
जान लेती हैं
कौन से
भाई-भतीजे का
तिलक-छेंका होना है?
कौन-सी बहन-भतीजी की
सगाई होनी है?
गाँव-मोहल्ले की
कौन-सी नई बहू सबसे सुंदर है
और कौन सी बिटिया
किस गाँव ब्याही गई है?
बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
कभी-कभी
भरे बाजार में ठिठकती हैं
देखती हैं बार-बार
मुड़कर
मुस्कुराना चाहती हैं
पर
एक उदास खामोशी लिए
चुपचाप
चल देती हैं घर की ओर
जब
दूर का कोई भाई-भतीजा
देखकर भी फेर लेता है नज़र
बिसराई गई बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
अपने बच्चों को
खूब सुनाना चाहतीं हैं
नाना-नानी
मामा-मौसी के किस्से
पर
फिर संभल कर
बदल देतीं हैं बात
और सुनाने लगतीं हैं
परियों और दैत्यों की कहानियां----
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उदास होना अपने वक्त की तल्खियों पर---
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कांपती सी प्राथनाओं में उसने मांगी
थोड़ी- सी उदासी
थोड़ा-सा सब्र
और
ढ़ेर सारा साहस
अपने अन्दर की आग को
बचाये रखने के लिए
ज़रूरी है
अपने वक्त की तल्खियों पर
उदास होना
उन लोगों के लिए
उदास होना
जो बरसों से खुश नहीं हो पाये
उनके लिए उदास होना
ज़िन्होने
हमारे हक की लड़ाई में
खो दी जीवन की सारी खुशियां
ज़िन्होने गुजार दिये
बीहड़ो में जीवन के
जाने कितने वसंत
ज़िन्होने नहीं देखे अपने
दूधमुंहें बच्चे के
चेहरे
नहीं सुनी उनकी
किलकारियां ,
वो बस सुनते रहे
हमारी चीखें
,हमारा आर्तनाद
और हमारा विलाप ,
उन्होंने नहीं थामीं
अपने स्कूल जाते बच्चे की
उंगलियां
उन्होंने थामे
हमारे शिकायत के
पुलिन्दे
हमारी अर्जियां ..
किसी शाम घर में
चाय की गर्म
चुस्की के साथ
वे नहीं पूछ पाये
अपनों का हाल-चाल ..
वो बस पूछते रहे
सचिवालय,दफतर ,थानों में
हमारी रपट के जवाब ..
कभी चांदनी अमावस या
किसी भी पूरी रात
वे नहीं थाम सकें
अपनी प्रिया के प्रेम का
ज्वार
उन्होंने थामें रखी
हमारी मशालें
हमारे नारे
और हमारी बुलंद
आवाज़
वे ऋतुओं के बदलने पर भी
नहीं बदले ,
टिके रहे
अडिग संथाल के पठार या
हिमालय के पहाड़ों की तरह
हर ऋतु में उन्होंने सुने
एक हीं राग
एक हीं नाद ,
वो सुनते रहे
सभ्यता का शोक गीत .
उबलता रहा उनका लहू
फैलते रहे वे
चाँद और सूरज की किरण की तरह
और पसरते रहे
हमारे दग्ध दिलों पर
अंधेरे दिनों
सुलगती रातों पर
और भूला दिये गए
अपने हीं वक्त की गैर जरूरी
कविता की तरह
वे सिमट गए घर और चौपाल के
किस्सों तक
नहीं लगे उनके नाम के शिलालेख
नहीं पुकारा गया उन्हें
उनके बाद
बिसार दिया गया
उन्हें और उनकी सोच को
किसी नाजायज बच्चे की तरह
बन्द कर लिए हमने
स्मृतिओं के द्वार
जरूरी है थोड़ी -सी उदासी
कि खोल सकें
बन्द स्मृतियों के द्वार
जरूरी है थोड़ी सी उदासी
कि बचाई जा सके
अपने अन्दर की आग
जरूरी है थोड़ा -सा सब्र
हमारे आस - पास घटित होते
हर गलत बात पर
जताई गई
असहमति, प्रतिरोध और
भरपूर लड़ी गई लड़ाई के बावजूद
हारे -थके और चुक-से जाने का दंश
बरदाश्त करने के लिए
और बहुत जरूरी है
थोड़ा सा साहस
तब
जब हम हों नज़रबन्द
या हमें रखा हो युद्धबन्दी की तरह
आकाओं के रहम पर
बहुत जरूरी है थोड़ा साहस
कि कर सकें जयघोष
फाड़ सकें अपना गला
और
चिल्ला सकें
इतनी जोर से
कि फटने लगे धरती का सीना
और तड़क उठें
हमारे दुश्मनों के माथे की नसें
कि कोई बवण्डर
कोई सुनामी तहस-नहस कर दें
उनका सारा प्रभुत्व ..
बहुत ज़रूरी है ढ़ेर सारा साहस
तब जबकि हम जानते हैँ
हमारे सामने है
आग का दरिया
और हमारा अगला कदम हमें
धूँ- धूँ कर जला देगा
फिर भी
उस आग की छाती पर
पैर रखकर
समन्दर सा उतर जाने का
साहस बहुत ज़रूरी है |
जरूरी है बर्बर
और वीभत्स समय में
फूँका जाये शंखनाद
गायए जाएँ
मानवता के गीत
और लड़ी जाए
समानता और नैतिकता की लड़ाई
तभी बचे रह सकते हैं
हम सब
और हमारे सपने
हम सब के बचे रहने के लिए
बहुत जरूरी है
थोड़ी -सी उदासी ,
थोड़ा -सा सब्र और
ढ़ेर सारा साहस----
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प्रेम बहुत दुस्साहसी है
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प्रेम बहुत दुस्साहसी है
पार कर लेता है
डर की सारी हदें
वर्जनाओं के समन्दर
अन्देशाओं के पर्वत
और ढ़ीठ की तरह
टिका रहता है
अपनी जगह
कभी ना उखाड़ कर
फेंके जाने वाले
कील की तरह
य़ा फिर एक
धुरी की तरह
और नाचता रहता है
अपने हीं गिर्द---
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मौन
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तुमने
जब से
मेरा बोलना
बन्द किया है ..
देखो
मेरा मौन
कितना चीखने लगा है
.गूँजने लगी है
मेरी असहमति
और ...
चोटिल हो रहा है
तुम्हारा दर्प----
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परिचय
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रंजिता सिंह 'फ़लक'
जन्मभूमि- छपरा (बिहार)
शिक्षा- रसायन शास्त्र से स्नात्कोत्तर
* देश के 21 राज्यों में विगत तीन वर्षों से प्रसारित साहित्यिक पत्रिका 'कविकुंभ' की संपादक और प्रकाशक l
*खबरी डॉट कॉम न्यूज पोर्टल की सम्पादक और प्रोपराईटर l
महिलाओं के पक्षधर संगठन
'बिईंग वूमेन' की राष्ट्रीय अध्यक्ष।
* शायरा, लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता ।
प्रकाशन--
देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्पेशल न्यूज, परिचर्चा, रिपोर्ताज, गीत-गजलों का विगत दो दशकों से अनवरत प्रकाशन।
दूरदर्शन ,आकाशवाणी और चर्चित चैनल से कविता पाठ
किताबें
शब्दशः कविकुंभ - बातें कही अनकही |
कविता संग्रह-
"प्रेम में पड़े रहना"
शीघ्र प्रकाश्य किताब "आलोचना की प्रार्थना सभा " में कविताओं पर बात आलोचक समीक्षक शहंशाह आलम द्वारा .
उपलब्धियां :~
*हरिद्वार लिट फेस्ट में गुरुकुल कांगरी विश्वविधालय द्वारा सम्मानित .
*2019 में अमर भारती संस्थान द्वारा वर्ष 2018 का 'सरस्वती सम्मान ' |
*2019 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 'शताब्दी सम्मान
* बिहार दूरदर्शन, देहरादून दूरदर्शन, आकाशवाणी, दिल्ली आकाशवाणी, लखनऊ दूरदर्शन केंद्रों पर अनेक परिचर्चाओं में सहभागिता, कविता पाठ।
* 2017 में कोलकाता, राजभाषा के सौजन्य से 'नारायणी' सम्मान।
* 2016 में दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित, वाणी प्रकाशन के 'शब्द गाथा' संकलन में देश के सर्वश्रेष्ठ समीक्षकों के रूप में चयनित एवं सम्मानित ।
फोन संपर्क~ 9548181083
ई-मेल संपर्क -
kavikumbh@gmail.com
Khabrinews@gmail.com
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