शनिवार, 10 जुलाई 2021

मुकेश प्रत्‍यूष की कुछ कविताएं


 बारिश : कुछ कविताएं  / मुकेश प्रत्‍यूष 



 उत्‍तराखंड में बरसात 


(1)    

बादलों का घर है यह 

कौन रोक सकता हैं यहां 

लगातार

गरजने और बरसने से उसे

बस फटे नहीं


(2)

रोका नहीं जा सकता कहीं भी 

बादलों को

जहां चाहें,  जब चाहें गरजें, बरसे,  फटें, गिरायें बिजली 

दें जीवन या लें लील


(3) 

हो रही है बारिश खूब 

आए हैं निकल मेढक

महीनों से लगाए रट पिऊ की 

शांत पटाया है  पपीहा

सोचता हूं नाच रहे होंगे जरूर 

मोर कहीं जंगल में 

यहां तो 

झिुगुर मिला रहे हैं सुर

बूंदों की अनहद नाद से

रही हैं गूंज आवाजें 

कभी सितार, कभी नगाड़े की तरह

अलग-अलग वाद्य, आवाजें हैं अलग-अलग 

सरसराती बांस के झुरमुट से 

फुत्‍कारती हवा 

मिलते ही मौका

लेती है आजमा 

दो-चार दांव 

चीड़ के पेड़ों के  साथ  भी 


(4)

उठकर धरती से ऊपर भी बादल 

रहते हैं टकराते 

कभी आपस में कभी निर्विकार-शांत खड़े पहाड़ों के साथ  

जाते हैं भूल बने हैं पानी से 

टूटे तो बनेंगे पानी ही 


(5) 

सोचते नहीं बादल 

बरसना कहां हैं गरजना कहां

इतना भी बनना क्‍या भारी 

संभले वजन नहीं अपना 

उठे हैं जहां से गिरे वहीं जाकर 


(6) 

नहीं आतीं केवल बूंदे

बारिश के साथ

फटते हैं कभी बादल

आ जाता है सैलाब

टूटते हैं जब पहाड़

गिरता है मलवा ढेर सारा 

बाढ़ तो रहती ही है आती-जाती

डूबते-बहते हैं शहर-गांव

जब भी अच्‍छे से धुलता है आसमान

पसर जाती है गंदगी ढेर सारी 

मेरे घर-आंगन में 

















बसेरिया में बारिश


उमस है बहुत 

हो रही है बारिश 

अच्‍छी 

रात से 

लपटों ने बदल लिया है रंग 

लाल नहीं 

दिख रही हैं नीली मिली हरे से 

होगा बैठा धुंआ यहीं कहीं छानी-छप्‍पर पर 

ताक मे

बिना घुंटे 

सांस कर रही आवाजाही 

रही होगी बिसुर 

आदी बैठने की सिर पर 

धूल श्‍यामा

गिर गड्ढे में कहीं 

काम पर हैं पाली के लोग

घुसे हैं निकालने  

आग से कोयला


(बसेरिया : झारखंड का एक गांव जहां कोयला खदान है और जमीन में आग लगी हुई है।  एक्टिव फायर प्रोजेक्‍ट के तहत वहां आग के बीच से कायेला निकाला जाता है।)

 



बारिश 


(1)

झमाझाम हुई है बारिश 

पानी है 

घुटने भर 

चौकी पड़े खेतों में 

उखाड़ती हैं मोरी, मुट्ठियाती हैं 

औरतें रोप रही हैं धान

बोएंगी भर खेत सपने 

कोठी भर आशा 

झुकी हैं कमर से 

तैरते हैं रह-रह कर रोपनी के गीत 


(2)

धनरोपनी कर लौटी औरतें 

रगड़ती हैं पैर

ओरहानी की धार में  

छोड़ना है बाहर ही चौखट के 

यादों की मिट्टी

चली आई है लिपटी  कोसों दूर से


(3)

कदई में हेंगे से

मिट्टी में मिलते हैं मिट्टी के ढेले 

सिर से चूते पानी में 

बहती नहीं 

जमती हैं 

उम्‍मीदें 

फिर एक बार   


(चौकी देना :मिट्टी के ढेलों को तोड़कर खेत समतल करना) 























कागज की नाव 


बच्‍चे नाव चला रहे हैं

लादकर मांगे-जुटाए सिक्‍के

हिलती-डोलती चलती है

कागज की नाव 

मुड़ती दायें-बाएं 

होती निर्भर केवल हवा पर रफ्तार 

तो जाती जरूर कुछ दूर और

हिला-हिलाकर पानी 

बच्‍चे उठा रहे हैं  हल्‍फें

करें क्‍या

लगी है पूंजी दांव पर


(2)

देखे मैंने सपने 

तैरते कागज की नाव 

की कोशिश 

बनाया जतन से

चलाया बाद रूकने के बारिश  

दूर कहीं गई नहीं 

पलटी और डूब गई 

कागज की नाव  





शून्य से शुरू करते हुए


शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा 

फिर से

सोचता हूं-

क्यों लौट गयी थी तुम

अकेली

साथ-साथ दूर तक चलकर


अच्छी तरह याद है मुझे

        असमय हुई बारिश के गुजर जाने के बाद

खुले में आकर

तुम्हारी बायीं हथेली पर

तुम्हारी ही दी कलम से हस्ताक्षर किया था मैंने-मुकेश प्रत्यूष

और उसके ठीक नीचे

लिखा था तुमने अपना नाम


ठीक उसी क्षण

सात-सात रंगों में बांटती सूरज की रोशनी को 

न जाने कहां से टपक गयी थी-एक बूंद

लिखे हमारे नामों के उपर


साक्षी है : आकाश

साक्षी हैं : धरती और दिशाएं

कि कुछ कहने को खुले थे तुम्हारे होठ

किन्तु रह गये थे कांप कर

भर आयी थीं आंखें

फिर अचानक भींच कर मुठ्ठी, मुडकर भागती चली गयी थी तुम

और विस्मित-सा खड़ा मैं रह गया था

यह तय करता - क्या और क्यों ले गयी बंधी मुठ्ठी में

हमारा नाम

या वह बूंद जो साक्षी था हमारी सहयात्रा का

शून्य से शुरू करते हुए


 



मुकेश प्रतयूष

3G, जानकी मंगल इंक्‍लेव, पूर्वी बोरिंग कनाल रोड, पंचमुखी मंदिर के निकट, पटना 800001  

ईमेल: mukeshpratyush@gmail.com         मोबइइल : 9431878399/9435499155

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